ग्लेडियोलस भारत एवं विश्व का एक प्रमुख कट फ्लावर है। ग्लेडियोलस को उसकी सुंदर एवं आकर्षक बाली एवं उस पर लगे पुष्पों के लिए बहुत ही पसंद किया जाता है। ये छोटे फूल बाली पर क्रम से एवं धीरे-धीरे खिलते हैं जिससे कटे हुए फूलों को ज्यादा समय तक रख सकते है। ग्लेडियोलस विभिन्न रंगों में पाये जाते हैं। यथा एक या दोहरे रंग के, बीच में धब्बे या धब्बे रहित, सफेद गुलाबी से लेकर गहरे लाल रंगों में मिलते हैं। ग्लेडियोलस की बाली को मुख्यत: बगीचों में आंतरिक सजावट के लिए एवं गुलदस्ते बनाने के लिए इस्तेमाल करते है। ग्लेडियोलस का वैज्ञानिक नाम ग्लेडयोलस ग्रेंडिफ्लोरस तथा कुल इरीडेसी है एवं इसका उत्पति स्थान अफ्रीका है। भारत में इसकी खेती अंग्रेजों द्वारा 16-17 शताब्दी में शुरू की गई थी।
जलवायु: इसकी खेती सफलतापूर्वक विभिन्न मौसमों में की जा सकती है एवं पौधा को इस प्रकार लगाया जाता है कि इसे हमेशा अनुकूल मौसम प्राप्त हो जिससे कि हमें फूल, कंद एवं कंन्दिकाएं लगातार मिलती रहें। इसको न्यूनतम तापमान 160 सें.ग्रे. तथा अधिकतम तापमान 250 सें.ग्रे. के बीच लगाया जता है। फूल खिलने समय वर्षा नहीं होनी चाहिए।
ग्लेडियोलस को धूपदार स्थान पर लगाया जता है। अत: स्थान चुनाव करते समय इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए। दिन की लंबाई बाली की गुणवत्ता को बढ़ाती है। कम से कम 12 घंटे की धूप एवं रोशनी मिलने से फूल अच्छे गुणों वाले प्राप्त होते हैं। लगाये जाने वाले स्थान को तेज हवा से रोकने के लिए झाड़ीदार पौधे लगाते हैं। जाड़े के कारण होने वाली हानियाँ पौधा लगाने के बाद दो पत्तियाँ की अवस्था में एवं दूसरी बाली निकलने के वक्त सात पत्तियों की अवस्था में ज्यादा होती हैं।
मिट्टी: ग्लेडियोलस की सफलता पूर्वक खेती करने के लिए हल्की एवं उचित पानी की निकासी वाली मिट्टी अच्छी होती है। भारी मिट्टी में जैविक खाद एवं बालू मिलाने पर ग्लेडियोलस की अच्छी पैदावार होगी। मिट्टी का पी.एच. मान अगर 6.5 हो तो उत्तम होगा। अंतिम रूप से खेत तैयार करने वक्त प्रति वर्ग मीटर 5 से 6 किलो गोबर की सड़ी हुई खाद या पत्ती की खाद एवं 60 ग्राम हड्डी चूर्ण या सिंगल सुपर फ़ॉस्फेत खेत में देनी चाहिए। बहुत ज्यादा खाद देने पर बाली लम्बे एवं पतले हो जाएँगे।
गमलों में ग्लेडियोलस को उगाने के लिए मिश्रण के रूप में एक भाग अच्छी मिट्टी, दो भाग गोबर की खाद या पत्ती खाद एवं आधा भाग मोटा बालू मिलायें। लगभग दो चम्मच हड्डी चूर्ण एवं मुट्ठी भर लकड़ी का बुरादा भी गमले के मिश्रण में मिलाना चाहिए।
ग्लेडियोलस मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है: पहला जिसमें बड़े फूल होते हैं तथा दूसरा वटरफ्लाई एवं मिनिएचर है। इन दोनों प्रकारों में अगेती, मध्यम एवं पिछेती किस्मों के फूल होते हैं।
बटरफ्लाई में बालियाँ छोटी होती हैं एवं विभिन्न रंगों में मिलती हैं। कभी-कभी गहरे रंगों वाली भी होती हैं जो कि बहुत सुंदर दिखती हैं। यह छोटे बगीचों एवं क्यारियों के लिए अत्यंत उपयुक्त है। ग्लेडियोलस की एक अन्य प्रजाति प्रिमुलिनस है। इसमें ऊपर की पंखुड़ियाँ मुड़ी हुई होती हैं, जो देख में सुंदर लगती हैं।
ग्लेडियोलस की कुछ नई किस्में विकसित की गई हैं जिनमें प्रमुख हैं – अर्चना, अरुण, ज्वाला, मनोहर, मनीषा, मनमोहन, मोहिनी, मुक्ता, संयुक्ता, त्रिलोकी, फ्रेंडशिप, सपना, नजराना, पूनम, चेरी ब्लासम, मीरा, शोभा, कुमकुम, आरती, स्नोप्रिंस, वाटर मेलन पिंक, वाइल्ड रोज, उर्मि, ज्योत्सना, गुलाल, शबनम, उर्वशी इत्यादि।
मैदानी क्षेत्रों में कंद लगाने का उत्तम समय सितम्बर एवं अक्टूबर के मध्य है। अगर मौसम ठंडा हो तो इसे अगस्त के मध्य में भी लगाया जा सकता है। जाड़े में फूल प्राप्त करने के लिए इसे अक्टूबर एवं नवम्बर के मध्य में लगाते हैं। उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में अक्टूबर के अंत से अप्रैल तक अच्छी गुणवत्ता वाली बालियाँ प्राप्त करने के लिए कंद लगाने के समय को जुलाई से दिसम्बर तक समायोजित किया जाता है। कंदों को पन्द्रह दिनों के अंतराल पर लगाने से हमें ज्यादा समय तक फूल मिलते हैं।
ग्लेडियोलस का प्रर्वधन मुख्यत: कंद द्वारा होता है। इसे बीज द्वारा भी लगा सकते हैं, परन्तु इससे अच्छे गुणों वाले फूल प्राप्त नहीं होते हैं। फिर भी पौधा प्रजनक बीजों का इस्तेमाल पौधों की नयी किस्में निकालने में करते हैं। छोटी कंदिकाओं एवं कंदों को जल्दी से बढ़ाने के लिए 24 घंटे पानी में भिंगोते हैं। पानी में भिंगोने से पहले उसके ऊपर की शल्कों को सावधानी पूर्वक हटा देते हैं। कंदिकाएं दो-तीन बार लगाने के बाद ही उचित आकार का फूल दे पाती हैं।
अच्छे आकार का फूल प्राप्त करने के लिए कार्म का भार 50-50 ग्राम तथा आकार लगभग 4-5 सें.मी. होना चाहिए। प्रदर्शनी हेतु बड़ी बालियों को प्राप्त करने के लिए कार्म की लंबाई क्रमश: 7.5 से 10 सें.मी. व्यास होनी चाहिए। एक मध्यम आकार का नुकीला कार्म ज्यादा अच्छा होता है वनिस्पत कि चपटे आकार के बड़े कार्म के। सभी कंदों को लगाने के पूर्व उन्हें आधे घंटे के लिए प्रति लीटर पानी में कैप्टान 2 ग्राम या थीरम 2 ग्राम या वेनलेट 1 ग्राम डालकर उपचारित करना चाहिए। कार्म को लगाने के पहले अंकुरित करने के लिए उसे गर्म अँधेरे स्थान में रखकर काली पॉलिथिन से ढँक देते हैं या भींगे हुए बालू की 5-7.5 सें.मी. मोटी परतों के बीच रख देतें है। अंकुरित होने के बाद इसे गमलों या क्यारियों में लगा देते हैं।
कार्म को 15-20 सें.मी. की दूरी पर लगाना चाहिए तथा प्रत्येक कतार के बीच 30-45 सें.मी. की दूरी रखनी चाहिए। कतार के बीच में दूरी रखने से अन्य कर्षण क्रियाएं करने में सुविधा होती है। कार्म को 5 सें.मी. मिट्टी के नीचे दबाया जाता है। जहाँ तेज हवाएं चलती हों वहाँ पर कार्म को 7 सें.मी. नीचे मिट्टी में दबाना चाहिए।
ग्लेडियोलस में बहुत ज्यादा खाद देना अच्छा नहीं होता है। इसमें सड़े हुए गोबर की खाद, पत्ती खाद या कम्पोस्ट डालना सबसे अच्छा होता है। प्रति हेक्टेयर 20-30 टन गोबर की सड़ी खाद, 75 किलो नाइट्रोजन (163 किलो यूरिया), 100 किलो फास्फोरस (625 किलो सिंगल सुपर फास्फेट) तथा 140 किलो पोटाश (233 किलो म्युरियेट ऑफ़ पोटाश) का व्यवहार करना चाहिए। एक महीने बाद फिर मिट्टी चढ़ाने समय 75 किलो नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से व्यवहार करना चाहिए। द्रवित खाद के रूप में ताजे गोबर को पानी में डालकर उसे सड़ा कर एवं चाय के रंग जैसा पतला घोल बनाकर हफ्ते में एक बार बादल देना चाहिए। बालियों के निकलते समय पत्ती खाद द्वारा हल्का ढकने से लाभ होता है।
हफ्ते में एक बार अच्छी तरह से पानी देना उचित होता है। जाड़े में दस दिनों के अंतराल पर पानी देना चाहिए।
जब बालियाँ निकलने लगें तो उसे बाँस की डंडियों की सहायता से बाँध देने से वे तेज हवा में नहीं गिरती हैं। अगर पौधे बहुत नजदीक में या झुंड में लगे हों तो डंडे की जरूरत नहीं पड़ती है। मिनिएचर एवं बटरफ्लाई में डंडे लगाने की जरूरत नहीं पड़ती है। जब पौधे 25-30 सें.मी. लंबाई की हो जाएं तब उन पर मिट्टी चढ़ाएँ।
समय-समय पर खरपतवार निकालते रहना चाहिए। पूरी फसल अवधि में चार-पाँच बार खरपतवार निकालने की जरूरत पड़ती है। पौधे लगाने के पहले प्रति हेक्टेयर 2.5 लीटर बेसलीन 500-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से मिट्टी खरपतवार से लगभग 70 दिनों तक मुक्त रहती है।
बालियों के निकलने के बाद जब सबसे नीचे वाले फूल का रंग दिखने लगे तब वे (बालियाँ) काटने योग्य हो जाती हैं। बालियों को काटने के लिए तेज चाक़ू का इस्तेमाल इस तरह से करते हैं कि कोई भी पत्ती का नुकसान न हो, अन्यथा ये कार्म की वृद्धि को प्रभावित करेंगी। बालियों को काटने के तुरन्त बाद पानी से भरी हुई बाल्टी में डाल देते हैं। जब उसे गुलदस्ते में रखा जाता है तो सभी पुष्प नीचे से ऊपर की ओर क्रम से खिलते हैं जिससे बालियों को ज्यादा दिनों तक रखा जा सकता है।
बालियों को रखने की अवधि को बढ़ाने के लिए उसके सबसे निचले भाग (लगभग 1.5 सें.मी.) को पानी के अंदर ही रखकर एक दिन के अंतराल पर काटने के बाद प्रत्येक दिन ताजा पानी डालना चाहिए। कट फ्लावर रखने की अवधि बढ़ाने के लिए 600 पी.पी.एम. का 8 हाईड्रोक्सिक्वीनोलाईन साइट्रेट एवं 4 प्रतिशत सुक्रोज के घोल में डालकर रखा जाता है। बालियों को सफलतापूर्वक 1-20 सें.ग्रे. तापमान में दो सप्ताह के लिए रखा जा सकता है।
समयानुसार बोआई करने पर किस्मों के हिसाब से ग्लेडियोलस के कंदों को लगाने के दो से ढाई महीनों बाद फूल निकलने लगते हैं। कार्म एवं कार्मेल बालियों के काटने के 6-8 हफ्ते बाद उखाड़ने के योग्य हो जाते हैं। कार्म निकालने के 2-3 सप्ताह पहले सिंचाई बंद कर दी जाती है। फूल खिलने के बाद जब पत्तियाँ पीली पड़ने लगें तब पौधों को सतह से 15 सें.मी. ऊपर मरोड़कर झुका देते हैं, जिससे कार्मेल अच्छी तरह से परिपक्व हो जाएगा। कंदों को मिट्टी से निकालने का कार्य मार्च-अप्रैल में होता है। मिट्टी से निकालने के बाद कार्म को पत्तियों सहित छाये में एक हफ्ते के लिए छोड़ देते हैं। पत्तियाँ हटाकर कार्म एवं कार्मेल को साफ़ करते है। कटे हुए कंद व कंदिकाओं को छांट लेना चाहिए अन्यथा गोदाम में कार्म के सड़ने की संभावना रहती है। सड़न से बचाने हेतु 0.2% वेविस्टीन या 0.2% कैप्टान के घोल में आधे घंटे के लिए डुबाकर रखते हैं। उसके बाद उसे सुखाकर हल्के लकड़ी या कागज के बक्से या जूट के बोरे में डालकर ठंढे स्थानों में अगले मौसम के लिए रखते हैं।
यह एक मुर्झा रोग है जो फफूंद द्वारा फैलता है। इसमें पत्तियाँ हांसिए के आकार की हो जाती हैं। पत्तियाँ पीली हो जाती हैं एवं लाल भूरे धब्बे किनारे पर दिखने लगते हैं। अत: कार्म लगाने के पहले विवि स्टीन दवा एक 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में बने घोल में 30 मिनट तक उपचारित करें। एक ही खेत में 2-3 बार से ज्यादा ग्लेडियोलस न लगायें। कार्मेल से बढाये हुए कॉर्म का ही इस्तेमाल करें।
यह भी फफूंद एवं उसकी प्रजातियों द्वारा फैलता है। इसके कारण कॉर्म की सतह काली पड़ जाती है एवं बहुत सड़ी हुई गंध आती है। इसकी रोकथाम हेतु कंदों को संग्रहण करने के पूर्ण विविस्टीन 2 ग्राम/ली. पानी में घोलकर कंद को उपचारित करते हैं।
यह कीट पत्तियों को खाता है। इसकी रोकथाम के लिए क्युनालफ़ॉस 25 ई.सी. दवा का 2 मि.ली./ली. पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए।
यह कीट पौधे का रस चूस कर नुकसान पहुँचाता है, जिससे पौधे पर भूरे रंग का दाग होकर पत्तियाँ झड़ने लगती हैं। इसकी रोकथाम के लिए डायकोफ़ॉल दवा का 2.5 मि. ली./ली. पानी में घोक बना कर छिड़काव करना चाहिए।
स्त्रोत: रामकृष्ण मिशन आश्रम, दिव्यायन कृषि विज्ञान केंद्र, राँची।
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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