धान हर प्रकार की जमीन चाहे वह रेतीली हो या चिकनी अथवा अम्लीय या क्षारीय हो, पर उगाया जा सकता है। लेकिन पानी की सुविधा आवश्यक है। धान की खेती के लिए 5-8 पीएच रेंज और 1 प्रतिशत से अधिक जैविक कार्बन युक्त सुनिकासी व्यवस्था वाली चिकनी दोमट मृदा सर्वाधिक उपयुक्त होती है। खेत में पीएच स्तर, जैविक कार्बन, सूक्ष्म पोषक तत्वों (एनपीके) और सूक्ष्मजीवों की संख्या की जांच करने के लिए वर्ष में एक बार मृदा की जांच करने की अपेक्षा होती है।
यदि जैविक कार्बन की मात्रा 1 प्रतिशत से कम है, 25-30 टन/है0 कार्बनिक खाद का प्रयोग करें और खाद को भलीभांति मिलाने के लिए खेत की 2-3 बार अच्छी तरह जुताई करें। प्रमाणित जैविक खेतों पर प्रतिबंधित सामग्रियों के प्रवाह को रोकने के लिए प्रमाणित जैविक खेतों और अजैविक खेतों के बीच लगभग 25 मीटर की दूरी का पर्याप्त बफर जोन (सुरक्षा पट्टी) दी जानी चाहिए। मुख्य खेत को रोपण से 3 सप्ताह पूर्व सूखी जुताई की जाती है और 5-10 सें.मी. खडे पानी में जलमग्न किया जाता है। 10 टन जैविक खाद अथवा 10-20 टन हरा खाद मिलाने के बाद, खेत को भलीभांति समतल किया जाता है। धान के लिए भूमि तैयार करने में एक बार जुताई और एक बार गीली जुताई की जाती है। प्रतिरोपण से 3 दिन पूर्व खेत में पानी भर दिया जाना चाहिए। जैविक खादों व ढंग से उगाया गया धान न केवल पर्याप्त उपज ही देता है बल्कि इससे किसानों को ज्यादा मूल्य भी मिलता है।
रोपाई द्वारा
धान की खेती करने की दो मुख्य विधियां हैं - धान की रोपाई द्वारा खेती केवल अच्छी परिस्थितियों में होती है जहां पर पानी की पूरी उपलब्धता है। इस विधि में सबसे पहले पौध तैयार की जाती है और फिर पौधों को मच्च किए गए खेत में लगाया जाता है जब वह 15-20 सें.मी. और उनमें 4-5 पत्ते हों।
बीज का चयन
केवल भारी बीजों को ही बिजाई के लिए लेना चाहिए। ऐसे बीजों को लेने के लिए 25 लीटर पानी में 2.5 कि.ग्रा. नमक घोलें और इस घोल में 3.7 कि.ग्रा. बीज बारी-बारी डुबोएं और तैरते हुए बीजों को निकाल दें व नष्ट कर दें। फिर बीजों को धोकर अच्छी तरह से सूखा लें। एक हैक्टेयर क्षेत्र में रोपाई के लिए 25-35 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त होता है। बीज से लगनेवाली बीमारियों के बचाव के लिए सूखे बीजों को पंचगव्य से उपचारित करें।
पौध उगाना
अधिक उपज प्राप्त करने के लिए स्वस्थ, मजबूत व एक-सार पनीरी तैयार करनी चाहिए। धान की पनीरी को शुष्क व गीली विधि से निम्न प्रकार से तैयार किया जा सकता है
(क) शुष्क विधि
8 X 1.25 सें.मी. की 10 सें.मी. उठी हुई क्यारियां बनाएं, जिनकी मिट्टी बारीक व भुरभुरी हो। प्रत्येक क्यारी में गोबर की खाद, केचुआ खाद और ट्राईकोडर्मा अच्छी तरह से मिला दें। प्रत्येक क्यारी में 400 ग्राम उपचारित बीज 10 सें.मी. की दूरी की कतारों में बीजे। बीजों को बारीक मिट्टी से ढक दें। बिजाई के 15 दिन बाद प्रत्येक क्यारी में थोडी - थोडी केचुआ खाद डालें, ताकि पनीरी 25-30 दिनों में रोपाई के लिए तैयार हो जाए। एक बीघा रोपाई के लिए ऐसी 4 क्यारियों से पौध तैयार चाहिए। क्यारियों में समय-समय पर पानी दें तथा खरपतवार न उगने दें।
(ख) गीली विधि
20-30 किलोग्राम गली सड़ी गोबर की खाद 8 x 1.25 क्यारी के अनुसार डालने के | पश्चात् पानी भर दें तथा मच्च करें। मच्च किए गए खेत को 2-3 दिन के लिए छोड़ दें। फिर 8 x 1.25 मीटर आकार की 20 सें.मी. उठी हुई क्यारियां बनाएं और क्यारियों के बीच में 1/3 मीटर चौड़ी पानी की नालियां बनाएं। इसके बाद सभी क्रियाएं शुष्क विधि से पौध तैयार करने की तरह है। केवल शुष्क बीज के स्थान पर अंकुरित बीज का प्रयोग किया जाता है। अंकुरित बीज तैयार करने के लिए पहले बीज को 24 घंटे के लिए पानी में भिगो दें और उसके बाद अंधेरे कमरे में 36- 48 घंटे के लिए रखें।
रोपाई से 4 सप्ताह पहले पनीरी की बिजाई करनी चाहिए। निम्न समय पर पनीरी की बिजाई करें -
लम्बी व बौनी किस्में : 20 मई - 7 जून
बासमती किस्में: 15 मई - 30 मई
1) सभी मेढ़ों की मरम्मत करें।
2) रोपाई से दो सप्ताह पहले खेत में गोबर की खाद डालें व जुताई करें ताकि खाद | अच्छी तरह से गल-सड़ जायें।
3) खेत में अच्छी तरह से मच करें ताकि निचली सतह पर पानी जाने का अधिक नुकसान न हो।
4) उर्वरक देने से पहले खेत को समतल कर लें।
पौध निकालने के एक दिन पहले नर्सरी में सिंचाई कर दें। पौध को बड़े ध्यान से निकालें ताकि जड़ों को नुकसान न हो।
रोपाई का समय
लम्बी व बौनी किस्में- 15 जून - 7 जुलाई
बासमती किस्में - 20 जून - 1 जुलाई
1) रोपाई को कतारों में लगाएं और केवल 3 सें.मी. गहराई तक लगाएं।
2) एक स्थान पर 2-3 पौध ही रोपें।
3) समय की रोपाई के लिए 15 x 20 सें.मी. की दूरी पर पौध लगाएं और देर से रोपाई करने पर लम्बी किस्में 15 x 15 सें.मी. की दूरी पर ही लगाएं परंतु बासमती किस्मों को समय व देरी से होने वाली रोपाई के लिए 15 x 15 सें.मी. की दूरी पर ही लगाएं।
4) रोपाई के क्रमशः 5 व 10 दिन के बाद खाली स्थानों में पौध की रोपाई करें।
5) रोपाई के बाद खेत में इतना पानी खड़ा रहना चाहिए ताकि पौधे का 2/3 भाग पानी में 5 दिन तक डूबा रहे। इससे पौध सुदृढ़ रूप से लग जाती है।
यह ध्यान रहे कि
1) पौध 25-30 दिन के ऊपर न हो।
2) पौध अधिक गहरी व अधिक अंतर पर न लगे अन्यथा उत्पादन में कमी आ जायेगी।
3) रोपाई वाले खेत पूरे समतल हों।
खेत में मल्च्च करने तथा सही जल प्रबंध द्वारा कई खरपतवार नष्ट हो जाते हैं इससे रोपाई के दो सप्ताह तक खरपतवारों से फसल बची रहती है। उसके बाद ही खरपतवार निकलते हैं और उनकी रोकथाम करनी चाहिये। हाथ से निकाल कर भी इनका नियंत्रण किया जा सकता है।
(ग ) सीधी विधि द्वारा
इस विधि में धान के बीज की सीधी बिजाई खेत में की जाती है और नर्सरी तैयार नहीं की जाती है। यह विधि भी दो प्रकार की है –
1) मल्च्च किए गए खेत में अंकुरित किए हुए बीजों की सीधी बिजाई।
2) तैयार किए गए खेत में बीज की सीधी बिजाई।
पहली विधि को मल्च द्वारा बिजाई से जाना जाता है व यह उन स्थानों पर अपनाई जाती है जहां मच्च के लिए पानी उपलब्ध हो। पनीरी व रोपाई विधि द्वारा इस विधि की अपेक्षा अधिक उपज होती है। अतः किसानों को चाहिए कि जहां पर पानी की उपलब्धता हो वहां पनीरी तैयार करके रोपाई ही करें।
दूसरी विधि द्वारा खेत में सीधी बिजाई की जाती है। यह बिजाई बरसात के आरंभ होने पर या उससे भी पहले सूखी भूमि पर कर दी जाती है। यह विधि वहां अपनाई जाती है जहां पर पानी उपलब्ध नहीं है क्योंकि पानी का सही प्रबंध नहीं होता है। अत: फसल में पैदावार कम रहती है। अतः इन स्थानों में मक्की की खेती करनी चाहिए ताकि अधिक आमदनी हो सके। फिर भी यदि धान की ही खेती करनी हो तो नीचे दी गई सिफारिशें अपनाने से अधिक उपज मिल सकती है।
खेत की तैयारी
सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करें और फिर देसी हल से ताकि मिट्टी नर्म व भुरभुरी हो जाये। बिजाई के समय पर्याप्त नमी को सुनिश्चित करें।
बिजाई का समय
सीधी बिजाई का समय वही है जब पनीरी लगाई जाती है। देरी से बिजाई करने में पैदावार कम होती है। प्रायः पहली बारिश होते ही बिजाई कर देनी चाहिए।
बिजाई का ढंग
इस विधि द्वारा अपनाई गई बिजाई में 100-125 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर लगता है। बीज को हल के पीछे 20 सें.मी. दूरी की कतारों में 3-4 सें.मी. गहरा डालना चाहिए ताकि अंकुरण सही हो सके तथा पौधों की संख्या पर्याप्त हो।
सीधी की गई बिजाई में खरपतवार नियंत्रण बहुत आवश्यक है और सही समय पर किया गया नियंत्रण ही अच्छी पैदावार देने में सहायक होता है। पहली बार खरपतवारों को उस समय निकालें जब पौधों में 2-3 पत्ते आ जाएं। उसके बाद आवश्यकतानुसार खरपतवार निकालें।
जल प्रबंध
धान की फसल में पानी की उपलब्धता का सीधा प्रभाव पड़ता है। फसल की बढ़ौतरी की सारी अवस्थाओं में पानी खड़ा रहना चाहिए। पानी की कमी के क्षेत्रों में खेतों का गीला रहना ही लाभदायक है। धान के खेतों में अधिक उपज लेने के लिए लगातार पानी रहने के यह गुण हैं –
(1) फास्फोरस, लोहा व मैग्नीज तत्वों की अधिक उपलब्धता,
(2) खरपतवारों का दबा रहना,
(3) पानी की कमी न होना और
(4) फसल उत्पादन में अन्य मौसम संबंधी सूत्रों की उपलब्धता। इन सारे गुणों को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित तरीकों को अपनाना चाहिए -
1) नर्सरी केवल वहीं तैयार करें जहां पानी की उपलब्धता हो।
2) खेतों को बराबर समतल करें।
3) जहां पर सिंचाई की सुविधा न हो, वहां पर खेतों के किनारे 25-30 सें.मी. मेंढे बनाएं ताकि बारिश का पानी इकट्ठा किया जा सके।
4) मल्च्च करने के समय खेत में 8-10 सें.मी. पानी रहना चाहिए और उसके बाद बढ़ौतरी की सारी अवस्थाओं में पानी खड़ा रखें।
5) यह आवश्यक है कि प्रत्येक खेत में पानी खड़ा रहे।
6) पौध की जड़ पकड़ने तक खेत में पानी खड़ा रखें।
7) उन स्थानों में जहां सिंचई के पानी का तापमान कम होता है वहां एक खेत से दूसरे खेत में पानी के बहने की प्रथा को खत्म करना चाहिए तथा 4-5 सें.मी. तक पानी खेत में खड़ा रखना चाहिए।
8) उर्वरक डालने के दो दिन पहले खेत से पानी निकाल देना चाहिए।
9) दौजियां निसरने और फूल आने की अवस्था आने पर 5-7 दिन के लिए खेत से पानी निकाल दें। इससे सलफाईड जैसे जहरीले पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। और जड़ों को ऑक्सीजन मिलने में आसानी हो जाती है।
कटाई से 7-10 दिन पहले खेत से पानी निकाल दें। फसल को खेत में पूरा पकने देना चाहिए जिससे दाने नहीं गिरते हैं। फसल में सूखे व भूरे पत्ते फसल के पकने का संकेत देते हैं।
खंड-1 के ऊना, बिलासपुर, हमीरपुर जिलों में तथा सिरमौर, कांगड़ा, सोलन व चम्बा जिलों में जो पंजाब व हरियाणा के साथ लगते हैं, में नीचे दिए गए फसल चक्र लाभदायक हैं-
धान - अलसी - मक्की का चारा
धान - अलसी - आलू/गेहूं
जंगली धान (रीसा) का नियंत्रण
1) खेती करने की विधि
रोपाई करने के ढाग से जंगली धान का प्रकोप कम हो जाता है। अतः जहां संभव हो, वहां यह तरीका अपनाना चाहिए। सीधी बिजाई व लंग के ढंग में पौधों के स्थिर हो जाने पर हाथ से रीसे को निकाल दें।
2) किस्मों में अन्तर
जामुनी रंग की किस्म - आर - 575 लगाने से रीसे को आसानी से शुरू में ही निकाला जा सकता है।
3) फसल चक्र
धान के बाद अलसी या गेहूं की फसल लगाएं।
4) बीज का चयन
उन क्षेत्रों में जहां रीसे का प्रकोप होता हो तो उन इलाकों के लिए अगली फसल के लिए बीज वहां से लें जहां रीसे का प्रकोप न होता हो।
5) खेतों से रीसे का उन्मूलन
यदि ऐसे स्थानों में जहां नड या दलदल हों और वहां रीसा उगा हो तो इसको बालियां पड़ने से पहले नष्ट कर दें।
पालम धान-957, हिमालय-2216, आर.पी.-2421, वी.एल. धान-221, कस्तूरी, हसन सराय, हिमालय-741, चायना -988, आई.आर. - 579, आर - 575, हिमालय -799, | भृगु धान (एच.पी.आर.-1179), नग्गर धान (चिंग शी -15), पी.आर.-108, पी.आर.- 109, एच.के.आर.-126
5 टन प्रति हैक्टेयर की दर से कार्बनिक खाद लगाया जाता है और वर्मी कम्पोस्ट 5 टन प्रति है0 के हिसाब से लगाया जाता है।
ट्रिकोडर्मा हर्जियानम (टीएच) अथवा स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस (पीएसएफ) के साथ कार्बनिक खाद प्री-कोलोनाइज्ड का प्रयोग करें। कार्बनिक खाद के पी- कॉलोनाइजेशन के लिए, मासिक अंतराल पर 100 ग्राम प्रति गड्ढे के हिसाब से टीएच/पीएसएफ अथवा 1.0 कि.ग्रा./गड्ढे के हिसाब से पेंट बायो-एजेंट-3 मिलाया जाता है। इन गड्ढों को गन्ने के पते अथवा धान की भूसी से ढका जाना चाहिए। नमी को बरकरार रखने के लिए नियमित अंतराल पर (बायो एजेंट के प्रयोग के बाद कम से कम एक बार) और कार्बनिक खाद के प्रयोग से 15 और 7 दिन पूर्व पानी का छिड़काव किया जाना चाहिए।
(अ) कीट टिड्डे |
इस कीट के व्यस्क व शिशु पौधों के नर्म भागों से व दुधिया दानों से रस चूसते हैं। दानों में काले या भूरे धब्बे इस कीट का मुख्य लक्षण हैं। रोकथाम
|
काला भुंग |
इस कीट का प्रकोप रोपाई के तुरन्त बाद पौधों के दबे भाग में होता है, जिससे पौधे मर जाते हैं। रोकथाम
|
धान का हिस्पा
|
शिशु व प्रौढ़ दोनों ही पौधों को क्षति पहुंचाते हैं। शिशु पत्तों के अन्दर जाकर सफेद धारियां बनाते हैं। अधिक संख्या होने पर पौधे सूख जाते हैं। रोकथाम
|
तना छेदक
|
इस कीट के शिशु (लावे) तनों के अंदर जाकर क्षति पहुंचाते हैं। रोपाई के 50-60 दिन बाद इस कीट से मादा व्यस्क (मौथ) पत्तों के किनारों पर पौधों में अण्डे देती हैं व जुलाई से अक्तूबर तक क्षति पहुंचाते हैं। ग्रसित पौधे सफेद बालियों में बदल जाते हैं व सूख जाते हैं। रोकथाम
|
पत्ता लपेट |
रोपाई के लगभग 30 दिन बाद इस कीट के व्यस्क (मौथ) पौधों पर अण्डे देते हैं, जिससे निकलकर सुण्डियां नर्म पत्तों के किनारों को लपेट कर उसमें रहती हैं। रोकथाम
|
भूरा फुदका
|
इस कीट का प्रकोप अगस्त-सितम्बर मास में होता है। शिशु व प्रौढ़ पौधों का रस चूसकर क्षति पहुंचाते हैं। रोकथाम
|
भूरा धब्बा |
पत्तों पर गोल, भूरे धब्बे जो बीच में से खाकी या सफेद होते हैं, प्रकट होते हैं। बीमारी आने पर पत्ते मुरझा जाते हैं। वालियों पर काले या गहरे - भूरे रंग के धब्बे बनते हैं जो कभी-कभी पूरी वालियों पर आ जाते हैं जिससे दानों पर भी बीमारी आ जाती है। रोकथाम
|
धान में बहुत भंडारण कीटों के प्रकोप की संभावना अपेक्षाकृत अधिक होती है। अवैज्ञानिक भंडारण से चावल में परिमाण के साथ गुणवत्ता में भी कमी आती है।
धान को न निकाले गए धान के रूप में भण्डारित करें। नमी स्तर को 12-14 प्रतिशत तक लाएं और भण्डारण से पूर्व आंशिक तौर पर भरें और खाली धान के साथ ही अन्य पदार्थों को भली भांति साफ करें। परिमाण के आधार पर उपयुक्त भण्डारण संरचना का चुनाव करें जिसमें हवा न जाती हो।
फसल की उत्पादकता रूपांतरण अवधि के आरंभ में कम होती है क्योंकि रासायनित ऊर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता। तथापि, जैसे- जैसे जैविक प्रक्षेत्र रूपांतरण प्रक्रिया आगे बढ़ती है, उत्पादकता चौथे वर्ष में सामान्य उत्पादकता के 90 प्रतिशत तक पहुंच जाती है और इस स्तर पर स्थिर हो जाती
स्रोत: इंटरनेशनल कॉम्पीटेंस सेंटर फॉर आर्गेनिक एग्रीकल्चरअंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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