आदिवासी समुदायों का पलायन देश में एक प्रमुख समस्या के रूप में उभरी है। मजबूरी में पलायन करने के लिये बाध्य आदिवासी अपने घऱ परिवार और भौगोलिक क्षेत्रों से बाहर जाने के लिये लगातार बाध्य हो रहे हैं। इस समस्या को गहराई से समझने के लिये आदिवासी पलायन की सच्चाई को समझना होगा।
भारतीय संविधान में आदिवासी जनजातियों को परिभाषित करने के लिये निश्चित मापदंड दिये गये हैं। इसके तहत उन समुदायों को जिनकी अपनी परंपारिक रहन-सहन, भाषा -संस्कृति, रीति-रिवाज और अपनी पारंपरिक आर्थिकी हो और जो पुराने समय से मुख्यधारा से अलग एक निश्चित भूभाग में निवास करते हुए जीवन निर्वहन करते हों, उन्हें भारतीय संविधान के तहत राज्य स्तर पर जनजातीय दर्जा दिया जाता है। भारत में आदिवासियों की आबादी देश की पूरी आबादी का 8 प्रतिशत है। आदिवासियों की संस्कृति और परंपराओं को सुरक्षित रखने के लिये उनके इलाकों को पांचवी और छठी अनुसूची के तहत रखा जाता गया है। छठी अनुसूची के तहत मुखयतः उत्तरी -पूर्वोत्तर के भाग आते हैं जहॉं आदिवासियों की संख्या का अनुपात 80 प्रतिशत तक है। छठी अनुसूची के तहत इन क्षेत्रों में पारंपरिक कानून व्यवस्था लागू है। बाहर के लोगों को इस क्षेत्र में जमीन की खरीद-बिक्री पर पूर्ण पाबंदी है। जब कि देश के अन्य नौ राज्यों में पॉंचवीं अनुसूची लागू की गयी है, यह उन भूभागों को चिन्हित करते हुए आदिवासियों के पारंपरिक शासन व्यवस्था को लागू मानते हुए शासन व्यवस्था चलाती है जहॉं 50 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी समुदाय निवास करते हैं। इस प्रकार एक जिले में कई विकास प्रखंड पॉंचवी अनुसूची के तहत रखे गये हैं। इन अनुसूचित क्षेत्रों में शासन व्यवस्था में रूढ़ि और परंपराओं को ही मान्यता देने का प्रावधान है तथा विकास के पैमाने उन्हीं के मापदंडों पर तय किये जाते हैं जो आदिवासी जीवनदर्शन से मेल खाते हों।
परांपरागत तौर पर अधिकतर आदिवासी समुदाय खेतीहर रहे हैं। सदियों से रह रहे इन्हीं भूभागों में उन्होंने खेती के लिये उपयोगी जमीन तैयार की और जीविका के साथ-साथ रीति-रिवाज, धर्म-संस्कृति और जीवनदर्शन का निर्माण किया। यह सिलसिला सदियों तक चलता रहा।
इस तथ्य को इन्कार नहीं किया जा सकता है कि पिछले कुछ दशकों में विकास की गति में इस कदर परिवर्तन हुआ है कि जिन बदलाओं के लिये कई सौ साल लगे हों, वही बदलाव कुछ ही दशकों में संभव हो गयी है। कृषि को ही लें, आधुनिक कृषि पारंपरिक खेती-बारी की तुलना में बहुत ही वैज्ञानिक हो गयी है और पूर्णतः शोध और अनुसंधान पर आधारित हो गयी है। बढ़ती हुई आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये छोटी जोतों से अधिक पैदावार लेने की विधि लगातार तैयार की जा रही है जिसमें संसाधनों के सीमित उपयोग द्वारा अधिक फसल लिया जा सके। पारंपरिक खेती आदिवासियों के लिये भले ही श्रेष्ठतर रही हो, बदलते परिवेश में बढ़ती आवश्यकताओं के लिये वही कारगर हो, यह संभव नहीं है। आदिवासी समुदायों की संपन्नता मुख्यधारा की तुलनात्मक अंदाज से कम करके आंकी जाने लगी है। और इस ख्याल से आदिवासी समुदाय हाशिये में आ गये हैं। उन्हें अपने जीविकोपार्जन के लिये अन्य स्रोतों पर निर्भर होने की आवश्यकता पड़ी।
एक दृष्टिकोण से आदिवासियों के बीच शिक्षा का प्रचार-प्रसार का सही स्वरूप नहीं होने के कारण शिक्षा का सही प्रभाव नहीं पड़ा। जाहिर है कि मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था, जिस प्रकार का सिलेबस तैयार करती है इससे आदिवासियों की कृषि और जंगल आधारित आर्थिक व्यवस्था को सीधे रूप से कोई फायदा नहीं पहुँचाता। ऐसे शिक्षित आदिवासियों को जीविका के लिये पलायन करने की नौबत आती ही है। इस शिक्षा व्यवस्था ने गांव को केन्द्र में रख कर विकास की अवधारणा नहीं रखी। गांव व्यवस्था में स्थित मानव, पशु, जल, जंगल जमीन, पहाड़ नदी आदि के बेहतर प्रबंधन में सोच नहीं जा पाया। इसके कारण पढ़ा-लिखा आदिवासी अपने लिये एक बेहतर कल अपने समाज से बाहर ही देखने की कोशिश करता रहा। इसका प्रभाव आदिवासी सामाजिक व्यवस्था पर पड़ी और वह क्षीण होने के कागार पर आया। अपने क्षेत्र के संसाधनों पर नयी दृष्टिकोण से विकास की बातें न करें तो इसका दूरगामी परिणाम समाज को पूरी तरह से विखंडित हो जाने के रूप में आयेगा।
ठीक इसी समय आदिवासी भूभागों में पाये जाने वाले खनिजों के दोहन से आदिवासी समाज के सामने विकराल समस्या के रूप में उभरी है। बड़े कल-कारखानों के लिये कुशल कामगारों के रूप में अपनी भूमिका निभाने के लिये समाज एकदम तैयार नहीं है। अगर उनके लिये कोई जगह है भी तो वह एक अकुशल मजदूर के रूप में ही। फिर भूअर्जन की प्रक्रिया के कारण आदिवासी अपने क्षेत्रों से पलायन करने के लिये बाध्य हो जाते हैं।
आदिवासी समुदायों की भूमिका विकास के मुख्यधारा में हो तो उनके विस्थापन और पलायन की नौबत नहीं आ सकती है। विकास के जितने भी उपक्रम आदिवासी इलाकों मे तय किये जाते हैं उनमें आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जाती है। इसलिये उन्हें अन्यत्र बसा देने या मुआवजा देने की सिर्फ बातें की जाती हैं। यही कारण है कि विकास के उपक्रमों को लेकर आदिवासी विरोध बहुत प्रखर हुआ है। छोटे, मझोले या वृहद किसी भी विकास के उपक्रमों पर भरोसा नहीं जताया जाता है। और जहॉं कहीं भी जमीन देने की बात आती है विरोध के स्वर उठने लगते हैं।
विकास के मापदंड के आंकड़ों पर अगर नजर डालें तो आदिवासी शिक्षा, स्वास्थ्य, आयु, जन्म के समय मृत्यु दर, सालाना आय आदि कई मापदंड़ों में नीचे के पायदानों पर पाये जाते हैं। इसके कारण वे बहुत सी बातों में आदिवासी शोषण के सहज ही शिकार बना लिये जाते हैं। बड़े उपक्रमों के अलावे जहॉं कहीं भी छोटे शहर या कस्बों का दबाव बढ़ने लगता है, वहॉं आदिवासी विभिन्न भूमाफियों द्वारा प्रताड़ित किये जाते हैं और उन्हें लगातार अपनी जमीन से बेदखल होना पड़ता है। ऐसे कितने ही मामले कोर्ट में पड़े हैं और न्याय की प्रतीक्षा में आदिवासी परिवारों को पलायन कर जाना पड़ता है।
चूँकि उनकी स्थिति मजबूत नहीं होती, आदिवासी महिलाएं विशेष कर बच्चियॉं मानव व्यापार के सहज शिकार हो जाते है। छल प्रपंच और प्रलोभन देकर कई संस्थाएं या दलाल सीधे-सादे आदिवासियों को मानव व्यापार के कॉरीडोर में ला खड़ा करते हैं। अपने सीधे स्वभाव के कारण आदिवासी सहज ही दलालों के झांसे में आ जाते हैं। सुनहरा सपना दिखाकर या ज्यादा पैसा कमाने का लोभ दिखाकर आदिवासी बालाओं को शहरों की कोठियों मे ढकेल दिया जाता है। घरेलू कामगार महिलाओं के रूप में आदिवासी समाज को कोई ख़ास इज्जत नहीं दिलायी है। इन्ही रास्ते से होकर कई लोगों को देह व्यापार के धंधे मे ढकेल दिया जाता है।
उम्मीद की गयी थी कि मनरेगा के माध्यम से ऐसे ग्रामीण महिलाओं को अपने घरों के ईद-गिर्द काम मिल पायेगा। लेकिन मनरेगा की स्थिति कई राज्यों में बहुत सुखद नहीं पायी गयी है। इसके तकनीकि पक्ष को पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है। अधिकतर विभागीय अधिकारी मनरेगा को लागू करने में कोई ख़ास रुचि नहीं दिखाते हैं। हॉंलाकि मनरेगा मानव अधिकार के साथ काम के अधिकार से जुड़ा है, फिर भी न्यायिक प्रक्रिया में बहुत से मामले नहीं पहॅंचते हैं, जिसके कारण संबंधित अधिकारियों को सुस्त हो जाने का मौका मिल जाता है। यदि ग्रामीण क्षेत्रों में ही रोजग़ार उपलब्ध, तो पलायन एक हद तक जो गरीबी या मजबूरी के कारण होता है, इसे रोका जा सकता है। यह बात सही है कि हाल के दिनों में मनरेगा को आजीविका से जोड़ा गया है। इसके फलस्वरूप कृषि कार्यों के अलावे मुर्गीपालन, मछलीपालन, सूअर पालन आदि व्यवसायों के साथ जोड़ा गया है। फिर भी सरकारी तंत्र किसी भी परियोजना को लागू करने में जितनी देरी कर देते हैं कि इस उबाऊ प्रक्रिया के कारण रहा-सहा जोश भी खत्म हो जाता है।
कुल मिलाकर कर कहा जा सकता है कि आदिवासी समुदाय मे पलायन एक विकराल समस्या के रूप में उभरा है| इसके निदान के लिये आदिवासी समाज को जीविका के नये विकल्पों को अपने ही इलाकों में तलाशने की जरूरत होगी। तभी समुदाय की प्रकृति और विरासत बच पायेगी। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं को इस दिशा में काम करने के लिये ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है।
लेखन:रंजीत पास्कल टोप्पो
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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