सरसों का रबी की तिलहनी फसली में एक प्रमुख स्थान है, सरसों की खेती सीमित सिंचाई की दशा में भी अधिक लाभदायक फसल है, सरसों की फसल के लिए उन्नत विधियाँ अपनाने से उत्पादन एवं उत्पादकता में बहुत ही वृद्धि होती है।
सरसों की उन्नतशील प्रजातियाँ
राई या सरसों के लिए बोई जाने वाली उन्नतशील प्रजातियाँ जैसे क्रांति, माया, वरुणा, इसे हम टी-59 भी कहते हैं, पूसा बोल्ड उर्वशी, तथा नरेन्द्र राई प्रजातियाँ की बुवाई सिंचित दशा में की जाती है तथा असिंचित दशा में बोई जाने वाली सरसों की प्रजातियाँ जैसे की वरुणा, वैभव तथा वरदान, इत्यादि प्रजातियाँ की बवाई करना चाहिए।
जलवायु और भूमि की आवश्यकता
सरसों की फसल के लिए 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान होना चाहिए, सरसों की फसल के लिए दोमट भूमि सर्वोतम होती है, जिसमें की जल निकास उचित प्रबन्ध होना चाहिए।
भूमि की तैयारी
सरसों की खेती के लिए खेत की तैयारी सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए, इसके पश्चात से तीन जुताईयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से करना चाहिए, इसकी जुताई करने के पश्चात पाटा लगा कर खेत को समतल करना अति आवश्यक हैं।
बीज दर
सिंचित क्षेत्रों में सरसों की फसल की बुवाई के लिए 5 से 6 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टर के दर से प्रयोग करना चाहिए।
बीज का शोधन
सरसों की फसल के लिए बीज जनित रोगों की सुरक्षा हेतु 2 से 5 ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए।
बुवाई के लिए उपयुक्त समय
सरसों की बुवाई का उपयुक्त समय सितम्बर के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक है, सरसों की बुवाई देशी हल के पीछे 5 से 6 सेंटीमीटर गहरे कूडो में 45 सेंटीमीटर की दूरी पर करना चाहिए।
फसल में सिंचाई
सरसों की फसल में पहली सिंचाई फूल आने के समय तथा दूसरी सिंचाई फलियाँ में दाने भरने की अवस्था में करना चाहिए, यदि जाड़े में वर्षा हो जाती है, तो दूसरी सिंचाई न भी करें तो उपज अच्छी प्राप्त हो जाती है।
खाद और उर्वरकों का प्रयोग
सरसों की खेती के लिए 60 कुन्तल गोबर की सड़ी हुई खाद की बुवाई से पूर्व अंतिम जुताई के समय खेत में मिला देना चाहिए तथा सिंचित दशा में 120 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 60 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करते हैं, नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई से पहले, अंतिम जुताई के समय खेत में मिला देना चाहिए, शेष आधी नाइट्रोजन की मात्रा बुवाई के 25 से 30 दिन बाद टापड़ेसिग रूप में प्रयोग करना चाहिए।
खरपतवार का नियत्रण
सरसों की खेती में बुवाई के 15 से 20 दिन बाद घने पौधों को निकाल कर उनकी आपसी दूरी 15 सेन्टीमीटर कर देनी चाहिए, खरपतवार नष्ट करने के लिए एक निराईगुड़ाई सिंचाई के पहले और दूसरी सिंचाई के बाद करें रसायन द्वारा
खरपतवार नियंत्रण के लिए पेंडामेथालिन 30 ई.सी. रसायन की 3.3 लीटर मात्रा की प्रति हैक्टर की दर से 800 से 1000 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए, बुवाई के 2-3 दिन अंतर पर यह छिड़काव करना अति आवश्यक है।
फसल में लगने वाले रोगों का नियंत्रण
सरसों की फसल में प्रमुख रोग जैसे आल्टरनेरिया, पत्ती झुलसा रोग, सफ़ेद किट्ट रोग, चूणिल आसिता रोग तथा तुलासिता रोग फसल में लगते हैं, इन रोगों के नियत्रण के लिए मेन्कोजेब 75 प्रतिशत नामक रसायन की 800-1000 लीटर पानी में मिलकर छिड़काव करना चाहिए।
फसल में कीट की रोकथाम
सरसों में कीट अलग अलग तरह के होते हैं
सरसों की आरा मक्खी यह काले रंग की घरेलु मक्खी से छोटी होती है, मादा का अंडा रोपण आरी के आकार का होने के कारण इसे आरा मक्खी कहते हैं, इस कीट की सुड़ियाँ पत्तियों के किनारे पर छेद बनती है और बहुत तेजी से खाती है, इसके नियत्रण के लिए मैलाथियान 50 ई.सी. 1.5 लीटर की 700 से 800 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
कीट के प्रौढ़ तथा शिशु अपने चूसने वाले मुखंगों को पौधों की कोमल पत्तियों, शाखाओं, फूलों, तनी तथा फलियों के रस चूसते हैं, इसका आक्रमण अक्टूबर से फसल कटने तक कभी भी हो सकता है, इसके नियंत्रण के लिए डाईमेथोएट 30 ई.सी. 1 लीटर या फेंटोथियान 50 ई.सी. 1.5 लीटर मात्रा की 700 से 800 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
माहू की सबसे बड़ी समस्या है, यह पंखहीन तथा पंख युक्त हल्के सिलेटी या हरे रंग का कीट होता है, इस कीट के प्रौढ़ तथा शिशु पौधों के कोमल तनों, पत्तियों, फूली एवम नयी फलियों के रस चूसते हैं, इस कीट का प्रकोप दिसंबर से मार्च तक रहता है, इसके नियंत्रण के लिए डाईमेथोएट 30 ई.सी. 1 लीटर फेंटोथियान 50 ई.सी. 1 लीटर मात्रा की 700 से 800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना अति आवश्यक है।
फसल की कटाई और भण्डारण
सरसों की फसल में जब 75% फलियाँ सुनहरे रंग की हो जाए, तब फसल को काटकर, सुखाकर या मड़ाई करके बीज अलग कर लेना चाहिए, सरसों के बीज को अच्छी तरह सुखाकर ही भण्डारण करना चाहिए।
उपज
असिंचित क्षेत्रों में इसकी पैदावार 20 से 25 कुन्तल तक तथा सिंचित क्षेत्रों में 25 से 30 कुन्तल प्रति हैक्टर तक प्राप्त हो जाती हैं।
स्त्रोत: कृषि विज्ञान केंद्र,बिस्वान तहसील,जिला-सीतापुर,उत्तरप्रदेश