मुंजा एक बहुवर्षीय घास है, जो गन्ना प्रजाति की होती है। यह ग्रेमिनी कुल की सदस्य है। इसका प्रसारण जड़ों एवं सकर्स द्वारा होता है। यह वर्षभर हरी – भरी रहती है। इसके पौधों की लम्बाई 5 मीटर तक होती है। वैसे देखा जाये तो यह एक खरपतवार है, जो खेतों में पाया जाता है। बारानी एवं मरूस्थलीय प्रदेशों में इसका उपयोग मृदा कटाव व अपक्षरण रोकने में बहुत होता है। मुंजा के पौधा नहीं पनपता, वहां पर यह खरपतवार आसानी से विकसित हो जाती है। यह गोचर, ओरण आदि जगहों पर प्राकृतिक रूप से उग जाती है। इसकी पत्तियां बहुत तेज होती है, हाथ या शरीर का कोई भाग लग जाये तो एह स्थान कट जाता है और खून बहने लगता है। इस प्रकृति के कारण किसान अपने खेत के चचारों ओर मेड़ों पर लगाते हैं। इससे जंगली जानवरों से फसल सुरक्षा मिलती है।
मुंजा, नदियों के किनारे, सड़कों, हाईवे, रेलवे लाइनों और तालाबों के पास जहाँ खाली जगह हो, वहां पर प्राकृतिक रूप से उग जाती है। इसके पौधे, पत्तियों, जड़ व तने सभी औषधीय या अन्य किसी न किसी प्रकार उपयोग में लाये जाते हैं। इसकी हरी पत्तियां पशुओं के चारे के लिए प्रयोग में आती हैं। जब अकाल पड़ता है इउस समय इसकी पत्तियों को शुष्क क्षेत्रों में गाय व भैंस को हरे चारे के रूप में खिलाया जाता है। पत्तियों की कूट्टियोंकरके पशुओं को खिलाने से हरे चारे की पूर्ति हो जाती है। यह बहुवर्षीय घास भारत, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान के सूखा प्रभावित क्षेत्रों में पायी जाती है। इसकी जड़ों से औषधियां भी बनाई जाती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इनकी और खपत बढ़ने की प्रबल संभावनाएं हैं। पुराने समय में जब अंग्रेजी दवाइयों का प्रचलन नहीं था तो औषधिय पौधों को वैद्य और हकीम विभिन्न बीमारियों के उपचार के लिए प्रयोग में लाते थे। हमारे कई ग्रंथों में बहुत से बहुमूल्य जीवनरक्षक दवाइयां बनाने वाली बूटियों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसमें सरकंडा (मुंजा) की जड़ों का औषधीय उपयोग का भी उल्लेख है। आधुनिक युग में औषधीय पौधों का प्रचार व उपयोग अत्यधिक बढ़ गया है। इसका सीधा असर इनकी उपलब्धता व गण वत्ता पर पड़ा है।
यह ढलानदार, रेतीली, नालों के किनारे व हल्की मिट्टी वाले क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता है। यह मुख्यत: जड़ों द्वारा रोपित किया जाता है। एक मुख्य पौधे (मदर प्लांट) से तैयार होने वाले 25 से 40 छोटी जड़ों द्वारा इसे लगाया जाता है। जूलाई में जब पौधों से नए सर्कस निकलने लगे तब उन्हें मेड़ों, टिब्बों और ढलान वाले क्षेत्रों में रोपित करना चाहिए। नई जड़ों से पौधे दो महीने में पूर्ण तैयार हो जाते हैं इनको 30x30x30 सें मीटर आकार गड्ढों में 75x60 सें. मी. की दूरी लगाना चाहिए। इसकी 30,000 से 35,000 जड़ें या सकर्स प्रति हे. लगाई जा सकती हैं। पहाड़ों और रेतीले टिब्बों पर ढलान की ओर इसकी फसल लेने पर मृदा कटाव रूक जाता है। जब पौधे खेत में लगा देते हैं तो उदके दो माहीने बाद पशुओं से बचाना चाहिये। सूखे क्षेत्रों में लगाने के तुरंत बाद पानी अवश्य देना चाहिए। इससे पौधे हरे व स्वस्थ रहते हैं तथा जड़ों का विकास अच्छी तरह से होता है।
पानी का जमाव पौधे की जड़ों का विकास कम हो जाता है। इसकी खेती सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए काफी उपयोगी हो सकती है। पहली बार लगभग 12 महीने के बाद मुंजा को जड़ों से 30 सें. मी. ऊपर काटना चाहिए। इससे दुबारा फुटान अधिक होती है। यदि देखा जाये तो एक पूर्ण विकसित पौधे से जड़ों का गुच्छा बन जाता है। इससे लगभग 30 – 50 कल्लों )सरकंडों) का गुच्छा बन जाता है, जो 30 से 35 वर्षों तक उत्पादन देता रहता है। पूर्ण विकसित मुंजा के गुच्छे से प्रतिवर्ष कटाई करते रहना चाहिए। इससे मिलने वाले उत्पादों से अधिक लाभ कमाया जा सकता है। इसे बाजार में 4 – 5 रूपये प्रति कि. ग्रा. की दारफ से ताजा भी बेचा जा सकता है। मुंजा को रासायनिक खाद की आवश्यकता नहीं पड़ती फिर भी यदि आवश्यकता हो तो 15 – 20 टन प्रति हे. देसी खाद डालनी चाहिए। इसकी औसत पैदावार 350 – 400 क्विं. प्रति हे. प्राप्त की जा सकती है।
मुंजा को ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बहुत अधिक प्रयोग में लाया जाता है। इसको जड़ों और पत्तियों का प्रयोग विभिन्न प्रकार की औषधियां बनाने में किया जाता है। मुंजा एक लाभदायक खरपतवार है। इसके लाभ ज्यादा हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में इससे ग्रामीणों को रोजगार मिलता है। भारत, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान आदि देशों में मुंजा से ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 33 प्रतिशत रोजगार मिलता है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में शादी – पार्टियों में इससे बने उत्पाद काम में लिए जाते हैं। वैज्ञानिक तौर पर देखें तो पाया गया है कि इसकी रस्सी से बनी चारपाई बीमार व्यक्तियों के स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी है। मुंजा की रस्सियों से बनी चारपाई पर सोने से कमर दर्द और हाथ – पैर में दर्द नहीं होता है। पशुओं के पैर में हड्डियां टूट जाने पर इसके सरकंडों को मुंजा की रस्सी से चारों तरफ बांधने पर आराम मिलता है। पशुओं व मनुष्यों में इससे बने छप्पर के नीचे सोने पर गर्म लू का प्रभाव कम हो जाता है।
मुंजा की कटाई प्रतिवर्ष अक्टूबर से नवंबर में करनी चाहिए। कटाई उस समय उचित मानी जाती है, जब इसकी ऊंचाई 10 से 12 फीट हो जाये तथा पत्तियां सूखने लगे व पीले रंग में परिवर्तित हो जाएँ। कटाई के बाद सरकंडों को सूखने के लिए 5 – 8 दिनों तक खेत में इकट्ठा करके फूल वाला भाग ऊपर तथा जड़ वाला भाग नीचे करके खेत में मेड़ों के पास खड़ा करके सुखाना चाहिए। सूखने के बाद कल्लों से फूल वाला भाग अलग कर लेना चाहिए। सूखे हुए सरकंडों से पत्तियां, कल्ले और फूल वाला भाग अलग कर लेना चाहिए। इस प्रकार प्रति हे. 350 – 400 क्विं उपज प्राप्त की जा सकती है। एक अनुमान के अनुसार इससे प्रतिक हे. औसतन 85,000 से 10,000 रूपये आय प्राप्त की जा सकती है।
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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