मौसमी फूलों में डहलिया अपने अपूर्व सौन्दर्य एवं रूप-रंग के कारण उद्यान में बरबस अपनी ओरलोगों का ध्यान खींच लेता है। अपनी अलग आकर्षक अंदाज के कारण डहलिया पुष्प-प्रेमियों के बीच महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कोई भी बाग़-बगीचा डहलिया के बिना पूर्ण नहीं कहला सकता। अत: प्रत्येक पुष्प वाटिका को सुंदर व आकर्षक बनाने के लिए ड हलिया को लगाना जरूरी समझा जाता है।
डहलिया फूल की उत्पत्ति मैक्सिको में हुई थी। स्वीडेन के वनस्पतिशास्त्री एंड्रिस गुस्तव डहल के नाम पर इसका नाम डहलिया रखा गया। डहलिया का वैज्ञानिक नाम डहलिया बेरीबेलिस है और यह कम्पोजिटी कुल का पौधा है। भारत में हम इसके फूलों को सालों भर ले सकते हैं। भारत में भी विश्वस्तरीय गुणवत्ता वाले फूल व इसके ट्यूबर का कम लागत पर उत्पादन संभव है। इसकी पैदावार बढ़ाकर हम काफी विदेशी मुद्रा आर्जित कर सकते हैं।
उपयोग: डहलिया को प्रमुखता से प्रदर्शनी के लिए, पिष्प-उद्यानों में तथा घरेलू सजावट के लिए उपयोग में लाते हैं। डहलिया के कंद, कंदों के टुकड़े, बीज एवं कट फ्लावर सभी हिस्से व्यावसायिक रूप से काफी महत्वपूर्ण हैं। भारतीय मौसम में “जायंट” नामक किस्में प्रदर्शनी के लिए सबसे उपयुक्त पायी गई हैं। इस विशेष प्रजाति की पूर्ण विकसित फूलों की लंबाई-चौड़ाई लगभग 25.4 सें.मी. तक होती है। बौनी किस्म के डहलिया को विशेषकर क्यारियों एवं बार्डर पर प्रमुखता से लगाते हैं, क्योंकि इसमें डंडों के सहारे की जरूरत नहीं पड़ती है।
डहलिया के फूलों में पाई जाने वाली विभिन्नता के आधार पर इसे दस वर्गो में विभाजित किया गया है जो इस प्रकार हैं – वाटरलिली, एनिमोन, कालरेट, फिमब्रीएट, डेकोरेटिव, बॉल, पामपॉन, कैक्टस, सेमी कैक्टस एवं अन्य प्रकार।
डहलिया की डेकोरेटिव प्रजाति के पुष्पों की पंखुड़ियाँ बहुत सघन होती हैं तथा एक-दूसरे पर छायी सी प्रतीत होती हैं। कैक्टस प्रजाति के पुष्पों की पंखुड़ियाँ कम सघन होती हैं तथा नुकीली एवं मुड़ी हुई होती हैं। पामपॉन प्रजाति अपने छोटे आकार के कारण अधिक प्रयोग में लाई जाती हैं ।
पौधों को क्यारियों में लगाते समय रंगों की विविधता का भी ध्यान रखना चाहिए। जैसे लाल के पास पीला और गहरे लाल के पास सफेद एवं सफेद के पास बैंगनी लगाते हैं। इससे क्यारियाँ बहुत ही आकर्षक लगती हैं।
डेकोरेटिव बड़ा – एमरैन्थ, अमृता डिग्निटी, मास्टरपीस, क्रॉयडॉन वाइट, क्रॉयडॉन मास्टरपीस, नस्ट्रेशियम, लिबरेटर।
मध्यम – हाउस ऑफ़ ऑरेन्ज, पीस।
छोटा – इडेनवर्ग, मेरी रिचार्ड, ट्रेंडी।
मिनिएचर – अरेबियन नाइट, डोरिश ड्यूक, लवली लुकर, लिटिल मेरमेड।
कैक्टस बड़ा – अर्बक्वीन, एल्वर्ट, द क्लोनल, रेडियो।
मध्यम – इक्लिप्स, पोलर व्यूटी, कानिवल, ब्यूडेलेयर।
छोटा – प्रेफरेंस, पिन्निक्ल, ग्रेस।
पोमपोम बड़ा – जेन लिस्टर, एस्कोट, किंडी।
मध्यम – चार्रमीस, बोनी, लिटिल डेविड।
छोटा – ग्लो, यल्लो जेम, दोरिया।
प्रसारण: डहलिया बहुवार्षिक पौधा है। अत: इसको बीज के अलावे कंदों द्वारा भी प्रवर्धित किया जाता है। परन्तु आजकल कटिंग (कर्त्तन) द्वारा प्रवर्धन ही ज्यादा प्रचलित है, जिससे अच्छे गुणों वाले फूल मिलते हैं।
कंदों से प्रसारण करते समय इसे कवकनाशी दवा, जैसे – कैप्टान 0.2% (एक लीटर पानी में 2 ग्राम) या वेविस्टीन 0.2% (1 लीटर पानी में 2 ग्राम दवा के घोल) से उपचारित कर लगाना चाहिए। कंदों से निकली हरी शाखाओं, जिसकी लंबाई करीब 7.5-10 सें.मी. हो, की कर्त्तन तैयार करते हैं। इसके लिए तेजधार वाले चाकू या ब्लेड का इस्तेमाल करते हैं। कर्त्तन को जड़ वृद्धि-सहायक हार्मोन सेरेडिक्स बी या रुटेक्स से उपचारित क्र गमलों या ऊँची क्यारियों में सड़ी पत्ती एवं मोटी बालू के मिश्रण में लगाकर रखते हैं। गमले एवं क्यारियाँ अर्द्ध छायादार स्थानों पर होने चाहिए। इनकी नमी बनाए रखने के लिए समय-समय पर पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए। कर्त्तन से जड़ों के निकलने में लगभग दो हफ्ते का समय लग जाता है। जड़ों के निकलने के उपरान्त पौधों को सावधानीपूर्वक धूपदार स्थानों में रखना चाहिए।
डहलिया को किसी भी प्रकार की मिट्टी में लगाया जा सकता है। किन्तु, यदि मिट्टी उदासीन (न अम्लीय, न क्षारीय) हो तो अच्छा होगा। थोड़ी अम्लीय मिट्टी भी डहलिया के लिए अच्छी होती है। पौधों को लगाने का स्थान खुला होना चाहिए एवं सूर्य की रोशनी उचित मात्रा में मिलनी चाहिए। छाया में लगाने पर पौधा लंबा एवं कमजोर हो जाता है। डहलिया की जड़ें अधिक गहराई तक नहीं जाती हैं। अत: इसके लिए लगभग 45 सें.मी. तक की गहरी खुदाई उपयुक्त होती है।
मैदानी क्षेत्रों में कंदों को बरसात के अंत में लगाते हैं। डहलिया को उसके आकार एवं वर्ग के आधार पर 15 सें.मी. की गहराई एवं 30-90 सें.मी. की दूरी पर लगाते हैं। बड़ी डेकोरेटिक प्रजाति की तुलना में, क्यारियों में लगाये जाने वाले छोटे डहलिया के लिए कम स्थान की आवश्यकता होती है।
खाद डालना
डहलिया के लिए 4 किलो गोबर या पत्ती की सड़ी हुई खाद प्रति वर्ग मीटर की दर से देनी चाहिए। यह सिर्फ बलुआही मिट्टी को छोड़कर सभी प्रकार की मिट्टी के लिए पूर्ण उपयोगी है। लॉन की छंटाई से प्राप्त घास का कम्पोस्ट भी बहुत उपयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त हड्डी का चूर्ण तथा पोटाश 100 ग्राम प्रति वर्ग मीटर की दर से क्यारियाँ तैयार करते समय दिया जता है। जली हुई लकड़ी की राख भी प्रति पौधा एक मुट्ठी दी जाती है। अधिक मात्रा में यूरिया खाद देने पर वह कंदों की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। सुंदर और आकर्षक डहलिया प्राप्त करने के लिए सरसों, नीम अथवा करंज की सड़ी हुई खल्ली के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
वृद्धि रोकना एवं पतला करना
शाखाओं की अनावश्यक वृद्धि को रोकना चाहिए तथा अनावश्यक शाखाओं की छंटाई करनी चाहिए। जब पौधे लगभग 25-30 सें.मी. लम्बाई के हो जाते हैं तथा 4-6 जोड़ी पत्तियाँ आ जाती हैं, तब पौधे के शीर्ष भाग को तोड़कर हटा दिया जाता है, सिर्फ कमजोर व तुरन्त के लगाए हुए पौधों को छोड़कर। पौधों की ऊपरी वृद्धि को रोकने का मुख्य उद्देश्य बगल वाली शाखाओं को बढ़ाना, पौधों को झाड़ी का रूप देना तथा फूलों का आकार बढ़ाना होता है। ये क्रियाएं डहलिया की बड़ी प्रजातियाँ जैसे – डेकोरेटिव एवं कैक्टस के लिए उपयुक्त होती हैं। इस प्रक्रिया द्वारा फूलों के खिलने के समय को भी नियंत्रित किया जाता है। बगल की शाखाएँ जब तक 10-15 सें.मी. की न हो जाएँ तब तक उसे नहीं तोड़ना चाहिए। ये सभी क्रियाएँ अच्छी शाखाओं को बचाये रखने के लिए की जाती हैं।
डंडियाँ लगाना
जब डहलिया के पौधों की अच्छी वृद्धि होने लगती है तब उसे सहारा देने के लिए डंडियों से बाँध दिया जाता है। इसके लिए बाँस की लकड़ी या लोहे की छड़ का इस्तेमाल करते हैं। पौधों को सुतली की सहायता से थोड़ा ढीला बाँधते हैं।
कलियाँ निकालना
कलियों को निकालने का मुख्य उद्देश्य अच्छी गुणवत्ता वाला फूल प्राप्त करना है। डहलिया में सामान्यत: एक शाखा में लगभग तीन कलियाँ होती हैं। केंद्र वाली मुख्य कली को छोड़कर मटर के आकार वाली अन्य दो कलियों को तोड़कर फेंक दिया जाता है। अगर मुख्य कली किसी कारणवश टूट जाए अथवा खराब हो जाए तब बगल वाली शाखाओं की कलियों को बढ़ाया जाता है। सभी कलियों को एक ही बार न तोड़कर क्रम से तोड़ना चाहिए।
सिंचाई
डहलिया को कम अतंराल पर थोड़ा-थोड़ा पानी न देकर लंबे अंतराल के बाद ज्यादा पानी देने की आवश्यकता पड़ती है। सिंचाई की सही आवश्यकता एवं उचित अंतराल मिट्टी एवं मौसम पर निर्भर करती है। वैसे पानी लगभग 5-7 दिनों के अंतराल पर ही देना चाहिए। छोटे एवं नये पौधों को कम अंतराल पर पानी की अधिक आवश्यकता होती है।
गमलों में लगाना
गमलों में डहलिया को सफलतापूर्वक उगाना, क्यारियों में उगाने से कोई विशेष भिन्न नहीं होता है। गमले में लगाने के लिए प्रति गमला एक भाग बगीचे की मिट्टी, एक भाग बालू, एक भाग पत्ती की सड़ी खाद, एक भाग गोबर की सड़ी खाद तथा ¼ भाग लकड़ी की राख व 2 चम्मच हड्डी चूर्ण का मिश्रण भरा जाता है। बड़े आकार के डहलिया के लिए 25-30 सें.मी. व्यास वाला गमला लिया जाता है। अतिरिक्त सिंचाई की आवश्यकता गमले में अधिक होती है। द्रवित खाद (गोबर की सड़ी तरल खाद) का उपयोग भी अच्छा फूल आने के लिए किया जाता है।
पाला
पौधों को पाले से बचाने के लिए परगोला या बड़े पेड़ की छाया में इस प्रकार सुरक्षित रखा जाता है जिससे कि सुबह की धूप पौधों को सीधा मिल सके।
कंदों को निकालना एवं संग्रहण
जब फूल खिलना समाप्त हो जाए तथा पत्तियाँ पीली पड़ने लगें तब पौधों को जमीन से 15-20 सें.मी. ऊपर से काट देते हैं। फिर बगीचे वाली खुरपी की सहायता से कंदों को इस प्रकार से निकाला जाता है कि वह कहीं से कट नहीं पाये। सिर्फ पूर्ण रूप से परिपक्व कंदों को ही निकालना चाहिए।
कंदों को मिट्टी से निकालने के बाद अच्छी तरह से साफ़ कर हल्की धूप या छायादार स्थानों पर रखकर सुखाना चाहिए। इसके उपरान्त इसे रोगर या सल्फर धूल से उपचारित कर ठंडे हवादार स्थानों पर बालू वाली तहों में डालकर रखा जाता है। कंदों को गर्मी से होने वाली सिकुड़न से बचाने के लिए समय-समय पर पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए। कंदों के संग्रहण का आदर्श तापमान 4-70 सेंटीग्रेड होता है।
अगर कंदों को गमले में ही छोड़ना हो, तो उसके ऊपरी भाग को काटकर, गमले को किसी छायादार स्थान पर या बड़े पेड़ की छाया में रखना चाहिए। गमले में पानी नहीं जमने देना चाहिए अन्यथा कंद सड़ जाएँगे। वर्षा में गमलों को तिरछा रखा जाता है जिससे कि ज्यादा पानी बह जाए। वर्षा में बढ़ने वाली शाखाओं को सितम्बर माह तक तोड़ते रहना चाहिए। इसके बाद की तैयारी शाखाओं का पुन: कर्त्तन के लिए इस्तेमाल किया जता है।
डहलिया में बहुत सारे कीड़ों एवं बीमारियों का प्रकोप होता है। कुछ मुख्य कीड़े एवं बीमारियाँ तथा उनकी रोकथाम के उपाय निम्न हैं:
(क) वायरस: डहलिया में वायरस का बहुत ही घातक आक्रमण होता है। इस पर प्राय: तीन प्रकार के वायरस का प्रभाव पड़ता है। इसमें पत्तियों पर हल्की पीली, हरे रंग की छल्लेदार धारियाँ बन जाती हैं एवं पौधों की वृद्धि रुक जाती है। यह हरी मक्खी द्वारा फैलती है। अन्य प्रकार के वायरस काली मक्खी एवं लाही द्वारा फैलते हैं। अत्यधिक रोगग्रस्त स्थिति में पौधों एवं फूलों की वृद्धि रुक जाती है।
इससे बचने के लिए बीमारी रहित कंदों का इस्तेमाल करना चाहिए। तथा रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए।
(ख) पाउडरी मिल्ड्यू: यह कवक द्वारा फैलती है। इसमें नयी पत्तियों एवं तनों पर गोल धारियाँ बन जाती हैं जो धीरे-धीरे पूरी पत्तियों पर फ़ैल जाती हैं और इन पर सफेद चूर्ण जमा हो जाता है। इनकी रोकथाम के लिए सल्फर धूल का 3 ग्राम/ली. पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए।
(ग) पत्ता एवं तना गलन: यह भी ड हलिया का एक मुख्य रोग है। इसमें पत्ती एवं तना गल जता है। इससे बचने हेतु डहलिया को हमेशा स्थान परिवर्तित कर लगाना चाहिए, क्योंकि यह मिट्टी जनित रोग है। पौधों के बीच उचित दूरी तथा पानी की समुचित निकासी की व्यवस्था करनी चाहिए तथा रोग रहित कंदों का इस्तेमाल करना चाहिए। रासायनिक उपचारों में कंदों को वेनलेट के 2 ग्राम/ली. पानी में बने घोल में 30 मिनट तक डुबायें। मिट्टी में ब्रॉसीकाल के घोल को डालें। इसके साथ ही पौधों पर ब्लिटॉक्स 4 ग्राम/ली. पानी में घोल कर या बोर्डोमिश्रण (5:4:50) का छिड़काव दो हफ्ते के अंतराल पर करें।
डहलिया में लगने वाले तीन कीट प्रमुख हैं – लाही, थ्रिप्स एवं नीमेटोड।
(क) लाही एवं थ्रिप्स: यह कीट कोमल पत्तियों, तनों एवं फूलों के रस चूसते रहते हैं तथा नीमेटोड जड़ों में चिपक कर उसके रस चूसते हैं जिससे पौधों की वृद्धि रुक जाती है।
लाही के नियन्त्रण हेतु रोगर दवा का 2 मि.ली./ली. पानी में घोल बना कर छिड़काव करें।
थ्रिप्स की रोकथाम के लिए नुवाक्रान का 1.5 मि.ली./ली. पानी में घोल बना कर पत्तियों पर छिड़काव करें।
(ख) नीमेटोड: यह कीट कंद को खा कर सड़ा देता है। इसकी रोकथाम के लिए फुराडान दवा का 500-600 ग्राम प्रति एकड़ की दर से मिट्टी में छिड़काव करना चाहिए।
स्त्रोत: रामकृष्ण मिशन आश्रम, दिव्यायन कृषि विज्ञान केंद्र, राँची।
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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