आदिवासी समाज के कुछ सामाजिक मूल्य होते हैं, कुछ अभिव्यक्त करने के साथ-साथ, एक प्रतीकात्मक क्रिया का, यद्यपि हमेशा नहीं, यह एक सहायक पक्ष है। अब जिसे हम व्यवहारिक कहते है, कार्यो को करने की आम- बुद्धि तकनीक, तथा धार्मिक अनुष्ठान या उन्हें करने की जादू- धार्मिक विधि के बीच मुख्य अंतर बुनियादी तौर पर जो कार्य किया जाता है
प्रतीकात्मकता को एक प्रकार की भाषा, कुछ कहने का एक तरीका के रूप में समझा जा सकता है। इसमें एक प्रकार का प्रतीकात्मक व्यवहार निहित है, एक संस्थागत प्रतीकात्मक तत्व की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति में निहित है (बीटी 1997(1964: 202) । आशा है की आदिवासी प्रतीकात्मकता पर आने वाले विचार – विमर्श में यह स्पष्ट होगा। यह दस्तावेज झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ मूल के कुछ मुख्य आदिवासी समूहों के सन्दर्भ में लिखा गया है। यहाँ दर्शाए गए कुछ अवलोकन अन्य आदिवासियों (मूल निवासी), अथवा देश के आदिवसियों पर भी लागू हो सकते हैं परन्तु किसी भी हाल में वे सबके लिए आम नहीं हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रत्येक आदिवासी समूह अनोखा है, इस कारण इसका प्रतीकात्मक व्यवहार भी अन्य आदिवासियों की तुलना विशिष्ट होने को बाध्य है।
आदिवासी समाज में प्रचलित प्रमुख सामाजिक रीति-रिवाजों का यहाँ उल्लेख किया गया है। यह रिवाज़ उनके सदियों से चले आ रही परम्पराओं का अभिन्न हिस्सा है, जिसे उन्होंने आज भी जीवंत रखा है।
आदिवासी विभिन्न गोत्रों (कुलों) में विभाजित हैं। प्राचीन काल कुछ वृक्षों, पशु, मछली, चिड़िया अथवा खनिज की प्रजातियाँ कुछ व्यक्तियां कुछ असामन्य अथवा व्यक्तियों के समूह के लिए कुछ असामान्य स्थितियों में भले और सहायक साबित हुए ( बेक 1998:70)। तदनुसार इन सहायक जीवों अथवा वस्तुओं के नाम के तहत उन लोगों ने स्वयं को समूह बद्ध करके एकत्रित कर लिया और उन्हें अपने कूल/वंश के टोटेम (गण चिन्ह) के रूप में अपना लिया। शब्द ‘टोटेम’ एक उत्तरी अमेरिकी इंडियन भाषा से आता है, परंतु पशु अथवा पौधों की प्रजातियाँ एवं कभी- कभी अन्य वस्तुएँ जिन्हें एक समाज के विशेष समूह द्वारा विशिष्ट सम्मान दिया जाता है, के संदर्भ में इसका व्यापक प्रयोग किया जाता रहा है (बीटी 219) जीव अथवा वस्तु जो किसी के टोटेमवादी कूल का अंग होता है, का आदर आदर किया जाता है और उस व्यक्ति द्वारा उसे नष्ट नहीं किया जाता। धार्मिक स्तर पर यह व्याख्या दी जाती है कि ‘परमसत्ता’ ने स्वयं आदिवासियों को विभिन्न टोटेमवादी गोत्रों में विभक्त होने में सहायता की (भगत 2-3, लकड़ा 1984:55)। तथापि किसी के मिथकीय पूर्वज के रूप में किसी भी टोटेम के नाम पर कोई धार्मिक पूजा नहीं होती है। एक विशेष गोत्र के सदस्य स्वयं को एक परिवार के एक ही पूर्वज के वशंज मानते हैं। यही कारण है कि वे एक ही गोत्र के अंतर्गत विवाह नहीं करते जो उनके द्वारा कौटूम्बिक – व्यभिचार माना जाता है और इस कारण वे अंतर- गोत्र विवाह का व्यवहार करते हैं। इस प्रकार आदिवसियों के बीच टोटेमवादी गोत्र प्रणाली एक विशिष्ट गोत्र समुदाय की एकता को मजबूत करता है और इसके साथ ही अन्य गोत्र समुदायों के अंतर्गत इनकी गोत्र नियमों के माध्यम से एकता का निर्माण करता है ।
पृथ्वी को स्वरूप देने के बाद ‘परमसत्ता’ ने मिट्टी से अनेक मनुष्यों को बनाया और उनमें प्राण भर दिया। उसने अन्य सजीव वस्तुओं को भी बनाया, धरती की सतह पर पौधे और पेड़ बनाए। मनुष्य अनके गुणा बढ़ गए और पृथ्वी के समस्त छोर में भर गए। एक परम्परा के अनुसार “परमसत्ता” एक दिन अपने पालतू बाज पक्षी की सहायता से चिड़ियों का शिकार करने के लिए बाहर गए। बहरहाल, मार्ग में जाते हुए उन्होंने पाया कि मनुष्यों ने अपने मल साथ पृथ्वी को गन्दा कर दिया था। प्रतीकात्मक रूप में यह एक गंभीर क्रिया थी जिसने परम सत्ता को अत्यधिक अप्रसन्न कर दिया। अन्य परम्पराएं भी मनुष्य द्वारा परमसत्ता के विरूद्ध बुरे कर्मों एवं व्यवहार से अप्रसन्न होकर उन्होंने (परमसत्ता) सात दिन और रात तक आग की वर्षा भेजकर उन्हें नष्ट कर दिया। भईया – बहिन को छोड़ जिन्हें उनकी (परमसत्ता) परम प्रिय ने पहले अपने कोष के जुड़े में छुपाकर रखा तथा बाद में एक खेत केंकड़ा – छेद में, सभी मनुष्य नष्ट हो गए। उसने (परम प्रिय) उन्हें (परमसत्ता) सबक सिखाने के लिए ऐसा किया क्योंकी उन्होंने ( परमसत्ता) मनुष्यों को नष्ट होने के साथ ही परमसत्ता और उनकी परम प्रिय की लिए भोजन की आपूर्ति बंद हो गई तब तक उन्होंने (परमसत्ता) भईया- बहिन को अनेक दिनों की खोज और भूख के बाद खोज कर न निकाला और उनको अपने घर ले आए ( लकड़ा : 39-49)। उनकी (परमसत्ता) परमप्रिय ने उनका स्वागत मातृ- स्नेह के साथ किया और सप्रेम उनके पाँव धोए। भईया – बहिन के मिल जाने के साथ, उनके परमसत्ता) और उनकी परमप्रिय के लिए भोजन पुन: उपलब्ध हो गया था। आदिवासियों जे बीच परिवार के सदस्यों, संबंधियों, मित्रों एवं अतिथियों के पाँव धोने का रिवाज, इस तरह से इस पौराणिक विवरण में, इसकी एक व्याख्या है।
जहाँ जल शुद्धिकरण का प्रतीक है, जो भी हो चूंकि यह जीवन देता था जीवन को बनाए रखता है यह जीवन प्रतीक भी है। उपरोक्त विवरण से उत्पन्न हुआ कि जो गन्दा और बुरा है उसे अग्नि जलाकर नष्ट करके शुद्ध करता है। तथापि विध्वंस के बाद, भले के लिए कुछ नया जन्म लेता है। इस प्रकार यह रूपांतरण का भी प्रतीक है।
असुरों का एक समुदाय उत्पन्न हुआ जो दिन रात लोहा पिघलाते थे। यह कार्य इतना अधिक ताप एवं धुवां उत्पन्न करता था कि पृथ्वी की समस्त हरियाली मुरझाने लगी। परमसत्ता के घोड़ों ने भी अपना चारा खाना बंद कर दिया। उन्होंने (परमसत्ता) अनेक चिड़ियों (संदेशवाहक) को असुरों को यह कहने के लिए भेजा कि उन्हें या तो दिन में कार्य करना चाहिए अथवा रात्रि परंतु दिन – रात नहीं। असुर घमंडी और जिद्दी थे। उन्होंने सन्देशवाहकों की नहीं सुनी। इसके विपरीत उन्होंने उनका अपमान किया और उनके साथ बहुत बुरी तरह से पेश आए। तब परमसत्ता स्वयं एक बालक जिसके सम्पूर्ण शरीर में घाव भरे थे, के छद्मवेश में स्वयं उनके पास चले आए। उन्होंने उनकी भट्टियों को धीमी गति से कार्य करने वाला कर दिया। जब पुछा गया तो उनहोंने उनको बताया कि भट्टियों के पुन: ठीक से काम करने के लिए एक नर-बलि की आवश्यकता है। उनहोंने उनकी (परमसत्ता) बलि के लिए स्वेच्छा से स्वयं को अर्पित किया और असुरों की स्त्रियों को निर्देश दिया कि जब वे (परमसत्ता) भट्ठी के अंदर रहें तो वे (स्त्रियाँ) सात दिन और रात अपनी धौकनियां (भट्ठी) को प्रचंडता से चलाते रहें। इसके बाद मिट्टी के सात नए घड़ों में पानी लाकर आप के पत्तियों के एक गुच्छे से पानी का छिडकाव कर उन्हें आप बुझा देनी चाहिए (भगत 1988:46)। उन्होंने ऐसा ही किया और देखो जिस बालक का शरीर घावों से भरा था वह भट्ठी में से अपने साथ ढेर सारा सोना लिए हुए एक ‘स्वर्ण – बालक’ के रूप में रूपांतरित होकर बाहर निकल आया। यही कारण है की आदिवासी व्यक्तियों, पालतू पशुओं, फसलों और अपने उपयोग की आय सामग्रियों पर आम की पत्तियां से पवित्र जल का छिडकाव करते हैं ताकि उन्हें उन वस्तुओं पर परमसत्ता से बहुतायत की आशीष मिल सके जो मानवीय लोभ और घमंड को अनुचित ठहराते है, जैसे कि असुरों के उदाहरण में दर्शाया गया है।
स्रोत: झारखण्ड समाज संस्कृति और विकास/ जेवियर समाज सेवा संस्थान. राँची
अंतिम बार संशोधित : 2/28/2020
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