आलू भारत की सबसे महत्वपूर्ण फसल है, तमिलनाडु एवं केरल को छोड़कर आलू का उत्पादन पूरे देश में किया जाता है, हमारे देश में आलू पैदा करने वाले प्रदेशों में मुख्यत: उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, गुजरात, पंजाब असम एवं मध्य प्रदेश हैं, आलू उत्पादन में उत्तर प्रदेश का प्रथम स्थान है।
उत्तर प्रदेश की भौगोलिक स्थित मृदा एवं जलवायु के अनुसार आलू की प्रजातियों को मुख्य रूप से दो वर्गों में बांटा गया है, पहली सब्जी वाली किस्में जैसे कुफरी चंद्रमुखी,कुफरी बहार,कुफरी पुखराज, कुफरी अशोक,कुफरी बादशाह,कुफरी लालिमा, कुफरी सिंदूरी, कुफरी सतलज तथा कुफरी आनंद हैं। दुसरे प्रकर की आलू की प्रसंकरण योग्य किस्में जैसे कुफरी चिप्सोना-1, कुफरी चिप्सोना-2 हैं।
आलू की खेती के लिए जीवांशयुक्त बलुई दोमट भूमि एवं दोमट भूमि उपयुक्त मानी जाती है, भूमि में जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए।
आलू की फसल के लिए मध्यम शीतोष्ण वाली जलवायु की आवश्यकता होती है, भारत में आलू उन क्षेत्रों में उगाया जाता है जहाँ पर दिन के समय तापमान 35 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक न हो, तथा रात का तापमान 21 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक न हो, आलू की फसल की वृद्धि के लिए 15-25 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त माना जाता है।
आलू की फसल के लिए खेत में 2-3 जुताई के बाद खेत में बुवाई से पहले एक सिंचाई करके खेत को आवश्यकतानुसार जुताई करके पाटा लगाकर खेत को समतल एवं भुरभुरा कर लेना चाहिए।
आलू का बीज हमेशा विश्वसनीय स्रोतों विशेषकर सहकारी संस्थाओं एवं बीज उत्पादक एजेंसियों से ही प्राप्त करना चाहिए, आलू की बुवाई के लिए 40-50 ग्राम वजन वाले अच्छे अंकुरित बीज का प्रयोग करें सामान्यत आलू की एक हैक्टर फसल बोने के लिए 30-35 कुंतल बीज की आवश्यकता पड़ती है।
बीज बोने से पहले शोधन करना अति आवाश्यक है, बीज की आलुओ की बुवाई से पहले 3% अगैनोमक्र्युरल यौगिक के 0.2% घोल में 30 मिनट तक उपचारित करें तथा बीज कन्दी की छाया में सुखाकर ही बुवाई करनी चाहिए।
आलू की फसल की अगेती किस्मों की बुवाई 15 सितम्बर के आस पास की जाती है, तथा मुख्य फसल की बुवाई के लिए 15-25 अक्टूबर का समय उचित रहता है। आलू की बुवाई में लाइन से लाइन की दूरी 60 सेंटीमीटर रखें तथा कन्द से कन्द की दूरी आलू के आकर के अनुसार की जाती है जैसे की 20,40,60 व 80 ग्राम आकार वाले बीज कन्दों की क्रमश: 152030 व 40 सेंटीमीटर की दूरी पर क्रमश: रख कर मेंड़ों में 8-10 सेंटीमीटर की गहरे में बुवाई करें।
आलू की फसल में अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 7-10 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है, भारी मृदा में बुवाई के 10-12 दिन बाद अंकुरण से पहले पहली सिंचाई करनी चाहिए, आलू में दूसरी सिंचाई बुवाई के 20-22 दिन बाद तथा तीसरी सिंचाई टापड्रेसिंग एवं मिटटी चढाने के तुरंत बाद कन्द बनने की प्रारम्भिक अवस्था में करें अंतिम सिचाई खुदाई के लगभग 10 दिन पहले बंद कर देना चाहिए।
आलू की अच्छी फसल के लिए सामान्यतः 180 कि.ग्रा. नत्रजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस, तथा 100 कि.ग्रा. पोटाश की आवश्यकता पड़ती है, यदि मृदा में जस्ता एवं लोहा जैसे सूक्ष्म तत्वों की कमी है, तो 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट एवं 50 कि.ग्रा. फेरस सल्फेट को प्रति हैक्टर की दर से उर्वरकों के साथ बुवाई के पहले खेत में डालना चाहिए।
आलू की बुवाई के 20-25 दिन बाद पौधे 8-10 सेमी० ऊचाई के हो जाते हैं, तो लाइनों के बीच स्प्रिंग टायिन कल्टीवेटर या खुरपी से खरपतवार निकालने का कार्य करें, मैदानी क्षेत्री में आलू की फसल में खरपतवारों का प्रकोप बुवाई के 4-6 सप्ताह बाद अधिक होता है, खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण के लिए पेंडामेथलिन 30% का 3.3 लीटर मात्रा का 100 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के 1-2 दिन बाद तक छिड़काव कर देना चाहिए।
रोग नियंत्रण के लिए जैसे झुलसा रोग लगता है, यह रोग पौंधी की पत्तियों, डंठलों एवं कन्दी सभी पर लगता है, इस रोग के लक्षण पत्तियों में हलके पीले धब्बे दिखाई देते हैं पत्तियों के निचले भाग पर इन धब्बी में अंगूठी नुमा सफेद फफूंदी आ जाती है, इस रोग के नियंत्रण के लिए प्रतिरोधी किस्मी की बुवाई करनी चाहिए, फसल में लक्षण दिखाई देने के पूर्व मैन्कोजेब 0.2% का घोल बना कर छिड़काव 8-10 दिन के अन्तराल पर करते रहना चाहिए, फसल में भयंकर प्रकोप होने पर मेटालेक्सिल युक्त दवाओं में 0.25% के घोल का 1-2 बार छिड़काव करना अति आवश्यक है, इसके पक्षात साथ ये भी देखना है कि एक रोग कामन स्केब होता है, इस रोग से फसल कि पैदावार में कोई कमीं नहीं आती लेकिन कन्द भददे हो जाते हैं, रोग ग्रस्त कन्दी के छिल्के पर लाल सा या भूरे धब्बे बनते हैं, बीज वाले अलुओं की बुवाई से पहले 3% बोरिक एसिड के घोल में 30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए।
रोग के साथ-साथ आलू कि फसल में कीट भी अपना प्रभाव दिखाते हैं, कीट नियंत्रण के लिए जैसे माहू या एफिड, माहू आलू कि फसल में प्रत्यक्ष रूप से हानि नहीं पहुँचाता बल्कि रोग मुक्त बीज उत्पादन पर रोक लगाने में अहम् भूमिका है, इसके नित्रायण के लिए मैदानी भागो में आलू कि बुवाई 15 अक्तूबर तक तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के मैदानी भागों में 25 अक्तूबर तक कर लेनी चाहिए। फसल की माहू से बचाने के लिए फोरेट 10 जी, 100 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर कि दर से मिटटी चढाने के समय प्रयोग करना चाहिए, जब फसल पर माहू का प्रकोप दिखाई पड़े तो डाईमीथोएट 30 ईसी. कि 1 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर आलू से फसल में छिड़काव करना चाहिए। इसके साथ साथ किसान भाइयों दूसरा कीट लीफ हापर आलू कि फसल में लगता है, लीफ हापर के निम्फ तथा प्रौढ़ हरी पत्तियों का रस चूसते हैं, इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटीफास 40 ई सी. कि 1.2 लीटर कि मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलकर छिड़काव करें आवश्यकता पड़ने पर दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए।
अगेती फसल में अधिक कीमत प्राप्त करने के लिए बुवाई के 60-70 दिन के उपरांत खुदाई करनी चाहिए, जिससे कि आप को अच्छा पैसा मिल सके, मुख्य फसल कि खुदाई 20-30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पहुँचने से पहले कर लें ताकि फसल अधिक तापमान पर म्रदुगलन तथा काला गलन जैसे रोगों से फसल को बचाया जा सके।
आलू कि जल्दी तैयार होने वाली पैदावार अपेक्षाकृत कम होती है, जबकि लम्बी अवधि वाली किस्में अधिक उपज देती हैं, सामान्य किस्मों कि अपेक्षा संकर किस्मो से अधिक पैदावार मिलती है, संकर किस्मों कि उपज 600-800 कुंतल तक प्रति हैक्टर प्राप्त होती है, तथा सामान्य किस्मों से उपज 350-400 कुंतल तक उपज प्रति हैक्टर प्राप्त होती है।
स्त्रोत: कृषि विज्ञान केंद्र,बिस्वान तहसील,जिला-सीतापुर,उत्तरप्रदेश
अंतिम बार संशोधित : 3/27/2023
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