सफल एंव लाभदायक सूकर पालन के लिए यह आवश्यक है कि सूकरों को विभिन्न रोगों से बचाया जाए। सूकरों में होने वाले विभिन्न रोगों में विषाणु जनित रोगों का विशेष महत्व है, क्योंकि विषाणु जनित रोगों का उपचार अत्यंत कठिन होता है। अतः विषाणु रोगों की रोकथाम अतिआवश्यक है।
मुंहपका रोग (एफ.एम.डी.) - खुरपका- मुंहपका रोग पशुओं का एक भयानक संक्रामक रोग है। यह मुख्यतः गौ-पशु, भेड़ तथा सूकरों में होता है। जंगली पशु-पक्षी, हिरण, लोमड़ी और जंगली सूकर इस रोग को फैलाने में मदद करते हैं। यह विषाणु मुंह, जीभ तथा खुरों के आसपास की त्वचा पर आक्रमण करता है। संक्रामण के स्थान पर छाला या पुटिका बन जाती है। रोगी पशु को बुखार आ जाता है। वह खाना नहीं खाता तथा रोगी पशुओं को बहुत प्यास लगती है। मुंह और पैरों पर छाले दिखाई देते हैं। पैरों में लगड़ापन शुरू हो जाता है। पशु अक्सर अपने पैरों के बीच के भाग को चाटता है एंव पशु के मुंह से लार टपकने लगती है।
रोगी पशु के मुंह को 2% फिटकरी के घोल या 5% पोटेशियम परमेंगनेट के घोल से धोना चाहिए। पारियों को 1% नीला थोठे के घोल से धोना चाहिए। पैरों को 1% नीला थोथे के घोल से धोना चाहिए। इसके अलावा सुहागा और ग्लिसरीन आय सुहागा और शहद को 1 और 7 के अनुपात में मिलकर जीभ के छालों पीआर लगाने से पशुओं को दर्द से बहुत राहत मिलती है तथा घाव भरने में बहुत सहायता मिलती है।पशु के नर्म, आसानी से पचने वाले व ऊर्जा युक्त चारा खाने को देना चाहिए। रोग ग्रसित जानवर को खाने के लिए चावल का माँड़, गेहूं का दलिया गुड़ के साथ काफी लाभदायक रहता है।
इस बीमारी की रोकथाम के लिए पोलिवेलेंट एफ एम डी वैक्सीन का पहला का टीका जन्म के एक माह के अंदर लगा दें। दूसरा टीका एक माग के बाद व उसके बाद 6-6 माह पर टीका लगाते रहना चाहिए। सूकरी के बाड़े के बाहर चुना छिड़क देना चाहिए या बोरी के दो से चार% फोर्मेलीन या 4% सोडियम हाइड्रोक्साइड के घोल में भिंगोकर पशुओं के बाड़ों के दरवाजों के सामने बिछा दें तथा प्रवेश द्वारा पर 1-2 इंच गहराई टका उपरोक्त गोल भर दें तो बाहर से आने वाले रोगों से यह संक्रामण आने की संभावना कम रहेगी।
पागल पशुओं के काटने से उत्पन्न होने वाले रोग पागलपन या रेबीज कहलाता है। यह मनुष्य स्तपान प्राणियों का विषाणुजनित अतिसंक्रामक तथा घातक रोग हैं जिसमें तांत्रिक लक्षण, पक्षाघात, उग्रपन, लार स्व्रंवण, जानवरों एंव मनुष्यों का काटना, पागलपन एंव मृत्यु के लक्षण मिलते हैं। यह रोग एक विषाणु पागल जानवर की लार में रहता है। पागल कुत्ता या अन्य जानवर जब अन्य पशु को काटता है रो विषाणु उसकी लार द्वारा शरीर में प्रवेश कर जाता है। संक्रमित पशु को काटने के कुछ समय बाद (कुछ दिनों से 6 महीने तक) इस बीमारी के लक्षण प्रकट होते हैं। रोग का विषाणु प्रायः तंत्रिकाओं द्वारा ही शरीर में फैलता है। इस रोग के दो रूप देखने आते हैं। एक डम्ब (चुपचाप या शांत रूप) और दूसरा फ्यूरियस (प्रचंड या उग्र रूप)
डम्ब किस्म में पशु चुपचाप रहता अहि, मुंह से लार गिरता है, जबड़ा लटक जाता अहि, आवाज बदल जाती अहि। फ्यूरियस किस्म में सूकर बेचैन रहता है, हर चीज के काटने का प्रयत्न करता है, सूकर दीवारों से टकराने लगता है, कंठ से दर्दनाक थर्राने वाला शब्द निकलता है। मुंह से लार व झाग बहता है, आहार चबाने व निगलने में कठिनाई होने के अकारण खाना छोड़ देता है, पशु को फहले कब्ज और फिर दस्त लग सकते हैं। धीरे-धीरे पिछले धड़ को लकवा मार जाता है। मुंह से लार टपकती है और भयानक आवाज निकालती है। तथा एक सप्ताह में मृत्यु हो जाती है।
इस रोग से ग्रसित पशु की मृयु सुनिश्चित है, उपचार संभव नहीं।
नियंत्रण
सूकर बुखार विषाणु द्वारा होने वाले एक अत्यंत संक्रामक बीमारी है जो कि केवल सूकरों में ही होती है। इस बीमारी के दो रूप होते हैं एक चिरकालिक और दूसरा अचिरकालिक है। चिरकालिक रूप में विषाणु के संक्रामण के पाँच से दस दिनों बाद लक्षण आते हैं। इसके प्रमुख लक्षण शावकों में बिना किसी लक्षण के मृत्यु, सूकरों का उदास दिखाना, भूख न लगना, गर्दन और पुंछ को नीचे रखकर शानत खड़ा रहना, चलने फिरने की इच्छा न होना, जबर्दस्ती चलाने पर पिछले भाग का झुमना,सूकरों में एक के ऊपर एक इकट्ठा होना, तेज बुखार का होना (40 से 41.5 डिग्री से।) आदि। इसके अतिरिक्त जल्दी पाये जाने वाले लक्षणों में कब्ज के बाद दस्त या उल्टी का होना, शरीर की त्वचा का नीला पड़ना, आँखें लाल होना और सूजन तथा तंत्रीय लक्षणों में सुकर का गोलाई में घूमना, लड़खड़ाना, मांसपेशियों में झटके आना आदि प्रमुख लक्षण है।
इस बीमारी में मृत्यु 5-7 दिन में ही लगभग सभी संक्रमित सूकरों में हो सकती है। इस बीमारी का दूसरा रूप है अचिराकलाइक जो व्यस्क सूकरों में ही होता है इसका संक्रामण काल ज्यादा दिनों का होता है। इसके प्रमुख लक्षण हैं सूकर का कमजोर होना, त्वचा पर विशेस तरह की विकृति का पाया जाना जिसमें बाल गिरना, त्वचा शोथ, कान पर चकता बनना और शरीर की त्वचा का गहरा नीला पड़ना।
इस बीमारी से बचाने के लिए सूकरों का टीकाकरण सबसे अच्छा तरीका है। इसके लिए दो तरह के टीके बाजार में उपलब्ध हैं। पशु चिकित्सक की सलाह द्वारा पहली खुराक 7-8 हफ्ते, दूसरी खुराक 6-7 महीने तथा प्रत्येक वर्ष में एक खुराक लगवानी चाहिए। इसके अतिरिक्त शीघ्र लाभ हेतु लक्षणों के आधार पर औषधि प्रदाय की जानी चाहिए।
रोग का नाम |
वैक्सीन या टिकाकरण |
दवा की मात्रा |
रोग निरोधक अवधि |
दूसरा टीका |
अन्य |
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नाम |
समय |
दवा की मात्रा |
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सूकर ज्वर |
टिशू कल्चर |
2 सप्ताह |
1 मिली मांस मे |
1 वर्ष |
प्रतेयक वर्ष |
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मृत वैक्सीन |
2 सप्ताह |
1 मिली त्वचा |
1 वर्ष |
प्रतेयक वर्ष |
दूसरा टीका 1-2 माह के अंतराल पर देने से अच्छी रोग निरोधक क्षमता देखी ज्ञी है। |
चेचक |
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कोई भी प्रभावकारी टीका उपलब्ध नहीं है। केवल जूं कम करके रोकथाम की जा सकती है। |
मुंहपका-खुरपका |
मृतक टिशू |
1 माह पर |
5-10 मिली |
6 माह |
प्रत्येक माह के बाद |
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कल्चर |
दूसरा प्रथम |
त्वचा के नीचे |
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के 21 दिन बाद |
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गलघोंटू |
तेलयुक्त |
3 माह पर |
2-3 मिली मांस पर |
3-6 माह |
बरसात से पूर्व |
प्रत्येक बरसात से पूर्व टीकालगवाना चाहिए। |
स्त्रोत: छत्तीसगढ़ सरकार की आधिकारिक वेबसाइट
अंतिम बार संशोधित : 10/31/2019
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