उत्पादन के दृष्टि से पशु स्वास्थय का बड़ा महत्व है। एक स्वस्थ पशु से ही अच्छे एवं स्वस्थ बच्चे (बछड़ा – बछिया) एवं आधिक दुग्ध उत्पादन की आशा की जा सकती है। केवल स्वस्थ पशु ही प्रत्येक वर्ष ब्यात दे सकता है। प्रतिवर्ष ब्यात से पशु की उत्पादक आयु बढ़ती है। जिससे पशुपालक को अधिक से अधिक संख्या में बच्चे एवं ब्यात मिलते है। इससे उसके सम्पूर्ण जीवन में अधिक मात्रा दूध मिलता है और पशुपालक के लिए पशु लाभकारी होता है।
पशु के बीमार होने के कारणों में गलत ढंग से पशु का पालन – पोषण करना, पशु प्रबंध में ध्यान न देना, पशु पोषण की कमी (असंतुलित आहार), वातावरण (मौसम) का बदलना, पैदाइशी रोगों का होना (पैत्रिक रोग), दूषित पानी तथा अस्वच्छ एवं संक्रमित आहार का ग्रहण करना, पेट में कीड़ों (कृमि) का होना, जीवाणुओं, विषाणुओं एवं किटाणुओं का संक्रमण होना, आकस्मिक दुर्घटनाओं का घटित होना आदि प्रमुख है।
बीमार पशु की देखभाल निम्नलिखित तरीके से किया जाना आवश्यक होता है –
क. रोगी पशु की देख – रेख के लिए उसे सबसे पहले स्वस्थ पशुओं से अलग कर स्वच्छ एवं हवादार स्था पर रखना चाहिए। शुद्ध एवं ताज़ी हवा के लिए खिड़की एवं रोशनदान खुला रखना चाहिए। रोगी पशु को अधिक गर्मीं एवं अधिक सर्दी से बचाया जाना चाहिए तथा अधिक ठंडी एवं तेज हवाएं रोगी को न लगने पाए, इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
ख. पशु के पीने के लिए ताजे एवं शुद्धपानी का प्रबंध करना चाहिए।
ग. पशुशाला में पानी की उचित निकास व्यवस्था की जानी चाहिए।
घ. पशु के बिछावन पर्याप्त मोटा, स्वच्छ एवं मुलायम होना चाहिए।
ङ. पशु को बांधने की जगह पर पर्याप्त सफाई का ध्यान दें तथा मक्खी, मच्छर से बचाव हेतु आवश्यक कीटाणुनाशक दवाओं का छिड़काव करते रहना चाहिए।
च. रोगी पशु को डराना अथवा मारना नहीं चाहिए तथा पशु को उसकी इच्छा के विरूद्ध जबरन चारा नहीं खिलाया जाना चाहिए। पशु को हल्का, पौष्टिक एवं पाचक आहार दिया जाना चाहिए। बरसीम, जई, दूब घास एवं हरे चारे तथा जौ का दाना जाना ठीक होता है।
निम्न तालिका में स्वस्थ पशु तथा रोगी पशु के तुलनात्मक लक्षण दिए जा रहे है –
स्वस्थ एवं रोगी पशु के तुलनात्मक लक्षण
क्र. |
स्वस्थ पशु |
रोगी (बीमार) पशु |
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1 |
सदैव सजग व सर्तक रहता है। |
इतना सतर्क नहीं होआ है, सुस्त रहता रहता है चमड़ी खुरदरी व बिना चमक की होती है। |
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2 |
चमड़ी चमकीली होती है |
इतना सतर्क नहीं होता है, सुस्त रहता है। |
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3 |
पीठ को छूने से चमड़ी थरथराती है। |
कोई भी चेतना नहीं होती। |
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4 |
सीधी तरह उठता – बैठता है। |
उठने बैठने में कठिनाई होता है। |
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5 |
आँखे चमकीली एवं साफ होती है। |
आंख में कीचड़ बहता है। |
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6 |
श्वांस (सांस) सामान्य गति से चलती है। |
श्वांस लेने में कठिनाई महसूस होती है। |
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7 |
गोबर व मूत्र का रंग एवं मात्रा सामान्य रहती है। |
गोबर एवं मूत्र का रंग सामान्य नहीं रहता है। |
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8 |
गोबर नरम और दुर्गंधरहित रहता है। |
गोबर पतला या कड़ा या गाठयुक्त एवं प्राय: दुर्गंध युक्त होता है। |
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9 |
नाक पर पानी की बूँदें जमा होती है। |
नाक पर पानी की बूंदे नहीं होता। |
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10 |
चारा सामान्य रूप से खाता है। |
चारा कम या बिलकूल नहीं खाता। |
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11 |
जुगाली क्रिया चबा – चबाकर करता है। |
जुगाली कम करता है या बिलकूल नहीं करता है। |
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12 |
मूत्र सहजता से होता है। |
मूत्र कठिनता से या रूक – रूक कर होता है। |
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13 |
पानी सदैव की भांति पीता है। |
पानी कम अथवा नहीं पीता है। |
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14 |
खुरों का आकार सामान्य होता है। |
खुरों का आकार बाधा होता है। |
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15 |
गर्भाशय में कोई खामी नहीं होती है। |
गर्भाशय में दोष होता है। |
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16 |
शरीर पर छूने से तापमान में कोई कमी नहीं पायी जाती है। |
छूने पर शरीर का तापमान ज्यादा गर्म या ठंडा महसूस होता है। |
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17 |
थन और स्तन सामान्य होते है। |
थन और स्तन असामान्य होते है। |
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18 |
पशु अपने शरीर पर मक्खियाँ नहीं बैठने देता। |
शरीर पर मक्खियाँ बैठने पर पशु ध्यान नहीं देता है। |
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19 |
नाड़ी की गति सामान्य होती है। |
नाड़ी की गति मंद या तेज चलती है। |
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रोगी पशु की चिकित्सा में उनकी उचित देखभाल व रख – रखाव का विशेष महत्व होता है। बिना उचित रख रखाव व देखभाल के औषधि भी कारगर नहीं होती है। पशु के सही प्रकार के रख – रखाव एवं पौष्टिक चारा देने से उनमें रोग रोधक क्षमता का विकास होता है और पशु स्वस्थ रहता है। पशुओं के स्वस्थ रखने के लिए पशुपालकों को निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
क. सफाई तथा विश्राम व्यवस्था – पशु के रहने के स्थान, बिछावन, स्वच्छ हवा एवं गंदे पानी की निकासी तथा सूर्य के प्रकाश की अच्छी व्यवस्था हो। बीमार पशु को पूरा विश्राम दें तथा उसके शरीर पर खरहरा करें, जिससे गंदगी निकल सके।
ख. समुचित आहार (चारा व दाना) – बीमार पशु को चारा – दाना कम मात्रा में तथा कई किस्तों में दें। पेट ख़राब होने पर पतला आहार दे। आहार का तापक्रम भी पशु के तापमान से मिलता – जुलता हो। रोगी पशु को बुखार में ज्यादा प्रोटीन युक्त आहार न दे।
क. भूसी का दलिया – गेहूं की भूसी को उबालने के पश्चात् ठंडा करके इसमें उचित मात्रा में नमक व शीरा मिलाकर पशु को दिया जा सकता है।
ख. अलसी व भूसी का दलिया – लगभग १ किलोग्राम अलसी को लगभग 2.5 (ढाई) लिटर पानी में अच्छी तरह उबालकर व ठंडा करके उसमें थोड़ा सा नमक मिलाकर पशु को देना चाहिए।
ग. जई का आटा – 1 किलो ग्राम जई के आटे को लगभग 1 लिटर पानी में १० मिनट तक उबालकर धीमी आंच में पकाकर इस दूध अथवा पानी मिलाकर पतला करके उसमें पर्याप्त मात्रा में नमक मिलाकर पशु को दिया जाता है। जई के आते के पानी में सानकर इसमें उबलता पानी पर्याप्त मत्रा में मिलाकर, जब ठंडा हो जाए तो उसे भी पशु को खिलाया जा सकता है।
घ. उबले जौ – 1 किलोग्राम जौ को लगभग 5 लिटर पानी में उबालकर उसमें भूसी मिलाकर पशु को खिलाया जा सकता है।
ङ. जौ का पानी – जौ का पानी में लगभग 2 घंटे उबालकर तथा छानकर जौ का पानी तैयार किया जाता है, यह पानी सुपाच्य एवं पौष्टिक होता है। इसके अतिरिक्त रोगी पशु को हरी बरसीम व रिजका का चारा तथा लाही या चावल का मांड आदि भी दिया जा सकता है।
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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