लीची के फल अपने आकर्षक रंग, स्वाद और गुणवत्ता के कारण भारत में भी नही बल्कि विश्व मेंअपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है। लीची उत्पादन में भारत का विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान है। पिछले कई वर्षो में इसके निर्यात की अपार संभावनाएं विकसित हुई हैं, परन्तु अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बड़े एवं समान आकार तथा गुणवत्ता वाले फलों की ही अधिक मांग है। अत: अच्छी गुणवत्ता वाले फलों के उत्पादन की तरफ विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इसकी खेती के लिए एक विशिष्ट जलवायु की आवश्यकता होती है, जो सभी स्थानों पर उपलब्ध नहीं है। अत: लीची की बागवानी मुख्य रूप से उत्तरी बिहार, देहरादून की घाटी, उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तथा झारखंड प्रदेश के कुछ क्षत्रों में की जाती है। इसके अतिरिक्त पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में इसके सफल उत्पादन का प्रयास किया जा रहा है। इसके फल 10 मई से लेकर जुलाई के अंत तक देश के विभिन्न भागों में पक कर तैयार होते हैं एवं उपलब्ध रहते है। सबसे पहले लीची के फल त्रिपुरा में पक कर तैयार होते है। इसके बाद क्रमश: राँची एवं पूर्वी सिंहभूम (झारखंड), मुर्शीदाबाद (पं. बंगाल), मुजफ्फरपुर एवं समस्तीपुर (बिहार), उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, पंजाब, उत्तरांचल के देहरादून एवं पिथौरागढ़ की घाटी में फल पक कर तैयार होते है। बिहार की लीची अपनी गुणवत्ता के लिए देश-विदेश में प्रसिद्ध हो रही हैं। लीची के फल पोषक तत्वों से भरपूर एवं स्फूर्तिदायक होते है। इसके फल में शर्करा (11%), प्रोटीन (0.7%), वसा (0.3%), एवं अनेक विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। लीची का फल मरीजों एवं वृद्धों के लिए भी उपयोगी माना गया है।
लीची के फल मुख्यत: ताजे रूप में ही खाए जाते हैं। इसके फलों से अनेक प्रकार के परिरक्षित पदार्थ जैसे – जैम, पेय पदार्थ (शरबत, नेक्टर, कार्बोनेटेड पेय) एवं डिब्बा बंद फल बनाए जाते हैं। लीची का शरबत अपने स्वाद एवं खुशबू के लिए लोकप्रिय होता जा रहा है। लीची-नट, फलों को सुखाकर बनाया जाता है जी कि चीन इत्यादि देशों में बड़े चाव से खाया जाता है। लीची के अपरिपक्व खट्टे फलों को सुखाकर खटाई के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में नवम्बर से मार्च तक आस्ट्रेलिया से फरवरी से मार्च तक मारीशस से नवम्बर से जनवरी तक दक्षिण अफ्रीका और मेडागास्कर से लीची के फल उपलब्ध होते हैं। भारत से लीची का ताजा फल मई से जुलाई तक उपलब्ध होता है जिसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्यात करके विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है। चूँकि जब भारत में लीची तैयार होती है उस समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लीची फलों का अभाव रहता है। अत: भारत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मुख्य निर्यातक के रूप में स्थापित हो सकता है। भारत से लीची निर्यात को बढ़ावा देने के लिए एपीडा की भूमिका प्रमुख है। एपीडा के रिपोर्ट के अनुसार 2000-2001 वर्ष में भारत से लगभग 1.52 करोड़ रूपये मूल्य का लीची का निर्यात किया गया जो मुख्य रूप से बेल्जियम, सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, ओमान, कुवैत एवं नार्वे देशों को हुआ।
लीची की खेती के लिए सामान्य पी.एच.मान वाली गहरी बलुई दोमट मिट्टी अत्यंत उपयुक्त होती है। उत्तरी बिहार की कलकेरियस मृदा जिसकी जल धारण क्षमता अधिक है इसकी खेती के लिए उत्तम मानी गई है। लीची की खेती हल्की अम्लीय एवं लेटराइट मिट्टी में भी सफलतापूर्वक की जा रही है। अधिक जलधारण क्षमता एवं ह्रूमस युक्त मिट्टी में इसके पौधों में अच्छी बढ़वार एवं फलोत्पादन होता है। जल भराव वाले क्षेत्र लीची के लिए उपयुक्त नहीं होते अत: इसकी खेती जल निकास युक्त उपरवार भूमि में करने से अच्छा लाभ प्राप्त होता है।
समशीतोष्ण जलवायु लीची के उत्पादन के लिए बहुत ही उपयुक्त पायी गई है। ऐसा देखा गया है कि जनवरी-फरवरी माह में आसमान साफ़ रहने, तापमान में वृद्धि एवं शुष्क जलवायु होने से लीची में अच्छी मंजर आता है जिसमें ज्यादा फूल एवं फल लगते हैं। मार्च एवं अप्रैल में गर्मी कम पड़ने से लीची के फलों का विकास अच्छा होता है, साथ ही अप्रैल-मई में वातावरण में सामान्य आर्द्रता रहने से फलों में गूदे का विकास एवं गुणवत्ता में सुधार होता है। समआर्द्रता से फलों में चटखन भी कम हो जाती है। फल पकते समय वर्षा होने से फलों का रंग एवं गुणवत्ता प्रभावित होती है।
परिपक्वता के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर लीची की किस्मों की संस्तुति नीचे तालिका में की गई है:
पक्वता वर्ग |
परिपक्वता अवधि |
किस्में |
अगेती |
15-30 मई |
शाही, त्रिकोलिया, अझौली, ग्रीन, देशी। |
मध्यम |
01-20 जून |
रोज सेंटेड,डी-रोज,अर्ली बेदाना, स्वर्ण रूपा। |
पछेती |
10-15 जून |
चाइना, पूर्वी, कसबा। |
कुछ प्रमुख किस्मों की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है:
शाही: यह देश की एक व्यावसायिक एवं अग्रती किस्म है जो दिन-प्रतिदिन लोकप्रिय होती जा रही है। इस किस्म के फल गोल एवं गहरे लाल रंग वाले होते है जो 15-30 मई तक पक जाते है। फल में सुगंधयुक्त गूदे की मात्रा अधिक होती है जो इस किस्म की प्रमुख विशेषता है। फल विकास के समय उचित जल प्रबंध से पैदावार में वृद्धि होती है। इस किस्म के 15-20 वर्ष के पौधे से 80-100 कि.ग्रा. उपज प्रति वर्ष प्राप्त की जा सकती है।
चाइना: यह एक देर से पकने वाली लीची की किस्म हिया जिसके पौधे अपेक्षाकृत बौने होते है। इस किस्म के फल बड़े, शक्वाकार तथा चटखन की समस्या से मुक्त होते है। फलों का रंग गहरा लाल तथा गूदे की मात्रा अधिक होने के कारण इसकी अत्यधिक मांग है। परन्तु इस किस्म में एकान्तर फलन की समस्या देखी गई है। एक पूर्ण विकसित पेड़ से लगभग 60-80 कि.ग्रा. उपज प्राप्त होती है।
स्वर्ण रूपा: बागवानी एवं कृषि वानिकी शोध कार्यक्रम, राँची के गहन सर्वेक्षण एवं परीक्षण के फलस्वरूप स्वर्ण रूपा किस्म का चयन किया गया है जो छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र के साथ-साथ देश के अन्य क्षेत्रों के लिए भी उपयुक्त है। इस किस्म के फल मध्यम समय में पकते है तथा चटखन की समस्या से मुक्त होते है। फल आकर्षक एवं गहरे गुलाबी रंग के होते है जिनमें बीज का आकार छोटा, गुदा अधिक,स्वादिष्ट एवं मीठा होता है।
लीची की व्यावसायिक खेती की लिए गूटी विधि द्वारा तैयार पौधा का ही उपयोग किया जाना चाहिए। बीजू पौधों में पैतृक गुणों के अभाव के कारण अच्छी गुणवत्ता के फल नहीं आते हैं तथा उनमें फलन भी देर से होता है। गूटी तैयार करने के लिए मई-जून के महीने में स्वस्थ एवं सीधी डाली चुन कर डाली के शीर्ष से 40-50 सें.मी. नीचे किसी गांठ के पास गोलाई में 2 सें.मी. चौड़ा छल्ला बना लेते हैं। छल्ले के ऊपरी सिरे पर आई.बी.ए. के 2000 पी.पी.एम. पेस्ट का लेप लगाकर छल्ले को नम मॉस घास से ढककर ऊपर से 400 गेज की सफेद पालीथीन का टुकड़ा लपेट कर सुतली से कसकर बांध देना चाहिए। गूटी बाँधने के लगभग 2 माह के अंदर जड़े पूर्ण रूप से विकसित हो जाती है। अत: इस समय डाली की लगभग आधी पत्तियों को निकालकर एवं मुख्य पौधे से काटकर नर्सरी में आंशिक छायादार स्थान पर लगा दिया जाता है। मॉस घास के स्थान पर तालाब की मिट्टी (40 कि.ग्रा.), सड़ी हुई गोबर की खाद (40 कि.ग्रा.), जूट के बोरे का सड़ा हुआ टुकड़ा (10 कि.ग्रा.), अरण्डी की खली (2 कि.ग्रा.), यूरिया (200 ग्रा.) के सड़े हुए मिश्रण का भी प्रयोग कर सकते है। पूरे मिश्रण को अच्छी तरह मिलाकर एवं हल्का नम करके एक जगह ढेर कर देते है तथा उसे जूट के बोरे या पालीथीन से 15-20 दिनों के लिए ढक देते हैं। जब गूटी बाँधनी हो तब मिश्रण को पानी के साथ आंटे के तरह गूँथ कर छोटी-छोटी लोई (200 ग्रा.) बना ले जिसे छल्लों पर लगाकर पालीथीन से बांध दें इस प्रकार गूटी बाँधने से जड़े अच्छी निकलती है एवं पौध स्थापना अच्छी होती है।
लीची का पूर्ण विकसित वृक्ष आकार में बड़ा होता है। अत: इसे औसतन 10x 10 मी. की दूरी पर लगाना चाहिए। लीची के पौध की रोपाई से पहले खेत में रेखांकन करके पौधा लगाने का स्थान सुनिश्चित कर लेते है। तत्पश्चात चिन्हित स्थान पर अप्रैल-मई माह में 90x 90x 90 सें.मी. आकार के गड्ढे खोद कर ऊपर की आधी मिट्टी को एक तरफ तथा नीचे की आधी मिट्टी को दूसरे तरफ रख देते हैं। वर्षा प्रारम्भ होते ही जून के महीने में 2-3 टोकरी गोबर की सड़ी हुई खाद (कम्पोस्ट), 2 कि.ग्रा. करंज अथवा नीम की खली, 1.0 कि.ग्रा. हड्डी का चूरा अथवा सिंगल सुपर फास्फेट एवं 50 ग्रा. क्लोरपाइरीफ़ॉस, 10: धूल/20 ग्रा. फ्यूराडान-3 जी/20 ग्रा. थीमेट-10 जी को गड्ढे की ऊपरी सतह की मिट्टी में अच्छी तरह मिलाकर गड्ढा भर देना चाहिए। गड्ढे को खेत की सामान्य सतह से 10-15 सें.मी. ऊँचा भरना चाहिए। वर्षा ऋतु में गड्ढे की मिट्टी दब जाने के बाद उसके बीचों बीच में खुरपी की सहायता से पौधे की पिंडी के आकार की जगह बनाकर पौधा लगा देना चाहिए। पौधा लगाने के पश्चात उसके पास की मिट्टी को ठीक से दबा दें एवं पौधे के चारों तरफ एक थाला बनाकर 2-3 बाल्टी (25-30 ली.) पानी डाल देना चाहिए। तत्पश्चात वर्षा न होने पर पौधों के पुर्नस्थापना होने तक पानी देते रहना चाहिए।
प्रारम्भ के 2-3 वर्षो तक लीची के पौधों को 30 कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद, 2 कि.ग्रा. करंज की खली, 250 ग्रा. यूरिया, 150 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 100 ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए। तत्पश्चात पौधे की बढ़वार के साथ-साथ खाद की मात्रा में वृद्धि करते जाना चाहिए। इस प्रकार 5 कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद 250 ग्रा. व 150 ग्रा. करंज की खली, 150 ग्रा. यूरिया, 200 ग्रा. सि.सु.फा., एवं 0.6 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए। करंज की खली एवं कम्पोस्ट के प्रयोग से लीची के फल की गुणवत्ता एवं पैदावार में वृद्धि होती है। लीची के पौधों में फल तोड़ाई के बाद नए कल्ले आते हैं जिनपर अगले वर्ष फलन आती है। अत: अधिक औजपूर्ण एवं स्वस्थ कल्लों के विकास के लिये खाद, फ़ॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण एवं नेत्रजन की दो तिहाई मात्रा जून-जुलाई में फल की तोड़ाई एवं वृक्ष के काट-छांट के साथ-साथ देना चाहिये। परीक्षण से यह देखा गया है कि पूर्ण विकसित पौधों के तनों से 200-250 सें.मी. की दूरी पर गोलाई में 60 सें.मी. गहरी मिट्टी के मिश्रण से भर दें। इस प्रक्रिया से पौधों में नई शोषक जड़ों (फीडर रूट्स) का अधिक विकास होता है और खाद एवं उर्वरक का पूर्ण उपयोग होता है। खाद देने के पश्चात यदि वर्षा नहीं होती है तो सिंचाई करना आवश्यक है। लीची के फलों के तोड़ाई के तुरन्त बाद खाद दे देने से पौधों में कल्लों का विकास अच्छा होता है एवं फलन अच्छी होती है। शेष नत्रजन की एक तिहाई मात्रा फल विकास के समय जब फल मटर के आकार का हो जाएं सिंचाई के साथ देना चाहिए। अम्लीय मृदा में 10-15 कि.ग्रा. चूना प्रति वृक्ष 3 वर्ष के अंतराल पर देने से उपज में वृद्धि देखी गई है। जिन बगीचों में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई दे उनमें 150-200 ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति वृक्ष की दर से सितम्बर माह में अन्य उर्वरकों के साथ देना लाभकारी पाया गया है।
लीची के छोटे पौधों में स्थापना के समय नियमित सिंचाई करनी चाहिये। जिसके लिये सर्दियों में 5-6 दिनों तक गर्मी में 3-4 दिनों के अंतराल पर थाला विधि से सिंचाई करनी चाहिए। लीची के पूर्ण विकसित पौधे जिनमें फल लगना प्रारम्भ हो गया हो उसमें फूल आने के 3-4 माह पूर्व (नवम्बर से फरवरी) पानी नहीं देना चाहिए। लीची के पौधों में फल पकने के छ: सप्ताह पूर्व (अप्रैल के प्रारम्भ) से ही फलों का विकास तेजी से होने लगता है। अत: जिन पौधों में फलन प्रारम्भ हो गया है उनमें इस समय उचित जल प्रबंध एवं सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पानी की कमी से फल का विकास रुक जाता है एवं फल चटखने लगते हैं। अत: उचित जल प्रबंध से गूदे का समुचित विकास होता है तथा फल चटखने की समस्या कम हो जाती है। विकसित पौधों में छत्रक के नीचे छोटे-छोटे फव्वारे लगाकर लगातर नमी बनाए रखा जा सकता है। शाम के समय बगीचे की सिंचाई करने से पौधों द्वारा जल का पूर्ण उपयोग होता है। बूंद-बूंद सिंचाई विधि द्वारा प्रतिदिन सुबह एवं शाम चार घंटा पानी (40-50) लीटर देने से लीची के फलों का अच्छा विकास होता है। लीची के सफल उत्पादन के लिए मृदा में लगातार उपयुक्त जमी का रहना अतिआवश्यक है। जिसके लिए सिंचाई के साथ-साथ मल्विंग द्वारा जल संरक्षण करना लाभदायक पाया गया है। पौधे के मुख्य तने के चारों तरफ सूखे खरपतवार या धान के पुआल की अवरोध परत बिछाकर मृदा जल को संरक्षित किया जा सकता है। इससे मृदा के भौतिक दशा में सुधार, खरपतवार नियंत्रण एवं उपज अच्छी होती है।
लीची के पौधे लगाने के पश्चात शुरुआत के 3-4 वर्षो तक समुचित देख-रेख करने की आवश्यकता पड़ती है। खातौर से ग्रीष्म ऋतु में तेज गर्म हवा (लू) एवं शीत ऋतु में पाले से बचाव के लिए कारगर प्रबंध करना चाहिए। प्रारम्भ के 3-4 वर्षो में पौधों की अवांछित शाखाओं को निकाल देना चाहिए जिससे मुख्य तने का उचित विकास हो सके। तत्पश्चात चारों दिशाओं में 3-4 मुख्य शाखाओं को विकसित होने देना चाहिए जिससे वृक्ष का आकार सुडौल, ढांचा मजबूत एवं फलन अच्छी आती है। लीची के फल देने वाले पौधों में प्रतिवर्ष अच्छी उपज के लिए फल तोड़ाई के समय 15-20 सें.मी. डाली सहित तोड़ने से उनमें अगले वर्ष अच्छे कल्ले निकलते हैं तथा उपज में वृद्धि होती है। पूर्ण विकसित पौधों में शाखाओं के घने होने के कारण पौधों के आंतरिक भाग में सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाता है जिससे अनेक कीड़ों एवं बीमारियों का प्रकोप देखा गया है। अध्ययन से यह भी देखा गया है कि लीची के पौधों में अधिकतम फलन नीचे के एक तिहाई छत्रक से होती है तथा वृक्ष के ऊपरी दो तिहाई भाग से अपेक्षाकृत कम उपज प्राप्त होती है। अत: पूर्ण विकसित पौधों के बीच की शाखाएं जिनका विकास सीधा ऊपर के तरफ हो रहा है, को काट देने से उपज में बिना किसी क्षति के पौधों के अंदर धूप एवं रोशनी का आवागमन बढ़ाया जा सकता है। ऐसा करने से तना वेधक कीड़ों का प्रकोप कम होता है तथा पौधों के अंदर के तरफ भी फलन आती है। फल तोड़ाई के पश्चात सूखी, रोगग्रसित अथवा कैची शाखाओं को काट देना चाहिए। पौधों की समुचित देख-रेख, गुड़ाई तथा कीड़े एवं बीमारियों से रक्षा करने से पौधों का विकास अच्छा होता है एवं उपज बढ़ती है।
लीची के वृक्ष को पूर्ण रूप से तैयार होने में लगभग 15-16 वर्ष का समय लगता है। अत: प्रारम्भिक अवस्था में लीची के पौधों के बीच की खाली पड़ी जमीन का सदुपयोग अन्य फलदार पौधों एवं दलहनी फसलों/सब्जियों को लगाकर किया जा सकता है। इससे किसान भाईयों को अतिरिक्त लाभ के साथ-साथ मृदा की उर्वराशक्ति का भी विकास होता है। शोध कार्यो से यह पता चला है कि लीची में पूरक पौधों के रूप में अमरुद, शरीफा एवं पपीता जैसे फलदार वृक्ष लगाए जा सकते है। यें पौधे लीची के दो पौधों के बीच में रेखांकित करके 5 5 मी. की दूरी पर लगाने चाहिए। इस प्रकार एक हेक्टेयर जमीन में लीची के 100 पौधे तथा 300 पूरक पौधे लगाए जा सकते हैं। अंतरशस्यन के रूप में दलहनी, तिलहनी एवं अन्य फसलें जैसे बोदी, फ्रेंचबीन, भिन्डी, मूंग, कुल्थी, सरगुजा, महुआ एवं धान आदि की खेती सफलतापूर्णक की जा सकती है।
गूटी द्वारा तैयार लीची के पौधों में चार से पाँच वर्षो के बाद फूल एवं फल आना आरम्भ हो जाता है। प्रयोग से यह देखा गया है कि फूल आने के संभावित समय से लगभग तीन माह पहले पौधों में सिंचाई बंद करने से मंजर बहुत ही अच्छा आता है। लीची के पौधों में तीन प्रकार के फूल आते हैं। शुद्ध नर फूल सबसे पहले आते है जो मादा फूल आने के पहले ही झड़ जाते है। अत: इनका उपयोग परागण कार्य में नही हो पाता है। कार्यकारी नर फूल जिनमें पुंकेसर भाग अधिक विकसित तथा अंडाशय भाग विकसित नही होता है, मादा फूल के साथ ही आते है। इन्ही नर पुष्पों से मधुमक्खियों द्वारा परागण होता है। लीची में उभयलिंगी मादा फूलों में ही फल का विकास होता है। इन फूलों में पुंकेसर अंडाशय के नीचे होता है अत: स्वयं परागण न होकर कीटों द्वारा परागण की आवश्यकता होती है इसलिये अधिक फलन के लिये मादा फूलों का समुचित परागण होना चाहिए और परागण के समय कीटनाशी दवाओं का छिड़काव नही करना चाहिए इससे फलन प्रभावित होती है।
लीचे के बगीचे में अच्छी फलन एवं उत्तम गुणवत्ता के लिये निम्नलिखित बिन्दुओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए:
फलों का फटना: फल विकसित होने के समय भूमि में नमी तथा तेज गर्म हवाओं से फल अधिक फटते हैं। यह समरूप फल विकास की द्वितीय अवस्था (अप्रैल के तृतीय सप्ताह) में आती है जिसका सीधा संबंध भूमि में जल स्तर तथा नमी धारण करने की क्षमता से है। सामान्य तौर पर जल्दी पकने वाली किस्मों में फल चटखन की समस्या देर से पकने वाली किस्मों की अपेक्षा अधिक पायी जाती है। इसके निराकरण के लिए वायु रोधी वृक्षों को बाग़ के चारों तरफ लगाएं तथा अक्टूबर माह में पौधों के नीचे मल्विंग करें। मृदा में नमी बनाए रखने के लिए अप्रैल के प्रथम सप्ताह से फलों के पकने एवं उनकी तोड़ाई तक बाग़ की हल्की सिंचाई करें और पौधों पर जल छिड़काव करें। परीक्षणों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पानी के उचित प्रबंध के साथ-साथ फल लगने के 15 दिनों के बाद से 15 दिनों के अंतराल पर पौधों पर बोरेक्स (5 ग्रा./ली.) या बोरिक अम्ल (4 ग्रा./ली.) के घोल का 2-3 छिड़काव करने से फलों के फटने की समस्या कम जो जाती है एवं पैदावार अच्छी होती है।
फलों का झड़ना: भूमि में नेत्रजन एवं पानी की कमी तथा गर्म एवं तेज हवाओं के कारण लीची के फल छोटी अवस्था में ही झड़ने लगते है। खाद एवं जल की उचित व्यवस्था करने से फल झड़ने की समस्या नहीं आती है। फल लगने के एक सप्ताह पश्चात प्लैनोफिक्स (2 मि.ली./4.8 ली.) या एन.ए.ए. (20 मि.ग्रा./ली.) के घोल का एक छिड़काव करने से फलों को झड़ने से बचाया जा सकता है।
लीची की मकड़ी (लीची माइट): सूक्ष्मदर्शी मकड़ी के नवजात और वयस्क दोनों ही कोमल पत्तियों की निचली सतह, टहनियों तथा पुष्पवृन्तों से चिपक कर लगातार रस चूसते रहते हैं, जिससे पत्तियाँ मोटी एवं लम्बी होकर मुड़ जाती है और उनपर मखमली (भेल्वेटी) रुआं सा निकल जाता है जो बाद में भूरे या काले रंग में परिवर्तित हो जाता है तथा पत्ती में गड्ढे बन जाते है। पत्तियाँ परिपक्व होने के पहले ही गिरने लगती हैं, पौधे कमजोर हो जाते हैं और टहनियों में फलन बहुत कम हो जाता है। इसकी रोकथाम के लिए समय-समय पर ग्रसित पत्तियों एवं टहनियों को काटकर जला देना चाहिए। सितम्बर-अक्टूबर में नई कोपलों के आगमन के समय केलथेन या फ़ॉसफामिडान (1.25 मि.ली./लीटर) का घोल बनाकर 7-10 दिन के अंतराल पर दो छिड़काव लाभप्रद पाया गया है।
टहनी छेदक (शूट बोरर): इसके पिल्लू पौधों की नई कोपलों के मुलायम टहनियों से प्रवेश कर उनके भीतरी भाग को खाते हैं इससे टहनियां मुर्झा कर सूख जाती हैं और पौधों की बढ़वार रुक जाती है। इसके निराकरण के लिए प्रभावित टहनी को तोड़कर जला देना चाहिए एवं सायपरमेथ्रिन (1.0 मि.ली./ली.) या पाडान (2 ग्रा.ली.) घोल का कोपलों के आने के समय 7 दिनों के अंतराल पर दो छिड़काव करना चाहिए।
फल एवं बीज बेधक (फ्रूट एवं सीड बोरर): फल परिपक्व होने के पहले यदि मौसम में अच्छी नमी का समावेश होता है तो फल वेधक के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है। इसके पिल्लू लीची के गूदे के ही रंग के होते हैं जो डंठल के पास से फलों में प्रवेश कर फल को खाकर उन्हें हानि पहुँचाते हैं अत: फल खाने योग्य नहीं रहते। इसके प्रकोप से बचाव के लिए फल तोड़ाई के लगभग 40-45 दिन पहले से सायपरमेथ्रिन का दो छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें।
लीची बग: अक्सर मार्च-अप्रैल एवं जुलाई-अगस्त के महीने में पौधों पर लीची बग का प्रकोप देखा जाता है। इसके नवजात और वयस्क दोनों ही नरम टहनियों, पत्तियों एवं फलों से रस चूसकर उन्हें कमजोर कर देते हैं व फलों की बढ़वार रुक जाती है। वृक्ष के पास जाने पर एक विशेष प्रकार की दुर्गंध से इस कीड़े के प्रकोप का पता लगाया जा सकता है। इससे बचाव के लिए नवजात कीड़ों के दिखाई देते ही मेटासिस्टाक्स (1.0 मि.ली./ली.) या फ़ॉस्फामिडान (1.25 मि.ली./ली.) के घोल का दो छिड़काव 10-15 दिनों के अंतराल पर करें।
छिलका खाने वाले पिल्लू (बार्क इटिंग कैटरपिलर): ये पिल्लू बड़े आकार के होते है जो पेड़ों के छिलके खाकर जीवन निर्वाह करते हैं एवं छिपकर रहते हैं। तनों में छेदक अपने बचाव के लिए टहनियों के ऊपर अपनी विष्टा की सहायता से जाला बनाते हैं। इनके प्रकोप से टहनियां कमजोर हो जाती हैं और कभी भी टूटकर गिर सकती है। इसका रोकथाम भी जीवित छिद्रों में पेट्रोल या नुवान या फार्मलीन से भीगी रुई ठूंसकर चिकनी मिट्टी से बंद करके किया जा सकता है। इन कीड़ों से बचाव के लिए बगीचे को साफ़ रखना श्रेयस्कर पाया गया है।
लीची के पौधों में जनवरी-फरवरी में फूल आते हैं एवं फल मई-जून में पक कर तैयार हो जाते है। फल पकने के बाद गहरे गुलाबी रंग के हो जाते हैं और उनके ऊपर के छोटे-छोटे उभार चपटे हो जाते है। प्रारम्भिक अवस्था में लीची के पौधों से उपज कम मिलती है। परन्तु जैसे-जैसे पौधों का आकार बढ़ता है फलन एवं उपज में वृद्धि होती है। पूर्ण विकसित 15-20 वर्ष के लीची के पौधों से औसतन 70-100 कि.ग्रा. फल प्रति वृक्ष प्रतिवर्ष प्राप्त किये जा सकते है।
लीची झारखंड प्रदेश का एक महत्वपूर्ण फल होता जा रहा है। यहाँ की जलवायु एवं मिट्टी लीची की खेती के लिए सर्वथा उचित हैं। पूर्व में ऐसा मानना था कि लीची केवल उत्तरी बिहार में हो हो सकता है, परन्तु अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो गया है कि झारखंड की लीची उत्तरी बिहार के लीची से किसी मामले में कम नही है। यहाँ की लीची अन्य स्थानों में कम नहीं है। यहाँ की लीची अन्य स्थानों की तुलना में 15-20 दिन पहले पक कर तैयार हो जाती है तथा उनमें मिठास और गुणवत्ता भी अच्छी होती है। अत: झारखंड में लीची के बागीचों में विभिन्न कृषि क्रियाओं को सही समय और उचित तरीके से करना चाहिए। छोटे नवजात पौधों की उचित कांट-छांट तथा ढांचा निर्माण एवं फल देने वाले पौधा में कांट-छांट अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है अत: इस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
लीची के नवजात पौधों में कांट-छांट का मुख्य उद्देश्य ढांचा निर्माण होता है। जिससे पौधे लम्बे समय तक सतत रूप से फल दे सकें। प्रारम्भ के 3-4 वर्षो तक पौधों के मुख्य तने की अवांछित शाखाओं को निकाल देने से मुख्य तनों का अच्छा विकास होता है और अंतरशस्यन में भी आसानी रहती है। जमीन से लगभग 1 मी. ऊँचाई पर चारों दिशाओं में 3-4 मुख्य शाखाएं रखने से पौधों का ढांचा मजबूत एवं फलन अच्छी होती है। समय-समय पर कैंची व सीधा ऊपर की ओर बढ़ने वाली शाखाओं को काटते रहना चाहिए।
लीची के फलों की तोड़ाई के बाद उसमें नये कल्ले निकलते हैं जिन पर दिसम्बर-जनवरी में मंजर और फूल आते हैं। यदि फलों की तोड़ाई करते समय किसी तेज धारदार औजार से गुच्छे के साथ-साथ 15 -20 सें.मी. टहनियों को भी काट दिया जाय तो उन्ही डालियों से जुलाई-अगस्त में औजपूर्ण एवं स्वस्थ कल्लों का विकास होता है जिस पर फलन अच्छी होती है।
लीची एक सदाबहार फलदार वृक्ष है जिसके पूर्ण विकसित पौधों में शाखाओं के घने होने के कारण एक तरफ तो पौधों के भीतरी भाग में सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाता वहीं दूसरी तरफ पौधों पर अनेक कीड़ों और बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है। लीची की अधिकतम फलन क्षत्रक के निचले एक तिहाई भाग में होता है। क्षत्रक के ऊपरी भाग पर लगने वाले फल या तो चिड़ियों द्वारा नष्ट कर दिये जाते है या फट जाते है जिससे कोई व्यावसायिक उपज नहीं मिल पाती। अत: पूर्ण विकसित पौधों के बीच की शाखाएं जिनका विकास सीधा ऊपर के तरफ हो रहा है, इसे काट देने से पौधों के भीतरी भाग में धूप एवं रोशनी का आवागमन बढ़ाया जा सकता है साथ ही साथ क्षत्रक के अंदर के तरफ भी गुच्छे लगने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है। लीची के शाही किस्म के पौधों के बीच वाले भाग से शाखाओं को काट देने से उसमें 74 प्रतिशत कल्लों में मंजर आये और प्रति गुच्छे में फलों की संख्या 7.2 फल/गुच्छा रही। बिना काट-छांट किये हुए पौधों में केवल 11.1 प्रतिशत कल्लों में मंजर लगे और औसतन 0.2 फल/मंजर प्राप्त हुए।
इसके अतिरिक्त लीची के पौधों के अंदर की पतली, सूखी तथा न फल देने वाली शाखाओं को उनके निकलने के स्थान से काट देने से अन्य शाखाओं में कीड़ों एवं बीमारियों का प्रकोप कम हो जाता है। कटाई के बाद शाखाओं के कटे भाग पर कॉपर-ऑक्सीक्लोराइड तथा करंज के मिश्रण तेल का लेप लगा देने से किसी भी प्रकार के संक्रमण की समस्या नहीं रहती है। काट-छांट के पश्चात पौधों की समुचित देखरेख, खाद एवं उर्वरक प्रयोग तथा पौधों के नीचे गुड़ाई करने से पौधों में अच्छे कल्लों का विकास होता है तथा उपज भी बढ़ती है
नये बगीचों का प्रबंध
लीची के नये बाग़ को लागाने से लेकर उनके फलन में आने तक समुचित बाग़ प्रबंधन करना आवश्यक होता है। रेखांकन के पश्चात उचित स्थान पर एवं ठीक ढंग से पौधा लगाने से पूर्व मिट्टी की जाँच करा कर उसके अनुरूप खाद देने तथा समय-समय पर संस्तुत कृषि क्रियाएँ करने से बाग से निरंतर एवं भरपूर पैदावार ली जा सकती है। नये बगीचों के लिए संस्तुत की गयी कृषि क्रियाओं का माहवार विवरण इस प्रकार है।
जनवरी
फरवरी
मार्च
अप्रैल
मई
जून
जुलाई
अगस्त
सितम्बर
अक्टूबर
नवम्बर
दिसम्बर
फल देनेवाले बगीचों का प्रबंध
लीची के पौधे जब फल देना प्रारम्भ कर देते है तब उनका विशेष ध्यान रखना चाहिए। समय-समय पर उचित मात्रा में खाद में उर्वरक का प्रयोग, काट-छांट, कीट बीमारियों का नियंत्रण एवं दैहिक विकारों को दूर करने से फलोत्पादन में वृद्धि एवं गुणवत्ता में सुधार होता है। फल देने वाले बागीचों में विभिन्न कृषि क्रियाओं का माहवार विवरण इस प्रकार है।
जनवरी
फरवरी
अप्रैल
मई
जून
जुलाई
अगस्त
सितम्बर
अक्टूबर
नवम्बर
दिसम्बर
बागीचे में खाद एवं पानी का प्रयोग बिल्कुल न करें।
स्त्रोत: समेति, कृषि विभाग , झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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