एक परखनली में बहुत नियंत्रित एवं स्वच्छ स्थितियों में पौधे के एक हिस्से या एक कोशिका समूह के उपयोग द्वारा पौधे के प्रसार को ‘टिशू कल्चर’ कहा जाता है।
केला मूलतः एक उष्णकटिबंधीय फसल है तथा 13 º सें -38 सें तापमान की रेंज में एवं 75-85 प्रतिशत की सापेक्षिक आर्द्रता में अच्छी तरह बढ़ती है। भारत में ग्रैन्डनाइन जैसी उचित किस्मों के चयन के माध्यम से इस फसल की खेती आर्द्र कटिबंधीय से लेकर शुष्क उष्णकटिबंधीय जलवायु में की जा रही है। शीत की वजह से नुकसान 12 º सें (C) से निचले तापमान पर होता है। केले की सामान्य वृद्धि 18 º सें से शुरू होती है, 27 º सें पर इष्टतम होती है, उसके बाद गिरकर 38 º सें पर रूक जाती है। धूप की वजह से उच्च तापमान फसल को झुलसा देता है। 80 किमी प्रति घंटे से अधिक वेग की वायु भी फसल को नुकसान पहुँचा देती है।
केले के लिए मिट्टी में अच्छी जल निकासी, उचित प्रजनन क्षमता तथा नमी होनी चाहिए। केले की खेती के लिए गहरी, चिकनी बलुई मिट्टी, जिसकी PH 6-7.5 के बीच हो, सबसे ज्यादा पसंद की जाती है। खराब जल निकासी, वायु के आवागमन में अवरोध एवं पोषक तत्वों की कमी वाली मिट्टी केले के लिये अनुपयुक्त होती है। नमकीन, ठोस कैल्शियम युक्त मिट्टी, केले की खेती के लिए अनुपयुक्त होती है। निचले इलाकों की, अत्यंत रेतीली एवं गहरी काली सूखी, खराब जल निकासी वाली मिट्टी से बचें।
केलों के लिये ऐसी मिट्टी अच्छी होती है जिसमें अधिक अम्लता या क्षारता न हो, जिसमें अधिक नाइट्रोजन के साथ कार्बनिक पद्धार्थ की प्रचुरता हो एवं भरपूर पोटाश के साथ फॉस्फोरस का उचित स्तर हो।
भारत में केला विभिन्न परिस्थितियों एवं उत्पादन प्रणालियों के तहत उगाया जाता है। इसलिए किस्मों का चुनाव विभिन्न जरूरतों एवं परिस्थितियों के हिसाब से उपलब्ध कई किस्मों में से किया जाता है। लेकिन, लगभग 20 किस्में जैसे ड्वार्फ कैवेंडशि, रोबस्टा, मोन्थन पूवन, नेन्ट्रन, लाल केला, नाइअली, सफेद वेलची, बसराई, अर्धापूरी, रस्थाली, कर्पुरवल्ली, करथली, एवं ग्रैन्डनाइन आदि अधिक प्रचलित हैं। ग्रैन्डनाइन लोकप्रियता अर्जित कर रहा है तथा अच्छी गुणवत्ता के गुच्छों के फलस्वरूप पसंदीदा किस्म बन सकता है। गुच्छों में अच्छी दूरी पर, सीधे तथा बड़े आकार के फल होते है। फल में आकर्षक, एक समान पीला रंग आता है, उसकी बेहतर स्व-जिंदगी होती है।
केला रोपने से पहले डाइन्चा, लोबिया जैसी हरी खाद की फसल उगाएं एवं उसे जमीन में गाड़ दें। जमीन को 2-4 बार जोतकर समतल किया जा सकता है। पिंडों को तोड़ने के लिए राटोवेटर या हैरो का उपयोग करें तथा मिट्टी को उचित ढलाव दें। मिट्टी तैयार करते समय FYM की आधार खुराक डालकर अच्छी तरह से मिला दी जायें है।
सामान्यत: 45 सेंमी x 45 सेंमी x 45 सेंमी के आकार के एक गड्ढे की आवश्यकता होती है। गड्ढ़ों का 10 किलो FYM (अच्छी तरह विघटित हो), 250 ग्राम खली एवं 20 ग्राम कॉन्बोफ्यूरॉन मिश्रित मिट्टी से पुन: भराव किया जाता है। तैयार गड्ढ़ों को सौर विकिरण के लिए छोड़ दिया जाता है, जो हानिकारक कीटों को मारने में मदद करता, मिट्टी जनित रोगों के विरुद्ध कारगर होता तथा मिट्टी में वायु मिलने में मदद करता है। नमकीन क्षारीय मिट्टी में, जहाँ PH 8 से ऊपर हो, गड्ढे के मिश्रण में संशोधन करते हुए कार्बनिक पदार्थ को मिलाना चाहिए।
लगभग 500-1000 ग्राम वजन के सॉर्ड सकर्स, सामान्यतः प्रसार सामग्री के रूप में उपयोग किये जाते है। सामान्यतः सकर्स कुछ रोगज़नक़ों एवं नीमाटोड्स से संक्रमित हो सकते है। इसी प्रकार सकर की आयु एवं आकार में भिन्नता होने पर फसल एक समान नहीं होती है, फसल कटाई की प्रक्रिया लंबी हो जाती है और प्रबंध मुश्किल हो जाता है।
इसलिए, इन विट्रो क्लोनल प्रसार में टिशू कल्चर में, रोपाई केलिये पौधों की सिफारिश की जाती हैं। वे स्वस्थ, रोग मुक्त, एक समान तथा प्रामाणिक होते हैं। रोपने के लिये केवल उचित तौर पर कठोर, किसी अन्य से उत्पन्न पौधों की सिफारिश की जाती है।
टिशू कल्चर केले की रोपाई वर्ष भर की जा सकती, सिवाय उस समय के जब तापमान अत्यन्त कम या अत्यन्त ज्य़ादा हो। ड्रिप सिंचाई प्रणाली की सुविधा महत्वपूर्ण है। महाराष्ट्र में दो महत्वपूर्ण मौसम हैं- मृग बाग खरीफ) रोपाई के महीने जून – जुलाई, कान्दे बाग (रबी) रोपाई के महीना अक्तूबर- नवम्बर।
फसल ज्यामिति
परंपरागत रूप से केला उत्पादक फसल की रोपाई 1.5 मी x 1.5 मीटर पर उच्च घनत्व के साथ करतें हैं, लेकिन पौधें का विकास एवं पैदावार सूर्य की रोशनी के लिए प्रतिस्पर्धा की वजह से कमजोर हैं। ग्रैन्डाइन को फसल के रूप में लेकर जैन सिंचाई प्रणाली अनुसंधान एवं विकास फार्म पर विभिन्न परीक्षण किए गए थे। तदोपरांत 1.82 मी x 1.52 मी के अंतराल की सिफारिश की जा सकती है, इस पंक्ति की दिशा उत्तर- दक्षिण रखते हुए तथा पंक्तियों के बीच 1.82 मी का बड़ा अन्तर रखते हुए 1452 पौधे प्रति एकड़ (3630 प्रति हेक्टेयर) समा लेती है। उत्तर भारत के तटीय पट्टों जहां आर्द्रता बहुत अधिक है तथा तापमान 5-7ºसें तक गिर जाता है, रोपाई का अंतराल 2.1 मी x 1.5 मी. से कम नहीं होनी चाहिए।
ग्रैन्डनाइन किस्म के लिये फसल की ज्यामिति
पौधे की जड़ीय गेंद को छेड़े बगैर उससे पॉलीबैग को अलग किया जाता है तथा उसके बाद छद्म तने को भूस्तर से 2 सें.मी. नीचे रखते हुए पौधों को गड्ढ़ों में रोपा जा सकता है। गहरे रोपण से बचना चाहिए।
केला, एक पानी से प्यार करने वाला पौधा है, अधिकतम उत्पादकता के लिए पानी की एक बड़ी मात्रा की आवश्यकता मांगता है। लेकिन केले की जड़ें पानी खींचने के मामले में कमजोर होती हैं। अत: भारतीय परिस्थितियों में केले के उत्पादन में दक्ष सिंचाई प्रणाली, जैसे ड्रिप सिंचाई की मदद ली जानी चाहिए।
केले के जल की आवश्यकता, गणना कर 2000 मिली मीटर प्रतिवर्ष निकाली गई है। ड्रिप सिंचाई एवं मल्चींग तकनीक से जल के उपयोग की दक्षता में बेहतरी की रिपोर्ट है। ड्रिप के ज़रिये जल की 56 प्रतिशत बचत एवं पैदावार में 23-32 प्रतिशत वृद्धि होती है।
पौधों की सिंचाई रोपने के तुरन्त बाद करें। पर्याप्त पानी दें एवं खेत की क्षमता बनाये रखें। आवश्यकता से अधिक सिंचाई से मिट्टी के छिद्रों से हवा निकल जाएगी, फलस्वरूप जड़ के हिस्से में अवरोध उत्पन्न होकर पौधे की स्थापना और विकास प्रभावित होगें। इसलिए केले के लिए ड्रिप पद्धति उचित जल प्रबंधन के लिये अनिवार्य है।
माह ( मौग बाग) |
मात्रा (lpd.) |
माह ( कांदे बाग) |
मात्रा (lpd.) |
जून |
06 |
अक्टूबर |
04-06 |
जुलाई |
05 |
नवम्बर |
04 |
अगस्त |
06 |
दिसम्बर |
04 |
सितम्बर |
08 |
जनवरी |
06 |
अक्टूबर |
10-12 |
फ़रवरी |
08-10 |
नवम्बर |
10 |
मार्च |
10-12 |
दिसम्बर |
10 |
अप्रैल |
16-18 |
जनवरी |
10 |
मई |
18-20 |
फ़रवरी |
12 |
जून |
12 |
मार्च |
16-18 |
जुलाई |
12 |
अप्रैल |
20-22 |
अगस्त |
14 |
मई |
25-30 |
सितम्बर |
14-16 |
केले को काफी मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, जो मिट्टी द्वारा कुछ ही मात्रा में प्रदाय किये जाते हैं। अखिल भारतीय स्तर पर पोषक तत्वों की आवश्यकता 20 किग्रा FYM, 200 ग्राम नाइट्रोजन; 60-70 ग्राम फॉस्फोरस; 300 ग्राम पोटैशियम प्रति पौधा आंकी गई है। केले को अत्यधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। केले की फसल को 7-8 किलोग्राम नाइट्रोजन, 0.7-1.5 किलोग्राम फॉस्फोरस और 17-20 किलोग्राम पोटैशियम प्रति मीट्रिक टन पैदावार की आवश्यकता होती है। पोषक तत्व प्रदान करने पर केला अच्छे नतीज़े देता है। परंपरागत रूप से किसान अधिक यूरिया तथा कम फॉस्फोरस एवं पोटाश का इस्तेमाल करते हैं।
परम्परागत उर्वरकों में से पोषक तत्वों के नुकसान को बचाने के लिये यानि लीचिंग, उड़ाव, वाष्पीकरण द्वारा नाइट्रोजन का नुकसान तथा मिट्टी से जुड़ने द्वारा फॉस्फोरस एवं पोटैशियम का नुकसान बचाने के लिए ड्रिप सिंचाई (फर्टिगेशन) द्वारा जल में घुलनशील या तरल उर्वरकों का उपयोग प्रोत्साहित किया जाता है। फर्टिगेशन द्वारा पैदावार में 25-30 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। इसके अलावा, यह श्रम तथा समय की बचत करता है एवं इससे पोषक तत्वों का वितरण एक समान होता है।
केले के प्रकार ग्रैन्डानाइन के टिशू कल्चर में ठोस तथा जल में घुलनशील दोनों रूपों में उर्वरक सूची नीचे तालिका में दी गई है :
ग्रैन् डानाइन केले के लिए ठोस उर्वरक अनुसूची
कुल पोषक आवश्यकता |
||
नाइट्रोजन - 200 ग्राम/पौधा |
फॉस्फोरस - 60-70 ग्राम/पौधा |
पोटैशियम - 300 ग्राम/पौधा |
उर्वरक की कुल आवश्यक मात्रा प्रति एकड़ (अंतराल 1.8 x 1.5 मी, 1452 पौधे) |
||
यूरिया (नाइट्रोजन) |
एस.एस.पी (फॉस्फोरस) |
एम.ओ.पी. (पोटैशियम) |
431.0 |
375.0 |
500 ग्राम/पौधा |
625.0 |
545.0 |
726 किलो ग्राम/एकड़ |
निर्धारित अवधि के अनुसार गतिविधि |
स्रोत |
मात्रा (ग्राम/पौधा) |
रोपने के समय |
एस.एस.पी |
100 |
एम.ओ.पी. |
50 |
|
10वें दिन रोपने के बाद |
यूरिया |
25 |
30वें दिन रोपने के बाद |
यूरिया |
25 |
एस.एस.पी |
100 |
|
एम.ओ.पी. |
50 |
|
सूक्ष्म पोषक |
25 |
|
MgSO4 |
25 |
|
सल्फर |
10 |
|
60 वें दिन रोपने के बाद |
यूरिया |
50 |
एस.एस.पी |
100 |
|
एम.ओ.पी. |
50 |
|
90 वें दिन रोपने के बाद |
यूरिया |
65 |
एस.एस.पी |
100 |
|
एम.ओ.पी. |
50 |
|
सूक्ष्म पोषक |
25 |
|
सल्फर |
30 |
|
MgSO4 |
25 |
|
120 वें दिन रोपने के बाद |
यूरिया |
65 |
एम.ओ.पी. |
100 |
|
150 वें दिन रोपने के बाद |
यूरिया |
65 |
एम.ओ.पी. |
100 |
|
180 वें दिन रोपने के बाद |
यूरिया |
30 |
एम.ओ.पी. |
60 |
|
210 वें दिन रोपने के बाद |
यूरिया |
30 |
एम.ओ.पी. |
60 |
|
240 वें दिन रोपने के बाद |
यूरिया |
30 |
एम.ओ.पी. |
60 |
|
270 वें दिन रोपने के बाद |
यूरिया |
30 |
एम.ओ.पी. |
60 |
|
300 वें दिन रोपने के बाद |
यूरिया |
30 |
एम.ओ.पी. |
60 |
अनुसूची केवल दिशा-निर्देशों हेतु है एवं रोपने के मौसम तथा मिट्टी की प्रजनन क्षमता (मिट्टी परीक्षण) के अनुसार बदल सकती है। एस.एस.पी = सिंगल सुपर फॉस्फेट, एम.ओ.पी. = मुरिएट ऑफ पोटाश
जल में घुलनशील ठोस उर्वरक
जल में घुलनशील उर्वरक के उपयोग की अनुसूची
अवधि |
श्रेणी |
मात्रा प्रति पौधा (किग्रा) |
कुल मात्रा |
|
12:61:00 |
3.00 |
60.00 |
00:00:50 |
5.00 |
100.00 |
|
65 से 135 दिनों तक |
यूरिया |
6.00 |
120.00 |
12:61:00 |
2.00 |
40.00 |
|
00:00:50 |
5.00 |
100.00 |
|
135 से 165 दिनों तक |
यूरिया |
6.50 |
65.00 |
00:00:50 |
6.00 |
60.00 |
|
165 से 315 दिनों तक |
यूरिया |
3.00 |
150.00 |
00:00:50 |
6.00 |
300.00 |
अनुसूची केवल दिशा-निर्देशों हेतु है एवं रोपने के मौसम तथा मिट्टी की प्रजनन क्षमता (मिट्टी परिक्षण) के अनुसार बदल सकती है।
इंटर कल्चर संचालन
केले की जड़ प्रणाली सतही है तथा बीच की फसल की खेती एवं उपयोग से आसानी से क्षतिग्रस्त हो जाती है, जो वांछनीय नहीं है। लेकिन कम अवधि की फसलें (45-60 दिन),जैसे की लोबिया मूंग,डाइन्चा को हरी खाद की फसलों के रूप में देखा जाना चाहिए। ककड़ी परिवार की फसलों से बचा जाना चाहिए क्योंकि इनमें वायरस होते हैं।
खरपतवार निकालना
पौधें को खरपतवार रहित रखने के लिये, रोपने से पहले 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से ग्लाइफॉसेट (राउंड अप) का छिड़काव किया जाता है। एक या दो बार हाथों से खरपतवार निकालना ज़रूरी होता है।
सूक्ष्म पोषकों का पत्तों पर छिड़काव
केले की बनावट, शरीर विज्ञान तथा पैदावार के के गुणों को बेहतर बनाने के लिए ZnSO4 (0.5%), FeSO4 (0.2%), CuSO4 (0.2%) एवं H3Bo3 (0.1प्रतिशत) का संयुक्त, संपूर्ण उपयोग किया जा सकता है। सूक्ष्म पोषकों के छिड़काव हेतु घोल, निम्नलिखित को 100 लीटर जल में घोलकर बनाया जाता है।
जिंक सल्फेट |
500 ग्राम |
|
प्रत्येक 10 लीटर मिश्रण के लिये 5-10 मिली स्टीकर घोल जैसे टिपॉल को पहले मिलाना चाहिये। |
फैरॅम सल्फेट |
200 ग्राम |
||
कॉपर सल्फेट(नीला थोथा) |
200 ग्राम |
||
बोरीक एसिड |
100 ग्राम |
केले की फसल से संबंधित विशिष्ट संचालन हैं, जो उसकी उत्पादकता और गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं।
सोखने वाली चीजें हटाना
मूल पौधे के साथ आंतरिक प्रतिस्पर्धा को कम करने के लिए अवांछित रूप से सोखने वाली चीजें हटाना केले के लिये एक महत्वपूर्ण संचालन है। अंकुरण तक सोखने वाली चीजें हटाने का कार्य नियमित रूप से करनी चाहिए। यद्यपि उन क्षेत्रों में जहां अंकुर भी दूसरी फसल के लिए लिया जाता है, अगला क्रम पुष्पक्रम प्रकट होने के बाद तथा रोपने के अंतराल को बगैर छेड़े प्रबंधित किया जाना चाहिए। अगला क्रम पुष्पक्रम के विपरीत होना चाहिए। उसे मूल पौधे से अधिक दूर नहीं होना चाहिए।
अकुसुमन
इसके अंतर्गत मुरझाए हुए पौधे तथा परिदल पुंज हटाए जाते है। यह आमतौर पर प्रचलित नहीं है। इसलिए वे फल के गुच्छों में जुड़े रहते हैं तथा कटाई के बाद हटाए जाते हैं, जो फलों के लिए हानिकारक है। इसलिए यह सुझाया जाता है कि आप उन्हें कुसुमन के तुरंत बाद हटा लें।
पत्तियों को काटना
पत्तियों की रगड़ फल को नुकसान पहुंचाती है, इसलिए, ऐसी पत्तियों को नियमित रूप से जाँच कर काट दिया जाना चाहिए। पुराने तथा संक्रमित पत्तों को भी आवश्यकतानुसार काट दिया जाना चाहिए। हरी पत्तियों को नहीं हटाना चाहिए।
ज़मीन खोदना
मिट्टी को समय -समय पर खोद कर ढीला रखें। ज़मीन खोदने का कार्य रोपाई के 3-4 महीनों बाद करें, जैसे पौधे की सतह के आसपास 10-12 इंच तक मिट्टी के स्तर को ऊपर उठाना। ऊंची क्यारी तैयार करना बेहतर होगा तथा ड्रिप लाइन क्यारी पर पौधे से 2-3 इंच दूर रखें। वह पौधों को वायु से नुकसान एवं उत्पादन नुकसान से कुछ हद तक रक्षा करने में मदद करता है।
नर कलियों को हटाना
(डीनेवलिंग) नर कलियों को हटाने से फल का विकास एवं गुच्छे के वजन वृद्धि में मदद मिलती है। नर कलियां आखिरी 1-2 छोटे हाथों से एक ही उंगली को छोड़ते सफाई से काटकर हटायें।
गुच्छा छिड़काव
सब हाथ सामने आने के बाद मोनोक्रोटोफोस् (0.2 प्रतिशत)का छिड़काव कीटों का ख्याल रखता है। कीटों का हमला फल की त्वचा का रंग बदलता है एवं उसे अनाकर्षक बना देता है।
गुच्छे को ढंकना
गुच्छों को पौधे के सूखे पत्तों से ढंकना सस्ता तरीका है एवं गुच्छे को सूर्य की सीधी रोशनी से बचाता है। गुच्छों का आवरण फलों की गुणवत्ता को बढ़ाता है। परंतु इसका उपयोग बरसात के मौसम में नहीं करना चाहिए।
गुच्छों को ढांकना धूल, छिड़काव के अवशेष, कीट और पक्षियों से फलों की रक्षा के लिए किया जाता है। इसके लिये नीली प्लास्टिक की आड़ को तरज़ीह दी जाती है। यह विकासशील गुच्छों के आसपास के तापमान में वृद्धि तथा शीघ्र परिपक्वता में मदद करता है।
गुच्छे के कृत्रिम हाथों को हटाना
एक गुच्छे मे कुछ अधूरे हाथ होते हैं जो गुणवत्तापूर्ण उत्पादन के लिए उपयुक्त नहीं होते। इन हाथों को खिलने के बाद जल्द ही हटा दिया जाना चाहिए। यह दूसरे हाथ के वजन में सुधार करने में मदद करता है। कभी-कभी झूठे हाथ के ठीक ऊपर का हाथ भी निकाल दिया जाता है।
टिका देना
गुच्छे के भारी वजन के कारण पौधे का संतुलन गड़बड़ा जाता है तथा फलदार पौधे जमीन पर टिक सकता है। इससे उसका उत्पादन और गुणवत्ता प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता हैं। इस कारण इन्हें दो बांस के त्रिकोण द्वारा झुकाव की ओर से तने पर सहारा दिया जाना चाहिए। यह भी गुच्छे के समान विकास में मदद करता है।
एक बड़ी संख्या में कवक, विषाणु, जीवाणु जनित बीमारियां और कीट तथा सूत्र कृमि केले की फसल पर हमला कर उत्पादन, उत्पादकता और गुणवत्ता को कम कर देते हैं। केले के मुख्य कीटों एवं बीमारियों के नियंत्रण के उपायों के साथ सारांश यहां दिया गया है -
क्र. |
नाम |
लक्षण |
नियन्त्रण उपाय |
कीट |
|||
i) |
प्रकंद घुन (कॉस्मोपॉलिटेस सॉर्डिडस) |
a) बड़े घुन प्रकंद की दीर्घाओं का जाल बनाकर पौधे को कमजोर बनाता है। |
a) स्वस्थ रोपण सामग्री का उपयोग करें। |
b) बगीचे में स्वच्छता रखें। |
|||
c) वयस्क घुनों को छद्म तने या प्रकंद के टुकडों द्वारा फंसाएं |
|||
d) मिट्टी में 0.2 ग्राम प्रति पौधा कार्बफुरान का प्रयोग |
|||
ii) |
छद्म तने का घुन (ओडाइपोरस लांगिकॉलिस) |
a) छद्म तने पर छोटे छिद्रों के साथ पारदर्शी, चिपचिपे पदार्थ का रिसाव |
a) प्रबंधन का तरीका कंद घुन जैसा ही है। |
b) पत्ती के म्यान तथा तने की भीतरी परत में सुरंग का होना |
b) दूसरे चूने के घोल (150 मिली लीटर मोनोक्रोटोफॉस, 350 मिली लीटर पानी में) का तना अन्तःक्षेपक का उपयोग करते हुए जमीन के तल से 4 फीट ऊपर, 30 º कोण पर इंजेक्शन की सिफारिश की जाती है. |
||
c) गुच्छों का गिरना |
c) लंबाई में काटना (30 सें.मी. लंबाई) या 100/हेक्टेयर की दर से स्टंप ट्रैप्स। ट्रे का विभाजित हिस्सा भूमि की ओर रखें। फिर इकठ्ठा किये गये घुनों को मार दिया जाता है। |
||
iii) |
कीट (कीटैनोफोट्रिप्स एवं सिग्निपैनिस एवं हेलिआथ्रॅपिस कोडालिफिलस) |
a) वे पौधों के हिस्से से खुरचे जाते हैं एवं विशेषत: फलों को भूरा या रंगहीन कर देते हैं। |
a) मोनोक्रोटोफॉस का 0.05% की दर से पुष्पक्रम के सबसे उपरी सहपत्र खुलने से पहले छिड़काव या इंजेक्शन करें। |
iv) |
फ्रूट स्केरिंग बीटल (बेसिलेप्टा सबकोस्टेटम) |
a) वयस्क, नर्म, बिना खुली पत्तियो एवं फलों पर पलते हैं तथा त्वचा पर निशान छोड़ते हैं। |
a) नव पत्तों के उद्भव के तुरंत बाद एवं फल आने के मौसम में 0.05 % मोनोक्रोटोफॉस या 0.1% कार्बेरिल का पौधों के बीचों बीच स्वच्छता हेतु छिड़काव की सिफारिश की जाती है। |
b) पौधा अपना जोश खो देता है तथा गुच्छों की गुणवत्ता खराब होती है। |
|||
v) |
एफिड्स (पेन्टालोनिया निग्रोनर्वोसा) |
a) वे केले के बंची टॉप विषाणु (BBTV) के वाहक होते हैं तथा छद्म तने की पत्तियों के आधार पर जमावड़े के रूप में देखे जाते हैं। |
a) पत्तियों पर 0.1 % मोनोक्रोटोफॉस या 0.03 % फॉस्फोनिडॉन का छिड़काव प्रभावी होता है। |
vi) |
सूत्र कृमि |
a) विकास में रूकावट |
a) कॉर्बोफ्यूरॉन का 40 ग्राम प्रति पौधे की दर से रोपते वक्त एवं रोपने के 4 महीने बाद इस्तेमाल करें। |
b) छोटी पत्तियां |
|||
c) कटी हुयी जड़े |
b) नीम की खली का जैविक खाद के रूप में उपयोग करें। |
||
d) जड़ों पर जामुनी काले घाव तथा उनका विभाजन |
c) जाल फसल के रूप में गेंदे का उपयोग करें। |
||
कवक जनित रोग |
|||
vii) |
पनामा विल्ट (फरेरियम ऑक्सीस्पोरियम) |
a) पुरानी पत्तियों में पीलेपन का फैलाव |
a) नई पत्तियों के प्रगति प्रतिरोधी पत्तियों का विकास (कोवेन्डिया समूह) |
b) पर्णवृन्त के नज़दीक प्रभावित पत्तियां टूटकर लटक जाती हैं। |
b)रोपने से पहले चुसकों को काटकर 0.1% बेविस्टीन से उपचारित करें। |
||
c) छद्म तने का विभाजन आम बात है। |
c) कार्बनिक खाद के साथ ट्राइकोडर्मा एवं स्यूडोमोनास फ्लुऑरेसेन्स जैसे बायोएजेन्ट्स लागू करें। |
||
d) जड़ तथा प्रकंद में लाल-भूरा मलिनीकरण। |
d) अच्छी जल निकासी रखें तथा खेत में भरपूर मात्रा में कार्बनिक खाद डालें। |
||
viii |
शिरागुच्छ रोग ( अर्विनिआ केरोटोवारा) |
a) पत्तियों के कॉलर क्षेत्र एवं एपिनास्टी में सड़न। |
a) रोपने के लिये स्वस्थ सामग्री का उपयोग करें। |
b) प्रभावित पौधे को उखाड़ने पर, पौधा कॉलर क्षेत्र से झुक जाता है, जड़ समेत घनकन्द को मिट्टी में छोड़ते हुए। |
|||
c) प्रभावित पौधों का कॉलर क्षेत्र खोलने पर पीला एवं लाल रिसाव देखा जा सकता है। |
b) पौधों को 0.1% एमीसन में भिगोएं तथा 3 महीनों बाद फिर से भिगोएं। |
||
d) संक्रमण की प्रारंभिक अवस्था में, गहरे भूरे या पीले , नाजुक क्षेत्रों में पानी सोखे हुए क्षेत्र सड़कर गहरे स्पंजी टिशू से घिरे छिद्र बनाता हैं। |
c) चट्टानों में तथा खराब रिसाव वाली मिट्टी से बचें। |
||
ix) |
सिगाटोका पर्ण चित्ती (माइकोस्फारेल्ला स्पी.) |
a) उसकी प्रकृति पत्तियों पर छोटे घावों से झलकती है, घाव हल्के पीले से हरे पीले चकत्तों में बदलते हैं जो दोनों सतहों से दिखाई देते हैं। |
a) प्रभावित पत्तियां हटाकर नष्ट कर दें। |
b) उसके बाद धारियों में भूरे तथा काले चकत्ते उभरते हैं। |
|||
c) चकत्ते का केन्द्र अन्तत: सूख जाता है तथा आंख के बिन्दु जैसा दिखता है। |
b) उचित जल निकासी रखें तथा पानी का जमाव न होने दें। |
||
d) कभी कभार समय से पूर्व पकना देखा गया है। |
c) डायथेन एम-४५ (1250 ग्राम/है.) या बेविस्टिन 500 ग्राम/हेक्टेयर का छिड़काव करें। |
||
विषाणु जनित रोग |
|||
i) |
बंचीटाप विषाणु (BBTV) |
a) बेतरतीब, गहरे हरे ‘मॉर्स कोड’ चकत्तों का पत्तियों को निचले हिस्से में, माध्यमिक नसों के साथ उभरना। |
a) विषाणु रहित रोपण सामाग्री का यानी टिशू कल्चर का इस्तेमाल करें। |
b) नियमित सर्वेक्षण कर संक्रमित पौधे उखाड़ फेंक दें। |
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b) पत्ती का आकार घट जाता है एवं पत्तियां असामान्य रूप से खड़ी तथा भंगुर हो जाती है। |
c) वाहक कीट, विशेषत: एफिड्स एवं मीली कीटों पर नियंत्रण रखें। |
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d) अधिक गुणन के मामले में अनुक्रमण किया जाना चाहिए। |
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c) छोटी, एक दूसरे के पास पत्तियां तथा उपर गुच्छों में |
e) किसी भी पौधे के रोगग्रस्त क्षेत्र से स्वस्थ क्षेत्र में ले जाने पर रोक लगाएं। |
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d) नर कलियों में सहपत्र के पोर हरे होते है। |
f) प्रतिरोधक कल्टिवर का इस्तेमाल करें। |
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e) विषाणु एफिड्स द्वारा फैलते हैं। |
g) वैकल्पिक मिश्रित फसल या निकट के क्षेत्र में उगाने से बचें। |
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ii) |
केला मोज़ाइक विषाणु (BMV) |
a) नसों के साथ हल्के क्लोरोटिक चकत्तों के साथ क्लोरोसिस जो BSV की तरह कभी ऊतकक्षय नहीं होते हैं। |
a) रोगमुक्त रोपण सामग्री यानि टिशू कल्चर बीजों के ज़रिये प्रभावित पौधे हटाना एवं रोगमुक्त उपज कायम रखना। |
iii) |
केला सहपत्र मोज़ाइक विषाणु (BBMV) |
a) छद्म तने, मध्य रिब्स, पर्णवृन्त तथा पर्णपटल में छड़ी के आकार के गुलाबी से लाल चकत्ते |
a) रोगमुक्त रोपण सामग्री यानि टिशू कल्चर सीडिंग का उपयोग। |
iv) |
बनाना स्ट्रिक वायरस (BSV) |
a) अगोचर क्लोरोटिक चित्तियों की उपस्थिति से छोटा जानलेवा व्यवस्थित ऊतकक्षय, जिसमें शामिल हैं, पीले तथा भूरे एवं काले चकत्ते होना, सिगार पर्ण ऊतकक्षय आधारित छद्म तने का बंटवारा, आंतरिक छद्म तने का ऊतकक्षय तथा छोटे बेढ़ंगे गुच्छों का होना। |
a) रोगमुक्त रोपण सामग्री यानि टिशू कल्चर सीडिंग का उपयोग। |
कटाई उपरान्त बेहतर गुणवत्ता के लिये केले की कटाई उसकी परिपक्वता अवस्था में की जानी चाहिए। फल क्लाइमक्टेरिक है तथा उपभोग की अवस्था में पकने के बाद आता है।
ये फल के आकार, कोणीयता, ग्रेड या दूसरे हाथ के बीच के व्यास के आंकड़े, स्टार्च की मात्रा एवं कुसुमित होने में लगे दिनों के आधार पर स्थापित किये जाते हैं। आंशिक या पूर्ण परिपक्व फल की फसल लेने के फैसले को बाज़ार की प्राथमिकता भी प्रभावित कर सकती है।
गुच्छों को दरांती की सहायता से प्रथम हाथ के 30 सेंमी ऊपर से तब काटना चाहिए जब ऊपर से दो हाथ नीचे के फल का 3/4 हिस्सा पूरी तरह गोल हो जाये। पहला हाथ खोलने के बाद 100-110 दिन बाद तक कटाई में देरी की जा सकती है। कटे हुए गुच्छों को अच्छी गद्देदार ट्रे या टोकरी में एकत्र कर संग्रह स्थान पर लाया जाना चाहिए। कटाई के बाद गुच्छों को रोशनी से बचाना चाहिए क्योंकि वह पकने तथा नर्म होने की प्रक्रिया तेज़ करती है।
स्थानीय खपत के लिए हाथों को अक्सर डंठल सहित रखकर खुदरा व्यापारियों को बेच दिया जाता है।
निर्यात के लिए हाथों को 4-16 उंगलियों की इकाइयों में काटा जाता है, लंबाई और परिधि दोनों के लिए श्रेणीबद्ध किया जाता है एवं पॉलीलाइन्ड बक्सों में निर्यात आवश्यकताओं के अनुसार विभिन्न वज़न धारण करने के लिए सावधानीपूर्वक रख दिया जाता है
संग्रह स्थल पर कटे-फटे या अधिक परिपक्व फलों को निकाल दिया जाता है तथा स्थानीय बाजार के लिए गुच्छों को लॉरियों या वैगन के माध्यम से वितरित किया जाना चाहिए। लेकिन अधिक उन्नत या निर्यात बाजार के लिए, जहाँ गुणवत्ता प्रमुख है,गुच्छों को हाथो से अलग किया जाना चाहिए। फलों को बहते पानी या पतले सोडियम हाइपोक्लोराइट के घोल में लेटेक्स निकालने हेतु धोया जाता है एवं थायोबैंडेसॉल से उपचारित किया जाता है, हवा में सूखाए जाते हैं एवं जैसा पहले कहा गया है, अंगुलियों के आकार के आधार पर श्रेणीबद्ध किए जाते हैं, संवातित 14.5 किलोग्राम क्षमता के CFB बक्से में या आवश्यकता अनुसार पॉलिथीन के अस्तर के साथ पैक किये जाते हैं एवं 13-15ºसें के तापमान तथा 80-90 प्रतिशत RH पर ठंडे किये जाते हैं।
ऐसी सामग्री को 13º सें. पर ठंडी श्रृंखला के अंतर्गत विपणन के लिए भेजा जाना चाहिए।
उपज
रोपी गई फसल 11-12 महीनों के भीतर कटाई के लिए तैयार हो जाती है। पहली रेटून फसल मुख्य फसल की कटाई के 8-10 महीनों में तथा दूसरी रेटून, द्वितीय फसल के 8-9 महीनों बाद तैयार हो जाती है।
इसलिये 28-30 महीनों की अवधि में तीन फसलों की कटाई संभव है यानी एक मुख्य फसल एवं दो रेटून फसलें। ड्रिप सिंचाई के साथ फर्टिगेशन के तहत, केले की 100 टी /हेक्टेयर जितनी उंची पैदावार टिशू कल्चर की सहायता से ली जा सकती है, रेटून फसल में भी समान पैदावार ली जा सकती है, यदि फसल का अच्छा प्रबंधन किया जाए।
स्रोत: समन्वित कीट प्रबंधन राष्ट्रीय केन्द्र (आईसीएआर) पूसा कैम्पस, नई दिल्ली 110 012 की विस्तारित पुस्तिका
ई-एरिक परियोजना,
बागवानी (उद्यानिकी) एवं वानिकी महाविद्यालय,
केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पासीघाट, अरुणाचल प्रदेश
जैन इरीगेशन सिस्टम लिमिटेड
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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