राजस्थान के कीरतपुरा गांव निवासी कैलाश चौधरी अब किसानों के लिए ही नहीं बल्कि रोजी-रोटी की तलाश में इधर-उधर भटकने वाले युवाओं के लिए भी मार्गदर्शक बन गए हैं। इन्होंने साबित कर दिया कि कुछ कर गुजरने की तमन्ना हो तो कामयाबी खुद-ब-खुद मिलती चली जाती है। कामयाबी के लिए किसी तरह से शॉर्टकट तरीके अपनाने की भी जरूरत नहीं होती है। बस जरूरत है तो कड़ी मेहनत और लगन की। जो लोग पूरी तत्परता से खेती में जुट जाते हैं, उन्हें अपनी जरूरतों के लिए किसी के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ती है। इनकी लगन एवं मेहनत ने रंग दिखाया। खुद तो स्वावलंबी बने ही साथ ही सैंकड़ों लोगों को अब प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार भी मुहैया करा रहे हैं। कैलाश बताते हैं कि उनकी हमेशा कोशिश होती है कि उम्दा किस्म का उत्पाद तैयार किया जाए। उत्पाद की गुणवत्ता में वह किसी तरह का समझौता नहीं करते। इसके लिए उन्होंने समय-समय पर विभिन्न केंद्रों की ओर से चलाए जाने वाले प्रशिक्षण शिविरों में हिस्सा लिया। उन इलाकों का दौरा किया, जहां खेती को वैज्ञानिक तरीके से करने की कोशिशें की जा रही थीं। खेती की बारीकियां सीखी और अधिक उपज प्राप्त करने के गुर भी सीखे। प्रशिक्षण शिविरों में वैज्ञानिकों की ओर से बताई गई बातों को गंभीरता से लिया। कृषि वैज्ञानिकों ने जो सीख दी, उसे आत्मसात करते हुए नए-नए प्रयोग किए। उनके प्रयोग रंग लाए और आज वह आईसीएआर के अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी संस्थान (सिफेट), लुधियाना की मदद से पूरे देश में नाम और पैसा दोनों कमा रहे हैं।
कैलाश की जिंदगी काफी उतार-चढ़ाव भरी रही। वह बताते हैं कि खेती को बचपन से देखते आ रहे हैं। उनके पास जमीन पर्याप्त थी, लेकिन खेती सिर्फ दो बीघे में ही होती थी। क्योंकि उस समय उनके पास न तो संसाधन थे और न ही खेती को ढंग से करने का तरीका। नतीजा था कि परिवार के लोग सिर्फ उतनी ही खेती करते थे, जिससे परिवार के सदस्यों को खानेभर का अनाज मिल जाए। उस समय यह सोच ही नहीं थी कि खेत से पैसा कमाया जा सकता है। थोड़ी-सी सक्रियता और मेहनत के दम पर खेत से रुपये निकाले जा सकते हैं। यही वजह है कि परंपरागत खेती तक ही किसान सीमित थे। उनके परिवार के अलावा उनके गांव के दूसरे लोग भी बस किसी तरह खाने भर की उपज प्राप्त करते थे। इस वजह से किसानों की हालत काफी खराब थी। उन्हें चंद रुपयों के लिए साहूकारों के दरवाजे खटखटाने पड़ते थे। किसान दीनहीन थे।
कैलाश चौधरी बताते हैं कि जब वह कक्षा सात में पढ़ रहे थे तभी से सक्रिय रूप से खेती में जुट गए। पहले खेती मौसम पर आधारित होती थी। बारिश हुई तो खेत में बुवाई हुई और बारिश नहीं हुई तो खेत खाली। यह काफी खलता था क्योंकि पानी का इंतजाम नहीं था। शुरुआती दिनों में ऊंट से खेती होती थी और फिर बैल से। सन 1970 में अलग कुंआ खुदवाया और रेहट लगाकर खेती शुरू की। पहले जहां दो बीघा जमीन पर ही श्वास धौकनी की तरह चलने लगती थी वहीं रेहट ने अब मुश्किलों को कुछ आसान बना दिया। पानी का इंतजाम हुआ तो पैदावार दस गुना बढ़ गई। परिवार के लोगों के लिए खानेभर का पर्याप्त अनाज तो हुआ ही साथ ही बाजार में बेचकर पैसा भी कमाया गया। कमाई बढ़ी तो कुछ और करने की लालसा जगी और 1974 में डीजल का इंजन लगाकर खेती में नए प्रयोग शुरू कर दिए, जो उस दौर की बड़ी उपलब्धि थी। सन 1977 में ट्रैक्टर खरीदा गया और खेती को जीवन का आधार बना लिया। सन 1977 में बोरवेल खुदवाकर तेरह सौ मन अनाज पैदा किया, जो एक सपने की तरह लगा। इस अनाज को बेचने पर अपार खुशी हुई। ऐसा लगने लगा कि अब हम भी दूसरे लोगों की तरह ही सुविधासंपन्न न सही तो कम से कम अपने बच्चों की परवरिश अच्छे ढंग से कर सकेंगे। परिवार की सभी जरूरतें आसानी से पूरी कर सकेंगे।
कैलाश चौधरी ने समय-समय पर विभिन्न केंद्रों की ओर से चलाए जाने वाले प्रशिक्षण शिविरों में हिस्सा लिया। प्रशिक्षण शिविरों में वैज्ञानिकों की ओर से बताई गई बातों को गंभीरता से लिया। कृषि वैज्ञानिकों ने जो सीख दी, उसे आत्मसात करते हुए नए-नए प्रयोग किए। उनके यह प्रयोग रंग लाए और आज वह आईसीएआर के अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी संस्थान (सिफेट), लुधियाना की मदद से पूरे देश में नाम और पैसा दोनों कमा रहे हैं। इसके बाद तो खेती में ऐसा रमा कि दूसरे काम के बारे में सोचना ही बंद कर दिया। हमेशा यह सोचता रहता कि खेती को और अधिक मुनाफेदार कैसे बनाया जाए। जब भी लोगों के बीच बैठते यही चर्चा करते कि कहां और किस तरह की खेती की जा रही है। परंपरागत खेती के अलावा व्यावसायिक रूप में कौन-सी खेती की जा सकती है। इसका असर यह हुआ कि सामाजिक सक्रियता बढ़ गई। सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहने लगे। गांववालों का भरपूर प्यार मिलने लगा। लोग आपस में मिल-बैठकर यह तय करते कि इस बार किस खेत में क्या बोया जाए। सामाजिक कार्यों में बड़ी रुचि की वजह से 1977 में गांववालों ने निर्विरोध वार्ड-पंच चुन लिया। वर्ष 1978 में पंचायत के सभी किसानों की भूमि की पैमाइश कराई। गांव की चकबंदी हुई तो किसानों की जमीन एकमुश्त हो गई।
वार्डपंच रहते हुए उन्होंने हमेशा यही कोशिश की कि सरकार की ओर से जो भी योजना चलाई जाए, उसका फायदा उनके वार्ड के लोगों को जरूर मिले। उनकी इस जागरूकता का असर भी दिखा। सरकार की ओर से चलाई जा रही तमाम योजनाएं किसी न किसी रूप में उनके वार्ड में जरूर पहुंची। सबसे बड़ी उपलब्धि यह हुई कि 1980 में एक साथ गांव में 25 कृषि कनेक्शन कराए गए। इतनी भारी संख्या में कृषि कनेक्शन होने के बाद तो इलाके की तस्वीर ही बदल गई। क्योंकि जब पानी की पर्याप्त व्यवस्था हो गई तो खेतों का लहलहाना स्वाभाविक था। अब इस इलाके में हर तरह की खेती होने लगी।
किसानों को लगातार जागरूक करने और किसानों को विभिन्न योजनाओं का लाभ दिलाने के कारण सन् 1982 में एक बार फिर से वार्डपंच चुन लिया गया। अब पूरे गांव के किसान एक तरह से सहयोगी बन गए थे। हम सभी लोग मिलकर खेतीबाड़ी करते और खेती में आड़े आने वाली समस्याओं का निस्तारण भी करते। किसानों की आपसी एकजुटता का ही कमाल रहा कि हमारे गांव के लोगों के बीच किसी तरह का विवाद नहीं होता था और सन 2005 तक थाने में एक भी मुकदमा दर्ज नहीं हुआ। अगर किसी के बीच मतभेद होता तो हम सभी लोग मिलकर आपस में ही निबटा लेते थे। खेती की कमाई से ही भाईयों और बहनों की शादी-विवाह आदि जो भी घरेलू काम होते सभी का निबटारा होता रहा। कहने का मतलब है कि खेती से होने वाली आमदनी से जिंदगी की जो भी आधारभूत जरूरतें थीं, वह मजे से पूरी होने लगीं। बेटों ने उच्च शिक्षा ग्रहण की, लेकिन सरकारी नौकरी के पीछे दौड़ने के बजाय खेती में जुट गए।
पहले खेतों में रासायनिक खाद का प्रयोग किया जाता था। विभिन्न स्थानों पर प्रशिक्षणों के दौरान बताया गया कि रासायनिक खाद के बजाय जैविक खेती का प्रयोग किया जाए तो खेत की उर्वरता भी बनी रहती है और पैदावार भी अधिक होती है। इतना ही नहीं उत्पादन की गुणवत्ता बेहतर रहती है यानी जैविक खाद से तैयार की जाने वाली उपज स्वास्थ्य के लिए भी अच्छी होती है। इसलिए मैंने सन 1990 में जैविक खाद का प्रयोग शुरू किया। केंचुआ खाद बनाना शुरू किया और 1999 में कीटनाशी बनाकर खेतों में प्रयोग करने लगे। कीटनाशी बनाने में भी नीम, आक, धतूरे का इस्तेमाल करने से साइड इफेक्ट का खतरा नहीं रहा। उनके इस प्रयोग की भी खूब वाहवाही हुई। रासायनिक के बजाय जैविक खेती करने के कारण लोगों का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित हुआ और दूसरे लोग भी उनकी तरह ही खेती करने के लिए तैयार हो गए।
जैविक खेती शुरू करने के बाद कुछ ही दिनों में उनके काम और नाम दोनों की तारीफ होनी शुरू हो गई। फिर 50 किसानों का एक ग्रुप बनाया और देखते ही देखते सफलता की नई इबारत लिखी जाने लगी। तीन साल तक तो मुनाफा नहीं हुआ लेकिन इसके बाद जो सफलता मिली तो फिर पीछे देखने की जरूरत नहीं पड़ी। वे खुद ही नहीं बल्कि उसका पूरा गांव जैविक खेती करने वाले किसानों के रूप में पहचाना जाने लगा। हर किसी को पता चला कि इस इलाके में ऐसी खेती होती है, जिसकी उपज स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है। इससे फसल के 10-15 प्रतिशत दाम अधिक मिलने लगे। जैविक खाद से तीसरे साल ही आय बढ़ गई। सिंचाई में लागत कम हो गई। ग्रुप बनने के बाद हमारी उपज खरीदने के लिए बड़े-बड़े व्यापारी भी आने लगे। इस तरह कैलाश चौधरी ने खुद तो फायदा कमाया ही साथ ही अपने गांव के दूसरे किसानों को भी अधिक मुनाफा कमवाया। एक तरफ अधिक मुनाफा मिल रहा था तो दूसरी तरफ जैविक खेती होने से भरपूर उत्पादन मिल रहा था। इसके अलावा मिट्टी की उर्वरता भी बची रही। इस तरह जैविक खेती से एक साथ कई फायदे मिले।
जैविक खेती से मिली सफलता से उत्साह इतना बढ़ गया कि सन 2001 में एक हेक्टेयर भूमि में जैविक तरीके से चार सौ आंवले के पेड़ लगा डाले। चार साल बाद इसमें फल आ गए। संयोग से उन दिनों आंवले के फल की कीमत कम थी। लिहाजा ऐसा लग रहा था कि यह घाटे का सौदा हो जाएगा। क्योंकि बाजार में जो कीमत थी, लागत के अनुरूप घाटा दिख रहा था। पूरे परिवार के लोगों में निराशा थी। हम पूरे परिवार के लोग मिल-बैठकर यही सोचते कि इस घाटे से कैसे उबरा जाए। इसी दौरान हमारी बहू, जिसने गृह विज्ञान में पढ़ाई की थी, उसने सुझाव दिया कि क्यों न आंवले का उत्पाद बनाकर बाजार में उतारा जाए। यह सुझाव सभी को अच्छा लगा और यहीं से शुरू हुआ एक नया सफर। अभी तक हम खेती तक सीमित थे और अब बाजार की ओर बढ़ने लगे।
कैलाश चौधरी बताते हैं कि प्रोसेसिंग के लिए हम तैयार तो हो गए, लेकिन जब तक पूरी तरह से ट्रेनिंग न ली गई हो, उसकी सफलता पर सवाल खड़ा होता है। मैं हमेशा से ही प्रयोगधर्मी रहा हूं। इसलिए मैं सोचता रहा कि जब तक प्रैक्टिकली प्रोसेसिंग के बारे में जानकारी नहीं होगी तब तक इसमें सफल होना पूरी तरह से संभव नहीं है। मन में आशंका थी कि कहीं इस काम में असफल हुए तो वर्षों के किए धरे पर पानी फिर जाएगा। इसलिए मैंने तय किया कि पहले प्रोसेसिंग के बारे में जाना जाए। प्रासेसिंग सीखने के लिए मैं उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ सहित अनेक शहरों में गया, वहां आंवले के छोटे-छोटे गृह उद्योग देखे। उद्योग स्थापित करने से लेकर उसे चलाने के बारे में सीखा। आंवला आधारित उद्योग चलाने वालों से बातचीत करके यह जानने की कोशिश की कि किन-किन परिस्थितियों में विशेष सावधानी बरतने की जरूरत है।
प्रतापगढ़ में जिस तरह से काम हो रहा था, उसे देखने और काफी कुछ समझने के बाद लगा कि सपने सच हो सकते हैं। आंवले से बनते लड्डू, जूस, कैंडी, मुरब्बा, अचार, पाउडर, शरबत सहित अनेक उत्पाद देखे और उन्हें तैयार करने की विधियों पर विशेष निगाह रखी। प्रतापगढ़ से ही एक मिस्त्री लेकर गांव आया। खेत में एक कमरा बनवाया और प्रासेसिंग की शुरुआत सन 2005 में की। चौधरी एग्रो बायोटेक के नाम से फर्म रजिस्टर्ड कराकर खादी ग्रामोद्योग से वित्तीय सहायता लेकर काम शुरू किया। इस काम में पूरा परिवार लगा। सभी ने जमकर मेहनत की। कुछ ही दिनों में सभी की मेहनत और लगन रंग लाई। आंवले से तैयार किए गए हमारे उत्पादन बाजार में खूब पसंद किए गए। धीरे-धीरे इनकी मांग बढ़ने लगी। जब हमारे उत्पाद बाजार में धूम मचाने लगे तो उत्साह दुगुना हो गया। इस दौरान हमने तय किया कि गुणवत्ता में किसी तरह का समझौता नहीं किया जाएगा और यही मंत्र हमारे काम आया। हमारे उत्पादन का नाम बाजार में छा गया और जहां हम लोग घाटे को लेकर भयभीत थे वहीं मुनाफे से उत्साहित रहने लगे।
कैलाश बताते हैं कि गेहूं के बारे में उन्हें जानकारी मिली कि स्थानीय कमीशन एजेंट उन्हें गेहूं की जो कीमत देते, जयपुर में उससे दुगुनी कीमत पर वहीं गेहूं बेचा जाता है। इस दौरान गेहूं का श्रेणीकरण करते हुए पैकेजिंग के बारे में भी जानकारी हासिल की। पैकेजिंग के बारे में जानकारी प्राप्त करने के बाद वर्ष 2004 में अपने गांव में एक छोटे से कमरे के अंदर एक लाख रुपये का निवेश करके खाद्य प्रसंस्करण इकाई की स्थापना की। इसमें भी सफलता मिली। इसके बाद वह सिफेट के संपर्क में आए। यहां से उन्हें बहुत जानकारी मिली। खाद्य प्रसंस्करण उत्पादों की गुणवत्ता अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाए रखने में काफी मदद मिली। कैलाश का कहना है कि संस्थान के संग उसका जुड़ाव जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। वर्ष 2006 में उसे सिफेट की ओर से तैयार आंवला की ग्रेडिंग और पंचिंग मशीनें मिलीं। इसके अतिरिक्त उसने अपने खाद्य पदार्थों के लिए जरूरी प्रसंस्करण तकनीक से जुड़ी कई जानकारियां भी संस्थान से प्राप्त की। इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के उत्पाद बनाने में काफी मदद मिली।
खेती के क्षेत्र में लगातार की गई तरक्की और अपने इलाके के किसानों को खेती के प्रति प्रोत्साहित करने के लिए कैलाश चौधरी को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। ब्लॉक से लेकर जिला और राज्य से लेकर देश स्तर तक इन्हें एक के बाद एक सम्मान मिला। इन सम्मानों के बीच सबसे बड़ा सम्मान उन्हें तब मिला जब राजस्थान सरकार ने उनका नाम प्रदेश के प्रगतिशील किसान प्रतिनिधि के रूप में पेश किया। केंद्र सरकार की ओर से उन्हें 11वीं पंचवर्षीय योजना में प्रगतिशील किसान प्रतिनिधि के रूप में शामिल किया गया है। इससे कैलाश काफी उत्साहित हैं। वह कहते हैं कि किसान प्रतिनिधि के रूप में उन्हें यह बताने का मौका मिला कि किसानों को किस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। विभिन्न योजनाओं में किसान की भागीदारी कैसे बढ़ाई जाए, इस पर भी अपनी बात रखने का मौका मिला।
कैलाश चौधरी को चंडीगढ़ एग्रीटेक में हर्बल उत्पाद में प्रथम पुरस्कार से नवाजा गया। वह कहते हैं कि यह सम्मान हमारे लिए बहुत ही गौरव की बात थी क्योंकि यह मेरी मेहनत का सम्मान था। इस दौरान तीन दिन में हमने 80 हजार का उत्पाद बेचा। इस सफलता ने हमें उत्साहित भी किया। इसके बाद सन 2009 में केएस बायो फूड्स के नाम से हमने दूसरी फर्म का गठन किया। अपने प्रोजेक्ट के बारे में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की स्थानीय शाखा को अवगत कराया। बैंक अधिकारियों ने सहयोग किया। बैंक से ऋण लिया। इस तरह हमारा प्रोजेक्ट चल पड़ा। गत वर्ष लाखों का कारोबार हुआ। हमारा कारोबार लगातार बढ़ रहा है और अब इसे करोड़ में पहुंचाने का लक्ष्य है। आंवले की खेती के साथ ही अब सौ पेड़ ग्वारपाठा भी लगवाया है। इसके अलावा बेल से कैंडी, मुरब्बा, शर्बत और ग्वारपाठे से जूस, जैल, शैम्पू, साबुन सहित अन्य उत्पाद भी हमारे फर्म में बनने लगे हैं। इन सभी की प्रोसेसिंग में गांव के दर्जनों लोग लगे हुए हैं। फर्म से बनने वाले आंवला जूस, आंवला पाउडर, एलोवेरा जूस, स्क्वैश, आचार, मिठाई आदि का अमेरिका, इंग्लैंड, यूएई और जापान तक में निर्यात हो रहा है। उनके उत्पाद केएस बायो फूड्स ब्रांड नेम से बाजार में उपलब्ध हैं।
कैलाश ने अपनी मेहनत और लगन के दम पर यह साबित कर दिया कि खेती के साथ जुड़कर एक नया मुकाम हासिल किया जा सकता है। इसके साथ ही वह महिला सशक्तिकरण की दिशा में भी सक्रिय सहयोग दे रहे हैं। उन्होंने जैविक कृषि उत्पाद महिला सहकारी समिति, कीरतपुरा का गठन किया। इस समिति की महिलाएं घर-गृहस्थी का काम निबटाने के बाद उनके फर्म पर काम करती हैं। इस तरह ये महिलाएं स्वावलंबन की नई कहानी कह रही हैं। इसके अलावा उन्होंने जैविक खेती और खाद्य प्रसंस्करण के लिए 1500 किसानों का एक समूह बनाया है। इस समूह की वजह से उनकी और उनके उत्पाद की पहचान और बढ़ गई है। कैलाश बताते हैं कि तहसील कोटपुतली के ग्रामीणों ने अब बारिश के पानी से सिंचाई छोड़ दी है। अब बागों के लिए ड्रिप प्रणाली और अन्य फसलों के लिए स्प्रिंक्लर का प्रयोग किया जा रहा है। इसके साथ ही हम बारिश के पानी को भी बचा रहे हैं जिससे पानी की अधिकतम उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके।
कैलाश चौधरी बताते हैं कि जब उन्होंने खेती शुरू की तो अकेले थे। कई बार परिवार के दूसरे सदस्यों को लगता था कि मैं खेती को लेकर इतना गंभीर क्यों रहता हूं। वर्षों से परिवार में खेती होती रही है, इससे ज्यादा से ज्यादा खानेभर का अनाज हो सकता है बाकि जरूरतों के लिए तो कमाई का दूसरा जरिया ढूंढना ही चाहिए। लेकिन जब खेती के परिणाम सामने आने लगे तो परिवार के लोग भी इससे जुड़ते गए। परिवार का हर सदस्य जिस लायक था, उस तरह मेहनत की। इसके बाद अगल-बगल के किसानों ने भी एकजुटता दिखाई। इस एकजुटता का लाभ भी मिला। किसान समूह गठित हुए और कई सुविधाएं भी मिली। जब मैंने प्रोसेसिंग की शुरुआत की तो सरकारी योजनाओं का भरपूर लाभ मिला। कृषि विभाग, उद्यान विभाग सहित अन्य सभी विभागों ने सहयोग किया। प्रशिक्षण दिए, खेती और प्रोसेसिंग के तरीके बताए। बैंकों ने भी सहयोग किया।
इस तरह सभी के सहयोग से आज हमारा ब्रांड भारत ही नहीं दुनिया के दूसरे देशो में भी नाम कमा रहा है। वह कहते हैं कि मेहनत कभी भी बेकार नहीं जाती। सरकारी उपेक्षा के बावजूद वह कहते हैं कि जब हम किसी काम के लिए पूरे आत्मविश्वास से तैयार रहेंगे तो सरकारी अधिकारी व कर्मचारी खुद सहयोग करेंगे। हमें सबसे पहले अपने आपको तैयार करना चाहिए। जब हमारी दिशा तय रहेगी कि हम करना क्या चाहते हैं तो सभी का सहयोग मिलेगा। सरकार की ओर से किसानों से संबंधित तमाम योजनाएं चलाई जा रही हैं। संबंधित विभाग की यह जिम्मेदारी है कि उन योजनाओं का किसानों को लाभ दे। ऐसे में यदि किसान थोड़ी-सी जागरूकता बरते तो योजनाओं का लाभ उन्हें भरपूर मिलेगा। हालांकि यह संबंधित विभागों की जिम्मेदारी है कि वे उन योजनाओं का क्रियान्वयन सही रूप में करें, लेकिन यदि कोई किसान खुद योजनाओं की तलाश में लगा रहेगा तो उसे लाभ मिलना स्वाभाविक है।
मेरी तो सभी किसानों, नौजवानों से यही अपील है कि सरकार की ओर से चलाई जा रही योजनाओं के बारे में जानकारी हासिल कर सबसे पहले यह तय करें कि उन्हें करना क्या है। अपना रास्ता खुद तय करने के बाद आगे बढ़े, सफलता अपने आप मिलती चली जाएगी। हां, इस बात का ध्यान रखने की जरूरत है कि यदि किसी भी वित्तीय संस्था से ऋण लेकर कारोबार शुरू करते हैं, तो इस बात का ध्यान रखें कि वह पैसा आपको उधार मिला हुआ है। बैंक से मिले हुए पैसे को हर हाल में वापस करना है। बैंक से जिस काम के लिए पैसा लें, उसे उसी काम में खर्च करें। किसी भी प्रोजेक्ट में सफलता तभी मिलेगी जब आय और व्यय का ब्यौरा मुकम्मल होता रहा। हमेशा इस बात का ध्यान रखें कि आप जो काम कर रहे हैं, उससे कितनी आय हो रही है और आप खर्च कितना कर रहे हैं। यदि आमदनी से अधिक खर्च किया तो प्रोजेक्ट का फेल होना स्वाभाविक है।
स्त्रोत: जतिन कुमार,(लेखक बैंकिंग सेवा से जुड़े हैं) कुरुक्षेत्र में प्रकाशित,इंडिया वॉटर पोर्टल से प्राप्त।
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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