पर्ण दाग रोग टापहीना मेकुलान्स के द्वारा होता है। इस रोग के होने पर छोटे, अंडाकार, आयताकार या अनियमित भूरे रंग के दाग पत्तियों पर पड़ जाते हैं। इस रोग की अत्यधिकता से पौधे में सूखापन आ जाता है जिसके फलस्वरूप फसल की उपज में कमी आती है। इस रोग का नियंत्रण करने के लिए 0.2% मैनकोजेब का छिड़काव करते हैं।
यह रोग कोलीटोट्राइकम केप्सिसी के द्वारा होता है । नई पत्तियों के ऊपरी भाग में विभिन्न आकार की भूरे रंग की चित्ती पड़ती है। यह चित्ती बाद में एक दूसरे से मिलकर पूरी पत्ती पर फ़ैल जाती है । रोग ग्रसित पौधे प्राय: सुख जाते हैं। इस कारण प्रकन्द अच्छी तरह विकसित नहीं हो पाता।इस रोग का नियंत्रण करने के लिए 0.3%जिनेब या 1% बोरडीआक्स मिश्रण का छिड़काव करते हैं ।
यह रोग पाईथियम ग्रेमीनिकोलम या पी.अफानिडेरमाटम के द्वारा होता है। रोग ग्रसित पौधे के आभासी तने का निचला भाग मुलायम या नर्म पड़ जाता है एवं पानी सोख लेता है जिसके करण प्रकन्द सड़ जाता है और पौधा मर जाता है। इस रोग का नियंत्रण करने के लिए भंडारण करने से पहले तथा बुआई के समय प्रकन्द को 0.3%मैन्कोजेब से 30 मिनट तक उपचारित करते हैं। खेत में इस रोग के लक्षण देखने पर 0.3%मैन्कोजेब का छिड़काव करना चाहिए।
जड़गांठ सूत्रकृमि (मेलोयिडोगाइन स्पिसिस) तथा ब्रोयिंग सूत्रकृमि (र्रेदोफोलस सिमिलिस) हल्दी की फसल को हानि पहुँचाने वाले प्रमुख सूत्रकृमि हैं। जड़ विक्षत सूत्रकृमि (प्रोटाइलेनक्स स्पीसीस ) मुख्यतः आंध्र प्रदेश में हल्दी की फसल को हानि पहुंचाता है । सूत्रकृमि ग्रसित पौधे की पत्तियां पीली पड़कर सुख जाती हैं, जिससे पौधे की वृद्धि रुक जाती है । और वह बौना रह जाता है । पौधों की जड़ों में हल्के भूरे रंग की गांठें बन जाती हैं। सूत्रकृमियों की समस्या के समाधान के लिए बुआई के समय पिकोनिया क्लामाईडोस्पोरिया को 20 ग्राम/ बेड की दर से (106 cfu /g) डालना चाहिए । सूत्रकृमियों नियंत्रण करने के लिए स्वस्थ एवं सूत्रकृमि रहित बीज प्रकंदों का उपयोग करना चाहिए ।
तना भेदक (कोनोगिथस पंक्तिफैरीलिस ) हल्दी की फसल को हानी पहुंचाने वाला प्रमुख कीट हैं। इसका लार्वा आभासी तने को भेद कर ऊसकी आंतरिक कोशों को खा लेता है । इसके द्वारा भेदित तने के छिद्र से फ्रास निकलता है तथा पौधे की ऊपरी भाग की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। इसका वयस्क मध्यम आकार का होता है। जिसमें 20 मी. मीटर शलभ युक्त नारंगी पीली रंग के पंख होते हैं । जिस पर सूक्ष्म काले रंग की चित्ती के निशान होते हैं। इसके लार्वे हल्के भूरे रंग के होते हैं । इस कीट का नियंत्रण करने के लिए मेलिथियोन (0.1%) को 21 दिनों के अन्तराल पर जुलाई से अक्तूबर के बीच छिड़काव करना चाहिए। जब कीट ग्रसित पौधे पर प्रथम लक्षण दिखाई दें तब छिड़काव करना अधिक प्रभावशाली होता है।
राइजोम शल्क (अस्पिडियल्ला हारतीया) खेत के अन्दर तथा भंडारण में प्रकन्द को हानि पहुँचाते हैं । इसकी वयस्क मादा गोलाकार (लगभग 1 मी. मीटर) हल्के भूरे रंग की होती है। यह प्रकन्द का सार चूस लेता है,जिससे वह सुख कर मुरझा जाता है । परिणामस्वरूप इसके अंकुरण में समस्या आती है । इसकी रोकथाम के लिए प्रकन्द को भंडारण के समय और बुआई से पहले 0.075 %क्विनाल्फोस से 20-30 मिनट तक उपचारित करते हैं। कीट ग्रसित प्रकन्द का भण्डारण न करके उसे नष्ट कर देना चाहिए ।
लीफ फीडिंग बीटल (लिमा स्पिसिस ) के वयस्क और लावों को खाते हैं। विशेष कर मानसून काल और उसके समक्ष यह फसल को ज्यादा हानि पहुंचाते हैं । तना भेदक के प्रबंधक के लिए मिलिथियोन (0.1%) का छिड़काव इस कीट के नियंत्रण के लिए भी पर्याप्त है ।
लेसविंग वर्ग स्टिफानिटस टिपिकस) पत्तियों को हानि पहुंचाती हैं । जिसके कारण पत्तियां सुख जाती हैं । देश के शुष्क क्षेत्रों में विशेषकर मानसून के बाद यह कीट ज्यादा हानि पहुंचाते हैं । इन कीटों का नियंत्रण करने के लिए डायमेथोयट (0.05%) का छिड़काव करना चाहिए ।
हल्दी थ्रिप्स (पानकेटोथ्रीप्स इंडिकस ) पत्तियों को हानि पहुंचते हैं । जिसके कारण पत्तियां मुड़ने लगती हैं तथा हल्की पड़ कर धीरे-धीरे सुख जाती हैं। देश के शुष्क क्षेत्रों में विशेषकर मानसून के बाद यह कीट ज्यादा हानि पहुंचता है। इन कीटों का नियंत्रण करने के लिए डायमेथोट (0.05%) का छिड़काव करना चाहिए ।
प्रमाणित जैविक उत्पादन के लिए फसलों को कम से कम 18 महीने जैविक प्रबंधन के अधीन रखना चाहिए जहाँ हल्दी की दूसरी फसल को जैविक खेती के रूप में अपना सकते हैं । अगर उस क्षेत्र के इतिहास के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं जैसे भूमि पर रसायनों का उपयोग नही किया गया है तो परिवर्तन काल को कम कर सकते हैं। यह जरूरी है की पूरे फार्म में जैविक उत्पादन की विधि अपनाई गई हो लेकिन ज्यादा बड़े क्षेत्रों के लिए ऐसी योजना बनाए की परिवर्तन योजना क्रमबद्ध हो । हल्दी की फसल कृषि - बागवानी- शिल्पी पद्धति का एक उत्तम घटक माना जाता है ।
जब हल्दी को नारियल, सुपारी, आम, ल्यूसियाना तथा रबड़ आदि के साथ खेती करते हैं तब फार्म की अनुपयोगी वस्तुओं का पुन: उपयोग कर सकते हैं । इसको हरी खाद्य फसलों के साथ मिश्रित फसल के रूप में खेती कर सकते हैं। जिससे इसमें शक्ति युक्त पोषक तत्व बनते हैं जिनसे कीटों या रोगों को नियंत्रण करने में सहायता मिलती है । जब मिश्रित फसल की खेती कर रहे हैं तब यह जरूरी है कि सारी फसलों का उत्पादन जैविक विधि के अनुसार हो ।
जैविक खेत के आस पास के अजैविक खेतों से दूषित होने से बचाने के लिए उचित माध्यम अपनाना चाहिए। जो फसलें अलग से बोई जा रही हैं उनको जैविक फलों की श्रेणी में नहीं रख सकते । बहावदार जमीन में बराबर के खेतों से पानी और कीटनाशकों के आगमन को रोकने के लिए पर्याप्त उपाय करना चाहिए। मिट्टी को पर्याप्त सुरक्षा देने के प्रयास गड्ढे खेतों के बिच-बिच में बनाते हैं जिस से पानी का बहाव कम हो जाता है।खेत की निचली भूमि में गहरी नालियां खोद कर जल भराव से बचना चाहिए ।
जैविक उत्पादन के लिए ऐसी परम्परागत प्रजातियों को अपनाना चाहिए जो स्थानीय मिट्टी एवं वातारण में सहज कीटों,सूत्रकृमियों और रोगों के प्रति प्रतिरोधक हों। क्योंकि जैविक पद्धति में कोई कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों का उपयोग नहीं करते हैं। इसलिए उर्वरकों, कीटनाशकों तथा कवकनाशकों का उपयोग नहीं करते हैं। इसलिए उर्वरकों की कमी को पूरा करने के लिए फार्म की अन्य फसलों के अवशेष, हरी पत्तिया, गोबर , मुर्गी लीद आदि के कम्पोस्ट और केंचुआ खाद का उपयोग करके मृदा की उर्वरता उच्च स्तर तक बनाते हैं । एफ.वाई ऍम. 40 टन/हेक्टेयर और केंचुआ खाद 5-10 टन/हेक्टर की दर से 45 दिनों के अन्तराल पर उपयोग करते हैं । मृदा परिक्षण के आधार पर फास्फोरस और पोटेशियम की न्यूनतम पूर्ति करने के लिए पर्याप्त मात्रा में चूना, रॉक फास्फेट और राख डालकर पूरा करते हैं। लाभकारी सूक्ष्म तत्वों के आभाव में फसल की उत्पादकता प्रभावित होती है । मानकता सीमा या संगठनों के प्रमाण के आधार पर सूक्ष्म तत्वों के स्त्रोत खनिज अथवा रसायनों को मृदा या पतियों पर छिड़काव कर सकते हैं । इसके अतिरिक्त ओयल केक जैसे निम् केक (1 टन/हेक्टेयर), कम्पोस्ट, कोयर पीठ (5 टन/ हेक्टेयर),अजोस्पिरिल्लम का कल्वर्स तथा फ़ोसफेट सोलुबिलाईसिंग जीवाणु का उपयोग मृदा उर्वरता और उत्पादकता में वृद्धि करते हैं ।
जैविक खेती की प्रमुख नीति के अनुसार कीटों और रोगों का प्रबंधन जैव कीटनाशी, जैव नियंत्रण कारकों तथा फाईटोसेनेट्रि उपायों का उपयोग करके करते हैं । नीम गोल्ड या नीम तेल (0.5%)का 21 दिनों के अन्तराल पर जुलाई से अक्तूबर के बीच में छिड़कने से तना भेदक को नियंत्रित किया जा सकता है ।
स्वस्थ प्रकन्द का चयन, मृदा सौरीकरण, बीच उपचार और जैव मियंत्रण कारकों जैसे ट्राइकोडरमा अथवा प्स्युडोमोनास को मिट्टी में कोयार्पिथ कम्पोस्ट, सुखा हुआ गोबर या नीम केक को बुआई के समय तथा नियमित अन्तराल पर डालने से प्रकन्द गलन रोग रोका जा सकता है । अन्य रोगों का मियंत्रण करने के लिए प्रति वर्ष 8 कि. ग्राम/हेक्टेयर की दर से कोपर या बोरडीओक्स मिश्रण (1%)का छिड़काव करते हैं। जैव कारकों जैसे इपोकोनिया क्लामाईडोस्पोरिया के साथ नीम केक को डालने से सूत्रकृमियों को नियंत्रण कर सकते हैं ।
जैविक खेती के अंतर्गत जैविक घटकों की आवश्यक गुणवत्ता को भौतिक और जैविक प्रकियाओं द्वारा बनाए रखते हैं । इन प्रकियाओं में उपयोग होने वाले सारे घटक और कारक प्रमाणित और कृषि आधारित उत्पत्ति होने चाहिए । अगर प्रमाणित और कृषि आधारित उत्पत्ति घटक पर्याप्त मात्रा और उच्च गुणवत्ता में उपलब्ध न हों तो प्रमाणित अजैविक सामग्रियों का उपयोग कर सकते हैं ।
जैविक खेती द्वारा उत्पादित उत्पादनों की जैविक स्थिति का विवरण लेबिल पर स्पष्ट अंकित करना चाहिए । बिना जानकारी लेबिल के जैविक और अजैविक उत्पादकों को एक साथ भंडारण और ढुलाई नहीं करना चाहिए ।
प्रमाणिकता और लेबलिंग एक स्वतन्त्र निकाय द्वारा करनी चाहिए जो उत्पादन की गुणवत्ता की पूर्णता: जिम्मेदारी लें। भारत सरकार ने छोटे और सीमांत उत्पादन करने वाले किसानों के लिए देशी प्रमाणित प्रणाली बनाई है जिसके अंतर्गत एपीडा और मसाला बोर्ड द्वारा गठित प्रमाणित एजेंसिया द्वारा निरीक्षिकों की नियुक्ति की जाती है जो खेत पर जा कर निरीक्षण करते हैं तथा तथ्यों (अभिलेख) को रजिस्टर में लिख कर रखते हैं । इन अभिलेखों की आवश्यकता प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के लिए होती है विशेषकर जब परम्परागत और जैविक दोनों प्रकार की फसल की खेती करते हैं । भौगोलिक निकटता वाले लोग जो उत्पादन और प्रकिया को एक ही विधि द्वारा करते हैं उनके लिए सामूहिक प्रमाण-पत्र कार्यक्रम भी उपलब्ध है ।
प्रजातियों के अनुसार बुआई के 7-9 महीने बाद जनवरी और मार्च के बीच में फसल खुदाई के लिए तैयार हो जाती है । अल्प अवधि प्रजातियां 7-8 महीने में, मध्य अवधि प्रजातियाँ 8-9 महीने में और दीर्घकालीन प्रजातियाँ 9 महीने के बाद परिपक्व होती हैं । खेत को जोतकर प्रकन्दों को हाथ से इकट्ठा कर बड़ी सावधानीपूर्वक मिट्टी से अलग करते हैं ।
सुखी हल्दी प्राप्त करने के लिए ताजी हल्दी को परिरक्षित करते हैं । हल्दी के मादा प्रकंदों को अन्य से अलग कर लेते हैं। मादा प्रकन्दों को मुख्यतः बीच सामग्री के रूप में उपयोग करते हैं । ताजे प्रकंदों को पानी में उबाल कर सूर्य के प्रकाश में सुखा लेते हैं ।
परम्परागत विधि द्वारा हल्दी परिरक्षित करने के लिए ताजे प्रकंदों का पानी में 45-60 मिनट तक उबालते हैं या जब तक उसमें से सफेद धुआं और विशेष प्रकार की गंध बाहर न आने लगे । प्रकंदों को उबालते समय सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि अधिक देर उबालने से हल्दी का रंग फीका पड़ जाता है और कम उबालने से हल्दी कच्ची रह जाती है उन्नत वैज्ञानिक विधि द्वारा भी हल्दी को परिरक्षित कर सकते हैं इसमें एक विशेष प्रकार का 0.9 मी.x0.5 मी.x 0.4 मी. आकार का जी. आई.एम.एस. शीट द्वारा निर्मित बरतन लेते हैं जिसके दोनों ओर समान्तर हत्थे लगे होते हैं । इसके अन्दर 50 की. ग्राम बीज प्रकंंदों को 100 लीटर पानी में डाल कर तब तक उबालते हैं जब तक हल्दी मुलायमन हो जाए । हल्दी को पानी से निकल लेते हैं । उबलते हुए पानी को दोबारा हल्दी परिरक्षित करने की प्रक्रिया में उपयोग कर सकते हैं । यह प्रक्रिया फसल की खुदाई के 2-3 दिन के भीतर कर लेनी चाहिए । अगर परिरक्षित करने की प्रक्रिया में देर है तो प्रकंदों को छायादार हवा में भंडारण करते हैं या नारियल जूट से ढंक कर रखना चाहिए ।
पके हुए प्रकंदो को बांस की चटाई या फर्श पर 5-7 से. मीटर मोटी पत्तों की परत में बिछा कर सूर्य के प्रकाश में सुखाते हैं। शुष्क प्रकंदों के रंग पर प्रतिकूल प्रभाव से बचाने के लिए हल्की परत में सुखाना जरुरी नहीं है। रात के समय प्रकंदों को इक्कठा करके किसी ऐसी चीज से ढकते हैं कि प्रकन्दों को हवा लगती रहे। यह प्रकन्द 10-15 दिन तक पूरी तरह सुख जाते हैं। कृत्रिम रूप से प्रकन्द को क्रोस-फीसो गर्म वायु द्वारा 60 से. तापमान पर भी सुखा सकते हैं। हल्दी के चिप्स बनाने के लिए कृत्रिम रूप से सुखाना सूर्य के प्रकाश में सुखाने से ज्यादा लाभकारी होता है। इसमें सुखाने से प्रकंदों में ज्यादा चमक आती है। प्रजातियों तथा खेती के क्षेत्रों के आधार पर हल्दी की शुष्क उपज में 10-30%तक का अंतर होता है।
सुखी हुई हल्दी की ऊपरी सतह पर धब्बे और जड़ के तंतु लगे रह जाते हैं। हल्दी की ऊपरी सतह को हाथ से रगड़ कर साफ़ करके इसके ऊपर पोलिश करते हैं । हल्दी को स्वच्छ एवं चमकाने के लिए उन्नत विधि का भी उपयोग करते हैं । हस्त चालित बेरल या ड्रम के मध्य में धुरी वाली एक कील में लगाते हैं जिसके दोनों और लोहे का जाल लगा होता है । इस ड्रम के अन्दर हल्दी को भर देते हैं। ड्रम को हाथ से चलते हैं। हल्दी को विशेष प्रकार के ड्रम में भी पोलिश कर सकते हैं । हल्दी को पोलिश में 15-25% तक का अंतर होता है ।
हल्दी के रंग का प्रभाव उस के मूल्य पर भी पड़ता है । हल्दी को आकर्षक बनाने के लिए हल्दी चूर्ण को थोड़े पानी में मिला कर पोलिश के बाद प्रकंदों पर छिड़क देते हैं ।
वह प्रकन्द जो बीज के रूप में उपयोग होते हैं उन का भंडारण हवादार कमरे में पत्तों से ढंक कर करते हैं । बीज प्रकंदों को गड्ढे में लकड़ी का बुरादा, बालू और स्ट्राइकनोस नकसबोमिका (कंजिरम ) के पत्ते रख कर भी भंडारण किया जा सकता है । इन गड्ढों को लकड़ी के तख्ते से ढक देते हैं । इन तख्तों को हवादार बनाने के लिए इन में एक या दो छेद कर देते हैं । शल्क ग्रसित प्रकंदों को 15 मिनट तक क्विनालफोस (0.075%) तथा कवग ग्रसित प्रकंदों को 0.3% मैनकोजेब से उपचारित करते हैं ।
स्त्रोत:भारतीय मसाला फसल अनुसंधान संस्थान(भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) कोझीकोड,केरल
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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