समय और स्थान की विभिन्नता के कारण प्रत्येक मानव जाति एवं समाज का अपना ‘मूलभूत वैचारिक प्रारूप’ होता है जिसकी धुरी पर उस समाज विशेष के धार्मिक, नैतिक और पारस्परिक संबंधों का ढाँचा टिका रहता है,
मूल वैचारिक- प्रारूप किसी एक व्यक्ति की बौद्धिक उपज नहीं अपितु सारे समाज का भौगोलिक एवं एतिहासिक पृष्ठभूमि पर यथार्थ का, समष्टिगत अनुभव, विश्लेषण एवं जीवन के दिशा निर्देशन का परिणाम है, किसी भी समाज की संस्कृति, इन्हीं मूल विचारों (जीवन के दर्शन) द्वारा निर्धारित होती है। किसी भी समाज की संस्कृति उस समाज के जीवन – दर्शन का दर्पण है जो मानवीय संबंधों को प्रतिविम्बित करता है।
करम – कथा के आधार पर आदिवासी संस्कृति के निम्नलिखित मूलभूत वैचारिक प्रारूप है।
1. ईश्वर
2. आत्माएं
3. प्रकृति
4. जाति
5. यूगान्तक प्रत्याशा
धर्मेस, सिंगबोंगा, पोनोमेसोर, ठाकुर जी, ईश्वर के विभिन्न जातिगत नाम है जो क्रमश: उरांव, मूडा, खड़िया और संथाल जातियों द्वारा व्यवहृत किए जाते हैं। ये उस अस्तित्व (शक्ति) के व्यक्तिवाचक नाम है जो समस्त सृष्टि का सर्जक, पालक, और अंतिम लक्ष्य मन जाता है। ईश्वर ही सम्पूर्ण जड़ चेतन के अस्तित्व का अर्थ है। आदिवासी मिथकों में ईश्वर को एक अनुभवी बुजुर्ग (आज्जो) के रूप में चित्रित किया गया है जो निहायती अंतरंग मानवीय संबंध का बोधक है। ईश्वर का यह मानवीय रूप जाति के पारिवरिक संबंध को इंगित करता है। जैसे एक दादा (आजा) का संबंध अपने नाती- पोतों से रहता है वैसे ही ईश्वर समस्त सृष्टि, विशेष कर मानव जाति का ‘आजा’ बनकर अपने बच्चों की हंसी- खुशी में उम्र जनित भेद मिटाकर सम्मिलित होता, उनकी गलती,बदमाशी, चुहलबाजी या स्वार्थ को नजरअंदाज कर सदैव उनके हित की सोचता। उन्हें प्यार और भाईचारे में रहना सिखाता जीवन की हर परिस्थति में उनका मार्गदर्शन करता, उनकी हित की हर परिस्तिथि में उनका मार्गदर्शन करता, उनकी कार्य- कुशलता स्वयं अपनी निगरानी में बढ़ाता, अच्छे- बुरे का ज्ञान देता, पारिवारिक संबंध (पूर्वज, माता- पिता, भाई- बहन) और जातिगत संबंध में उचित संतुलन कायम रखता है।
ईश्वर का प्रारूप मालिक या निरंकुश शासक का नहीं अपितु एक सहचर, हम उम्र दोस्त जैसे है जो जीवन के खेल में मनुष्य जाति का पक्ष लेकर उनको हर कठिनाई का सामना करने के लिए दांव- पेंच सिखाता, उनकी हार-जीत, सूख-दुख में शरीक होता है।
पितृ- प्रधान जाति होने के कारण ईश्वर की प्रकृति पुरूष जैसी है। वो तमाम पुरूषोचित गुण जैसे- प्रज्ञा, प्यार, आदि निहित है। वह नारी और नरी का अद्वैत समीकरण है। आदिवासी ईश मिमांसनूसार ईश्वर मानव रूप लेकर ही प्रकट होता है। असुर कहानी में अपनी शक्ति एवं सम्पन्नता के दर्प से चूर्ण असुरों को सबक सिखाने के लिए ईश्वर ‘खसरा-खुसरू’ लड़के के वेश में आता है। मानव जाति के साथ सम्पर्क रखने के लिए वे प्राय: सर्वज्ञानी, सर्वशक्ति सम्पन्न, चिरंजीवी बूढ़े के रूप में प्रकट होता है। ईश्वर का प्रारूप, स्वभाव या विशेषता कुछ भी हो वही सारी सृष्टि का आदि और अंत माना जाता है।
भौतिक अभौतिक, शक्तियाँ, के मानवीयकृत रूप को आदिवासी ‘आत्मा’ की संज्ञा देते है । प्रकृति की गोद में पलते-बढ़ते मनुष्य ने इसके अनेक रूप देखे। एक ओर आंधी, तूफ़ान, बाढ़ का प्रलयंकारी तांडव देखा तो दूसरी ओर नित्य नवजीवन से प्रस्फूटित होती वसुंधरा, कल-कल बहते झरनों का सरगम और वन्य जीव जन्तुओं से समृद्ध सांसर को पाया। सूख- दु:ख, जीवन- मृत्यु के अंतहीन क्रम के पीछे उसने अदृश्य शक्ति की स्पष्ट छाप देखी। समस्त विश्वमंडल को संचालित करने वाली अदृश्य शक्ति को उसने ईश्वर की संज्ञा दी। इसके अतिरिक्त जड़ चेतन में निहित जीवात्मा को उसने उनकी नैसर्गिक विशेषता के अनुसार दो वर्गों में बांटा जो निम्नलिखित है :-
जीवनदायी शक्ति से अनुप्राणित प्राकृतिक- अप्राकृतिक प्रतीक जो मनुष्य के अस्तित्व की सुरक्षा एवं समृद्धि के लिए उपयोगी है। जैसे- सूर्य, चन्द्रमा, पेड़, नदी, पहाड़, आदि। हितकारी आत्माओं को पुन: दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है – प्राकृतिक आत्माएं और अप्रकृतिक आत्माएं।
प्राय: सभी जातियाँ प्रकृति के हर रूप में आत्माओं की उपस्थिति पर विश्वास करती है। अप्रकृतिक आत्माएं मानव चेतना द्वारा निर्मित शक्ति सिद्धांत है। उदाहरणार्थ ‘बंढ़दा नाद’ सुरक्षा की कामना से उपजी वह शक्ति (आत्मा) जो गाँव और जाति को हर हानि से बचाती है। सिर्फ ‘बड़दा नाद’ पुरूष प्रकृति का है। यह सभी आत्माओं पर निगरानी रखता तथा ईश्वर और मनुष्य के बीच मध्यस्थता का काम करता है। मिसका कोई भौतिक या वनस्पतिक रूप नहीं है। गाँव की सीमा से होकर अंदर आते रास्ते पर इसका निवास स्थान है। एक तरह से यह गाँव का सजग प्रहरी है। अनजान, अहितैषी आत्माओं से गाँव की रक्षा करना इसका प्रथम दायित्व है। इसी तरह आत्माएं भी एक विशिष्ट मानसिक प्रवृति की उपज है।
जिस तरह सूख, भौतिक समृद्धि, सामुदायिक सम्पन्नता प्राकृतिक के माध्यम से ईश्वर प्रदत्त वरदान समझ जाते हैं उसी प्रकार दु:ख, विपन्नता, मानसिक शारीरिक कष्ट, बीमारी ईश्वर द्वारा स्वीकृत प्रकोप माने जाते है। आदिवासी समाज इन अहितकारी परिणामों का कारण या उदगम –अहितैषी आत्माओं को मानते है। बुरी आत्माओं को भी दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। प्राकृतिक और अप्राकृतिक।
अहितैषी प्राकृतिक आत्माओं की उत्पति का वर्णन असुर कहानी में मिलता है। घमंडी असुरों का दर्प चूर्ण करने के बाद ईश्वर जब स्वर्ग की ओर उठने लगे तो असुर स्त्रियों ने उन्हें पकड़ लिया और पुछा। हमें कौन पलेगा? उन्हें झटककर अपने को छुड़ाते हुए ईश्वर ने उत्तर दिया। जाओं जहाँ कहीं भी तुम गिरोगी मानव जाति तुम्हारे आहार का प्रबंध करेगी। इस कथानक द्वारा यह दर्शाने की कोशिश की गयी है कि बुरी आत्माओं को प्रकृति यथोचित आहार या सत्कार न पाने पर ही हानि पहूँचाने की है। उन्हें संतुष्ट रखना प्रतिकूल प्राकृतिक परिस्थितियों से समझौता करने की भावना है। अच्छाई – बुराई सूख-दु:ख, रोग–निरोग जीवन के दो पहलू है। बुरी आत्माओं को शांत रखने की लिए पूजा पाठ या दान-दक्षिण देना भले ही अंधविश्वास समझा जाए प्रकृति से अन्योन्याश्रय संबंध रखना और सूक्ष्म तथा स्थूल दोनों स्तरों पर संबंधों का समन्वय कायम रखना एक संवेदनशील चेतना का प्रमाण है।
अहितकारी प्रकृतिक आत्माओं का कोई मूर्त रूप नहीं होता। यह मनुष्य की असुरक्षा भावना का मानवीयकरण है।
जैसे ‘चोरदेवा’ ‘कट्टू-नाद’ आदि का कोई मौलिक अस्तित्व नहीं है। इनकी खुशामद करते रहना किसी प्रकार की भौतिक हानि से बचने केलिए आवश्यक नहीं है। मूल अर्थ में प्रकृति और मनुष्य के संबंध में ऐसा समन्वय होना चाहिए कि सुख-दु:ख, लाभ- हानि, अच्छाई – बुराई के बीच उचित संतुलन कायम रहे।
इनके अतिरिक्त आत्माओं की एक और श्रेणी है जिसे मैंने यूगान्तक प्रत्याशा शीर्षक के अंतर्गत श्रेणीबद्ध किया है क्योंकी ‘पूर्वजों की आत्माएं’ मनुष्य के लौकिक- परलौकिक जीवन - अवस्था से संबंध रखती है।
प्रकृति और मनुष्य के बीच अन्योन्याश्रय संबंध है। प्रकृति के बिना मानवीय अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती न मानव रहित सृष्टि का कोई अर्थ हो सकता है। प्रकृति का तात्पर्य समस्त भौतिक अस्तित्व से है। मनुष्य भी प्रकृति, मनुष्य के बाह्य एवं आन्तरिक स्थिति का दर्पण है। दोनों के बीच इतना गहरा संबंध है कि किसी प्रकार का बाह्य असंतुलन मनुष्य के आन्तरिक (मानसिक-आत्मिक) समीकरण को प्रभावित किये बिना नहीं रहता। मनुष्य के वैयक्तिक और सामूहिक संबंधों में आया बिखराव संतुलन का बिगाड़ देता है। करम महोत्सव का यही बुनियादी सैद्धांतिक आधार है।
आदिवासी दृष्टिकोण से कोई भी प्राकृतिक प्रकोप जैसे महामारी बाढ़ अनावृष्टि आंधी- तूफ़ान मनुष्य द्वारा निष्पदीत- कर्त्तव्य की अवहेलना का परिणाम है। सृष्टि के कण- कण में आत्माओं की उपस्थिति पर विश्वास करना आज के वैज्ञानिक युग में बेहद हास्यापद लगता है किन्तु सभ्य कहलाने वाली मानव जाति ने पर्यावरण संतूलन की घोर अवहेलना करके पृथ्वी को जीव रहित मरूस्थल बनाने का कूकर्म उससे भी अधिक निंदनीय है। आदिवासी दर्शन सबके लिए एक सबक है। वनीं का विनाश, मशीनों, मोटर गाड़ियों, कल- कारख़ानों से निकलता जहरीला रसायन, खनिज पदार्थों का अंतहीन अवैज्ञानिक खनन, विशालकाय बांधों का निर्माण करके मनुष्य, जीव जन्तुओं और वनस्पति का सफाया, सृष्टि की हत्या ही नहीं, सृष्टिकर्त्ता की योजना का निरादर करना है। अल्पकालीन स्वार्थ – पूर्ति के लिए आत्मा-हत्या है। मानवता के विरूद्ध अक्षमनीय अपराध है। करम पर्व के संदेश की महत्ता ऐसी परिस्थिति में और भी बढ़ जाती है।
जाति मनुष्य की व्यक्तिगत पहचान है। जाति या समाज के बिना व्यक्ति अपने व्यक्तिगत का समुचित विकास नहीं कर सकता। आदिवासी समाज में किसी व्यक्ति की पहचान उसके व्यक्तिगत प्रतिभा या गुण से कम जाति एवं वंश की विशेषता से अधिक होती है। समाज समष्टिगत पहचान और व्यक्तिगत अस्मिता का प्रारंभिक एवं अंतिम मापदंड है। कूल की समृद्धि समस्त जाति की सूख समृद्धि समझी जाती है, एक परिवार का दु:ख – दर्द सारे गाँव के लिए चिंता का विषय बनता है व्यक्ति की सफलता समूचे खानदान के लिए गर्व का कारण बनता है। समानता, भाईचारा सहयोग, ईमानदारी आदिवासी व्यक्ति विशेष की नहीं सम्पूर्ण जाति के मूल्य सूचक गुण सूचक गुण है।
जाति, कुल, और वंश की सुरक्षा, शुद्धता एवं निरंतरता कायम रखने के लिए पारम्पारिक रीति-रस्म, नियम- कानून और नैतिक मर्यादाओं का पालन पूरी निष्ठा से की जाती है।
स्रोत : झारखण्ड समाज संस्कृति और विकास/ जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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