भारत देश के हर जिले, हर गांव में खेती वाली जमीन कुछ इस तरह से बर्बाद हो रही है। जब पृथ्वी पर जनसंख्या लगातार बढ़ रहा है, लोगों के रहने, उनका पेट भरने के लिए अनाज उगाने, विकास से उपजे पर्यावरणीय संकट से जूझने के लिए हरियाली की जरूरत आए दिन बढ़ रही है, वहीं धरती का माता का गुण दिनों-दिन बेकार होता जा रहा है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि मानव सभ्यता के लिए यह संकट खुद मानव समाज द्वारा कथित प्रगति की दौड़ में उपजाया जा रहा है। जिस देश के अर्थतंत्न का मूल आधार कृषि हो, वहां एक तिहाई भूमि का बंजर होना असल में चिंता का विषय है।
देश की कुल 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर भूमि में से 12 करोड़ 95 लाख सत्तर 70 हेक्टेयर भूमि बंजर है। भारत देश में बंजर भूमि के ठीक-ठीक आकलन के लिए अभी तक कोई विस्तृत सर्वेक्षण नहीं हुआ है, फिर भी केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रलय का अनुमान मुताबिक सर्वाधिक बंजर जमीन मध्यप्रदेश में है- 2 करोड़ 1 लाख 42 हेक्टेयर। उसके बाद राजस्थान का नंबर आता है, जहां 1 करोड़ 99 लाख चौंतीस हेक्टेयर, फिर महाराष्ट्र में 1करोड़ 44 लाख 1 हजार हेक्टेयर बंजर जमीन है। आंध्रप्रदेश में 1 करोड़ 14 लाख 16हजार हेक्टेयर, कर्नाटक में 99 लाख 65 हजार, उत्तर प्रदेश में 80 लाख 61 हजार, गुजरात में 98 लाख छत्तीस हजार, ओड़ीशा में 63 लाख 84 हजार और बिहार में 94 लाख 98 हजार हेक्टेयर जमीन अपनी उर्वरता खो चुकी है। पश्चिम बंगाल में 25 लाख 36 हजार, हरियाणा में 24 लाख 18 हजार, असम में 17 लाख 30 हजार, हिमाचल प्रदेश में 19 लाख 18 हजार, जम्मू-कश्मीर में 15 लाख 65 हजार, केरल में 12 लाख 79 हजार हेक्टेयर जमीन अनुपजाऊ है। पंजाब सरीखे कृषि प्रधान राज्य में 12 लाख 30 हजार हेक्टेयर, पूर्वोत्तर के मणिपुर, मेघालय और नगालैंड में क्रमश: 14 लाख 38 हजार, 19 लाख 18 हजार और 13 लाख 86 हजार हेक्टेयर भूमि बंजर है। सर्विधक बंजर भूमि वाले मध्यप्रदेश में भूमि के नष्ट होने की रफ्तार भी सर्वाधिक है। यहां पिछले दो दशकों में बीहड़ बंजर दो गुना होकर 13 हजार हेक्टेयर हो गए हैं। धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है, तो बरसात का पानी सीधा धरती पर पड़ता है और वहां की मिट्टी बहने लगती है। जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहां भी जगह मिलती है, मिट्टी काटते हुए वह बहता है। इस प्रक्रिया में नालियां बनती हैं और जो आगे चल कर गहरे होते हुए बीहड़ का रूप ले लेती हैं। एक बार बीहड़ बन जाए तो हर बारिश में वह और गहरा होता जाता है। ऐसे भूक्षरण से हर साल लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन उजड़ रही है। इसका सर्वाधिक प्रभावित इलाका चंबल, यमुना, साबरमती, माही और उनकी सहायक निदयों के किनारे के उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, राजस्थान और गुजरात हैं। बीहड़ रोकने का काम जिस गति से चल रहा है, उसके अनुसार बंजर खत्म होने में दो सौ वर्ष लगेंगे, तब तक ये बीहड़ ढाई गुना अधिक हो चुके होंगे। वही हरित क्रांति के नाम पर जिन रासायनिक खादों द्वारा अधिक अनाज पैदा करने का नारा दिया जाता है, वे भी जमीन की कोख उजाडऩे के लिए जिम्मेदार रही हैं। रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पहले कुछ साल तो दुगनी-तिगुनी पैदावार मिली, फिर भूमि बंजर होने लगी। यही नहीं, जल समस्या के निराकरण के नाम पर मनमाने ढंग से लगाए जा रहे नलकूपों के कारण भी जमीन कटने-फटने की शिकायतें सामने आई हैं। सार्वजनिक चरागाहों के सिमटने के बाद रहे-बचे घास के मैदानों में बेतरतीब चराई के कारण भी जमीन के बड़े हिस्से के बंजर होने की घटनाएं मध्य भारत में सामने आई हैं। सिंचाई के लिए बनाई गई कई नहरों और बांधों के आसपास जल रिसने से दलदल बन रहे हैं। जमीन को नष्ट करने में समाज का लगभग हर वर्ग और तबका लगा हुआ है, वहीं इसके सुधार का जिम्मा मात्र सरकारी कंधों पर है।
1985 में स्थापित राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने बीस सूत्रीय कार्यक्रम के तहत बंजर भूमि पर वनीकरण और वृक्षारोपण का कार्य शुरू किया था। आंकड़ों के मुताबिक इस योजना के तहत एक करोड़ सत्रह लाख पंद्रह हजार हेक्टेयर भूमि को हरा-भरा किया गया। लेकिन इन आंकड़ों का खोखलापन सेटेलाइट से खींचे चित्नों में उजागर हो चुका है। क्षारीय भूमि को हरा-भरा बनाने के लिए केंद्रीय वानिकी अनुसंधान संस्थान, जोधपुर में कुछ सफल प्रयोग किए गए हैं। यहां आस्ट्रेलिया में पनपने वाली एक झाड़ी का प्रारूप तैयार किया गया है, जो गुजरात और पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी क्षारीय जमीन पर उगाई जा सकती है। तो दूसरी तरफ बिहार में भी किसान बंजर जमीन को उपजाऊ बना कर खेती करने में लगे हैं।
यहाँ सासाराम जिले के किसान का जिक्र कर रहे हैं जिन्होंने मेहनत, लगन और तकनीक के बल से कहीं पर भी खेती कर किसान भाई उन्नत पैदावार और मुनाफा कमा सकते हैं। ऐसा कहना है बिहार में रोहतास जिले के ग्राम बान्दु पोस्ट- दारानगर अंचल- नौहट्टा में रहनेवाले रितेश पाण्डेय का इसने टपक सिंचाई प्रणाली को अपनाकर अपनी 45 एकड़ बंजर भूमि को हरे भरे खेतों में तब्दील कर दिया है। इस युवा किसान ने ‘जागो किसान जागो’ कृषि फार्म का निर्माण किया है। जहां वह करीब 18 एकड़ भूमि पर सब्जी की खेती और 25 एकड़ भूमि पर घृतकुमारी, अश्वगंधा एवं शतावर की खेती कर रहा है। जिस इलाके में इसने अपना कार्य शुरू किया है वह नक्सल प्रभावित एवं सूखाग्रस्त तथा गरीबी और पलायन का शिकार रहा है।
रितेश का कहना था कि सन 2000 से मैंने ‘वाटर डेकोर्स’ सूक्ष्म सिंचाई पद्धति का कार्य शुरू किया था। नवंबर 2012 में मैंने कृषि फार्म का निर्माण किया। लखनऊ में मैंने स्प्रिंकलर और टपक सिंचाई पद्धति को सिखा और वही पर काम करता रहा। लेकिन आखिर माँ के देहांत पर मैं अपने घर लौट आया। तभी से मैंने ‘जागो किसान जागो’ मुहिम शुरू की और किसानों को सूक्ष्म सिंचाई पद्दती से होने वाले लाभ के बारे में बताने लगा और उद्धयान विभाग की योजना के तहत लाभ किसानों को दिलाने लगा। इस कार्य के शुरु वात में लोगों का इस पद्धति पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। मेरा मजाक उड़ाते थे। किसानों को पुराने पारंपरिक सिंचाई प्रणाली ही ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होती थी। मैं लोगों के खेतों में फव्वारा सिंचाई प्रणाली का प्रयोग करके उन्हें बताताथा। धीरे धीरे लोगों का इसके प्रति विश्वास निर्माण होने लगा और उन्होंने भी इस पद्धति को अपनाया।
आज जिला उद्धयान विभाग की मदद से 1000 वर्ग मीटर का पॉली हाउस निर्माण किया है। जिसमें बेमौसमी सब्जी की खेती होती है। 4 एकड़ जमीन में गेंदे की जम्मू वेराइटी लगाई है, जिसकी पैदावार अच्छी होती है। वर्षा जल संग्रहण हेतु वॉटर स्टोरेज टैंक का निर्माण तथा प्याज भंडारण हाउस का निर्माण भी कराया है। औषिधये पौधों एवं सब्जी की खेती के साथ साथ ड्रीप सिंचाई पद्दती देखने के लिए जिले के साथ साथ औरंगाबाद एवं पड़ोसी राज्य झारखंड और यूपी से लोग आते है। जागो कृषि फार्म पर करीब 16-17 महिला पुरुष लोग कार्य करते है। टमाटर, भिंडी, खीरा, लौकी, करैला, तरोई, हरी मिर्च एवं धनिया पत्ता आदि सब्जियों को रोज बेचकर 8 से 10 हजार रुपये आय होती है।
रितेश ने जिला से प्राप्त अनुदान के सन्दर्भ में बताते हुए कहा कि जिला उद्धयान पदाधिकारी मेरी मेहनत से प्रेरित होकर उन्होंने मुङो टपक सिंचाई प्रणाली एवं पॉली हाउस लगाने के लिए सरकारी अनुदान प्रदान कराया। समय समय पर वह स्वयं आकर किसानों से गोष्टी करते है और सिंचाई प्रणाली अपनाने हेतु प्रेरित भी करते है।
लेखन : संदीप कुमार, स्वतंत्र पत्रकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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