विज्ञान की अभूतपूर्व उपलब्धियों से मानव जीवन का हर पहलू निरंतर प्रभावित हो रहा है। जहाँ एक ओर मनुष्य अन्तरिक्ष में गोते लगा रहा है तो दूसरी ओर जैविक गुण सूत्रों की रचना का रहस्य समझकर असाध्य रोगों को ठीक करने में सफल हो रहा है। नित नये उपकरणों से रोगों की सटीक पहचान एवं नये-नये यंत्रों तथा नई दवाओं से गंभीर रोगों का निदान सम्भव हो रहा है। इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद अब यह भी स्पष्ट होने लगा है कि स्वस्थ रहने एवं रोगों के बचाव और उनकी चिकित्सा में हजारों पीढ़ियों द्वारा अर्जित परम्परागत ज्ञान का महत्व कुछ कम नहीं है।
युगों-युगों से मनुष्य प्रकृति का हिस्सा रहा है। डेढ़ दो सौ सालों में हुए औद्योगिक विकास के पहले वह अपनी सभी आवश्यकताओं के लिए पूर्णत: प्रकृति पर ही निर्भर था। न जाने कितनी पीढ़ियाँ मनुष्य ने जंगल, पहाड़, नदियों एवं पेड़ पौधों के साथ गुजारी हैं। विकास के क्रम में हर पीढ़ी ने प्रकृति में उपलब्ध साधनों का प्रयोग जीवन की आवश्यकताओं के लिए किया एवं अपने अनुभवों और अर्जित ज्ञान को अपनी आने वाली पीढ़ी को सौंप दिया। इस क्रम में उसने अपने लिए भोजन सामग्रियों को पहचाना, बीमार पड़ने या अस्वस्थ होने पर प्रकृति में उपलब्ध हजारों पेड़ पौधों के प्रयोग से ही उसे ठीक किया। हजारों पीढ़ियों द्वारा अर्जित यह जीवन ज्ञान परम्परा के रूप में सुरक्षित रहा। इस ज्ञान के लिए जीवन ही रही उसकी प्रयोगशाला एंव ज्ञान का प्रयोग ही रही उसकी निरंतरता की विधि।
दादी ने बताया बच्चे के पेट में मचोड़ अजवाइन का पानी पिलाने से या अजवाइन की पोटली के पेट पर सेंक करने से ठीक हो जाते हैं, बेटी या बहु ने उसे प्रयोग किया – लाभ हुआ और बहु बेटी ने अपना अनुभव सौंप दिया अपनी अगली पीढ़ी को और इसी प्रकार संकलित होता गया, बढ़ता गया परम्परागत ज्ञान का अमूल्य भंडार।
इसी प्रकार स्वास्थ्य विषय पर काम करने वाले मनिषियों ने ज्ञान की साधना कर, सूक्ष्म अवलोकन कर पेड़ पौधों के गुणों एवं उपयोगों को जाना, परखा, व्यवहार किया और अर्जिज ज्ञान को बाँट दिया समाज के बीच सर्वे सन्तु निरामया की भावना से। पेड़ पौधों के उपयोग की यह परम्परा निरंतर चली आ रही है आज भी। अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ कि विश्व की लगभग 70 प्रतिशत आबादी के लिए यही परम्परागत ज्ञान ही स्वास्थ्य रक्षा एवं रोग निवारण का साधन है।
आधुनिक चिकित्सा के बढ़ते खर्च, इसकी जटीलता, अनेक रासायनिक दवाओं के कुप्रभावों एवं अनेक रोगों में आधुनिक चिकित्सा की असफलता के कारण विश्व भर के लोगों की रूचि परम्परागत रूप से व्यवहार की जाने वाली वनौषधियों में बढ़ने लगी है। रूचि के साथ-साथ बढ़ रहा है इनका प्रयोग। लोगों के बीच इस बढ़ती रूचि एवं इनके बढ़ते प्रयोग और लाभ के कारण दवा बनाने वाली कम्पनियों एवं स्वास्थ्य वैज्ञानिकों ने भी परम्परागत औषधीय पौधों पर अनुसंधान तेज कर दिये हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि विगत 15-20 वर्षों में हुए हजारों शोधों से परम्परागत औषधीय पौधों के सुरक्षित एवं उपयोगी होने के तथ्यों की पुष्टि हुई है। इन निष्कर्षो के कारण इस दिशा में काम करने के उत्साह में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है।
पेड़ पौधों के परम्परागत ज्ञान के मामले में भारत अत्यंत धनी है। एक विस्तृत सर्वे के अनुसार भारत में रहने वाली विभिन्न जनजातियाँ 7500 से अधिक प्रकार के पेड़ पौधों को दवा के लिए उपयोग करते हैं।
आधुनिक चिकित्सा एलापैथ अभी शहरों, कस्बों एवं बड़े गाँवों में ही उपलब्ध है जबकि 70% गाँवों में रहनेवाले नागरिक परम्परागत पेड़ पौधों के प्रयोग से ही अपनी स्वास्थ्य समस्याओं का निराकरण कर लेते हैं।
आधुनिक चिकित्सा के लिए डाक्टरों के प्रशिक्षण में 5-8 वर्षों का समय लगता है और यह शिक्षा अत्यन्त महंगी भी है। इसके अलावा इस पद्धति से प्रशिक्षित डाक्टर गाँवों में अक्सर इलाज नहीं कर पाते। न वहाँ जाँच के साधन हैं, न आवश्यक दवा और न व्यय करने की क्षमता। ऐसे में परम्परागत इलाज के तरीकों एवं पेड़ पौधों का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। अनेक पेड़ पौधे तो प्राकृतिक रूप से उपलब्ध हैं या इनको आसानी से लगाया जा सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इन तथ्यों का विस्तार से अध्ययन कर सभी देशों की सरकारों को परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों एवं औषधीय पौधों को बढ़ावा देने के कार्यक्रम बनाने एवं उन्हें स्वास्थ्य सेवाओं में समुचित स्थान देने की सलाह दी है।
भारत के हर राज्य के गाँवों में हजारों की संख्या में परम्परागत चिकित्सक मौजूद हैं जो स्थानीय रूप से उपलब्ध औषधीय पौधों के प्रयोग से सर्दी/खाँसी/बुखार/श्वेत प्रदर जैसी अनेक बीमारियों का इलाज सफलता से कर लेते हैं। इतना ही नहीं कुछ कठिन रोगों जैसे दमा, गठिया आदि की चिकित्सा भी कुछ परम्परागत चिकित्सकों द्वारा सफलता से की जाती।
मनुष्य के साथ-साथ पशु पक्षियों की चिकित्सा भी परम्परागत चिकित्सक वनौषधियों की सहायता से सफलता से कर लेते हैं। जैसे – झारखंड के गाँवों में हड़जोड़वा या अमृता के प्रयोग से जानवरों की हड्डी टूटने की चिकित्सा की जानकारी अनेक लोगों को है जिसका नियमित सफल प्रयोग एक आम जानकारी का विषय है।
अनके अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों के मतानुसार वनौषधियों के प्रयोग में निरंतर वृद्धि होती एंड आने वाले समय में 50-70 प्रतिशत दवाएं इन्ही परम्परागत वनौषधियों से बनाई जाने लगेंगी।
परम्परागत औषधीय पौधों के प्रचार प्रसार एवं उपयोग के बढ़ने से जहाँ एक ओर स्वास्थ्य के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता आयेगी, दूसरी ओर दवाओं पर होने वाला खर्च भी कम होगा। कृत्रिम रसायनों से बनी दवाओं के कुप्रभावों से भी बचा जा सकेगा। परम्परागत औषधीय पौधों की बढ़ती मांग के कारण इनकी खेती से ग्रामीण रोजगार बढ़ने की भी अच्छी सम्भावनाएँ हैं।
कुछ गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा किये जा रहे प्रयासों से यह बात सामने आयी है कि 20-25 परम्परागत पौधों के प्रयोग की जानकारी से 70 प्रतिशत आम रोगों की चिकित्सा लोग स्वयं कर सकते हैं – बिना चिकित्सक एवं बिना एलोपैथ दवाओं के।
अत: परम्परागत इलाज में वनौषधियों की उपयोगिता हमेशा बनी रहेगी।
स्रोत: समेति तथा कृषि एवं गन्ना विकास विभाग, झारखंड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
इस पृष्ठ में झारखण्ड राज्य में प्रमुख औषधीय एवं सु...
इस भाग में अश्वगंधा, सतावर एवं सर्पगंधा के औषधीय ग...
इस भाग में औषधीय गुणों से भरपूर करेला, भिंडी और मे...
इस लेख में औषधीय पौधे काली तुलसी के विषय में जानका...