झारखण्ड राज्य में धान के बाद मडुआ दूसरी खरीफ फसल है जिसकी खेती बड़े पैमाने पर की जा सकती है। परन्तु यहाँ के अधिकतर किसान इस फसल को अच्छी उपज नहीं ले पाते हैं, क्योंकि वे इसकी खेती पुराने ढंग से करते हैं। पुराने ढंग से खेती करें खेती पुराने ढंग से करते हैं। पुराने ढंग से खेती करने पर मडुआ की उपज 5-8 क्विटंल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। मगर इस फसल की खेती वैज्ञानिक ढंग से करने पर औसतन उपज 15-20 क्विंटल और अच्छी उपज 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर कम खर्च में आसानी से प्राप्त की जा सकती है। अनुसंधानों के दौरान मडुआ की अधिकतम उपज 40 क्विटंल प्रति हेक्टेयर तक मिली है। अगर मडुआ उपज पुरानी विधि की खेती द्वार प्राप्त उपज की तुलना में तीन गुनी तक आसानी से बढ़ायी जा सकती है।
साधारणतः किसान मडुआ की बोबाई छींटकर करते हैं। मडुआ के बीज बहुत छोटे और महीन होते हैं बोने के समय किसान बीज को छींट कर जुताई कर देते हैं, और ऐसा करने से कुछ बीज अधिक गहराई में चले जाते हैं और उग नहीं पाते। कुछ बीज जमीन की सतह पर ही रह जाते हैं जिन्हें चीटियाँ तथा पंछी चुग जाते हैं और कुछ बीज जो उचित गहराई में गिरते हैं वे ही अंकुरित हो पाते हैं। मडुआ के वे बीज जो ज्यादा गहराई में चले जाते हैं, वर्षा होने पर मिट्टी की ऊपरी सतह पर पपड़ी बन जाने के कारण अंकुरित ही नहीं पाते हैं अतः पौधों की संख्या कम हो जाती है।
पौधों की संख्या में कमी होने का एक दूसरा कारण यह है कि किसान छींटा विधि से बोई हुई फसल को बोने के 25-30 दिनों बाद बिचाई कर देते हैं। बिचाई करते समय कुछ पौधे मिट्टी में दब कर सड़ जाते हैं। अतः पौधों की संख्या कम हो जाती है।
किसान, जैविक खाद जैसे गोबर या कम्पोस्ट का कहीं-कहीं पर प्रयोग करते हैं, लेकिन बहुत कम मात्रा में। इस फसल के लिए उर्वरकों का प्रयोग तो प्रायः करते ही नहीं हैं। उर्वरकों के आभाव में पौधों को उचित मात्रा में पोषक तत्व नहीं मिल पाते हैं जिससे पौधों का विकास ठीक नहीं हो पाता और उपज में भारी कमी आ जाती है।
ऐसा देखा जाता है कि जिस धान की रोपनी का काम जारी रहता है उसी समय मडुआ की फसल में प्रथम निकौनी करने की जरुरत पड़ती है। किसान धान की रोपनी को प्राथमिकता देते हैं। धान की रोपनी समाप्त करके ही मडुआ में निकौनी का काम शुरू करते हैं। अतः प्रथम निकौनी करने में देर हो जाती है और खतपतवार के चलते मुख्य फसल के पौधों का विकास ठीक से नहीं हो पाता है तथा उपज में कमी आ जाती है।
इस क्षेत्र की टांड जमीन में दीमक का प्रकोप फसलों पर अधिक होता है। किसान इसकी रोकथाम के उपाय प्रायः नहीं करते। दीमक से पौधों का काफी नुकसान पहुंचता है और पौधों की संख्या में कमी आ जाता है। झुलसा रोग के प्रकोप से भी उपज में भारी कमी आ जाती है, क्योंकि किसान प्रायः इसकी रोकथाम पर ध्यान नहीं देते हैं।
स्थानीय किस्मों की अपेक्षा उन्नत किस्मों की उपज क्षमता कहीं अधिक है। किसान स्थानीय किस्मों को ही उगाते हैं और इसके चलते मडुआ की उपज कम हो जाती है।
मडुआ की अधिक उपज प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना जरुरी है।
मडुआ की खेती के लिए टांड जमीन (टांड 2 या ३) उपयुक्त है। जिस खेत में पानी का जमाव होता है उस खेत में मडुआ नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि मडुआ के पौधे पानी का जमाव सहन नहीं कर सकते हैं। मडुआ की फसल के साथ या विशेषता है कि इसकी खेती कमजोर जमीन में भी हो सकती है।
मडुआ की खेती के लिए साधारणतः तीन जुताई की जरूरत पड़ी है। खेत की पहली जुटी मोल्ड बोर्ड हल से एवं दूसरी तथा तीसरी जुताई देशी हल से करके मिट्टी को भुरभुरी कर लें। गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट (सम्भवतः बोवाई के तीन-चार सप्ताह पहले) लगभग 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दार से खेत में बिखेर दें ताकि वर्षा के पानी का जमाव खेत में कहीं भी न हो पावे।
ए-404:115-120 दिन में तैयार औसत उपज 25-30 क्विंटल/हे. एच.आर.374:100-105 दिन में तैयार औसत उपज 20-25 क्विंटल/हे. पी.आर.202:115-120 दिन में तैयार औसत उपज 22-27 क्विंटल/हे.
इस क्षेत्र में साधारणतः मानसून की वर्षा 15 जून के बाद शुरू होती है। बोवाई का काम वर्षा शुरू होते ही प्रारंभ करें और 30 जून के भीतर पूरा कर लें।
अगर रोपा द्वारा खेती करनी हो तो इसके लिए भी पौधशाला (नर्सरी) में बोवाई का कम उचित समय पर (15 से 30 जून के अदंर) करना जरुरी है। 21 से 25 दिनों के बिचड़े रोपनी के काम में लावें इससे 10-20 दिन और अधिक उम्र वाले बिचड़ों को भो रोपने पर उपज में कोई खास अंतर नहीं होता है। रोपनी का काम जुलाई माह के तीसरे सप्ताह तक पूरा कर लें।
क. सीधी बोवाई के लिए 8-10 किलो बीज प्रति हेक्टेयर व्यवहार करें।
ख. बीज बोने के पहले बीज को बैविस्टीन नामक दवा से 2 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारित किया जाता है।
क. सीधी बोवाई (हल के पीछे) के समय प्रति हेक्टेयर 45 किलो यूरिया, 187 किलो सिंगल सुपर फास्फेट और 33 किलो म्यूरेट ऑफ़ पोटाश का व्यवहार करें। हल के पीछे सीधी बोवाई करते समय रासायनिक खाद को मिट्टी में मिलाकर डालना अच्छा होता है। जिससे कि रासायनिक खाद और बीजों के बीच सीधा सम्पर्क न हो सके। नालियों में पहले रासायनिक खादों को डालें और बाद में बीज बोयें।
ख. बोवाई के करीब एक महीना बाद 45 किलो यूरिया का प्रति हेक्टेयर की दर से खड़ी फसल में भुरकाव करें।
क. रोपनी के समय खेत में 45 किलो यूरिया, 187 किलो सिंगल सुपर फास्फेट और 33 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से दें।
ख. रोपनी के 20-25 दिन बाद पुनः 45 किलो यूरिया का प्रति हेक्टेयर की दर से खड़ी फसल में भुरकाव करें। ऐसा करने से पौधों का विकास तीव्र गति से होता है और उपज पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
सीधी बोवाई करने के लिए 20-25 सेंटीमीटर की दूरी पर छिछली नालियाँ (2-3 सेंटीमीटर गहरी) घिसे हुए देशी हल से खोलें। इन नालियों में पहले रासायनिक खादों को बराबर मात्रा में मिट्टी मिलाकर डालें। उसके बाद बीज और सुखी मिट्टी या बालू 1:1 के अनुपात में मिलाकर इस प्रकार नालियों में बोवें कि बीज ठीक-ठीक पुरे खेत में बोने के लिए पूरा हो जाए। बोवाई करते समय इस बात का ध्यान रखें कि बीज न अधिक घना गिरा और न अधिक पतला। बोवाई समाप्त करने के बाद हल्का पाटा चला दें।
रोपने के लिए पौधशाला (नर्सरी) में लगाये गे तीन-चार सप्ताह के उम्र वाले बिचड़ों को उखाड़कर तैआय्र किए गए खेत में लावें। रोपनी के लिए कतारों के बीच की दूरी सीधी बोवाई के समान ही 20-25 सेंटीमीटर रखी जाती है तथा रोपनी करते समय एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी 15 सेंटीमीटर रखें। एक जगह पर केवल एक ही बिचड़ा रोपें।
सीधी बोवाई वाली फसल में बोने के 15-20 दिनों बाद पहली निकाई-कोड़ाई कतारों के बीच में डच हो चलाकर करें। पहली निकाई-कोड़ाई उचित समय पर करना नितांत आवश्यक है, क्योंकि इस समय तक घास-पात बहुत ही छोटे-छोटे रहते हैं, इसलिए उनका नियंत्रण आसानी से हो जाता है। दूसरी निकौनी आवश्यकतानुसार करें।
रोपी गई फसल में भी रोपनी के 15-20 दिनों बाद पहली निकाई-कोड़ाई कतारों के बीच डच हो चलाकर करें।
दोनों ही हालातों (सीधी बोवाई और रोपा) में नेत्रजन का भुरकाव करने के पहले प्रथम निकाई-कोड़ाई का काम पूरा कर लें।
मडुआ की फसल में कीड़े और रोग कम लगते हैं। बालियाँ में दाना भरते समय गंधी कीड़े का आक्रमण फसल पर हो सकता है। गोड़ा धान और मडुआ दोनों फसलों की खेती इस क्षेत्र में खरीफ मौसम में की जाती है। तथा दोनों ही फसलों पर इस कीड़े का आक्रमण होने पर इसकी रोकथाम के लिए 1.5% इकालक्स या लिडेन धुल का 20-25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से खड़ी फसल पर भुरकाव करें।
इस क्षेत्र में मडुआ की फसल में झुलसा रोग प्रायः लगता हैं। इसकी रोकथाम के लिए 1 लीटर हिनोसन नामक दवा को 100 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से रोग लगते ही फसल पर छिड़काव् करें।
बाल पक जाने पर फसल काट लें। बालियों को 2-3 दिनों तक धूप में सुखाने के बाद बैलों से दौनी कर लें। अनाज को अच्छी तरह सुखाने के बाद गोदाम या भंडार में रखें।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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