हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है| सदियों से मानव सभ्यतायें कृषि को महत्वपूर्ण स्थान देता आ रही हैं| प्राचीन कृषि पूर्ण रूप से परम्परागत ज्ञान पर आधारित थी| मानव ने शताब्दियों के प्रयोगों से कृषि की कई पद्धतियाँ विकसित की हैं| प्रकृति के साथ कृषि का सबंध बहुत पुराना है| आधुनिक कृषि को हमारे देश में अपनायें जाने के बाद हमारी जैव सम्पदा, जैव विविधता, प्राकृतिक संसाधनों, पर्यावरण एवं परिस्थितिकी को काफी हद तक नुकसान पहुँचाया है| बढ़ती हुई जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने हेतु हरित क्रांति के माध्यम से खेतों में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग अधिक से अधिक मात्रा में किया जाने लगा| इसके साथ ही साथ फसलों में रोग एवं कीट नियंत्रण हेतु जहरीले रसायनों का प्रयोग बढ़ता चला गया जिसके परिणामस्वरूप रासायनिक तत्वों के अवशेष भूमि जल एवं वायु को प्रत्यक्ष रूप से तथा मनुष्य के जीवन को फसलों के माध्यम से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं|
खेतों में आधुनिक संसाधनों के प्रयोग से किसान धीरे-धीरे बाजार पर निर्भर होता जा रहा है| किसान खेती के लिए बीजों, रासायनिक खादों एवं रोग व कीट नियंत्रण हेतु पूरी तरह बाजार पर निर्भर हो गया है| खेती में अधिक खर्च होने की वजह से किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है| रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के अधिक प्रयोग से न केवल खेती में उत्पादन खर्च बढ़ जाता है बल्कि रासायनिक खादों से धीरे-धीरे खेत की उर्वरा शक्ति में कमी आ जाती है तथा कीटनाशकों का कीड़ों व रोगों पर भी असर कम होता जाता है| एक ही प्रकार की फसलों की ज्यादा पैदावार होने से बाजार भाव में भी कमी देखी जाती है और किसानों को समुचित आर्थिक लाभ नहीं मिल पाता जिसकी वजह से किसान आर्थिक रूप से और कमजोर होता जा रहा है|
हमारे देश में कुल 170 कीटनाशक पंजीकृत हैं| जिनमें से 64% कीटनाशकों का खेती में प्रयोग होता है| यह अनुमान है की कुल कीटनाशक उपयोग में से कपास में 45.5% धान में 22.8% और गेंहूँ में 6.4% कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है|
आधुनिक खेती में प्रयुक्त होने वाले कृषि यंत्रों, रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों की खरीद से बढ़ते हुए उत्पादन मूल्य के कारण किसान बैंकों या साहूकारों से कर्जा ले रहे हैं| अधिक खर्च करने के बाद भी जब किसान को अपेक्षित उत्पादन व लाभ नहीं मिल पाता तो वह समय से कर्जा वापस नहीं कर पाता है| ऐसी स्थिति में ऋण की क़िस्त जमा करने के लिए किसान या तो अपनी जमीन गिरवी रखता है या जमीन बेच देता है| यहाँ तक भी देखा गया है कि किसान अपने शरीर के अंगों को बेचकर ऋण मुक्त हो रहा है या अंत में ऋण न चूका पाने की स्थिति में मौत को गले लगा रहा है|
रसायनों के अधिक प्रयोग से पर्यावरणीय संतुलन दिन प्रति दिन बिगड़ता जा रहा है| जमीन की उर्वरा शक्ति घटती जा रही है और जमीन बंजर होती जा रही है| अधिक रसायनों के प्रयोग से लाभदायक कीट नष्ट होते जा रहे हैं व हानिकारक कीड़ों का प्रकोप फसलों में बढ़ता जा रहा है| जबकि दूसरी ओर एकल फसल, विकसित व संकर बीजों के बढ़ते हुए प्रयोग के कारण जैव विविधता घटती जा रही है|
रासायनिक खाद वे क्षार हैं जो कि किसी भी एक तत्व की अधिकता वाले होते हैं, जैसे कि नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम इत्यादि| जब खेतों में रासायनिक उर्वरक डालते हैं तो भूमि की क्षारीयता बढ़ जाती है, और धीरे-धीरे मिट्टी बंजर होती जाती है| भूमि में अधिक वे क्षार के बढ़ने से लाभदायक सूक्ष्म जीव एवं केंचुए अधिक प्रभावित होते है, क्योंकि इन जीवों के शरीर के क्षारीयता बाहरी क्षारीयता के मुकाबले में कम होती हैं| क्षारीयता बढ़ने के कारण, मिट्टी में नाइट्रोजन, फोस्फेट, सल्फर आदि पोषक तत्वों की उपलब्धता के बावजूद पौधा इन्हें ग्रहण नहीं कर पाता जिससे उत्पादन में तीव्रता से ह्रास होता जाता है|
रासायनिक खादों में यूरिया, डी०ए०पी० पोटाश एवं जिंक ही अधिक मात्रा प्रयोग में लायें जाते हैं| आधिक रासायनिक खादों के प्रयोग से किसानों के मित्र केंचुए तथा सूक्ष्म जीवाणु, धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं, साथ ही साथ रासायनिक खादों के अंधाधुंध उपयोग से खेती की लागत भी बढ़ती जाती है|
वर्तमान में खेती मूल रूप से कृषि रसायनों जैसे रासायनिक खादों, कीटनाशकों, खरपतवार नाशी, फुफंदनाशी तथा फसल बढ़ाने वाले हार्मोन इत्यादि पर निर्भर हो गई है| ये सभी रसायन पर्यावरण को दूषित करते हैं| साथ ही हमारे एवं हमारे पशुओं के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हैं| वे हमारे पारिस्थितिकीय संतुलन पर भी बुरा प्रभाव डालते हैं| कृषि रसायनों के कुछ कुप्रभाव निम्नवत हैं:
हमारे देश का दो तिहाई उत्पादक भू-भाग मिट्टी कटाव, जल भराव एवं लवणीयता की परेशानियों से ग्रसित है| रासायनिक खादों के प्रचलन के साथ ही अत्यधिक सिंचाई एवं एक जैसी खेती, जमीन की बर्बादी का एक और मुख्य कारण बन गये हैं| नाइट्रोजन तथा फास्फोरस युक्त खादों तथा कीटनाशकों के बढ़ते हुए उपयोग का एक दुष्परिणाम यह सामने आता है कि सतही तथा भूमिगत जल में नाइट्रेट के अवयव तथा भारी धातु अंशों की वृद्धि हो जाती है, और भूमिगत जल पीने योग्य नही रह जाता है| यहाँ तक कि इस जल से सिंचाई करने पर कृषि भूमि की उत्पादकता में भी हॉस *** होता है जबकि अत्यधिक सिंचाई की वजह से भूमिगत जल में कमी आ जाती है| परिणाम स्वरुप मिट्टी तथा पानी का आपसी पारिस्थितिक तंत्र अंसतुलित हो जाता है|
विविधता प्रकृति का गुण है तथा पारिस्थितिक तंत्र के स्थायित्व का आधार है| जैव विविधता संसार में उपस्थित सभी प्रकार के जीवन की विविधता को व्यक्त करती है| व्यावहारिक रूप से जैव विविधता को जीवों की संख्या, उनको प्रकार या भिन्नता के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है| सामान्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि पृथ्वी पर विद्यमान पोधे, पशु-पक्षी तथा व अति सूक्ष्म जीवों के विविध प्रकार हमारी पृथ्वी की जैव विविधता हैं|
विभिन्न वैज्ञानिकों के शोध से यह ज्ञात हुआ है कि कृषि रसायनों के अत्यधिक उपयोग से जहाँ एक ओर पौधों तथा सूक्षम जीवाणुओं की विशिष्ट विविधता नष्ट हो रही है| वहीं दूसरी ओर फसलनाशी कीटों के प्राकृतिक दुश्मनों की विविधता में भी कमी आ रही है, साथ ही हानिकारक कीटों की विविधता में भी वृद्धि हो रही है|
सभी प्राणी जीवित रहने के लिए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से किसी न किसी रूप में पेड़-पौधों पर आश्रित रहते हैं| पेड़-पौधे, सूर्य की उर्जा का उपयोग कर भोजन बनाते हैं, इसीलिए वे उत्पादक कहलाते हैं| शाकाहारी जन्तु वनस्पतियों को खाते हैं तथा अपनी वृद्धि एवं अस्तित्व के लिए पेड़-पौधों पर ही निर्भर रहते हैं जो प्राथमिक उपभोक्ता कहलाते हैं| माँसाहारी प्राणी, शाकाहारी प्राणियों को खाते हैं तथा पूरी तरह शाकाहारी प्राणियों पर ही निर्भर रहते हैं| ये द्वितीय उपभोक्ता कहलाते हैं| इस प्रकार सभी शाकाहारी प्राणियों पर ही निर्भर रहते हैं तथा आपस में सम्बद्ध हैं | यही क्रम “खाद्य श्रंखला” कहलाती है| प्रकृति में एक प्राकृतिक संतुलन स्थापित है, और स्तर पर संतुलन इस खाद्य श्रंखला को प्रभावित करता है|
खेती में कृषि रसायनों का उपयोग शत्रु तथा मित्र कीटों की संख्या को एक समान प्रभावित करता है| मनुष्य इस खाद्य श्रंखला के शीर्ष पर है इस कारण वह सबसे ज्यादा प्रभावित होता है| रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के माध्यम से भोजन में भारी धातुओं का प्रवेश होता है जो हमारे शरीर के लिए घातक हैं| जब रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का छिड़काव किया जाता है तो ये सारी जमीन, जल व वातावरण में फैल जाते हैं| बारिश कुछ कीटनाशी जहरों को पानी में बहाकर ले जाती है तो तालाबों एवं बड़े जलाशयों में मिल जाते हैं, जहाँ छोटे-बड़े पौधे तथा जीव-जन्तु इस जहर को खा लेते हैं जिससे ये जहर इनके शरीर में एकत्रित हो जाते हैं| इन जीवों को छोटी मछलियाँ खाती हैं| इन छोटी मछलियों को बड़ी मछलियाँ खाती हैं| बहुत सारी बड़ी मछलियों को बड़े जीव-जन्तु एवं पक्षी जिनका आहार मछलियाँ हैं, खातें हैं| इस प्रकार कीटनाशी रसायन पक्षियों एवं बड़े जन्तुओं के शरीर में चले जाते हैं जिससे इनका स्वास्थ्य बिगड़ता है तथा कुछ जीवों की मृत्यु भी हो जाती है|
परागकण वाहक जीव पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है| अध्ययन बताते हैं कि कीटनाशियों के बहुतायत उपयोग से तितलियों तथा मधुक्खियों की संख्यां निरंतर घट रही है| विदित ही है कि इन दोनों संकुलों का कृषि तंत्र में बहुत बड़ा योगदान है| ये परागकण के द्वारा उत्पादकता बढ़ाते हैं तथा फलों एवं बीजों की किस्म सुधार व विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं| फसलों पर रसायनों (कीटनाशी जो कि उनके लिए विष है) के अत्यधिक उपयोग से परागकण वाहकों की संख्या निरंतर घटती जा रही है| कृषि रसायन परागकण वाहकों के न केवल प्रजनन तंत्र पर बुरा प्रभाव डालते हैं बल्कि मकरंद/मधुरस को बजी प्रदूषित करते हैं| ये घातक रसायन पौधों में परागकण वाहक मधुमक्खियों एवं तितलियों आदि की प्रजनन प्रक्रिया को nkaraनकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं, जिनसे परागकण हेतु महत्वपूर्ण इन कीटों की संख्या में तीव्रता से कमी हो रही है|
सभी रासायनिक कीटनाशी मनुष्य के स्वास्थ्य में विपरीत प्रभाव डालते हैं, निरंतर कृषि रसायनों के उपयोग से अनेकों बीमारियाँ उत्पन्न हो रही है| कृषि रसायनों से होने वाली कुछ प्रमुख बीमारियाँ हैं: अपच, विविध चर्मरोग, प्रजनन तंत्र का विकार, कैंसर, बांझपन, यादाशत का घटना, सिर दर्द, चक्कर आना, उबकाई, दृष्टि दोष, श्वास रोग तथा तंत्रिका तंत्र का नाश इत्यादि|
कृषि रसायनों में बहुत खर्च करने के कारण किसान कर्जें में डूब जाते हैं| जबकि कम पौष्टिक गुणवत्ता के कारण बाजार में कृषि उत्पाद का उचित मूल्य भी नहीं मिलता| अंततः किसान कर्ज से तंग आकर मौत को गले लगा लेता है| विगत दो दशकों में हमारे देश में 2,50,000 से भी अधिक किसानों ने कर्जें में डूबने की वजह से आत्महत्यायें की हैं|
जैविक खेती सम्पूर्ण रूप से प्राकृतिक खेती है| जैविक खेती, कृषि का ऐसा सरल तरीका है जिसके द्वारा फसल उत्पादन के लिए मिट्टी के स्वास्थ्य तथा पर्यावरण की स्वच्छ रखते हुए पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखते हुए शुद्ध एवं पौष्टिक उत्पाद की प्राप्ति की जाती है| जैविक खेती अपनाने से खेती व वातावरण में रसायनों से होने वाले दुष्प्रभावों से मुक्ति मिल जाती है| भूमिगत जलस्तर में वृद्धि होने लगती है| क्योंकि जैविक खेती जैव विविधता के संरक्षण एवं संवर्धन में सहायक हैं अतः यह मिट्टी के सूक्ष्म जीवों की संख्यात्मक वृद्धि में लाभदायक है| किसानों को खेती के लिए बाजार पर भी निर्भर नहीं रहना पड़ता| जमीन की उर्वरा शक्ति में निरंतर वृद्धि होती रहती है| खेती में कम लागत की वजह से धीरे-धीरे किसान आर्थिक रूप से मजबूत होकर पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो जाता है|
जैविक कृषि प्रकृति आधारित आर्दश सिद्धांतों एवं पारिस्थितिकी पर आधारित है| इस विधि को अपनाने से खेती में होने वाले खर्चे (रासायनिक खादें, कीटनाशी इत्यादि) कम हो जाते हैं| जैविक खेती द्वारा बहुत अच्छी गुणवत्ता वाला उत्पाद प्राप्त है जिससे किसानों को बहुत अच्छी कीमत व आय प्राप्त होती है| जिस प्रकार वर्तमान रसायन आधारित कृषि में खेत की मिट्टी की उत्पादकता धीरे-धीरे कम होती जा रही है जबकि खेती का खर्च बढ़ता ही जा रहा है तो किसान के लिए सतत जीवन यापन हेतु जैव विविधिता आधारित जैविक खेती ही एक मात्र विकल्प रह जाती है| जैव विविधिता आधारित जैविक खेती अपनाने से न केवल किसान की बाजार पर निर्भरता ख़त्म होगी अपितु धीरे-धीरे हमारे देश के छोटे व मंझोले किसान भी आत्मनिर्भरता हो कर कर्ज व आत्महत्या जैसी विवशताओं के मायाजाल से हमेशा के लिए मुक्त हो जायेंगें|
स्रोत: उत्तराखंड राज्य जैव प्रौद्योगिकी विभाग; नवधान्य, देहरादून
अंतिम बार संशोधित : 1/21/2020
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