जीरो टिलेज गेंहू – प्रशिक्षकों से अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
हम जीरो टिलेज प्रणाली में अधिकतम पैदावार कैसे ले सकते हैं?
- जीरो टिलेज पद्धति में खरपतवाररहित समतल खेत में गेहूं की बुआई उपयुक्त नमी में होनी चाहिए।
- मशीन में उर्वरक व बीज की सही मात्रा का निर्धारण होना चाहिए।
- गेहूँ की बुआई के समय बीज की गहराई 4 से 5 सेमी. होनी चाहिए।
- मशीन की सभी फारें एक दूसरे से एक समान दूरी पर होनी चाहिए।
यदि पहली फसल के सभी अवशेष जमीन पर फैले हों तो हमें क्या करना चाहिए?
- धान कटाई के बाद गिरे और फैले अवशेषों को हटा दें।
- अगर फसल अवशेषों को नहीं हटाते हैं तो ये मशीन के फार में फसने से समस्या पैदा करते हैं। कम्बाइन से कटाई वाले क्षेत्रों में फसल अवशेषों के फसने की समस्या से बचने के लिए हैप्पी सीडर का प्रयोग करें।
- आसानी से बुआई करने के लिए किसान चोपर का प्रयोग भी कर सकते हैं।
क्या जीरो टिलेज से बुआई से पैदावार बढ़ती है?
- बिहार में किये गये सर्वे से पता चला है कि जीरो टिलेज की बुआई से परम्परागत विधि की अपेक्षा 19.4 प्रतिशत पैदावार अधिक मिली तथापि कुल परिचालन लागत या उपज की तुलना करने पर किसानों के लिए जीरो टिलेज हमेशा लाभदायी रही है।
- जीरो टिलेज में अगेती बुआई करने से गेहूं की फसल अवधि में वृद्धि होती है।
- बुआई समय पर ही करनी चाहिए।
- यदि उचित समय प्रबन्धन किया जाये तो यह तकनीकी पैदावार बढ़ाने में सक्षम है।
गेहूं की देरी से बुआई करने से उत्पादकता में होने वाली कमी के क्या परिमाण हैं?
- सामान्यतः पूर्वी उत्तर प्रदेश में गेहूं की बुआई दिसम्बर के प्रथम सप्ताह और बिहार में दूसरे या तीसरे सप्ताह में होती है।
- पंजाब और हरियाणा में गेहूं की बुआई 25 अक्टूबर से शुरू हो जाती है जबकि पूर्वी क्षेत्रों में यह 20 नवम्बर से शुरू होती है।
- उत्तर पश्चिम गंगा सिन्धु के मैदानों में देरी से बुआई के कारण प्रति हैक्टेयर 30 से 35 किग्रा प्रति दिन की दर से पैदावार में कमी आती है। पूर्वी मैदानों में यह 50 से 65 किग्रा प्रति हैक्टेयर प्रति दिन के हिसाब से होती है।
- वर्तमान आकड़ों से पता चला है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में गेहूं की बुआई 1 नवम्बर से शुरू करते हुए 30 नवम्बर तक समाप्त कर लेना अच्छा है।
जीरो टिलेज विधि किसानों को गेहूँ और दूसरी रबी वाली फसलों में बुआई में होने वाली देरी से कैसे बचा सकती है?
- धान की देरी से रोपाई, लम्बी अवधि वाले धान की प्रजाति लगाना और मड़ाई के लिए धूप में सुखाने के कारण ही गेहूं तथा अन्य रबी वाली फसलों की बुआई में देरी होती है।
- जहाँ तक सम्भव हो मध्यम अवधि की प्रजातियाँ या संकर धान की रोपाई करनी चाहिए।
- खेत में धान को सुखाने की अपेक्षा धान को खलिहान में इकट्ठा कर मड़ाई के लिए एक्सल फ्लो श्रेसर का प्रयोग करें।
- लम्बी अवधि वाली धान की प्रजातियों की रोपाई 15 जुलाई से पहले कर देनी चाहिए।
सतही बुआई क्या है और क्या ज्यादा नमी वाले खेत में गेहूं की बुआई इस विधि से कर सकते हैं?
- अधिक नमी वाले खेत में ट्रैक्टर चलाने से लीक बन जाती है जिससे गढ्ढे बनने के कारण ऊपरी सतह खराब हो जाती है। गेहूँ की देरी से बुआई से बचने के लिए इस दशा में सतह पर बुआई करना अच्छा रहता है।
- यदि खेत में अपेक्षाकृत नमी कम है तो सतही बुआई के लिए बीज को खेत में छिड़क कर बुआई में होने वाली देरी से बचने के लिए एक सिंचाई कर देनी चाहिए।
गेहूं में देरी से सिंचाई करने पर हीट स्ट्रेस के कारण होने वाली उपज में कमी को कम करके पैदावार को टिकाऊ बनाने में कैसे सहायक है?
- गेहूं के दाने भरते समय उच्च तापमान से दानों का आकार छोटा हो जाता है जिससे पैदावार घट जाती है।
- अधिक गर्मी से फसल में होने वाले नुकसान से बचाव के लिए दाना सख्त होने की अवस्था में एक सिंचाई करना लाभदायक है। जबकि बहुत से किसान इस समय फसल के गिरने के डर से अन्तिम सिंचाई नहीं करते।
- जीरो टिलेज से बुआई की गयी गेहूं की फसल में यह सिंचाई देने से फसल के गिरने की सम्भावना बहुत कम हो जाती है।
- यदि जीरो ट्रिलेज से गेहूं की बुआई जल्दी करने के साथ-साथ इसकी अन्तिम सिंचाई भी कर दी जाये तो यह उपज के लिए लाभदायक होती है।
- जीरो टिलेज पद्धति का अभी तक का अनुभव यह है कि फरवरी और मार्च महीने के शुरुआत में वर्षा होने के बावजूद जीरो टिलेज से बोई गयी फसल परम्परागत विधि से बोई गयी फसल की तुलना में कम गिरती है।
जीरो टिलेज विधि और परम्परागत विधि से तैयार खेत में क्या अन्तर है?
- अच्छी तरह से जोत कर तैयार किये गये खेत में गेहूं की बुआई का मतलब परम्परागत विधि से है या फिर नयी फसल लगाने से पहले खेत की तीन से चार बार जुताई की जाती है।
- जीरो टिलेज विधि में खरपतवाररहित खेत में केवल एक ही बार में सीधी बुआई की जाती है।
जीरो टिलेज की अवधारणा
- जीरो टिलेज पद्धति संरक्षित खेती के सिद्धान्त का एक अंग है। इसके विभिन्न अवयव जो कि मृदा की गुणवत्ता, जल उपयोग क्षमता व फसल की पैदावार को सुधारने में सहायक हैं। इसमें खेत की न्यूनतम तैयारी, फसल अवशेषों को छोड़कर खेत को आंशिक रूप से ढकना और फसल विविधीकरण शामिल हैं। पूर्णतया सस्य, जैविक और आर्थिक लाभों को लेने के लिए उच्च गुणवत्ता की जीरो टिलेज पद्धति आवश्यक है।
किसानों को कितने लम्बे समय तक जीरो टिलेज का प्रयोग करना चाहिए?
- हरियाणा राज्य के किसानों द्वारा जीरो टिलेज पद्धति का प्रयोग धान-गेहूँ, बाजरा-गेहूँ और ज्वार-गेहूँ इत्यादि फसल प्रणालियों वाले क्षेत्रों में लगातार पिछले 20 वर्षों से सफलतापूर्वक किया जा रहा है। बिहार राज्य के बक्सर, आरा, रोहतास, चम्पारण और उत्तर प्रदेश के महराजगंज और कुशीनगर जिलों के किसानों द्वारा भी पिछले 8 सालों से इस तकनीकी को सफलतापूर्वक अपनाया जा रहा है।
धान-गेहूँ फसल प्रणाली में जीरो टिलेज पद्धति का लम्बे समय तक प्रयोग से गेहूं की उत्पादकता एवं मृदा की भौतिक अवस्था पर क्या प्रभाव होता है?
- हरियाणा राज्य में किये गये अध्ययनों के आधार पर जीरो टिलेज पद्धति से मिट्टी की 0.10, 0.15 और 0.25 मीटर गहराई पर जैविक पदार्थ की बढ़ोत्तरी क्रमशः बलुई दोमट, दोमट और चिकनी दोमट मिट्टियों में सार्थक रूप से हुई हैं। जो कि मिट्टी के स्वास्थ्य के सुधार को इंगित करता है। जीरो टिलेज पद्धति के अन्तर्गत पिछले 15 वर्षों में मृदा में कार्बन स्टॉक 0.4 मीटर गहराई में 19.0, 34.7 व 38.8 प्रतिशत क्रमशः बलुई दोमट, दोमट व चिकनी दोमट मिट्टी में परम्परागत जुताई की तुलना में बढ़ोत्तरी हुई है तथा इसमें कार्बन पृथक्करण की दर क्रमशः 0.24, 0.46 और 0.62 मिग्रा. प्रति हैक्टेयर प्रति वर्ष थी। विभिन्न फसल प्रणालियों के अन्तर्गत जीरो टिलेज पद्धति से मृदा-समुच्चयन में वृद्धि, भू-क्षरण की दर में कमी और जीवांश पदार्थ में बढ़ोत्तरी सभी तरह की मृदाओं में हो रही है। कुछ कृषि सम्बन्धी ऐसी क्रियायें जो कि समान रूप से किसान, समाज और वातावरण के लिए सकारात्मक रूप से लाभदायी सिद्ध हो सकती हैं। यद्धपि जीरो टिलेज का अभी तक पूरी तरह से लाभ नहीं उठाया जा सका है क्योंकि किसानों के द्वारा लम्बे समय तक लगातार जीरो टिलेज पद्धति को नहीं अपनाया गया है। बहुत सारे क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ पर जीरो टिलेज की अपार सम्भावनाएं होते हुए भी किसानों के द्वारा अभी भी जुताई कर बुआई की जा रही है।
जीरो टिलेज पद्धति से खेती करने में उगने वाले खरपतवारों की संख्या पर क्या प्रभाव होगा ? क्या जीरो टिलेज में खरपतवार ज्यादा आते हैं?
- कृषि में खरपतवारों का सीधा सम्बन्ध भूमि की जुताई और अपनायी गयी फसल प्रणाली से है।
- जीरो टिलेज प्रयोग से धान और गेहूं की समय पर बुआई होने से फसल वृद्धि के लिए पर्याप्त समय मिलने के कारण अच्छी उत्पादकता के साथ ही संसाधनों के समुचित उपयोग को बढ़ावा मिलता है।
- जीरो टिलेज का खरपतवारों पर प्रभाव के तीन अपेक्षित सूचकांक के हिसाब से अगर हम फसल में जमाव पूर्व खरपतवारनाशियों का प्रयोग करने से फसल-खरपतवार प्रतियोगिता में फसल की अच्छी बढ़वार के लिए सहायक होता है।
- जीरो टिलेज अपनाकर गेहूँ की अगेती बुआई करने से खेत में मंडूसी की संख्या में अप्रत्यासित कमी आती है।
जीरो टिलेज मशीन की मुख्य विशेषतायें क्या हैं?
- जमीन में चीरा लगाने के लिए मशीन में इनवर्टड टी ओपनर का नीचे का कोंण 5 डिग्री होता है जो कि धान के अवशेषों में बिना जोते खेत में आसानी से चीरते हुए पतली नाली जैसे कूंड बनाता है।
- मशीन के फार में लगी कठोर (65 आर.एच.एन.) प्लेट के कारण बिना जुते हुए खेत की कठोर सतह होने के बावजूद घिसावट कम होती है तथा लम्बे समय (250 घंटे) तक चलती है।
- मशीन में अन्दर से खोखले चौकोर स्टील की फ्रेम लगी होती है और इस पर दो फारों की आपस की दूरी समायोजित करने के लिए सिकंजे लगे होते हैं तथा इसके बीचोंबीच सामने की तरफ उर्वरक व बीज को घुमाने वाली प्रणाली को चलाने वाला पहिया लगा होता है।
- मशीन की कीमत रूपये 40,000 से 60,000 है तथा यह मशीन 9, 11 और 13 फारों की होती है। गेहूँ के अतिरिक्त मसूर, मटर, सरसों, मूंग, धनिया इत्यादि की बुआई के लिए यदि मल्टीक्रॉप प्लान्टर उपलब्ध नहीं है तो साधारण जीरो ट्रिलेज से भी इन फसलों को बोया जा सकता है।
भारत में जीरो टिलेज तकनीकी टिकाऊ होने के कारण क्या-क्या हैं ?
- जीरो टिलेज से परम्परागत विधि की अपेक्षा छोटे खेतों में गेहूं की बुआई 6-10 दिन अगेती कर सकते हैं।
- इससे डीजल की बचत औसतन उत्तर पश्चिमी भारत में 45 लीटर प्रति हैक्टेयर और पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार में 25 लीटर प्रति हैक्टेयर है।
- जीरो टिलेज द्वारा पहली सिंचाई में पानी की बचत होती है। इसके विपरीत परम्परागत विधि में पहली सिंचाई का पानी ज्यादा लगने से नत्रजन के स्रस होने के कारण फसल में पीलापन आ जाता है।
- बिहार में जीरो टिलेज से गेहूँ की अगेती बुआई करने से पैदावार में 19.4 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है।
- इससे फसल की कुल लागत में 3,900 रूपये प्रति हैक्टेयर की बचत होती है।
- उपर्युक्त कारणों से अधिकतर किसान गेहूँ की जीरो टिलेज मशीन से अगेती बुआई करके संतुष्ट हैं।
धान-गेहूँ फसल प्रणाली में जीरो टिलेज तकनीकी का रोगजनक कारकों पर क्या प्रभाव है ?
- हरियाणा में हुए अनुसंधान में पता लगा है कि गेहूं की फसल में क्रांतिक जड़े बनने से इसके पकने तक मृदा कवक परम्परागत विधि में जीरो टिलेज विधि से अधिक थे। जबकि धान की फसल में इस तरह की प्रवृति दिखाई नहीं दी। तथा धान-गेहूं की जड़ों में फ्यूजेरियम स्पिसिज डी रोस्ट्राटा और पेनीसिलियम स्पिसिज़ प्रमुख कवक थे।
- एफ मोनिलिफॉर्म की संख्या परम्परागत विधि से बोये गये गेहूं के खेत में जीरो टिलेज की अपेक्षा अधिक थी जबकि धान में एफ मोनिलिफॉर्म, एफ. पेलीडोरोसियम, ओराइजी और डी. रोस्ट्राटा रोगजनक थे और गेहूँ में ए. ट्रिटेसिंसा और बी. सोरोकिनिआना अधिक पाये गये।
जीरो टिलेज तकनीकी का कीटों पर क्या प्रभाव है?
- धान के 24 खेतों में प्रत्येक दो सप्ताह के अन्तर पर लिए गये नमूनों में 61 प्रकार के विभिन्न (मित्र व शत्रु) कीट और मकड़ियां पायी गईं। बिना जुते खेतों में मित्र कीटों की संख्या धान के अवशेषों में जैसे चींटी, मकड़ी, ईअरविंग्स, लेडी-बीटल और बग्स की संख्या पायी गई। जबकि मित्र कीटों की अधिक संख्या मेंड़ों में उगे घास में ज्यादा थी। इनका कम या ज्यादा होना तापमान के घटने या बढ़ने पर आधारित होता है। बिना जुते खेतों में जहाँ धान के अवशेष हटा या जला दिये गये वहाँ इनकी संख्या अपेक्षाकृत कम पायी गई। जबकि जिस खेत में धान के अवशेष थे वहाँ शत्रु कीटों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक थी। ये कीट गेहूं की फसल जो बेड या परम्परागत विधि से बोयी गयी हैं, लगभग नहीं के बराबर थे। धान के अवशेषों में पीला एवं गुलाबी तना छेदक कीड़े मुख्य थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में कहीं-कहीं सैनिक कीट भी पाया गया है जबकि इन सब को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है।
संसाधन संरक्षण कृषि तकनीकी और संरक्षित खेती शब्दावली का इस्तेमाल क्यों किया जाता है?
संसाधन संरक्षण तकनीकी का मतलब कृषि में प्रयोग होने वाले सभी संसाधनों एवं विभिन्न लागतों की क्षमता को बढ़ाना है। जिसका अभिप्राय खेत को समतल कर जुताई एवं सिंचाई में ईंधन खपत में कमी करते हुए जल उत्पादकता को बढ़ाता है।
संरक्षित खेती के तीन मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:
- खेत की न्यूनतम जुताई।
- कुशल फसल चक्र अपनाना।
- मिट्टी को फसल अवशेषों से आंशिक रूप से आच्छादित करना।
जीरो टिलेज से कितना पानी बचता है?
- प्राकृतिक संसाधनों की बचत को प्रक्षेत्र के आधार पर न देखकर सिंचाई क्षेत्र के आधार पर देखना चाहिए। जीरो टिलेज पद्धति से प्रति एकड़ 5 प्रतिशत तक की बचत होती है लेकिन यह सिंचाई क्षेत्र में 30 प्रतिशत तक बचत कर सकती है जो कि केवल 1000 हैक्टेयर तक अपनायी जाती है।
उपलब्ध साहित्य में जीरो टिलेज तकनीकी से सम्बन्धित मतभेदों का मूल्यांकन कैसे करना चाहिए?
- हम जीरो टिलेज से सम्बन्धित साहित्य ज्यादातर उन देशों से लेते हैं जहाँ की फसल सघनता यहाँ से भिन्न होती है तथा कई बार तो यह फसल सघनता 100 प्रतिशत तक अलग हो सकती है। 1990 से पूर्व प्रकाशित साहित्य में ये कहा गया था कि जीरो टिलेज मशीन सफल नहीं है परन्तु समय के साथ निवर्तमान मशीनों में क्रमवार सुधार होने से तथा विभिन्न खरपतवारनाशक रसायनों के आगमन से इसका पूरा परिदृष्य जीरो टिलेज तकनीकी के पक्ष में होता चला गया।
- पूर्वी गंगा के मैदानी भागों में गेहूँ और धान की बुआई में देरी होने के कारण जीरो टिलेज तकनीकी अधिक उपयोगी है। इन क्षेत्रों में उत्तर पश्चिमी भागों की तुलना में इस तकनीकी से बुआई के समय में शीघ्रता आने से पैदावार में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि होती है। दोनों तरफ की पारिस्थितिकी में अन्तर होने के कारण पूर्वी गंगा के मैदानों की उपज पश्चिमी गंगा के मैदानों की तुलना में अधिक है। वास्तव में हमारे जीरो टिलेज तकनीकी से सम्बन्धित निष्कर्ष क्षेत्रीय तथ्यों पर आधारित नहीं होते हैं। हमें यू.एस.ए., ब्राजील, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका और दूसरे एशियाई देशों में किये गये कार्य को अलग निगाह से देखने की आवश्यकता है।
जीरो बनाम स्ट्रिप टिलेज में अन्तर क्या है?
- इन दोनों तकनीकियों में बहुत अन्तर नहीं है। लेकिन भारत में शुरुआती दौर में स्ट्रिप ट्रिलेज के धीमें अधिग्रहण के कारण इन दोनों में सही से आकलन नहीं हुआ कि दोनों में से कौन सी तकनीकी अच्छी है। जब तक शुरुआती अनुसंधान के परिणाम सामने आते, उससे पहले ही अधिकतम किसानों ने स्ट्रिप टिलेज की तुलना में जीरो टिलेज को व्यावसायिक स्तर पर अपना चुके थे।
क्यों किसानों को जीरो टिलेज अधिग्रहण में विचार बदलने की आवश्यकता है?
- भारत में किसानों की बहुत बड़ी संख्या मनोविज्ञान रूप से सभी फसलों को उगाने के लिए परम्परागत विधि के पक्ष में रही है। जिसके चलते समाज में एक पूर्ववर्ती धारणा दब के बाह अते रज के खा अर्थात ज्यादा जुताई और ज्यादा उपज एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलती रही। अधिकतर फसल उगाने वाले विशेषरूप से बुजुर्ग किसानों का विश्वास है कि अधिक जुताई करने से पैदावार अधिक मिलेगी। उनकी मानसिकता होती थी कि जब किसी के द्वारा जीरो टिलेज या इससे सम्बन्धित अन्य उन्नत तकनीकी के बारे में बताया जाता था तो उन्हें वह बात धोखा देने जैसी लगती थी लेकिन क्रमानुगत प्रशिक्षण से ये धारणा बदलती गयी। अच्छी गुणवत्ता वाली मशीन की उपलब्धता व नये खरपतवारनाशियों के प्रयोग से आज के किसानों की मानसिकता बदली है और जीरो टिलेज तकनीकी को अपनाने का मार्ग प्रशस्त हुआ है।
जीरो टिलेज तकनीकी धान-गेहूँ फसल प्रणाली में विशेष क्यों है?
- फसल प्रणाली में एक फसल का प्रबन्धन दूसरी फसल के प्रदर्शन को प्रभावित करता है। धान-गेहूँ फसल चक्र में ये दोनों फसलें एक दूसरे पर आधारित हैं। अकेली धान या गेहूं की फसल पर शोध करने से अधिक सफलता नहीं मिलती अतः इन दोनों फसलों के प्रबन्धन को एक साथ समान रूप से करना पड़ेगा। जीरो टिलेज के धान-गेहूँ फसल चक्र में अनुकूलन होने के कारण सिन्धु गंगा के मैदानों में इसका अधिग्रहण बढ़ते हुए पाया गया है।
फसल चक्र का क्या अर्थ है?
- फसल चक्र का अर्थ एक ही खेत में फसलों को चरणबद्ध तरीके से अदल-बदल कर बोने से है। फसल चक्र से मृदा में पोषक तत्वों की उपलब्धता भू-क्षरण में कमी तथा कीटों और बीमारियों से बचाव होता है। जब एक ही फसल को लगातार कई वर्षों तक एक ही खेत में बोया जाता है तो इससे मृदा में कुछ विशेष पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। इस कमी से फसल कमजोर हो जाती है और पैदावार भी कम मिलती है।
- फसल चक्र में अपनाये गये फसलों के क्रम से मृदा में कुछ विशेष तत्वों की भरपायी होती है। उदाहरण के लिए फसल चक्र में कोई एक फसल ज्यादा नत्रजन लेने वाली (खाद्यान्न फसलें) तथा दूसरी फसल मृदा में नत्रजन स्थिर करने वाली (दलहनी फसलें) अगर सम्भव हो तो तीसरी फसल जमीन पर फैलने वाली का चयन करके मृदा में पोषक तत्वों का अच्छी तरह से संतुलन बनाया जा सकता है।
- उचित फसल चक्र अपनाने से बीमारी और कीटों के प्रकोप से भी बचाव होता है। फसल बदलने से कुछ फसलें कुछ विशेष रोगों और कीड़ों के प्रति सहनशील होती हैं तथा कुछ के प्रति प्रतिरोधी होती हैं। फसल चक्र से बीमारियों और कीड़ों का संतुलन बनाया जा सकता है। दूसरा एक ही खेत में एक ही फसल को बार-बार लगाने पर कुछ कीड़ों की संख्या में काफी वृद्धि हो जाती है और उनका नियंत्रण करना मुश्किल हो जाता है। परन्तु फसल चक्र अपनाकर इनको आसानी से नियंत्रित कर सकते हैं।
बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जीरो टिलेज तकनीक गेहूं की बुआई के समय को कैसे प्रभावित करती है?
- सिंधु गंगा के मैदानों में धान कटाई के बाद एक से दो सप्ताह में खेत पर किये गये कार्य गेहूं की बुआई के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। गेहूं की बुआई 25 नवम्बर के बाद होने से पैदावार में 30 किग्रा/हैक्टेयर/दिन घटती है। इस क्षेत्र में ज्यादातर धान की लम्बी अवधि वाली प्रजातियाँ जैसे कि MTU-7029 काफी बड़े क्षेत्र में उगायी जाती है इस कारण से गेहूं की बुआई में देरी होना स्वाभाविक है। ऐसी परिस्थिति में जीरो ट्रिलेज तकनीकी को अपनाकर गेहूं की बुआई 8-10 दिन अगेती की जा सकती है।
भारत में जीरो टिलेज के अधिग्रहण में देरी क्यों हुई?
- यहाँ पर जीरो टिलेज से सम्बन्धित योजनाबद्ध अनुसंधान सही ढंग से किसानों की सहभागिता से 1996 में प्रारम्भ हुआ। किसान पहले अधिकतम पैदावार के लिए जुताई ज्यादा करते थे। जीरो टिलेज पर आम सहमति NATP परियोजना के तहत राष्ट्रीय स्तर पर किसान सहभागी अनुसंधान से बनी। इस नवाचार को सन् 2009 से सीसा परियोजना के अन्तर्गत सिन्धु गंगा के मैदानी भागों में जारी रखा गया है जिससे कि जीरो टिलेज का आज के परिप्रेक्ष्य में अधिग्रहण बढ़ रहा है।
कृषि में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जीरो टिलेज तकनीकी के माध्यम से किस सीमा तक कम किया जा सकता है?
- जीरो टिलेज तकनीकी से प्रति इकाई क्षेत्र में गेहूं की बुआई में खपत होने वाले ईंधन की कमी एवं सिंचाई में लगने वाले | समय व ऊर्जा की बचत होने से विभिन्न ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी आती है। इसके साथ-साथ परम्परागत खेती की तुलना में इस पद्धति में फसल अवशेष नहीं जलाये जाने के कारण इन गैसों का उत्सर्जन नहीं होता है।
स्त्रोत: दक्षिण एशिया के लिए खाद्यान प्रणाली की पहल
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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