मौसमी फूल वे फूल होते हैं जो अपना जीवन काल (बोआई से लेकर बीज बनने तक) एक वर्ष याएक ही मौसम में पूरा कर लेते हैं। मौसमी फूल गृहवाटिकाओं, उद्यान, बगीचों, ऑफिस, इत्यादि जगहों को सुंदर एवं मनमोहक बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गमलों तथा क्यारियों में लगाने के अलावा ये व्यावसायिक खेती के लिए भी उगाये जाते हैं, क्योंकि इन फूलों का उपयोग कट फ्लावर, ड्राई फ्लावर, माला बनाने, पूजा एवं हैंगिग बास्केट में भी किया जाता है। इन फूलों का बीज उत्पादन हमारे देश में पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, और झारखंड में किया जा रहा है। लगभग 600-800 हेक्टेयर भूमि पर मौसमी फूलों का बीज उत्पादन कार्य भारत में चल रहा है।
बीज उत्पादन के लिए दो किस्मों के बीच उचित दूरी रखनी जरूरी है ताकि उनसे शुद्ध बीज प्राप्त किया जा सके। ऐसा न करने पर हवा या कीट द्वारा एक किस्म के परागकण दूसरी किस्म पर पहुँच जाते हैं जिससे किस्मों की शुद्धता नहीं रह पाती है। स्व परागित फूलों के लिए यह दूरी 5-10 मी. आंशिक पर-परागित फूलों के लिए 250 मी. तथा पर-परागित फूलों के लिए 500-1000 मी. रखनी चाहिए। भारत में अब अधिक उपज तथा अच्छे गुणों वाले अनेक उन्नतशील किस्म उपलब्ध हैं। बीज उत्पादन के लिए बीजों का चयन आनुवांशिक बीज या आधार बीज या प्रमाणित बीज, में से करना चाहिए।
स्व परागित फूल: बालसम, स्वीट पी, ल्यूपिन, सल्विया, कार्नेशन, स्वीट विलियम, जिप्सोफिला, स्पोनेरिया, एस्टर।
आंशिक पर परागित फूल: एन्टरहिनम, एस्टर, डहेलिया, एजरेटम, कार्नफ्लावर, गेंदा, बरबिना, लार्कस्पर, फ्लाक्स, पैंजी, पिटुनिया
पर-परागित फूल: स्वीट एलाइसम, पिटुनिया, कोचीया, कॉसमास, रुड्वेकिया, कैलेंडुला।
मौसमी फूलों की बीज उत्पादन के लिए दोमट, बलुई दोमट या चिकनी दोमट मिट्टी अच्छी होती है, जिसका पी.एच. मान 6.5 से 7.5 होता है। जहाँ बीज उत्पादन करना हो वहाँ जल न जमता हो या जल निकास की समुचित व्यवस्था हो। एक ही फूल को एक खेत या जमीन पर प्रत्येक वर्ष नहीं लगाना चाहिए। कुछ पौधों में यह गुण होता है कि वे अपने बीज जमीन पर गिरा देते हैं, जो अगले वर्ष जन्म कर उन्हीं पौधों में मिल कर परागित करते हैं तथा बीजों को दूषित करते हैं।
बीज उत्पादन की फसलों से खरपतवार, दूसरी जाति या दूसरी किस्म के पौधे और रोगी पौधों की पहचान कर निकाल देने की क्रिया को रोगिंग या अवांछनीय पौधों का निष्कासन कहा जाता है। रोगिंग फूल खिलने से पहले ही करना अनिवार्य है अन्यथा वे अन्य पौधों को परागित कर बीज की किस्मों को खराब कर देते हैं। खरपतवार के बीज फसल के बीज की भौतिक शुद्धता को कम करते हैं तथा फसल उपज पर कुप्रभाव डालते हैं। फसल की अवधि में रोगिंग तीन-चार बार करना चाहिए।
खेत को 3-4 बार जुताई करके पाटा लगाकर समतल कर लेना चाहिए। सिंचाई की व्यवस्था के अनुसार ही उचित आकार की क्यारियाँ बनानी चाहिए। पुरानी फसल के अवशेष और खरपतवारों को खेत से चुन कर निकाल देना चाहिए।
मौसमी फूलों के बीज उत्पादन के लिए प्रति एकड़ 8-10 टन गोबर की सड़ी खाद, 100 किलो यूरिया, 100 किलो सिंगल सुपर फास्फेट तथा 60-75 किलो म्यूरेट ऑफ़ पोटाश का व्यवहार करना चाहिए। यूरिया की आधी मात्रा, सिंगल सुपर फास्फेट एवं म्यूरेट ऑफ़ पोटाश की पूरी मात्रा रोपाई के एक दिन पूर्व खेत में मिलानी चाहिए। यूरिया की शेष आधी मात्रा का प्रयोग खड़ी फसल में निकाई गुड़ाई के एक माह बाद कर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए तथा सिंचाई करनी चाहिए। सूक्ष्म पोषक तत्व खाद मिश्रण 4-5 किलो प्रति एकड़ की दर से मिलाने से फसलों की गुणवत्ता में सुधार होता है।
क्र.सं. |
फूल |
पौधा लगाने का समय |
दूरी (सें.मी.) |
1 |
एक्रोक्लाइनम |
नवम्बर |
20 x 20 |
2 |
स्वीट एलाइसम |
नवम्बर |
20 x 20 |
3 |
एन्टरहिनम |
नवम्बर |
30 x 40 |
4 |
आर्कटोटिस |
अक्टूबर, नवम्बर |
40 x 40 |
5 |
कैलेन्डुला |
नवम्बर |
30 x 30 |
6 |
एस्टर |
अक्टूबर, नवम्बर |
30 x 45 |
7 |
कार्न फ्लावर या स्वीट सुल्तान |
अक्टूबर, नवम्बर |
30 x 30 |
8 |
एनुएल क्राइसेन्थिमम |
अक्टूबर, नवम्बर |
45 x 45 |
9 |
कास्मीया (सभी रंग) |
अक्टूबर, नवम्बर |
40 x 50 |
10 |
डहेलिया |
अक्टूबर, नवम्बर |
45 x 45 |
11 |
लार्कस्पर |
अक्टूबर, नवम्बर |
20 x 30 |
12 |
डायंथस |
अक्टूबर, नवम्बर |
30 x 30 |
13 |
स्वीट विलियम |
अक्टूबर, नवम्बर |
20 x 30 |
14 |
जिप्सोफिला |
अक्टूबर, नवम्बर |
30 x 30 |
15 |
हेलीक्राइसम |
अक्टूबर, नवम्बर |
30 x 30 |
16 |
कैन्डीटफ्ट |
अक्टूबर, नवम्बर |
20 x 30 |
17 |
मेसेम्बेन्थम (आइस प्लांट) |
अक्टूबर, नवम्बर |
15 x 20 |
18 |
पिटुनिया |
अक्टूबर, नवम्बर |
25 x 30 |
19 |
फ्लाक्स |
अक्टूबर, नवम्बर |
20 x 30 |
20 |
सालविया |
अक्टूबर, नवम्बर |
30 x 45 |
21 |
नस्टरशियम |
अक्टूबर, नवम्बर |
30 x 30 |
22 |
बरबीना |
अक्टूबर, नवम्बर |
30 x 30 |
23 |
पैन्जी |
अक्टूबर, नवम्बर |
25 x 30 |
24 |
कैलिफोनियन पॉपी (पीला) |
अक्टूबर, नवम्बर |
25 x 30 |
25 |
सार्ली पापी |
अक्टूबर, नवम्बर |
25 x 30 |
26 |
स्वीट पी |
अक्टूबर, नवम्बर |
50 x 50 |
27 |
सिनरेरिया |
अक्टूबर, नवम्बर |
50 x 50 |
28 |
सेपोनेरिया |
अक्टूबर, नवम्बर |
20 x 30 |
29 |
क्लाकिया |
अक्टूबर, नवम्बर |
30 x 30 |
30 |
लाइनेरिया |
अक्टूबर, नवम्बर |
20 x 30 |
31 |
हॉलीहॉक |
अक्टूबर, नवम्बर |
30 x 45 |
32 |
अफ्रीकन गेंदा |
अक्टूबर |
30 x 45 |
33 |
फ्रेन्च गेंदा |
अक्टूबर |
20 x 30 |
34 |
एजरेटम |
अक्टूबर |
20 x 30 |
35 |
गजेनिया |
अक्टूबर |
30 x 45 |
36 |
क्लीमोम |
अक्टूबर और फरवरी, मार्च |
30 x 50 |
37 |
अमरैन्थस |
मार्च |
30 x 45 |
38 |
गैलार्डिया |
मार्च |
25 x 30 |
39 |
गोम्फ्रेना |
मार्च, जुलाई |
30 x 45 |
40 |
पोर्टुलाका |
मार्च, अक्टूबर |
15 x 20 |
41 |
जिनिया |
मार्च-जून |
30 x 45 |
42 |
सिलोसिया |
फरवरी-जून |
15-45 x 45 |
43 |
सूर्यमुखी |
फरवरी-जून |
45 x 45 60 x 75 |
44 |
वालसम |
फरवरी-जून |
20 x 30 |
45 |
टिथोनिया |
जून-जुलाई |
40 x 50 |
46 |
कोचिया |
फरवरी-अप्रैल |
45 x 45 |
47 |
तोरोनिया |
जून-जुलाई |
15 x 20 |
48 |
कासमास (पीला) |
मार्च-अप्रैल |
30 x 30 |
सिंचाई की आवश्यकता मिट्टी के प्रकार एवं मौसम पर निर्भर करती है। भारी मिट्टी की अपेक्षा हल्की मिट्टी में सिंचाई की आवश्यकता ज्यादा होती है। गर्मी में सिंचाई की आवश्यकता ज्यादा होती है एवं जाड़े में कम। अत: मिट्टी में पर्याप्त नमी बनाए रखनी चाहिए, परन्तु ध्यान रखें पानी खेत या क्यारियों में न जमने पाए।
फूलों पर बीज के सम्पूर्ण रूप से पकने पर ही उसकी तोड़ाई या निष्कासन करना चाहिए। कुछ बीज पकने पर पौधे में ही रहते हैं, उसे निकालना आसान होता है, जैसे – कैलेन्डुला, गेंदा, ल्यूपीन, पॉपी, कासमॉस, डहेलिया, सूर्यमुखी, एक्रोक्लाईनम, जिनिया, सालविया, स्वीट पी, फ्लाक्स, इत्यादि। कुछ बीजों में पकने पर उड़ने या फटने की प्रवृति होती है और वे जमीन पर गिर जाते हैं जैसे – किलयोम, कोचिया, आर्कटोटिस, गजेनिया, बालसम, एंटरहिनम, सिलोशिया, इत्यादि। ऐसे बीजों को पकने से कुछ दिन पहले ही पौधों से निष्कासन कर अच्छी तरह सुखा कर रखना चाहिए। बीजों को इतना सुखाना चाहिए कि बीज में नमी 10-12% तक रहे। सूखने के बाद स्वस्थ बीज की छंटाई कर उसमें प्रति किलो बीज 3 ग्राम वेविस्टीन दवा मिला कर डब्बे में बंद कर रखना चाहिए।
(1) पर्णदाग: यह रोग लगने पर पत्तियों पर भूरे या काले रंग का दाग दिखाई देता है। इसकी रोकथाम के लिए डाइथेन एम-45 दवा का 3 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 7 दिनों के अंतराल पर 3-4 छिड़काव करने चाहिए।
(2) मुर्झा: मुर्झा रोग लगने पर पुरानी पत्तियाँ पीली पड़ने लगती हैं और फूलों की पंखुड़ियाँ झुक कर गिर जाती हैं। धीरे-धीरे सम्पूर्ण पौधा सूख जाता है। बीजों को ट्राइकोडर्मा हार्जियानम 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर नर्सरी में डाल कर पौधा बनाना चाहिए तथा ट्राइकोडर्मा हार्जियानम को गोबर खाद में बढ़ा कर खेतों में व्यवहार करना चाहिए।
(3) चूर्णित आसिता: इस रोग में सफेद पाउडर जैसा पूरी पत्तियों और तनों पर जम जाता है। इसकी रोक थाम के लिए कैरेथान दवा 1 मिली लीटर या सल्फेक्स दवा का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए।
(1) लाही या एफिड एवं थ्रिप्स: ये काले कीट, फूल, पत्तियों का रस चूसते हैं। इनके प्रकोप के कारण फूल और बीज की उपज में कमी हो जाती है। ये कीट कभी-कभी पौधों पर वायरस रोग को भी फैलाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए मेटासिस्टाक्स दवा का 1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए।
(2) रेड हेयरी कैटर पिलर एवं सेमी लुपर: यह कीट पत्तियों को खाकर नुकसान पहुँचाता है। कभी-कभी फूलों की कलियों को भी खाता है। इसकी रोकथाम के लिए थायोडान दवा का 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
स्त्रोत: रामकृष्ण मिशन आश्रम, दिव्यायन कृषि विज्ञान केंद्र, राँची।
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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