हमारे देश की अर्थव्यवस्था प्रारंभ से ही कृषि पर आधारित रही है और आज भी 60% से अधिक लोग कृषि से ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं| कृषि पर हमारी यही निर्भरता हमारी पारम्परिक कृषि के टिकाऊ होने का सबसे बड़ा सबूत है| भारत में सदियों से चली आ रही यह परम्परागत कृषि वास्तव में जैविक खेती का स्वरुप था लेकिन उसको करने का ढंग पूर्णतया वैज्ञानिक नहीं था| फसलों में पोषक तत्वों की सही मात्रा में आपूर्ति न होना ही कम उत्पादन का मुख्य कारण था| इस पारम्परिक कृषि का सबसे महत्वपूर्ण पहलू मिट्टी में उपलब्ध पोषक तत्वों का लगभग न के बराबर क्षरण होने देना अर्थात सजीव भूमि के लिए खेत का जीवाश्म खेत में ही रहे| मिट्टी से प्राप्त सभी पोषक तत्वों को फसल की कटाई के बाद, सीधे या अपरोक्ष रूप से भूमि को वापस लौटा दिया जाता था| कटाई के बाद जड़े भूमि में ही छोड़ दी जाती थी तथा भूसा, पत्तियां एवं डंठल इत्यादि मल्च के रूप में या कम्पोस्ट खाद के रूप में और अन्य भोज्य पदार्थ एवं पशु मलमूत्र खाद के रूप में भूमि को लौटा दिए जाते थे| ये पोषक तत्व विभिन्न पौधों, पशुओं, मानव के भोजन चक्र से गुजरते हुए प्रकृति में सभी जीव अवस्थाओं का भरण पोषण करते थे| ये चक्र पूर्ण रूप से स्थानीय एंव निरंतर होने के कारण उसी भूमि से निरंतर फसल लेने के पश्चात भी भूमि की उर्वरता को टिकाऊपन की स्थिति में बनाये रखने में सक्षम थे| आर्थिक दृष्टि से भी यह जैविक प्रबन्धन काफी लाभकारी था|
हमारे देश ने आधुनिक कृषि एवं बागवानी में उत्पादकता बढ़ाने में प्रशंसनीय वृद्धि की है| आज हम अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर’ है, फलोत्पादन में विश्व में अग्रणी पंक्ति में तथा सब्जी उत्पादन में दूसरे स्थान पर हैं| यह वृद्धि मुख्य रूप से आधुनिक कृषि उपकरणों की वजह से सम्भव हो पाई है| रासायनिक तत्वों की निर्भरता की वजह से आज कृषि भूमि निर्जीव होती जा रही है जिससे मृदा के उपजाऊपन पर विपरीत असर पड़ रहा है| इसलिए जैविक कृषि पर ध्यान अति आवश्यक हो गया है| डॉ. स्वामीनाथन का कथन है कि जो कुछ हम भूमि से निकालते है वह उस भूमि की सेहत की सम्भाल के लिए प्राकृतिक तौर पर पुनः लौटना चाहिए, अन्यथा भूमियाँ बंजर हो जाएगी| इस बात को ध्यान में रखते हुए यदि हम आज देश की भूमि की ओर दृष्टि डालें तो देखा जा सकता है कि इन में जैविक पदार्थ एवं सूक्ष्म तत्वों की कमी हो रही है| रासायनिक खादों के प्रयोग के बिना किसी भी फसल की काश्त करना असम्भव होता जा रहा है| लगातार इन खादों का मूल्य बढ़ने से लागत बढ़ती जा रही है और उत्पादन में स्थिरता आ गई है| रासायनिक खादों के प्रयोग से भूमि अम्लीय हो गई है और इन खादों का भूमि की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है|
इस सब के चलते परम्परागत खेती जिसमें उत्पादकता कम थी परन्तु स्थनीय संसाधनों के उपयोग के कारण काफी सस्ती एवं टिकाऊ थी, को दरकिनार कर दिया गया और उसके स्थान पर आधुनिक कृषि को परंपरागत खेती के स्थान पर स्थापित कर दिया गया| इस समय इसे मानव इतिहास में एक क्रांतिकारी कदम माना गया है और इस आधुनिक प्रक्रिया को हरित क्रांति का नाम दिया गया| हरित कृषि में जिन तीन शोधों का सर्वप्रथम योगदान रहा वे थे (1) अधिक उपज देने वाली प्रजातियों का विकास (2) रासायनिक खादों का बड़े पैमाने पर उत्पादन एवं प्रयोग ततः (3) रसायनों के प्रयोग से कीट पतंगों एवं बीमारियों पर प्रभावी नियन्त्रण आदि| एक अनुमान के अनुसार आज हमारे देश में कुल अन्न उत्पादन में रासायनिक खादों का योगदान 50% से अधिक है| आज हमारे देश की आबादी केवल हरित क्रांति के कारण ही जीवित है| भारतवर्ष में कृषि एवं बागवानी की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है| आज हमारा अन्न उत्पादन 23 करोड़ टन तथा फल उत्पादन 6.20 करोड़ टन से अधिक हो गया है| सब्जी उत्पादन में 13 करोड़ टन उत्पादन के साथ हमारा देश विश्व में दूसरे स्थान पर है| पिछली सदी में कृषि में हुए उल्लेखनीय विकास से हम आत्मनिर्भर तो अवश्य हुए हैं| परन्तु 120 करोड़ जनसंख्या वाले हमारे देश के लिए यह विकास हमें कृषि और बागवानी में उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ इनके उत्पादों की गुणवत्ता पर भी विशेष रूप से ध्यान देना होगा| पिछले 20 वर्षों में जहाँ रासायनिक खादों की खपत में 7 गुणा वृद्धि हुई है वहीं उत्पादन में केवल दोगुनी वृद्धि हुई है| पौध संरक्षण रसायनों का प्रयोग वर्ष 2006 में 39,773 टन से अधिक था, फिर भी कीट-पतंगों से होने वाला नुकसान प्रतिवर्ष 30,000 करोड़ से भी अधिक हो रहा है| कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग से, मानव स्वास्थ्य के लिए रोज नई समस्याएँ पैदा हो रही हैं तथा वातावरण भी प्रदूषित हो रहा है|
भौगोलिक दृष्टि से पर्वतीय क्षेत्र के अपनी विशेषताएं एवं समस्याएँ हैं| इन क्षेत्रों में भूमि कम उपजाऊ है तथा पानी के स्रोतों की कमी है| अभी भी इन क्षेत्रों के किसान पुरानी प्रजातियों तथा पुरानी तकनीक अपनाकर ही खेती करते हैं जिससे इन क्षेत्रों की कृषि उत्पादन में अभी भी वांछित सुधार नहीं हुआ है| इन क्षेत्रों की भौगोलिक परस्थितियों को ध्यान में रखते हए ऐसी तकनीक विकसित करने की आवश्यकता है जिसके माध्यम से उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग हो और किसानों को अधिक उपज प्राप्त हो सके| हमें कृषि उत्पादन प्रणालियों में स्थिरता बनाने की आवश्यकता है| स्थिरता प्रदान करने वाली कृषि, एक ऐसी कृषि होती है, जो पर्यावरण की गुणवत्ता को बनाए रखते या बढ़ाते हुए और प्राकृतिक साधनों को संरक्षित करते हुए परिवर्तनशील मानव आवश्यकताओं को पूरा करती है| पर्वतीय सन्दर्भ में स्थिरता प्रदान करने वाली कृषि के लिए विशेष रूप से वर्षा पर आधारित, कृषि सीमांत भूमि तथा भुरभुरी संरचना वाले पर्वतीय क्षेत्र के लिए नई उत्पादन तकनीक की आवश्कता है| इसके अतिरिक्त पर्वतीय क्षेत्रों में लघु एवं सीमांत किसानों की संख्या बहुत अधिक है| इन किसानों के लिए एक ऐसी सफल प्रणाली विकसित करने की आवश्कता है जो साल भर रोजगार दे सके एवं मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ा सके जिससे हमारी कृषि प्रणाली में स्थितरता बनी रहे| इस दिशा में विभिन्न समूहों एवं वैज्ञानिक द्वारा अनेक उपाय सुझाए गये हैं|
भारतवर्ष में खेती करने योग्य भूमि का 38% भाग सिंचित क्षेत्र के अंतर्गत आता है, जिससे लगभग 60% खाद्यान उत्पादन होता है| इसी क्षेत्र में अधिक रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का प्रयोग होता है| जबकि 62% खेती योग्य भूमि वर्षा पर आधारित है, जिसमें से कुल खाद्यानों का लगभग 40% उत्पादन होता है| इस वर्षा पर आधारित यदि देखा जाये तो कोरिया, जापान, नीदरलैंड, बांग्लादेश, जर्मनी एवं भारत में क्रमशः 357, 247, 172, 158, 153, और 89 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है| भारत के परिद्रश्य में पंजाब, आंध्रप्रदेश, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तर पूर्वी राज्यों में क्रमशः 173, 152, 38 तथा 55 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है| इससे वर्षा पर आधारित खेती वाले क्षेत्रों में, जहाँ पर अधिक रासायनिक खादों का प्रयोग नहीं किया जाता तथा उत्पादकता भी अन्य देशों एवं देश के सिंचित क्षेत्रों की तुलना में बहुत कम है, वहाँ पर आधुनिक जैविक कृषि द्वारा मिट्टी की जीवांश मात्रा तथा लाभदायक जीवाणुओं की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है| इससे मिट्टी में भुरभुरा, अधिक वायु संचार तथा अधिक जल संग्रह क्षमता हो जाती है| उन वर्षा पर आधारित खेती वाले क्षेत्रों में जैविक कृषि को अपनाकर उत्पादकता को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है| हमारे देश में ऐसे भी क्षेत्र हैं जहाँ पर रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का प्रयोग न के समान किया जाता है तथा वहां पर उत्पादकता बहुत ही कम है| उन क्षेत्रों में भी जैविक कृषि को अपनाकर उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है| देश के जनजातीय क्षेत्रों में रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का प्रयोग लगभग नगण्य है तथा यहाँ जैविक कृषि की अपार सम्भावनाएं है| हमारे देश में ऐसी कई प्रकार की फसलें हैं जैसे कि फलदार पौधे, औषधीय एवं सुंगंधित जड़ी बूटियां, मसालेदार फसलें तथा अन्य स्थानीय पारंपरिक फसलें, जिन को जैविक कृषि के अंतर्गत लाकर इनकी उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है| किसान इन जैविक उत्पादों को अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में जैविक उत्पाद के नाम अधिक दाम पर बेचकर अपनी आर्थिक दशा सुधार सकते हैं|
देश के पर्वतीय राज्यों का आकार बहुत छोटा होता है| इसमें एक साधारण छोटा कृषक शीघ्र व कम मेहनत से जैविक कृषि में रूपांतरित हो सकता है| जैविक कृषि कार्यक्रम का मुख्य ध्येय है कि कृषि क्षेत्र में कृषक स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनाया जाए, जो कि हमारी पर्वतीय कृषि के लिए निश्चित ही उपयोगी होगा| पहाड़ी क्षेत्रों का वह कृषक जो नाम मात्र रसायनों का प्रयोग करते हैं, उनके लिए जैविक कृषि में रूपांतरण आसान है| हिमाचल प्रदेश में औसतन 38 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है जो कि अनुमोदित मात्रा से कहीं कम है| इसके अतिरिक्त प्रदेश में लगभग 85% से अधिक खेती वर्षा पर आधारित है| इसलिए खाद्यान तथा फल उत्पादकता, सिंचित क्षेत्रों व अन्य विकसित देशों की तुलना में काफी कम है| अतः ऐसे असिंचित क्षेत्रों की भूमि पर रासायनिक उर्वरकों का अधिक प्रयोग अनुचित तथा अवैज्ञानिक है| ऐसे क्षेत्रों में जैविक कृषि पद्धति अपनाकर मिट्टी में जीवांश मात्रा में बढ़ोत्तरी करके खाद्यान उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है|
पहाड़ी खेती में समस्या अभी इतनी गम्भीर नहीं हुई है कि कोई निराकरण न हो सके और यदि समय रहते हम सही कदम उठायें तो इन समस्याओं से निपटा जा सकता है| आधुनिक जैविक कृषि अवधारणा एक उचित विकल्प के रूप में उभर का सामने आई है| इसके प्रचार एवं प्रसार के लिए उच्च स्तर पर प्रयास जरुरी है क्योंकि जैविक कृषि में किसी भी प्रकार के रासायनिक उत्पदानों का प्रयोग वर्जित है| उत्पादन स्तर में कोई गिरावट न आयें इसके लिए जरुरी है कि जैविक रसायनों का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता या बहुत कम हो रहा है| इसके बाद मध्यम रसायन उपयोग क्षेत्रों को शामिल कर और अंत में अन्य क्षेत्र इस कार्यक्रम में सम्मिलित किये जा सकते हैं| विभिन्न फसलों में जैविक प्रबंधन प्रक्रिया पहले फलों , मसालेदार फसलों, दाल वाली फसलों तथा परम्परिक फसलों की प्रजातियों एवं सब्जी वाली फसलों में प्रारंभ की जाए तथा बाद में अन्न फसलों में उनका प्रयोग हो|
इसी के मध्यनजर अब भूमि के सेहत को तंदुरुस्त रखने की ओर विशेष ध्यान देना बहुत आवश्यक है| यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम अपनी भूमि में जैविक व कार्बनिक खादों का प्रयोग करें| ‘डॉ. स्वामीनाथन’ के कथन अनुसार, अब समय आ गया है कि दूसरी सदाबहार हरित क्रांति को जन्म दिया जाए| इस हरित क्रांति में हमें टिकाऊ खेती की ओर ध्यान देना पड़ेगा| हमें भूमि में जैविक पदार्थ व कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ानी पड़ेगी, तभी दूसरी हरित क्रांति का जन्म होगा|
जैविक खेती के मूल सिद्धांत
जैविक खेती कृषि की वह पद्धति है, जिसमें प्राकृतिक संतुलन कायम रखते हुए, भूमि, जल एवं वायु को प्रदूषित किये बिना, दीर्घकालीन व स्थिर उत्पादन प्राप्त किया जाता है| इस पद्धति में रसायनों का उपयोग वर्जित है| यह पद्धति रासायनिक कृषि की अपेक्षा सस्ती, स्वावलंबी एवं स्थायी है| इसमें मिट्टी को एक जीवित माध्यम माना गया है| मात्र एक भौतिक इकाई न मानकर जैविक खेती के मुख्य सिद्धांत इस प्रकार है:
बुलेट
निम्नलिखित सिद्धांत सारांश स्वरुप ध्यान में रखने चाहिये:
भारत में पिछले चार दशक में रासायनिक खेती पद्धति अपनाते हुए आशातीत सफलता प्राप्त हुई है लेकिन इससे पर्यावरणीय क्षति के कुछ लक्षण भी परिलक्षित होने लगे हैं| कृषि का आधार स्वस्थ भूमि, शुद्ध जल एवं जैव विविधता में निहित है|अब यह प्रतीत होने लगा है कि सघन रासायनिक कृषि पद्धति सदा निभाने वाली कृषि पद्धति नहीं है| अतः पौध पोषण हेतु रसायनों पर निर्भरता को कम करते हुए जैव पौध पोषण को प्राथमिकता देनी होगी|
पादप पोषण प्रबंध
जैविक कृषि में पादप पोषण का अंग सबसे महत्वपूर्ण माना गया है| पद्धति में जीवांश कार्बन एवं ह्यूमस की मात्रा बढ़ाने के साथ-साथ सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि करना एक प्रमुख उद्देश्य होता है| भूमि में जैव कार्बन यदि संवर्धित रहता है तो वह जीवाणुओं के लिए ऊर्जा का स्रोत होता है और साथ ही पौधों को पोषण भी उपलब्ध कराता है| | प्राचीन काल से ही अपनाई जा रही फसल पद्धतियों में दलहनी फसलों का प्रयोग मृदा में नत्रजन की पूर्ति हेतु किया जाता रहा है| इसी क्रम में सन 1920 के दशक में विकसित की गई इंदौर पद्धति की कम्पोस्ट खाद, नाडेप खाद, जैव गतिकी एवं ई.एम. तकनीकों द्वारा बनाई गई खादों से पौधों को महत्वपूर्ण पोषक तत्व उपलब्ध कराए जाते हैं| प्रकृति में जैव कार्बन (ह्यूमस) पौध का मुख्य स्रोत है| इसलिए उपलब्ध कचरे/गोबर का उपयोग खाद/कम्पोस्ट बनाने में करना चाहिए| भूमि के जैव कार्बन व पौध पोषण का सीधा सम्बन्ध है|
पौध संरक्षण प्रंबध
जैविक खेती का लक्ष्य हानिकारक कीटों का विनाश नहीं है अपितु उनका आर्थिक क्षति सीमा स्तर तक नियन्त्रण करना है| इसके लिए स्वस्थ बीज, परजीवी कीटों, आकर्षण रसायनों, प्रकाश प्रपंच, कीट भक्षी पक्षियों, कृषिगत नियंत्रण आदि का उपयोग समन्वित रूप में किये जाने के प्रयोग सफल हुए हैं|
मृदा व जल प्रबंध
संतुलन बनाये रखते हुए इनका तात्कालिक पूर्ति हेतु दोहन किया जाता है व उसे भविष्य की धरोहर के रूप में संवर्धित रखा जाता है| मृदा, जीवांश व जल संवर्धन एक दूसरे के पूरक हैं| भूमि और जल प्रबन्धन के निम्नलिखित उपाय/घटक है:
जैविक कृषि में मूलतः फसल अवशेष अथवा जैव अवशेषों को खेत की मृदा में पुनः मिलाकर पोषक तत्वों की मात्रा को बनाया रखा जाता है परन्तु इससे पोषक तत्वों की कमी को पूर्ण नहीं किया जा सकता है अतः जैविक कृषि पद्धति में फसल चक्र, अंतरवर्तीय फसलों का उगाना एवं मिश्रित फसल पद्धति, पलवार, हरीखाद, जैविक खादों जैसे रहाईजोवियम, एजोटोबैक्टर, केंचुआ खाद इत्यादि को अपनाने से पोषक तत्वों की कमी को काफी हद तक पूरा किया जा सकता है|
जैविक कृषि का अर्थ केवल गोबर या केंचुआ खाद का प्रयोग करना ही नहीं है| जैविक कृषि में भी पौधों को 17 आवश्यक पोषक तत्वों की उसी मात्रा में जरूरत होती है जैसे कि रासायनिक खेती में| अतः पौधों को उचित मात्रा में पोषक तत्व उपलब्ध हों, इसके लिए किसानों को पौध पोषण के लिए विभिन्न स्रोतों जैसे केंचुआ खाद, कम्पोस्ट, बायोडायनामिक खाद, हरी खाद, जैविक उर्वरक, फसल चक्र एवं अन्य विधियों को मिलकर प्रयोग करना चाहए| यह विधि मिट्टी में लाभदायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ाने में सहायक है तथा इससे पौधों को उचित मात्रा में पोषक तत्व उपलब्ध होते हैं| आधुनिक जैविक कृषि 1960 के दशक से पूर्व की जाने वाली पारम्परिक जैव कृषि से भिन्न है| पारम्परिक जैव कृषि, में हम फसलों में पोषक तत्वों की सही मात्रा की आपूर्ति नहीं करते थे जो कि कम उत्पादकता का एक मुख्य कारण था| उस समय पोषक तत्वों की आपूर्ति मुख्यतौर पर गोबर की देशी खाद से ही की जाती थी तथा इसकी सही मात्रा व गुणवत्ता का ध्यान भी नहीं दिया जाता था| तकनीकी के अभाव में इस खाद को पारम्परिक विधियों से ही तैयार किया जाता था|
कार्बनिक एंव अकार्बनिक उर्वरक
कार्बनिक तथा अकार्बनिक उर्वरको पर काफी विवाद रहा है| यह बात जानना महत्वपूर्ण है कि पौधे कार्बनिक तथा अकार्बनिक उर्वरको के बीच भिन्नता नहीं कर सकते हैं| उनकी जड़ें केवल उन्हीं पोषक तत्वों को सोखती है जो कि अकार्बनिक तथा पानी में घुलनशील अवस्था में उपलब्ध होते हैं| इसमें कोई भिन्नता नहीं है कि पौधों को नत्रजन हम कम्पोस्ट द्वारा अथवा फैक्टरी में बने उर्वरक से दें, परन्तु दोनों ही स्रोतों के अपने-अपने नुकसान तथा लाभ हैं| रासायनिक उर्वरकों में विशेषतय कुछ एक तत्व ही पाए जाते हैं जैसे कि यूरिया में नत्रजन या सुपरफास्फेट में फास्फोरस इत्यादि| इतना ही नहीं रासायनिक खादों के अधिकाधिक प्रयोग से मृदा के जीवांश कार्बन के स्तर में गिरावट आई है जिसके कारण मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में गिरावट आ रही है| भूमि में सूक्ष्म तत्वों की कमी हो रही है, मिट्टी की संरंचना बिगड़ रही है, मिट्टी सख्त होती जा रही है तथा इस की उर्वरता का स्तर दिन प्रतिदिन नीचे गिरता जा रहा है| भूमि एवं जल –संसाधनों में प्रदुषण बढ़ रहा है लेकिन कार्बिनक खादों में लगभग सभी आवश्यक पोषक तत्व पाए जाते हैं जो मृदा की संरंचना सुधार कारक का कार्य करते हैं| इनके प्रयोग से जीवांश कार्बन की मात्रा, लाभदायक फुफंद एवं जीवाणुओं की मात्रा, लाभदायक अम्ल एवं विटामिन तथा एंजाइम इत्यादि पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं| यह मिट्टी को क्रियाशील एवं जीवित बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभाते हैं तथा मिट्टी में दीर्घकालीन उपजाऊपन बना रहता है| इससे टिकाऊ खेती करने में मदद मिलती है|
जैविक कृषि के मुख्य राष्ट्रीय मानक
प्रमाणीकरण संस्था द्वारा खेत का इतिहास यानि उसमें पूर्व में क्या फसल ली गई है, कितना उर्वरक व कीटनाशक उपयोग किया गया है तथा अम्ल सभी जानकारी जो उत्पादन को प्रभावित करती है, को इकट्ठा किया जाता है| इसके बाद मिट्टी –पानी की गहन जाँच होती है और अंत में किसान या किसानों के समूह को क्या-क्या कार्य करने हैं और क्या नहीं करने हैं के बारे में विस्तार से निर्देश दिए जाते हैं| सभी कृषि कार्यों, खाद, बीज आदि का रिकार्ड रखना इस प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा है| इस तरह वह खेत जिसमें पहले रासायनिक खेती होती थी को जैविक खेती में बलदने में 3 वर्ष या कभी –कभी ज्यादा समय लगता है|
इस कृषितंत्र (रासायनिक से जैविक) को बदलने में लगे समय को परिवर्तन समय (कनवर्जन पीरियड) कहते हैं| इसमें उपज सिर्फ 10 से 15% ही कम होती है| इस समय की समाप्ति पर पुनः भिमी कृषि की गहन जाँच कर संस्था जैविक खेती का प्रमाण पत्र देती है जिसे बाजार में उत्पाद बेचने हेतु प्रयोग किया जा सकता है| यह प्रमाण पत्र 12 से 18 माह तक मान्य होता है| इसके बाद भी संस्था के प्रतिनिधि वर्ष में दो-तीन बार आकर या सुनिश्चित करते हैं की जैविक खेती नियमानुसार हो| संस्था द्वारा बार-बार निरीक्षण और प्रमाणीकरण में आये खर्च को शुल्क के रूप में किसान (प्रार्थी) से लिया जाता है| नियंत्रक आदि सभी किसानों द्वारा या ग्राम स्तर पर बनाये जा सकते हैं| अतः बहुत हद तक आत्मनिर्भरता प्राप्त हो जाती है किन्तु प्रमाणीकरण एक ऐसा कार्य है जिसमें एक बाहरी संस्था पर निर्भरता रहती है| देश के कुल उत्पादन का सिर्फ 5 से 10% निर्यात के लिए होता है तथा शेष हमारे देश के उपभोक्ता ही उपयोग करते हैं जिनके लिए किसान या व्यापारी की व्यक्तिगत साख ही उपयोगी होती है| अतः किसान या किसान समूह यदि जैविक खेती के सभी नियम जानकर उन्हें पुर्णतः अपनी खेती में लागू करें तो वह स्वयं प्रमाणित खेती होगी| यदि किसी उपभोक्ता या निर्यातक को आवश्यकता हो तो वह स्वयं के खर्चे पर प्रमाणीकरण करा सकता है|
जैविक कृषि के राष्ट्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत व्यापार मंत्रालय नए जैविक कृषि के राष्ट्रीय मानक निर्धारित किये हैं| ये मानक मुख्यतः पांच भागों में बाटें गये हैं| इन मानको में बदलाव, फसल उत्पादन, पशुपालन, खाद्य प्रसंस्करण एवं संचालन तथा नामांकन एवं लेबल लगाना प्रमुख है|
स्रोत: मृदा एवं जल प्रबंधन विभाग, औद्यानिकी एवं वानिकी विश्विद्यालय; सोलन
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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