किसानों के लिए जीविका हासिल करना कठिन हो गया था। तो साग-सब्ज़ी के साथ मशरूम की खेती का जरिया बनाया। इससे गांव के लोगों की सेहत पर अच्छा प्रभाव पड़ने के साथ ही आतिॅक जीवन में भी बदलाव आया। नतीजा यह हुआ कि इन किसानों ने गांव में अपना ‘धनवर्षा किसान समूह’ नाम से एक बैंक बना लिया है। इस बैंक में 456000 से अधिक रुपये जमा हैं। यह बैंक गांव के किसानों को खेती-बाड़ी के साथ ही सुख-दुख में भी सस्ते दर में लोन देता है। बिहार के मुज़़फ्फ़रपुर जि़ले में कांटी प्रखण्ड के अंर्तगत कोठिया गांव के प्रगतिशील युवा किसान लाल बहादूर प्रसाद (35) ने अपनी मेहनत, लगन व ज़बरदस्त इच्छा शक्ति के बल पर अपने गांव के विनय कुमार, हनुमान प्रसाद, विमला देवी, सुनीता देवी और गणेश प्रसाद सहित 82 किसानों को मशरुम की खेती के लिए आगे लाया है। कैंसर से पीड़ित लाल बहादुर ने कैंसर से लड़ने के लिए मशरुम का उत्पादन शुरू कर दिया। लाल बहादुर को मुंह का कैंसर हो गया है, जिसका ऑपरेशन हुआ है। उन्होंने भविष्य में कैंसर के अंदेशे से बचने के लिए अपनी झोपड़ी में बांस से बने शेड पर करीब 50 से भी ज्यादा प्लास्टिक बैग में ओस्टर व बटर प्रजाति का मशरुम लगाया है। इस तरह लाल बहादुर ने अपने परिवार व गांव को कैंसर से बचाने के लिए मशरुम की खेती की नई इबारत लिखी।
कोठिया गांव के अधिकांश परिवार अपने भोजन में मशरुम की सब्ज़ी, अचार, पनीर, सिरका, चटनी, मुरब्बा आदि स्वाद व पौष्टिकता के लिए शामिल करते हैं। याद रहे कि फरवरी 2012 में ‘जन निर्माण’ स्वयंसेवी संस्था के राकेश कुमार ने यहां लोगों को मशरूम के उत्पादन की जानकारी दी। लाल बहादूर कुछ किसान भाईयों के साथ पूसा कृषि विश्वविद्यालय से मशरूम उत्पादन के बारे में तीन दिन का प्रशिक्षण प्राप्त किया और शुरू हो गया खेती का नया सिलिसला। देखते ही देखते गांव के यादातर छोटे-मझौले किसानों ने मशरुम को अपने घरों में लगाना शुरु कर दिया। आज इस गांव में अकेले लाल बहादूर के पास एक लाख के मशरूम के पौधे उग आए हैं। लाल बहादुर के चार बच्चों की पढ़ाई लिखाई मशरूम से हो रही है। पशुपालन, जैविक खाद्य उत्पादन केंद्र, औषधीय खेती से सालाना दो लाख रूप्ये की आमदानी हो रही है। स्थानीय बैंक से किसान क्रेडिट कार्ड लोन नहीं मिला तो कोठिया के किसानों ने अपना बैंक ‘धनवर्षा किसान समूह’ के नाम से शुरू किया। इस बैंक समूह में 19 किसान प्रतिमाह 250 रुपये के हिसाब से पैसे की बचत करते हैं। इसकी मियादी तीन वर्ष की होती है। इस बैंक में जमा राशि में से गांव में किसान की बेटी की शादी या फिर किसी के बीमार पड़ने पर उसके इलाज के लिए कम ब्याज की दर से ऋण दिया जाता है।
लाल बहादुर ने सिर्फ तीन हज़ार रुपये की पूंजी से मशरूम का उत्पादन शुरू किया था और आज उसके यहां एक लाख रूपये तक के मशरूम के उत्पादन की संभावना है। लाल बहादूर कहते हैं कि किसानों के पास इतना पैसा कहां कि वह संतुलित भोजन कर सकें और बीमारी से बचें। पहले लाल बहादूर को गांव के लोग सनकी कहते थे। आज गांव के लिए मशरूम का डाक्टर बन गया है। आस पास के किसानों के बीच मशरूम उत्पादन की नई नई जानकारी, देख-रेख, प्रशिाक्षण व बाज़ार के भाव की पूरी जानकारी देते हैं। इसकी मार्केटिंग के लिए सबसे पहले गांव के संपन्न लोगों को चुना। ताज़ा मशरूम 200 रूपये प्रति किलोग्राम एवं मशरूम 1000 रूप्ये प्रति किलोग्राम की दर से खुले बाज़ार में बिक रहा है जिससे आमदनी भी खूब हो रही है। काटी थर्मल पावर में पदास्थापित अफसर व कर्मचारी इनके उत्पादित जैविक मशरूम पर पूरा भरोसा करते हैं। जैविक होने का मतलब है कि वह मशरुम उत्पादन में किसी रासायनिक कीटनाशाक का इस्तेमाल नहीं करते। इसकी वजह से शहर के वकील, डाक्टर व सरकारी अधिकारी तक इनके मशरुम के खरीदार हैं। इधर, लाल बहादूर को शहर के मशहूर होटलों से भी आर्डर आने लगे हैं। आस पास के प्रखण्ड से किसान मशरुम की खेती की जानकारी के लिए लाल बहादूर के पास आते रहते हैं। मीनापुर प्रखंड के विनय रजक ने बताया कि हम लोगों को प्रशिक्षण नहीं मिला है।
इनके सहयोग से 100 रूपये की लागत से करीब 6 हज़ार रूपये का मशरूम उत्पादित किया है। लेकिन वहां के किसानों को सही समय पर मशरुम का बीज न मिलने की वजह से परेशानी बढ़ रही है। मशरुम के उत्पादन के प्रोत्साहन हेतु अनुदान केवल विज्ञापन बनकर रह गया है। किसानों को अनुदान और बैंक से सहयोग लेने के लिए ऐड़ी-चोटी एक करनी पड़ रही है। सभी किसान कहने लगे हैं कि बिना पैसे के जब कर्ज़ नहीं तो अनुदान लेना तो दूर की बात है। मशरुम की खेती के लिए आमदानी बढ़ाने के लिए बहुत कम पूंजी की ज़रूरत पड़ती है। एक बेड लगाने के लिए 4 किलो भूसा, 200 ग्राम बीज, एक प्लास्टिक का बैग आदि में 68 रुपये खर्च आता है। 20-22 दिनों के बाद बेड में मशरुम उग आता है। एक बेड से पहले एक किलोग्राम फिर छ: माह तक आधा-आधा किलोग्राम के हिसाब से तीन किलोग्राम तक उत्पादन हो जाता है। मशरूम के उत्पादन के लिए ठंडा व अंधेरे कमरे या झॉपड़ी की आवश्यकता पड़ती है। फिलहाल कोठिया के किसान मशरूम की खेती में रात-दिन लगे हुए हैं। इनका मकसद है कि कम पूंजी में अधिक उत्पादन हो। नकद आमदानी भी बढ़े और गांव के छोटे-मझौले किसानों की सेहत भी सुधरे। ये किसान गांव में मशरूम का आचार, मुरब्बा, चटनी, सिरका आदि की पैकिंग कर बाज़ार में उतारने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही मशरूम के बीज की समस्या से निजात पाने के लिए सीड प्रोसेसिंग यूनिट लगाने के लिए प्रयासरत हैं। गांव की महिलाओं को समूह का सदस्य बना रहे हैं ताकि खेती के साथ आर्थिक सशिक्तीकरण भी हो।
स्त्रोत: संदीप कुमार,स्वतंत्र पत्रकार,पटना बिहार।
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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