फसल कटाई के पश्चात् इसका एक बहुत बड़ा हिस्सा अवशेष के रूप में अनुपयोगी रह जाता है, जो नवकरणीय ऊर्जा का स्रोत होता है। भारत में इस तरह के फसल अवशेषों की मात्रा लगभग 62 करोड़ टन है। इसका आधा हिस्सा घरों एवं झोपड़ियों की छत निर्माण, पशु, आहार, ईंधन एवं पैकिंग हेतु उपयोग में लाया जाता है एवं शेष आधा भाग खेतों में ही जला दिया जाता है। अनुमानित तौर पर फसल अवशेष जैसे सूखी लकड़ी, पत्तियां, घास-फूस जलाने से वातावरण में 40 प्रतिशत Co2, 32 प्रतिशत Co, कणिकीय पदार्थ 2.5 तथा 50 प्रतिशत हाइड्रोकार्बन पैदा होता है।
खेतों में फसल अवशेष जलाकर नष्ट करने की प्रक्रिया से वातावरण दूषित होता है। जमीन का कटाव बढ़ता है एवं सांस की बीमारियां बढ़ती हैं। फसल अवशेषों को जमीन में सीधे ही समावेश करने की प्रक्रिया सरल है, परंतु इसमें कुछ कठिनाइयां भी हैं। जैसे दो फसलों के बीच का अंतर कम होना। इसमें अतिरिक्त कम सिंचाई एवं अन्य क्रियाएं भी सम्मिलित होती हैं, जिससे जलती पराली, बढ़ता प्रदूषण लागत बढ़ जाती है।
अध्ययन के अनुसार धान का भूसा मृदा में मिलाने से मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है, जो भूमंडलीय ऊष्णता को बढ़ा देता है। इन कठिनाइयों को सरल प्रक्रिया द्वारा दूर कर फसल अवशेषों को जलाने से होने वाले दुष्परिणामों को कम किया जा सकता है। अतः फसल अवशेषों का नवीनीकरण स्वस्थ वातावरण हेतु एवं आर्थिक दृष्टि से अति आवश्यक है।
फसल अवशेषों में कीटनाशकों के अवशेष होने के कारण इसको जलाने से विषैला रसायन डायआवसिन हवा में घुल जाता है। फसल की कटाई के समय एवं कटाई के पश्चात् अवशेषों को जलाने से हवा में विषैले डायआवसिन की मात्रा 33-270 गुना बढ़ जाती है। डायआवसिन का प्रभाव वातावरण में दीर्घ समय तक रहता है, जो मनुष्य एवं पशुओं की त्वचा पर जमा हो जाता है, और उससे खतरनाक बीमारियां होती हैं।
सरकार फसल अवशेष न जलाने हेतु नियम लागू करें ताकि प्रदूषण कम हो सके।
लेखन: सत्यम चौरिहा, हरेश्याम मिश्र और धीरेन्द्र कुमार
अंतिम बार संशोधित : 3/3/2020
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