खीस पशु के ब्योने के बाद थन से प्राप्त होने वाला पहला पदार्थ है, जिसमें रोग प्रतिरोधक गुण होते हैं। यह नवजात बछड़े को बीमारियों से बचाने के लिए आवश्यक है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि खीस को शरीर बहार का दसवां भाग जल्दी से जल्दी बछड़े को पिला देना चाहिए क्योंकि 24 घंटे के बाद यह शरीर में अवशोषित नहीं हो पाता है। शोध से यह पता चला है कि व्योने के छः घंटे के अंदर खीस पिलाने से बछड़ा खीस में मौजूद इम्यूनोग्लोबुलिन ही अवशोषित हो पाते हैं। खीस विटामिन इ, ए, प्रोटीन, शर्करा तथा वसा का भी महत्वपूर्ण स्रोत है। खीस में खनिज तत्व-कैल्शियम, फास्फोरस, मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम तथा जिंक पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं तथा आयरन, कॉपर कम मात्रा में पाए जाते हैं। ऐसा देखा गया है कि जिन बछड़ों को पैदा होने के बाद कम मात्रा में खीस मिली, उनमें मृत्यु दर पर्याप्त मात्रा में खीस पीने वाले बछड़ों की अपेक्षा अधिक थी।
जिन बछड़ों में ब्योने का समय अधिक लंबा हो जाए या बाद में बछड़े के खड़े, होने में देर हो तो इस अवस्था में खीस को नली द्वारा देना चाहिए। खीस को एकत्रित करके, ठंडी अवस्था में रखकर बादमें भी प्रयोग किया जा सकता है। खीस को बिना गुणवत्ता में कमी आय, एक साल तक फ्रिज करने रखा जा सकता है। एक सप्ताह तक के लिए रेफ्रिजरेटर में भी रखा जा सकता है। फ्रोजन खीस को दोबारा प्रयोग के लिए इसे 49-43 सेल्सियस तक के गर्म पानी रखना चाहिए। अधिक तापमान पर खीस को गर्म नहीं करना चाहिए, नहीं तो खीस में मौजूद इम्यूनोग्लोबुलिन की मात्रा में कमी आ सकती है।
पशु की आयु का खीस की मात्रा पर प्रभाव पड़ता है। पशु के खान-पान का भी ध्यान रखना चाहिए, जिसमें कि खीस की मात्रा व गुणवत्ता बेहतर मिले। अच्छी गुणवत्ता की खीस दिखने में गाढ़ी व क्रीमी होती है था उसका आपेक्षिक घनत्व 1.05 से अधिक होता है। शुष्क कल की अवधि भी खीस में मौजूद इम्यूनोग्लोबुलिन की मात्रा को प्रभावित करती है। शुष्क काल 40-60 दिन का होना चाहिए।
यदि बछड़ा गर्मी में मौसम में पैदा हुआ होता है उसे गर्मी से बचाने के भी उपाय करने चाहिए। अधिक गर्मी स बछड़े से इम्यूनोग्लोबुलिन की मात्रा में कमी नहीं आती उसे सुखा रखना चाहिए तथा सर्दी से बचाने के लिए उपाय करने चाहिए।
बछड़े को 2 क्वार्ट खीस ब्योने के बाद जल्द से जल्द तथा दुबारा 2 क्वार्ट खीस 12 घंटे बाद देना चाहिए। यदि खीस गुणवत्ता के बारे में ठीक से नहीं पता तो पहली बार 3 क्वार्ट तथा बाद में 2 क्वार्ट खीस दें। यदि बछड़े का वजन अधिक हो पहले छः घंटे में खीस न दे पाएं हो तो भी पहली बार 3 क्वार्ट खीस देनी चाहिए।
यदि सही मात्रा में तथा सही समय पर बछड़ों को खीस दी जाए तो बछड़ों में बीमारियों की संभावना तथा मृत्यु दर को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
लेखन: अंजली अग्रवाल
(नवैल इल) यह बीमारी हाल ही में पैदा हुए बच्चों में होती है। इसमें नाभि में मवाद पड़ जाता है। रोग के आंरभ में बछड़ा सुस्त हो जाता है, लेटा रहता है, दूध नहीं पीता, तेज बुखार आता है और वह साँस जल्दी-जल्दी लेता है। नाभि गीली व चिपचिपी दिखलाई पड़ती है। एक दो दिन सुजन बढ़ने पर नाभि गर्म व् सख्त हो जाती है और उसमें बहुत दर्द होता है। कभी-कभी घुटनों व् जोड़ों में सुजन आ जाने के कारण बछड़ा लंगड़ाने भी लगता है।
बचाव व रोकथाम
उपचार
- रोग के लक्षण मालुम पड़ते ही पास के पशु चिकित्सक की तुरंत सलाह लें और आवश्यक इलाज कराएँ
यह बछड़े का एक घातक रोग हैं जिसमें 24 घंटें में मृत्यु हो जाती है। यह रोग एक माह तक के बच्चों को होता है। रोग के आरंभ में बुखार आता है। भूख कम लगती है और बदहजमी हो जाती है। कुछ मस्य बाद पतले दस्त आने लगते हैं जो गंदे सफेद या पीलापन लिए होते हिं। इनमें कभी-कभी खून भी आता है तथा विशेष प्रकार की बदबू होती है। कभी-कभी पेट फूल जाता है।
बचाव व रोकथाम
बच्चों को पर्याप्त मात्रा में खीस पिलावें तथा गंदगी से बचावें। खींस पिलाने से पहले अयन व् थनों की अच्छी तरह साफ करें। खींस की मात्राक्म ज्यादा न हो। उसके वजन का 10वाँ हिस्सा एक दिन की खुराक होती है।
उपचार
रोग मालूम होने पर तुरंत पशु चिकित्सक की सलाह लें। दो-तीन दिन तक खींस या दूध की मात्रा आधी कर देनी चाहिए। उपचार हेतु नैफ्तिन वोलस का इस्तेमाल अच्छा रहता है।
यह बीमारी 3 सप्ताह से लेकर चार माह के बच्चों को ज्यादा होती है। गंदे-सीलन-युक्त स्थान में यह रोग अधिक फैलता है। रोग के आरंभ में बछड़ा सुस्त हो जाता है, खाने में रूचि नहीं रहती। साँस तेजी से लेता है, खांसी आती है तथा आँख व नाक से पाने बहता है और बुखार तेज हो जाता है। रोग बढ़ने पर नाक से बहने वाला पानी गाढ़ा व चिपचिपा हो जाता है। साँस लेने में कठिनाई होती है, खांसी तेज हो जाती है अंत में मृत्यु हो जाती है।
बचाव व रोकथाम
बछड़ों को साफ व हवादार कमरे में जिसमें सीलन न हो और तेज हवा के झोंके न आते हो, रखना चाहिए। स्वस्थ बछड़ों को रोगी बछड़ों से अलग रखें।
उपचार
पास के पशु चिकित्सक से सलाह लेकर तुरंत इलाज कराएं।
यह छोटे बछड़ों का रोग है जिसमें मुंह व तालू में घाव हो जाते हैं। सुस्ती, खाने में अरुचि, मुंह से लार बहना तथा बुखार इस रोग के प्रमुख लक्षण है।
मुंह खोलने पर जीभ, मसूड़ों, तालू व गले में फफोले दिखलाई पड़ते हैं जो बाद में घाव बन जाते हैं। इनकी वजह से बछड़ा खाना चबा नहीं सकता है।
बचाव व रोकथाम
खाने और पानी के बर्तन साफ होना चाहिए। रोगी बछड़ों को स्वस्थ बछड़ों से अलग रखें।
उपचार
लक्षण मालुम होते ही तुरंत पास के पशु-चिकित्सक से राय लेकर इलाज कराएं।
बचाव व रोकथाम
बछड़ों को गंदा पानी नहीं पीने देना चाहिए चूँकि रोगी बछड़े के गोबर में अंडे होते हैं। अतः स्वस्थ बछड़ों को रोगी बछड़ों के गोबर आदि से दूर रखना चाहिए। बछड़ों के गोबर की समय-समय पर जाँच करानी चाहिए। नियमित कृमिनाशक दवाइयों का उपयोब करना एक उपयुक्त बचाव है।
उपचार
रोग का संदेह होने पर तुरंत ही पास के पशु चिकित्सक से सलाह लें।
किसी भी डेयरी का भविष्य नवजात की देखरेख तथा उसके सुनियोजित प्रबन्धन पर निर्भर करता है, जो कि अच्छी किस्म के पशु खरीदने की बजाए तैयार किए जा सकते हैं। नवजात बछड़े के अच्छे स्वस्थ्य तथा बेहतर वृद्धि के लिए एक अच्छे प्रबन्धन की आवश्यकता होती है। इस तरह से अच्छी किस्म के उन्नत पशु डेयरी में पुराने तथा कम उत्पादकता वाले पशु की जगह ले सकते हैं। साथ ही विक्रय करने पर अच्छा मुनाफा ले सकते हैं। अतः बछड़ों को अच्छे प्रकार के प्रबन्धन कर उनकी मृत्यु दर को कम कर स्वस्थ बछड़े तैयार किए जा सकते हैं।
बछड़ा पालन एवं प्रबन्धन में नाल का संक्रमण से बचाव, श्वास अवरोध की जाँच, खींस पिलाना, आवास का पर्याप्त एवं स्वच्छ होना, नियमित एवं सही मात्रा में आहार, कृमिनाशक दवा देना, टीकाकरण एवं बीमारी का सही समय पर पशु चिकित्सक द्वारा इलाज कराना जैसे महत्वपूर्ण पहलु सम्मिलित हैं।
प्रायः यह देखा जाता है कि नाल से नवजात बछड़े के खून एवं ऊतकों में संक्रमण हो जाता है, जिससे नाल में सुजन उसमें मवाद पड़ जाना, बुखार, बछड़े का शिथिल हो जाना, दूध पीने में अरुचि, जोड़ों में सुजन एवं दर्द जैसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं। अतः नाल के संक्रमन से बचने के लिए प्रसव साफ जगह पर होना चाहिए तथा नाल को असंक्रमित धागे से शरीर से लगभग 5 सेंटीमीटर पर बांधकर नई ब्लैड से काट लेना चाहिए। नाल पर टिंचर आयोडीन या अन्य एंटीसेप्टिक दवाई तब यक लगाना चाहिए, जबतक कि घाव सुख न जाएं। यदि संभव हो सके तो बछड़े को पशुचिकित्सक से टिटनेस का टीका लगवाएं।
जन्म के बाद यदि बछड़े के ऊपर की झिल्ली प्रसव के समय नहीं फटी है तो उसे तुंरत हटा देना चाहिए। बछड़े के जन्म लेते ही उसके मुंह, नाक, आँख तथा कान साफ कर सारे शरीर को किसी साफ एवं सूखे कपड़े से साफ करना चाहिए। तत्पश्चात उसे उसकी माँ के सामने रखना चाहिए। बछड़े को यदि श्वास लेने में तकलीफ हो, तो उसे उसके वक्ष को क्रम से दबाना व छोड़ना चाहिए ताकि उसे श्वास मिल सके या फिर बछड़े को उसकी टांगों से पकड़कर उल्टा लटकाकर हिलाना चाहिए जिससे श्वास मार्ग में एकत्रित तरल पदार्थ निकल सकें। प्रसव के पश्चात योनि स्राव व जेर ग्रसित बिछावन को पशुशाला से अतिशीघ्र हटा कर जला देना चाहिए। उसके स्थान पर अन्य मुलायम बिछावन तैयार करना चाहिए, जिसे समय-समय पर बदलते रहना चाहिए।
बछड़े के जन्म के प्रथम एक-दो घंटे की समयावधि में खीस पिलाना अत्यंत आवश्यक है। खीस में रोग-प्रतिरोधक क्षमता होती है, जो बछड़े को बीमारियों से तबतक बचाता है, जब तक कि उसका स्वयं का प्रतिरक्षी तंत्र विकसित नहीं होता है। प्रायः बछड़ों में मृत्यु का के मुख्य कारण अतिसार/सफेद दस्त होता है, जो कि खीस न पीने वाले बछड़ों में अधिक होता है। अतः बचाव के रूप में खीस पिलाना अत्यंत आवश्यक है। रोग प्रतिरोधकता क्षमता बढ़ाने के साथ ही खीस अत्यंत पोषक तथा स्वस्दिष्ट होता है। खीस की लेक्सेटिव प्रकृति के कारण यह कब्ज से बचाता है तथा आहार नाल को प्रथम गोबर “मिकोनियम” से मुक्त कर साफ रखता है। खीस उपलब्ध न होने की स्थिति में अन्य पशु के दो किलो दूध को गर्म कर उसमें दो अंडे व 30 मि.ली., अरंडी का तेल मिलाकर पिलाना चाहिए। बछड़े को जन्म से तीन माह की उम्र तक उसके वजनका 10% दूध पिलाना चाहिए।
बछड़ों में मृत्यु का एक प्रमुख कारण उनका निमोनिया से ग्रसित होना पाया गया है, जो कि पशुशाला के हवादार न होने, फर्श कच्चा होने तथा नियमित सफाई न होने के कारण होता है। इन परिस्थितियां में गोबर व मूत्र वहीं पर एकत्रित होने लगता है, और अमोनिया गैस बनने लगती है जो कि पशु के श्वसन तंत्र पर हानिकारक प्रभाव डालती है पशु उनके बछड़े निमोनिया के शिकार हो जाते हैं। साथ ही, गोबर-मूत्र द्वारा संक्रमित पशु से विभिन्न कीटाणु, जीवाणु व परजीवी द्वारा बीमारी का स्थानान्तरण अतिशीघ्र होता है। अतः यह आवश्यक है कि पशुशाला का फर्श पक्का हो तथा उसकी नियमित सफाई होती रहे। यदि फर्श कच्चा है तो उस पर समय-समय पर रेत डालते रहना चाहिए। पशुशाला हवादार होनी चाहिए ताकि हानिकारक गैस निकल सकें तथा स्वच्छ हवा का आगमन हो सकें। पशुशाला के बाहर पानी के निकास हेतु समुचित व्यवस्था होनी चाहिए ताकि पानी जमा न हो तथा मक्खी व मच्छर अंडे न दे सकें।
बछड़े को कृमिनाशक दवा जन्म के तुरंत पश्चात देनी चाहिए। तत्पश्चात तीन माह तक हर 15 दिन के अंतराल पर तथा माह से ऊपर होने पर प्रत्येक तीन माह में कृमिनाशक दवा देनी चाहिए। कृमिनाशक दवा देने के पश्चात अरंडी का तेल पिलाना चाहिए।
बछड़ों को बाह्य परजीवियों जैसे पिप्सू, किलनी, जूं इत्यादि से बचाव करना चाहिए। उनका आवास स्थान साफ व स्वच्छ तथा बाह्य परजीवियों से मुक्त होना चाहिए। बाह्य परजीवियों के उपस्थित होने पर आवास स्थानों की दरारों पर तथा कोनों पर आग लगा देनी चाहिए, तदोपरान्त चूने का लेप कर देना चाहिए। पशुशाला में हर पखवाड़े में नीम की पत्तियों को जलाकर धुआं करना चाहिए ताकि बाह्य परजीवियों द्वारा छिपे स्थानों पर दिए गए अण्डों को नष्ट किया जा सकें। बछड़ों के शरीर पर ब्यूटाक्स, अमिराज इत्यादि दवाओं का स्प्रे करना चाहिए। बछड़ों का दिन में एक बार ब्रश से खुरैरा करना चाहिए। इससे बाह्य परजीवियों से बचाव होगा, साथ ही शरीर में रक्त का प्रवाह भी बढ़ेगा और उनकी वृद्धि दर में भी सुधार होगा।
नवजात पशु को बीमारियों से बचाने के लिए उनका निर्धारित समय पर टीकाकरण अवश्य करना चाहिए। छः माह की उम्र पूर्ण होने पर खुरपका-मुंहपका, गलघोंटू, लंगड़ी, बुखार इत्यादि बीमारियों रोकथाम हेतु टीकाकरण करवाना चाहिए।
बछड़ों के रोग ग्रसित होने पर उका उचार पशुचिकित्सक से शीघ्र कराना चाहिए। इसके लिए पशुपालकों को रोग के लक्षण की सामान्य जानकारी होना आवश्यक है, यथा दूध पीने में अरूचि, दस्त, बुखार, असामान्य स्राव, परिवर्तित व्यवहार इत्यादि। बछड़े के बीमार होने पर उसे अन्य स्वस्थ बछड़ों से अलग रखना चाहिए। प्राथमिक उपचार यथासंभव करना चाहिए। अतिसार से पीड़ित बछड़े को 2-3 लीटर पानी में 25 ग्राम नमक व 150-200 ग्राम गुड़ घोलकर 3-4 घंटे के अन्तराल पर बार-बार पिलाना लाभदायक होता है। साथ ही, चावल का मांड व दही का सेवन भी कराना चाहिए। निमोनिया होने पर सरसों के तेल में 5% तारपीन का तेल तथा 1% कपूर मिलाकर साने की मालिश राहत प्रदान करता है। साथ ही, एक बाल्टी उबलते पानी में तारपीन के तेल या यूकेलिप्टस के तेल की बूंदें या यूकेलिप्टस पेड़ की पत्तियों को उबालकर उसकी भांप देने से भी राहत मिलती है।
प्राथमिक उपचार के साथ-साथ पशुचिकित्सक से अतिशीघ्र आवश्यक उपचार भी कराना चाहिए। अतः उपरोक्त वर्णित पहलुओं का ध्यान रखें, पशुपालक नवजात बछड़े की मृत्यु दर को कम कर, स्वस्थ पशुधन प्राप्त कर सकते हैं तथा देश के विकार में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।
लेखन: आलोक कुमार यादव एवं ए.के. चक्रवर्ती
ग्रामीण समृद्धि के लिए पशु पालन एक अच्छा साधन है, परन्तु इसके लिए न केवल अच्छी नस्ल के पशु होने आवश्यक है, बल्कि पशुपालन व्यवसाय को सस्ता बनाने तथा आर्थिक हानि से बचाने के लिए संतुलित पशु आहार की जानकारी होनी आवश्यक है क्योंकि जहाँ अच्छी नस्ल का पशुधन ग्रामीण संपन्नता का प्रतीक है, वहीँ संतुलित व सस्ता आहार दुग्ध उत्पादन को सस्ता बनता है। अच्छे आहार के आभाव से अच्छी नस्ल का पशु भी अधिक दूध उत्पादन करने में सफल नहीं हो सकता है। इसलिए पशुपालक के पशुपालन एवं डेरी उद्योग के संबंध में सभी पहलुओं की जानकारी होना आवश्यक है। जैसे-
पशुधन को हम दो तरीकों से सुधार सकते हैं। एक तरीका कि पशुओं से अधिक उत्पादन क्षमता वाली सन्तान पैदा कराएं और दूसरा अच्छी नस्ल की गाय, भैंस का चुनाव करके अच्छे सांड से मिलवाएं। दोनों ही तरीकों में यह बात जरुरी है कि अच्छी गाय, भैस तथा अच्छे सांडों का चुनाव हो। नस्ल सुधार मने प्रजनन की निति इस प्रकार अपनाएं कि गाय, भैसों की अधिक दूध देने वाली नस्लों की सांडों से कम दूध देने वाली मादाओं से मिलान हो, जिससे अधिक दुध देने वाली सन्तान पैदा हों। कम उत्पादन वाली देशी गायों को होलस्टिन फ्रीजियन व् जर्सी सांडों से प्रजनन करवा कर अधिक दूध देने वाले पशु पैदा किये जा सकते हैं। पशुओं को समय पर उन्नत नस्ल के सांड से यह कृत्रिम गर्भाधान द्वारा प्रजनन करा कर ग्रामीण स्तर ही गाय, भैसों की नस्ल सुधार का दूध उत्पादन में बढ़ोत्तरी लाई जा सकती है। गर्भाधान करने से पूर्व कई प्रकार की जानकारी होनी आवश्यक है। इसके लिए हमें यह जानना जरुरी है कि मादा पशु कब, कैसे और कितने समय तक गर्मी (मदकाल) में आती है एवं कब इसे गाभिन करावें, जिससे आगे का व्याप्त सुनिश्चित हो।
पशु जाति |
परिपक्वता उम्र |
प्रजनन काल |
मदकाल की अवधि |
गाय |
24-30 माह |
पूरा वर्ष |
12-18 घंटे |
भैंस |
36-42 माह |
सितम्बर-मार्च |
12-36 घंटे |
बकरी |
10-12 माह |
शरद ऋतु |
36-48 घंटे |
भेड़ |
8-12 माह |
अगस्त से जनवरी |
24-48 घंटे |
मदकाल के लक्षण दिखने के 8-10 घंटे बाद गर्भाधान करवाएं।
दुधारू पशु की खाल पतली व चिकनी हो, पशु सिर की ओर पतला व पीछे की ओर चौड़ा दिखाई देना चाहिए ताकि शरीर तिकोने जैसे लगे। चारों थन अच्छे व बड़े आकार के हों तथा अयं बड़ा हो। दुसरे व तीसरी व्यांत के तुरंत ब्याए हुए पशु हो खरीदें। खरीदने से पहले लगातार तीन समय का दूध अपने सामने निकलवाकर उसके वास्तविक दूध उत्पादन को सुनिश्चित कर लें, क्योंकि भैस के ब्योने का विशेष महत्व होता है। इसलिए उसे जुलाई से फरवरी के मध्य ही खरीदे। जहाँ तक संभव हो, दूसरा दुधारू पशु उस समय खरीदें, जब पहला पशु अपने ब्यांत के अंतिम चरण में हो, जिससे दूध का उत्पादन बना रहें और आमदनी भी होती रहें। इससे दूध देने वाले पशुओं के रख-रखाव के लिए पर्याप्त धन राशि होती रहेगी। ऐसे पशु जिनकी दूध देने के क्षमता समाप्त हो गई हो, उनके हटा कर उनकी जगह दूध देने वाले पशुओं को रखें। 6-7 ब्यांत के बाद पशुओं को बेच देना चाहिए।
दुधारू पशु को स्वास्थ्य रखने और उनसे वांछित उत्पादन प्राप्त करने के लिए तथा उनको आराम देने के लिए समुचित व्यवस्था होना अति आवश्यक है।
दुधारू पशुओं को अपनी तरह एक प्राणी समझकर, उचित मस्य पर उचित मात्रा में भोजन का प्रंबध करें। दुधारू पशु के पुरे दिन राशन को बनाते समय निम्नलिखित तत्वों का समावेश करें
दलिया |
ज्वार, बाजरा, मक्का, गेंहूँ, जौ आदि |
50 भाग |
चुरी |
मुंग, उड़द, चना आदि |
30 भाग |
खल |
सरसों, तारामीरा, असली, बिनौला, तिल |
20 भाग |
खनिज मिश्रण |
|
40 ग्राम प्रतिदिन |
नमक |
|
50 ग्राम प्रतिदिन |
पशुओं को स्वस्थ व् निरोगी रखने के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है।
संतुलित पशु आहार, समुचित प्रंबध आवास व्यवस्था और स्वास्थ्य रक्षा से पशुओं की दूध देने की क्षमता 3-5 लीटर प्रतिदिन तक बढ़ाई जा सकती है। इस प्रकार किसान भाई खेती के विकसित तरीकों के साथ, पशुपालन के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कर अपनी आमदनी में निश्चित बढ़ोत्तरी कर सकते हैं।
लेखन: शिवमूरत एवं के.सी.मीणा
स्त्रोत: राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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