दुधारू पशु के प्रजनन और दूध उत्पादन के लिए उर्जा और प्रोटीन के अतिरिक्त खनिज तत्वों का विशेष महत्व है। कैल्शियम, फास्फोरस, मैग्नीशियम, सोडियम, क्लोराइड मुख्य खनिज तत्व है। कोबाल्ट, आयरन, मैंगनीज, आयोडीन, सेलेनियम, जिंक, कॉपर, क्रोमियम, सूक्ष्म खनिज है अर्थात इनकी आवश्यकता बहुत कम केवल मिलीग्राम प्रति किलो खनिज मिश्रण ही होती है। पशुपालक दुधारू पशु के लिए ऊर्जा, प्रोटीन और मुख्य खनिज तत्वों पर तो विशेष ध्यान देते हैं, क्योंकि इनका महत्व और इनकी मात्रा के बारे में पशुपालक कुछ हद तक जानकारी रखते हैं परन्तु सूक्ष्म खनिजों के महत्व के प्रति जागरूक नहीं है। यह जानना नितांत आवश्यक है कि इन सूक्ष्म तत्वों की भी अन्य मुख्य खनिज तत्वों के उपयोग में अहम भूमिका है।
व्यवसायिक खेती के कारण मृदा में इन सूक्ष्म तत्वों की कमी पाई गयी है। इसके कारण पशु चारे में इनकी मात्रा काफी कम है। खाद्य में उपस्थित इन खनिजों का शरीर में अवशोषण काफी कम होता है। सूक्षम तत्वों की आपूर्ति के लिए चारे पर निर्भर न होकर अतिरिक्त खनिज मिश्रण देना आनिवार्य है।
सूक्षम तत्वों को देते समय इनकी पर्याप्त मात्रा का ज्ञान होना आवश्यक है। क्योंकि कई तत्व इनमें से एक दूसरे के विरुद्ध होते हैं। जैसे कि एक तत्व की मात्रा कम या अधिक होने से दूसरे सूक्ष्म तत्वों के अवशोषण में बाधा आती है। इन संभवनाओं को देखते हुए इस लेख में इन तत्वों की पर्याप्त मात्रा दुग्ध उत्पादन, चारा (१किग्रा, शुष्क पदार्थ) गर्भावस्था, शरीर वजन आदि के मापदंडों में दिया है।
दुधारू पशु के लिए कोबाल्ट का महत्व ब्याने के 21 दिन पहले और 21 दिन ब्याने के बाद अधिक होता है। इन दिनों पशु खाना कम कर देता है और ग्लूकोज की खपत भ्रूण बढ़ने के साथ-साथ दुग्ध उत्पादन में अधिक होती है। ऐसी नाजुक स्थिति में कोबाल्ट की कमी से आवश्यक मात्रा में बी, नहीं बनेगा जिससे खून में ग्लूकोज की कमी आ सकती है। ब्याने के बाद पशु बीमार होना या दुग्ध उत्पादन में कमी होना आदि समस्याओं से दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में भारत एक अग्रगण्य देश के रूप में उभर रहा है। इस वितवर्ष में भारत का दुग्ध उत्पादन 143 मिलियन टन है जो कि विश्व के कुल दुग्ध उत्पदन का 16% है। श्वेत क्रान्ति के इस आयक प्रयासों में, सुनियोजित योजना विविध डेरी विकास कार्यक्रमों, कृषकों, सक्रिय सहकारिताओं की विशेष भूमिका रही है। दुग्ध एवं दुग्ध उत्पादन भारतीय खाद्य व्य्वस्स्था के महत्व पूर्ण अंग है और इसकी मांग दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। डेरी व्यवसाय भी करोड़ों सीमान्त और छोटे किसानों के आजीविका निर्वाह का महत्वपूर्ण स्रोत बन गया है। पशुपालन व्यवसाय मुख्यतः हरे चारे पर निर्भर करता है क्योंकि हरा-चारा ही पशुओं के लिए पोषक तत्वों का एक मात्र सस्ता एवं सूक्ष्म स्रोत है। अतः पशुपालन व्यवसाय की सफलता के लिए पशुओं को वर्षभर हरे चार की उपलब्धता करना आवश्यक है। वर्तमान में हमारे देश में 63% हरा चारा एवं 24% सूखे चारे की कमी, यह मांग आगामी वर्षों में और ज्यादा बढ़ेगी। बढ़ती हुई चारे की मांग की आपूर्ति को केवल प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाकर ही पूरा किया जा सकता है। प्रस्तुत डेरी समाचार अंक में पशुपोषण के आवश्यक सूक्षम तत्व, पशुओं के लिए पानी का महत्व अजोला व शुगरग्रेज चारे हेतु नवीन विकल्प तथा बहुवर्षीय चारे के बारे में आलेख प्रस्तुत किये गये हैं आशा हैं किसान भाइयों को या अंक लाभकारी सिद्ध होगा।
पशु प्रजनन प्रक्रिया के दौरान और प्रजनन के बाद उत्पन्न होने वाले विकारों से पशु स्वास्थ्य और दुग्ध उत्पादन में गिरावट आती है जिससे पशुपालक का काफी नुकसान होता है। प्रजनन विकारों से पशु की रक्षा करने के साथ-साथ पशु और नवजात बच्चों की रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाने के ऊद्देश्य से सेलेनियम का बाकी सूक्ष्म तत्वों से अधिक महत्व है। प्रजनन के बाद जेर अटकना, गर्भाशय खराब होना, अंडाशय में रसौली, ज्यादा दूध देने वाले पशु में सामान्य रोग जिससे अनियमित मदचक्र, गर्भधारण न होना, अयन में द्रव जमा होना, थनैला रोग, प्रतिकारक शक्ति कम होना, गर्भधारण देर से होना, दुग्ध उत्पादन में गिरावट आना आदि समस्याओं उत्पन्न हो सकती है। खाद्य में सेलेनियम की पर्याप्त मात्रा होने से इन सभी समस्याओं से पशु को बचाया जा सकता है।
एक किलो दूध में 0.01-0.025 मि.ग्रा. सेलेनियम स्रावित होता है। 0.3 मि.ग्रा. शुष्क पदार्थ सेलेनियम सभी दुधारू पशु के लिए पर्याप्त होता अहि। गर्भावस्था के दौरान 1.4 मि.ग्रा. प्रतिदिन और गर्भावस्था के अंतिम 21 दिनों में में 1.7 मि.ग्रा, प्रति सेलेनियम पर्याप्त है। दुग्ध उत्पादन के दौरान 10 किलो दूध देने वाले पशु के लिए 2.5 मि.ग्रा. और 20 किलो दूध देने वाले 3.0 मि.ग्रा. प्रतिदिन सेलेनियम पर्याप्त है। 6 मि.ग्रा. सेलेनिय्म प्रतिदिन ज्यादा दुध देने वाले पशु को थनैला रोग से बचाता है। चारे में कैल्शियम की मात्रा कम से कम 0.5% और ज्यादा से ज्यादा 1.3% होने से सेलेनियम का अवशोषण कम होता है। खाद्य में सल्फर की मात्रा अतिरिक्त होने से सेलेनियम के अवशोषण में बाधा आती है।
कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और वसा के चयापचन के लिए थायरोक्सिन हारमोंस की आवश्यकता होती है। शरीर में ग्लूकोज अतिरिक्त होने पर ग्लूकोज को संचित करना और ग्लूकोज की कमी होने पर संचित ग्लूकोज उपलब्ध कराना आदि के लिए थायरोक्सिन की आवश्यकता होती है। ग्लूकोज के अलावा प्रोटीन उपलब्धता बढ़ाने के लिए भी थायरोक्सिन की आवश्यकता होती है। दुग्ध उत्पादन के उद्देश्य से थायरोक्सिन हार्मोन बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। थायरोक्सिन हार्मोन बनाने के लिए आयोडीन आवश्यक है। गर्भावस्था की आखिरी दिनों में दुग्ध उत्पादन और ठण्ड के समय थायरोक्सिन का उत्पादन बढ़ जाता है। पशु आहार में आयोडीन की मात्रा 0.6 मि.ग्रा. 100 किलो शरीर बहार पर्याप्त है। एक किलो दूध में 30-300 मि.ग्रा. आयोडीन स्रावित होता है। ज्यादा दूध देने वाले पशु में थायरोक्सिन का उत्पादन 2-3 मि.ग्रा. गुणा बढ़ जाता है। इसलिए इनके आहार में आद्योदीन की मात्रा 1.5 मि.ग्रा. प्रति 100 किलो शरीर भार होना चाहिए। चारे में पत्तागोभी, सरसों, शकरकंद, सोयाबीन, चुकंदर, शलजम आदि होने से आयोडीन के अवशोषण में बाधा आती है इस परिस्थिति में आयोडीन की मात्रा अधिक होनी चाहिए। चारे में आयोडीन 0.5 मि.ग्रा. प्रति किलो शुष्क पदार्थ से अधिक नहीं होना चाहिए।
पशु शरीर में कोशिकाओं की वृद्धि, हारमोंस के निमार्ण, उपापचयन, भूख नियंत्रण, रोग प्रतिकारक शक्ति आदि नियंत्रित करने वाले एंजाइम के लिए जिंक की आवश्यकता होती है। खुर और स्तन क बाहरी सुरक्षा आवरण (कोइटिन) बनाने में जिंक की आवश्यकता होती है। खुर और अयन स्वास्थ्य के साथ-साथ शरीर में तैयार होने वाले हानिकारक ऑक्सीकारक तत्वों को क्रियाविहीन करने के लिए जिंक पर निर्भर एंजाइम की आवश्यकता होती है। चारे में जिंक की पर्याप्त मात्रा खून और कालोस्ट्रम एम्युनोग्लोबिंस बढ़ाता है जो पशु स्वास्थ्य और नवजात बछड़ों के लिए अधिक लाभदायक है। जिंक की कमी से भूख में कमी, पशु का विकास रुक जाना, वृषन का विकास न होना, सींग और खुर कमजोर होना, अंडाशय का विकास न होना, अनियमित मदचक्र, गर्भाधारण डेरी से होना आदि समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। 500 किलो के पशु के लिए गर्भावस्था के दौरान आहार में जिंक की मात्रा 410 मि.ग्रा. प्रतिदिन और 20 किलो दूध देने वाले पशु के ली 670 मि.ग्रा. प्रतिदिन पर्याप्त है। बीमारी और तनाव इन परिस्थितियों में शरीर में जिंक की जरूरत बढ़ जाती है। जिंक और कॉपर एक दूसरे के विरुद्ध है। खाद्य में जिंक की मात्रा अधिक होने से कॉपर के अवशोषण में बाधा आती है।
शरीर में तैयार होने वाले कई अत्यावश्यक एंजाइम और लोहे के अवशोषण के लिए कॉपर की आवश्यकता होती है। शरीर में तैयार होने वाले ऑक्सीकारक तत्वों जो शरीर की कोशिकाओं के लिए हानिकारक होते हैं और इनको नष्ट करने के लिए कॉपर की आवश्यकता होती है। कॉपर की कमी से पशु का विकास धीमी गति से होता है। हड्डियाँ कमजोर होना, प्रजनन क्षमता कम होना, रोगप्रतिकारक क्षमता कम होना, यौवनारम्भ देर से होना, बार-बार गर्भधारण ना करना, भ्रूण मर जाना, जेर अटकना आदि समस्याएं आ सकती है। 500 किलो शरीर बहार वाले पशु के लिए गर्भावस्था के 100 दिन तक 103 मि.ग्रा. प्रतिदिन और 225 से ब्याने तक 140 मि.ग्रा. प्रतिदिन कॉपर पर्याप्त है\ दुग्ध उत्पादन के दौरान 10 किलो दूध देने वाले पशु के लिए 130 मि.ग्रा. और 20 किलो दूध देने वाले पशु के लिए 170 मि.ग्रा. कॉपर प्रतिदिन पर्याप्त है। खाद्य में सल्फर और मोलीब्डनम की अधिक मात्रा होने से कॉपर अवशोषण में बाधा आती है। इसलिए कॉपर और मोलीब्डनम 3:1 के अनुपात में होना चाहिए।
नया विरल तत्वों की तरह मैगनीज शरीर में तैयार होने वाले हानिकारक ऑक्सीकारक पदार्थों को अकार्यक्षम करने में काम आता है। शरीर के ढांचे में उपास्थी को मजबूत बनाने में मैगनीज अत्यावश्यक है। खाद्य में मैगनीज की कमी से पशु का ढांचा विकसित न होना, पशु का विकास धीमी गति से होना, पैरों में कमजोरी, सांधे (ज्वाएंट ) बड़े होना, हड्डियों की ताकत कम होना, पशु कमजोर होना, पैर गुथना आदि समस्याएं उत्पन्न हो सकती है। इन सभी समस्याओं से पशु के प्रजनन पर विपरीत असर पड़ता है। जैसे कि पशु की प्रजनन क्षमता कम होना, गर्भाधारण न होना, पशु का गर्मी में रहना परन्तु गर्मी के लक्षण न दिखना आदि कठिनाइयों से पशुपालक गुजर सकता है। 500 किलो वजन के पशु के लिए गर्भवस्था के दौरान 175 मि.ग्रा. मैंगनीज प्रतिदिन पर्याप्त है। दूध उत्पादन के दौरान 10 लीटर दूध के 175 मि.ग्रा. और 20 किलो दूध के लिए 214 मि.ग्रा. मैंगनीज प्रतिदिन पर्याप्त है।
संक्रमण काल यानि ब्याने के पहले 21 दिन और 21 दिन बाद, यह समय दुधारू पशु के जीवन का सबसे नाजुक समय होता है। इन दिनों जरा सि अनदेखी पशुपालक का भारी आर्थिक नुकसान है। इन दिनों पशु काफी तनाव में रहता है। इससे शरीर में कुछ हानिकारक तत्वों क्स स्राव बढ़ जाता है। पशु चारा खाना कम कर देता है। खून में ग्लूकोज पर्याप्त मात्रा में होने पर भी कोशिकाओं को उपलब्ध नहीं हो पाता है। शरीर की ऊर्जा की कमी दूर करने के लिए शरीर का वसा प्रयोग होता है। इससे पशु ब्याने के बाद पतला और कमजोर हो जाता है। पशु में किटोसिस उत्पन्न हो सकता है। पशु की रोगप्रतिकारक शक्ति का कम होना आदि समस्याएँ उत्पन्न हो सकती है। अब तक हुए अनुसंधानों से यह अनुमान लगाया गया है कि तनाव के दोनों में खाद्य में क्रोमियम की पर्याप्त मात्रा होने से पशु का चारा खाना बढ़ जाता है। शरीर की कोशिकाओं में ग्लूकोज और प्रोटीन की उपलब्धता बढ़ जाती है। इससे ब्याने के बाद पशु और बच्चा दोनों सेहतमंद रहते हैं और दोनों की रोग प्रतिकारक शक्ति भी बढ़ जाती है। दूध उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी आती है। खाद्य में 10 मि.ग्रा. क्रोमियम प्रतिदिन पर्याप्त है।
इस आलेख में विभिन्न विरल तत्वों के महत्व से तो अवगत कराया गया ही है ततः यह भी जारुकता बढ़ाने का प्रयास किया गया है कि आहार में इनकी सूक्ष्म मात्रा कि भी कितनी अहम भूमिका है अन्यथा एक तत्व की कमी भी पशु के उत्पादन व स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालती है।
लेखन: दीपिका त्रिपाठी, रवि प्रकाश एवं वीना मणि
शुगरग्रेज एक उत्तम गुणवत्ता वाली चरी है, जो कि ज्वार, मीठी चरी अरु सूडान घास की एक संकर किम है। इसका उपयोग विशेषता हरे चार, साइलेज व भूसे किया जाता है। आधुनिक परिवेश में यह चारे का उत्तम विकल्प है। इसकी तेजी से उगने की क्षमता, मीठे रसीले तने एवं चौड़े गहरे हरे पत्तों के कारण ही इसे उत्कृष्ट चारे की श्रेणी में रखा गया है। शुगरग्रेज की खेती व्यापक रूप से विभिन्न परिस्थितियों में की जा सकती है। निहित सघन जड़ प्रणाली होने के कारण शुगरग्रेज को कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी आसानी से उगाया जा सकता है हालांकि अनुकूल नमी मिलने पर इसकी पैदावार कई गुना बढ़ जाती है। प्रचुर मात्रा में शुष्क तत्व एवं शर्करा होने के कारण दुधारू पशु इसे बड़े चाव से खाते हैं।
ऐसे क्षेत्र जहाँ मक्का और ज्वार आदि फसलों की अधिक उपज नहीं होती, वहां पर शुगर ग्रेज को साल्लेज बनाने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। हरे चारे के रूप में इसका उपयोग बड़ा लाभदायक है और पशु इसे बड़े चाव से खाते हैं। इसे भूसे की तरह भी उपयोग में लाया जा सकता है।
मृदा |
मृदा पी एच पर 5.5-7-0 |
सिंचाई |
गर्मियों में 8 दिन के अंतराल पर सर्दियों में 12 दिन के अंतराल पर |
बुबाई का समय |
बंसत ऋतू-फरवरी से अप्रैल खरीफ-मई से अगस्त रबी- सितम्बर से नवम्बर |
बीज दर |
काली मिट्टी-5 किग्रा प्रति एकड़ हल्की मिट्टी -६ किग्रा, प्रति एकड़ |
उर्वरक |
यूरिया-60 किग्रा./एकड़ पोटाश- 20 किग्रा/एकड़ |
कीट एवं रोग प्रबन्धन |
तना एवं शाखा भेदक कीट की गंभीर समस्या होती है इसके उपचार ह्देतु बीज उपचार करें तथा पहली सिंचाई के साथ 8 किलो फोरेट 10 जी अथवा कार्टप हाइड्रोक्लोराइड 4 जी/एकड़ की दर से उपयोग करें। |
फसल की कटाई |
बुबाई के 45-50 दिन शुगरग्रेज की दो कटाई ली जा सकती है। साइलेज के लिए 75-90 दिन के बाद कटाई ली जानी चाहिए। |
उपज |
250-300 क्विंटल प्रति एकड़ |
उपलब्धता |
से संपर्क कर सकते हैं। |
लेखन: अर्चना भट्ट, दीपा जोशी एवं अर्पिता शर्मा
पानी पशु के शरीर का एक मुख्य घटक (तत्व) हैं तथा इसका पशु के शरीर के भार में 50 से 80% योगदान रहता है। पानी की मात्रा पशु के शरीर में मुख्य रूप से आयु एवं उसके स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। एक पशु अपने शरीर का पूरा वसा एवं लगभग 50% तक प्रोटीन खोने या कम होने के पश्चात भी जीवित रह सकता है, लेकिन पशु के शरीर का 10% तक भी पानी कम होने प उसकी मृत्यु हो जाती है। अतः पशुधन के व्यवसाय के लिए अच्छे पानी की आपूर्ति बहुत जरुरी है, जिसका पशुओं के शुष्क पदार्थ सेवन से सीधा सम्बन्ध है।
पशुओं के शरीर में पानी कार्य निम्नलिखित है:
पानी पशु के शारीरिक गतिविधियां से उत्पन्न अपशिष्ट पदार्थों को समाप्त करने में मदद करता है। पशुओं के शारीरिक तापमान को नियमित करने में मदद करता है। पानी पशुओं के शरीर में रक्त के आसमेटिक दबाव को नियमित करने में सहायक है। पानी पशु के शरीर से स्राव का घटक होने के साथ-साथ गर्भाधान और शारीरिक विकास में सहायक है।
पशुओं में पानी की आवश्यकता मुख्य रूप से तीन प्रकार से पूरी होती है:
पानी की आवश्यकता पशुओं में निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करता है:
पशु का प्रकार एवं शरीरिक आकार, गर्भवस्था, लैक्टेशन, भोजन का प्रकार, शुष्क पदार्थ के सेवन का स्तर, शारीरिक गतिविधियों या
पशु की विभिन्न अवस्था |
विभिन्न तापमान (c) पर पानी की आवश्यकता लीटर) |
|||||
|
4.4 |
10 |
14.4 |
21.1 |
26.6 |
32.2 |
नवजात शिशु की अवस्था 2-6 माह |
20.1 |
22 |
25 |
29.5 |
33.7 |
48.1 |
नवजात शिशु की अवस्था |
23.0 |
25.7 |
29.9 |
34.8 |
40.1 |
56.8 |
नवजात शिशु की अवस्था |
32.9 |
35.6 |
40.9 |
47.7 |
54.9 |
78.0 |
बछड़ी एवं सुखी गाय |
22.7 |
24.6 |
28.0 |
32.9 |
- |
- |
दूध देने वाली गाय (लैक्तेटिंग ) |
43.1 |
47.7 |
54.9 |
64.0 |
67.8 |
61.3 |
सांड |
32.9 |
35.6 |
40.9 |
47.7 |
54.9 |
78.0 |
कार्य का स्तर, पानी की गुणवत्ता, वृद्धि दर आदि।
पानी की गुणवत्ता का पशुओं के स्वास्थ्य पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। पानी में अधिक लवण व् विषाक्त यौगिकों की मात्रा का पशुओं की वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार के पानी के उपभोग का शुष्क पदार्थ के सेवन पर प्रभाव पड़ता है। पानी की गुणवत्ता लवण की मात्रा से सर्वाधिक होती हैं। पानी में लवणता की उपस्थिति उसमें घुलनशीलता साल्ट से मापी जाती है।
टी. .एस. एस के आधार पर पानी में घुलनशील लवणयुक्त जल की उप्युक्कता
टी.डी. एस. |
रेटिंग |
21000 |
इलेक्ट्रिक कनेक्टिविटी (ईसी) 1.5 से कम, सभी प्रकार के पशुओं के लिए सबसे उपयुक्त |
100-2999 |
इलेक्ट्रिक कनेक्टिविटी (ईसी) 1.5 से 5 तक, सभी वर्ग के पशुओं के लिए सन्तोषजनक। जिन पशु को लवण की आदत नहीं होती उनमें दस्त के विकार उत्पन्न हो जाते हैं। |
3000-4999 |
इलेक्ट्रिक कनेक्टिविटी (ईसी) 5 से 8 तक, पशुओं के लिए सुरक्षित लेकिन पशु में कुछ विकार जैसे दस्त आदि हो जाते हैं। पशु की पानी पीने की क्षमता कम हो जाती हैं। |
100 |
गाय, भैंस, भेड़, सूअर तथा घोड़े के लिए उपयुक्त |
|
100 मिग्रा./लीटर से अधिक नाईट्रेट की मात्रा पशुओं के लिए बहुत ही हानिकारक है। |
300 से अधिक |
इस तरह के नाईट्रेट युक्त पानी एवं चारे को पशु को खिलाने पर नाईट्रेट की विषाक्तता हो जाती है। 300 पी.पी.एम. नाईट्रेट युक्त पानी पशुओं को नहीं पिलाना चाहिए। |
लेखन: अर्जुन प्रसाद वर्मा, तूलिका कुमारी, मुकेश कुमार एवं प्रिय जयकर
रेतिकुलुम-रयुमन में सूक्ष्मजीवियों द्वारा भोजन की किंवता से उत्पन्न गैसों के जमाव से रियुमन के अत्यधिक फैलाव होने से अफरा हो जाता है। रयुमन में सूक्षमजैविक पाचन से गैस बनना एक आम प्रक्रिया है जो लगातार होती रहती है। गैस का उत्पादन दर पशु द्वारा ग्रहण किये जाने वाले आहार, उसके प्रकार एवं संरचना पर निर्भर करते हैं। लेकिन यह भी कहना उचित है कि रियुमन में गैस बनना एवं अफारा होने का कोई गहन सम्बन्ध नहीं है। अपर्याप्त मात्रा में रयुमन से बहिर्गमन ही नहीं बल्कि रयुमन में उत्पन्न गैस आमतौर पर तीन रास्तों से बहिर्गमन करती है। सबसे ज्यादा हिस्सा डकार से जाता है जोकि साधारणतया हरेक मिनट में 1-3 होता है। कुछ गैस जठरांत्र पथ के माध्यम से शरीर में विसत हो जाती है और बल्कि मलाशय के द्वारा बाहर जाती है। गैसों के जमाव से रयुमन की बाई (दिशा) का सुप्रकट फुलाव अफारे का अहम प्रतीक है। झागदार की अवस्था में बाई कोख में थप्पड़ मारने से धीमी आवाज आती है जबकि अनुपूरक अफारे में ढोल जैसे पशु बेचैन हो जाता है और जल्दी-जल्दी खड़ा होता है और बैठता है, अपने पेट पर लात मारता है और अनेक समय दुःख कम करने के लिए जमीन जीब निकालना, सर को निकालना इत्यादि लक्षण दिखाई देते हैं। आरंभिक अवस्था में रयुमन की गतिविधि अत्यधिक बढ़ जाती है लेकिन बाद में रयूमन के अत्यधिक फैलाव से गतिवधि कम हो जाती अहि। तत्पश्चात पशु धराशयी हो जाता हिया और अगर ठीक ध्यान न दिया जाए तो पशी की मृत्यु भी हो सकती है। पशु आहार में अधिक मात्रा में दाना या बरसीम के सम्मिलन में अफारा हो सकता है। सिर्फ बरसीम खिलाने से भी अफारा होने के आसार बढ़ जाते हैं। अतः उसमें गेहूँ या धान का भूसा (2-३किग्रा,/प्रतिदर ) जरुर मिलाना चाहिए।
निदान
अफारे कि अवस्था का निदान पशु के खाने-पीने का इतिहार, भोजन के प्रकार और आरंभिक अफार की स्थिति से दिखाई पड़े लक्षणों से किया जाता है। कुछ जटिल दीर्घकालिक मामलों में अफारे का सही कारण जानना काफी मुशिकल भी होता है।
उपचार
अफारे क उपचार उसकी गंभीरता पर निर्भर करता है। चरम अवस्था में जिसमें श्वास रुकने का खतरा है, रियुमन की पष्ठीय कोष को तुरंत ट्रोकर केनुला से छेद कर देना चाहिए औए उस जगह पर दबाव देने से गैस निकल जाएगी।
अफारे की मध्यक्रम अवस्था में, उदर नली की मदद से रयुमन से गिअस निकाली जानी चाहिए या दोनों जबड़ों के बिच्छ हरी टहनी रखने से भी गैस मुख के माध्यम से निष्कासित हो जाएगी।
आमतौर पर अफारे को रोकने के लिए, कोई हिस्तामिन विरोधी दवा दी जाती है। गैस के बहिर्गमन के पश्चात कोई साधारण विचेरक दिया जाना उचित होता है। अफारे से निजात के बाद नरबाईन टोनिक की आवश्यकता भी पड़ सकती है। रोग की उग्र अवस्था में रयुमन में विद्यमान सामग्री को बाहर निकालना जरुरी हो जाता है। अफारे से छुटकारे के बाद, पशु को अल्प मात्रा में मदुविचेरक आहार दिया जाना चाहिए जिसमें गेहूँ के चोकर की मात्रा अधिक होनी चाहिए। पशु को हरा चारा, ज्यादा प्रोटीनयुक्त दाना मिश्रण एवं महीन पीसा दाना नहीं खिलाना चाहिए। अफारे से निजत पाने के 7-10 बाद ही सामान्य आहार देना उचित है।
नाईट्रेट नामक रसायन प्रकृति में सर्वव्यात है। जब पशु अधिक नाईट्रेट युक्त चारे खतपतवार या पानी को अंतर्ग्रहण करते हैं तो नाईट्रेट विषाक्तता हो जाती है। नाईट्रेट विषाक्तता दो किस्म की होती है।
नाईट्रेट के स्रोत
सामान्यतः नाइट्रेट विषाक्तता पशुओं द्वारा ऐसे भोज्य पदार्थों के सेवन करने से होती है जिनमें नाइट्रेट की मात्रा अधिक पाई जाती ही। तुलनात्मक दृष्टि से जई, ज्वार, राई, मक्का, तिलहन एवं कुछ खरपतवारों जैसे पिगबीड़, नाइटशेड तथा जेंसन घास आदि में नाईट्रेट को एकत्र करने की क्षमता दूसरी फसलों की अपेक्षा अधिक होती है। पौधों में नाईट्रेट की मात्रा निम्नलिखित कारणों से बढ़ जाती है-
अच्छी वर्षा का होना, मृदा की पी,एच. का कम होना, मृदा में गोलिथडीनमम सलूर व फोस्फोरस का कम होना, मृदा का तापमान का कम होना (लगभग 13 डिग्री सेंटीग्रेड), मृदा वायु, सुखा, अपर्याप्त सूर्य की रोशनी, फिनाक्सी एसिटिक एसिड युक्त शाकनाशी का उपयोग, नाईट्रेट युक्त उर्वरकों का अधिक उपयोग, ठंडा मौसम व आसमान का बादलों से घिरा होना।
जब अधिक नाईट्रेट मात्रा युक्त पदार्थ या जल जैविक किण्वन से गुजरते हैं तो फलस्वरूप बना हुआ नाईट्रेट भी पशुओं द्वारा ग्रहण करने पर भी विषैलेपन का कारण बन सकता है। उच्च नाईट्रेट एवं नाइट्रोजन टेटराअक्साईड ऐसी मात्रा में जमा हो सकती है जिससे पशु की मृत्यु तक भी हो जाती है।
अतः पशुओं को अधिक नाईट्रेट युक्त चारा या पानी नहीं देना चाहिए। तीव्र विषाक्तता की स्थिति में निकटतम पशु चिकित्सक से सम्पर्क स्थापित करके शीघ्र इलाज करवाना चाहिए सम्भावित पशुधन हानि को रोका जा सके।
लेखन: स्वाती शिवानी, चन्द्र दत्त, आकाश मिश्रा, रीतिका गुप्ता एवं दिग्विजय सिंह
यह एक बहुवर्षीय घास है। एक बार बुआई करने से ३-4 वर्ष तक हरा चारा प्रदान करती रहती है। चारे की कमी के दिनों में भी संकर हाथी घास (नेपियर घास) से चारा प्राप्त होता रहता है जिससे पशुओं को वर्ष भर हरा चारा मिलता रहता है। वृद्धि की प्रारंभिक अवस्था में चारे में लगभग 12-14% शुष्क पदार्थ पाया जाता है। इसमें औसतन ७०१२% प्रोटीन, 34% रेशा तथा कैल्शियम व् फास्फोरस की राख 10.5% होती है। यह मात्रा कटाई की अवस्था तथा सिंचाई की ऊपर निर्भर करती है। इसकी पाचनशीलता 48-71% होती है। इसमें सुखा व कीट-पतंगों को शान सहन की क्षमता होती है। नेपियर घास को बरसीम अथवा रिजका अथवा लोबिया के साथ मिलाकर खिलाने पर उच्च कोटि का स्वस्दिष्ट चारा पशु को मिलता हिया।
नेपियर घास का जन्म स्थान उष्णकटिबंधीय अफ्रीका है। यह घास गर्म एवं आर्द्रता वाले क्षेत्रों में लगायी जाती है। भारत वर्ष में लगभग सभी प्रान्तों में इसकी पैदावार ली जाती है लेकिन अधिक वर्षा एवं अधिक सर्दी वाले राज्यों में इसकी खेती नहीं करते।
संकर हाथी घास के लिए गर्म एवं तर जलवायु की आवश्यकता है अतः मानसून मौसम में यह फसल अधिक चारा प्रदान करती है। चमकदार धूप एवं बीच-बीच में वर्षा वाली जलवायु चारा उत्पादन चारा उत्पादन के लिए सर्वोत्तम है। अच्छी पैदावार के लिए 25-30 डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम तथा औसतन 800-1000 मि.मि. वर्षा क्षेत्र अच्छे रहते हैं।
उचित जल निकास वाली सभी प्रकार से भूमियों पर नेपियर घास का उत्पादन किया जा सकत है लेकिन लोम एवं क्ले लोम भूमि सर्वोत्तम रहती है। एक गहरी जुताई करने के बाद दो जुताई कल्टीवेटर या देशी हाल से करें साथ ही पाटा लगाकर खेत समतल कर लें।
बोने का उपयुक्त समय सिंचित क्षेत्रों के लिए मार्च हैं। वर्षा आधारित क्षेत्रों में नेपियर कि जड़ों को जुलाई के महीने में या मानसून की प्रारंभिक अवस्था में लगायें। दक्षिण भारत में सिंचित क्षेत्रों में वर्ष किसी भी माह में बुबाई कर सकते हैं।
इसकी बुबाई जड़ों के कल्ले या तने के टुकड़ों द्वारा करते हैं। जड़ों कि बुआई करते समय पौधे से पौधे की दुरी 50 से.मी. था लाइन से लाइन की दुरी 1 मी. तथा गहराई लगभग 20-25 से. मी. रखनी चाहिए। लगभग 20,000-25000 जड़ें एक हैक्टेयर क्षेत्रफल के लिए पर्याप्त होती है।
संकर हाथी घास से अधिक उत्पादन लेने के लिए खेत में 220 से 225 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद, नाइट्रोजन 100 किग्रा., फास्फोरस 40 किग्रा, तथा पोटाश 40 किग्रा, प्रति हैक्टेयर अवश्य डालनी चाहिए। गोबर की खाद को बुबाई के 10-15 दिन पहले अच्छी प्रकार भूमि में मिलाएं तथा बुआई के समय फास्फोरस व् पोटाश की पूरी मात्रा खेत में मिला दें। नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुवाई के 15 दिन बाद छिड़क दें ततः शेष मात्रा सर्दी के अंत में (मार्च) छिड़क दें। यदि संभव हो तो नाइट्रोजन की पूरी मात्रा को 3-4 बराबर भागों में बाँट लें और प्रत्येक कटाई के बाद खेत में छिड़कें जिससे नेपियर की बढ़वार शीघ्र होती है।
पहली सिंचाई जड़ें लगाने के तुरंत बाद करें। बाद में 2 सिंचाई 7-8 दिन के अंतर पर अवश्य करें। इस समय तक जड़ें अच्छी प्रकार जम जाती हैं एवं बढ़वार होने लगती है। बाद में सिंचाई 15-20 दिन के अंतर पर मौसम का ध्यान रखते हुए करते रहें।
सर्दी के मौसम में नेपियर घास की बढ़वार कम होती है। अतः नेपियर की लाइनों के बीच में बरसीम या जाई या रिजका की फसल ली जा सकती है। आई.जी.एफ. आर.आई (घासानुसंधान) में किये गए शोध के आधार पर बरसीम की फसल नेपियर की लाइनों में अच्छा परिणाम देती है तथा नेपियर की एगफ्री-३ किस्म अन्तः फसल के लिए सर्वोत्तम पाई गई है। नेपियर की लाइन से लाइन की दुरी सुविधानुसार ३-10 मीटर तक बढ़ाकर लाइनों के बीच में मौसमी फसलें जैसे ज्वार, मक्का, लोबिया, ग्वार, बरसीम, रिंजका, जई आदि सफलतापूर्वक लगाई सकती है जिससे वर्ष भर हरा चारा मिल्र्ता रहता है।
प्रथम कटाई बुआई के 50-60 दिन बाद करें। बाद की कटाईयां गर्मी में 40 दिन के अंतर पर तथा वर्षा में 30 दिन के अंतर पर करें। नवम्बर से जनवरी के माह में बढ़वार धीरे होती है। अतः कटाई का अंतर बढ़ा दें। पौधों की ऊंचाई 1-1.5 मीटर होने पर कटाई कर लेनी चाहिए। कटाई करते समय ध्यान रखें कि कटाई जमीन से 12-15 से.मि. ऊपर से करें जिससे नई कोपलें नष्ट होने से बच सकें।
उचित प्रंबध करने पर संकर हाथी घास से उत्तरी क्षेत्रों में लगभग 1500 किवंटल एवं दक्षिणी क्षेत्रों में 2000 किवंटल हरा चारा प्रति हैक्टेयर एक वर्ष में परात्प किया जा सकता है।
लेखन: बी.एस.मीणा
स्थान गिन्नी घास का उदभव उष्ण एवं उपोष्ण अफ्रीका है वर्तमान समय में संसार के सभी उष्ण एवं उपोष्ण भागों में गिन्नी घास पैदा की जाती है। भारत में इसकी पैदावार दक्षिणी राज्यों जैसे कर्नाटका, आध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, गुजरात आदि में ली जाती है।
यह एक अधिक, धार उत्पादन करने वाली बहुवर्षीय घास है। इसे सभी प्रकार की जलवायु में उगाया जा सकता है। यह छायादार स्थान पर भी अधिक उपज देती है। इसी कारण फलदार वृक्षों के बगीचों में इसे आसानी से उगा सकते हैं। इसमें सुखा सहन करने की क्षमता होती है। गिन्नी घास का साइलेज अच्छा बनता है यह ज्वार व् मक्का से अच्छा हरा चारा है। इसमें 5-14% क्रूड प्रोटीन और 52-60% कुछ पाच्य तत्व होते हैं। प्रत्येक तत्वों की मात्रा कटाई की अवस्था पर निर्भर करती है।
गर्म एवं आर्द्रता युक्त वातावरण में गिन्नी घास अच्छी पैदावार देती है। बादल युक्त मौसम में हल्की बरसात होने पर गिन्नी घास की वृद्धि तेजी से होती है। इस घास के उत्पादन के लिए न्यूनतम तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड तथा अधिकतम तापमान 38 डिग्री सेंटीग्रेड सर्वोत्तम रहता है। चारागाह पर इस घास को लगाने के लिए वार्षिक वर्षा 600-1000 मिली होनी चाहिए।
उचित जल निकास वाली सभी प्रकार की भूमियों पर गिन्नी घास का उत्पादन किया जा सकता है लेकिन लोम एवं क्ले लोम भूमि सर्वोत्तम रहती है। एक गहरी जुताई करने के बाद दो जुताई कल्टीवेटर या देशी हल से करें साथ ही पाटा लगाकर खेत समतल कर लें।
गिन्नी घास बीज व जड़ों दोनों द्वारा आसानी से लगाई जा सकती है। 3-4 किलो बीज प्रति हेक्टेयर या लगभग
क्षेत्र |
किस्में |
केरल |
मकुनी |
मध्य एवं दक्षिणी भारत |
हामिल |
उत्तर पश्चिम भारत |
पी.जी. जी. 1 गटन |
पंजाब |
पी.जी. जी. 19 |
|
पी.जी. जी. 101 |
उत्तर, उत्तर पश्चिम एवं मध्य भारत |
पी.जी. जी. ३, पी.जी. जी. 9 |
|
हामिल, गटन |
20,000-25,000 जड़ें एक हैक्टेयर क्षेत्रफल के लिए पर्याप्त होती है। पौधे से पौधे की दुरी 50 से.मी. तथा लाइन से लाइन की दुरी भी 100 से. मी. रखते हैं। यदि अन्तः फसल लेनी हो तो लाइन की दुरी ३ से 10 मीटर तक रखते हैं।
गिन्नी घास के खेत में 220 किवंटल गोबर की सड़ी खाद, नाइट्रोजन 100 किग्रा, फास्फोरस 40 किग्रा, तथा पोटाश 40 किलो प्रति हैक्टेयर डालने पर अच्छी पैदावार होती है। गोबर की खाद को बुआई के 10-15 दिन पहले अच्छी प्रकार भूमि में मिलाएं और बुआई के समय फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत में मिला दें। नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुआई के 15 दिन बाद छिड़कें दे था शेष मात्रा सर्दी के अंत में (मार्च) छिड़क देना चाहिए। यदि संभव हो तो नाइट्रोजन की पूरी मात्रा को 3-4 बराबर भागों में बाँट लें और प्रत्येक कटाई के बाद खेत में समान रूप से छिड़कटे रहें जिससे कि गिन्नी घास का हरा चारा शीघ्र एवं लगातार मिलता रहे।
पहली सिंचाई जड़ें लगाने के तुरंत पश्चात करें और 2 सिंचाई 7-8 दिन के अन्तराल पर अवश्य करें। इस समय तक जड़ें अच्छी प्रकार जम जाती हैं एवं बढ़वार होने लगती हैं। बाद में सिंचाई 15-20 दिन के अंतराल पर मौसम का ध्यान रखते हुए करनी चाहिए।
सर्दी के मौसम में गिन्नी घास की बढ़वार कम होती है। अतः गिन्नी की लाइनों के बीच में बरसीम या जई या रिजका की फसल ली जा सकती है। संस्थान में किये गये शोध के आधार पर बरसीम की फसल गिन्नी की लाइनों में अच्छा परिणाम देती है तथा गिन्नी की हामिल किस्म अन्तःफसल के लिए सर्वोत्तम पाई गई है। गिन्नी की लाइन से लाइन की दुरी सुविधानुसार ३-10 मीटर तक बढ़कर लाइनों के बीच में मौसमी फसलें जैसे ज्वार, मक्का, लोबिया, ग्वार, बरसीम, रिंजका, जई आदि सफलतापूर्वक लगाई जा सकती है जिससे वर्ष भर हरा चारा मिलता रहता है।
उचित प्रबन्धन द्वारा वर्षा आधारित क्षेत्रों में 5-६ कटाईयों में 500-६—किवंटल तथा सिंचित क्षेत्रों में 10-12 सिंचाई करके 1000-1500 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर प्राप्त किया जा सकता है। दक्षिणी भारत में गिन्नी घास से क वर्ष में 2000 किवंटल हरा चारा प्रति हैक्टेयर प्राप्त किया जा सकता है।
लेखन: बी.एस.मीणा
स्त्रोत: राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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