ग्रामीण क्षेत्रों में ऊर्जा की माँग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। वर्तमान में ऊर्जा का उपयोग मुख्य रूप से खाना बनाने, प्रकाश की व्यवस्था करने और कृषि कार्य में किया जा रहा है। 75 प्रतिशत ऊर्जा की खपत खाना बनाने और प्रकाश करने हेतु, उपयोग में लाया जा रहा है। ऊर्जा प्राप्त करने के लिए बिजली के अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर उपलब्ध जैव ईंधन एवं केरोसिन आदि का भी उपयोग ग्रामीण परिवारों द्वारा बड़े पैमाने पर किया जाता है। कृषि क्षेत्र में ऊर्जा का उपयोग मुख्यतः पानी निकालने के काम में किया जाता है। इन कार्यों में बिजली और डीज़ल भी उपयोग में लाया जा रहा है। देश में कृषि कार्यों में मानव शक्ति बड़े पैमाने पर व्यर्थ चला जाता है। यद्यपि ऊर्जा उपयोग का स्तर गाँव के भीतर अलग-अलग है, जैसे अमीर और गरीबों के बीच, सिंचाईपरक भूमि और सूखी भूमि के बीच, महिलाओं और पुरुषों के बीच आदि।
भारत की लगभग 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। यदि हमें वर्तमान विकास की गति को बरकरार रखना है तो ग्रामीण ऊर्जा की उपलब्धता को सुनिश्चित करना सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है। अब तक हमारे देश के 21 प्रतिशत गाँवों तथा 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों तक बिजली नहीं पहुँच पाई है।
ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत में काफी अंतर है। उदाहरण के लिए 75 प्रतिशत ग्रामीण परिवार रसोई के ईंधन के लिए लकड़ी पर, 10 प्रतिशत गोबर की उपालियों पर और लगभग 5 प्रतिशत रसोई गैस पर निर्भर हैं। जबकि इसके विपरीत, शहरी क्षेत्रों में खाना पकाने के लिए 22 प्रतिशत परिवार लकड़ी पर, अन्य 22 प्रतिशत केरोसिन पर तथा लगभग 44 प्रतिशत परिवार रसोई गैस पर निर्भर हैं। घर में प्रकाश के लिए 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवार केरोसिन पर तथा अन्य 48 प्रतिशत बिजली पर निर्भर हैं।
जबकि शहरी क्षेत्रों में इसी कार्य के लिए 89 प्रतिशत परिवार बिजली पर तथा अन्य 10 प्रतिशत परिवार केरोसिन पर निर्भर हैं। ग्रामीण महिलाएँ अपने उत्पादक समय में से लगभग चार घंटे का समय रसोई के लिए लकड़ी चुनने और खाना बनाने में व्यतीत करती हैं लेकिन उनके इस श्रम के आर्थिक मूल्य को मान्यता नहीं दी जाती।
देश के विकास के लिए ऊर्जा की उपलब्धता एक आवश्यक पूर्व शर्त्त है। खाना पकाने, पानी की सफाई, कृषि, शिक्षा, परिवहन, रोज़गार सृजन एवं पर्यावरण को बचाये रखने जैसे दैनिक गतिविधियों में ऊर्जा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
ग्रामीण क्षेत्रों में उपयोग होने वाले लगभग 80 प्रतिशत ऊर्जा बायोमास से उत्पन्न होता है। इससे गाँव में पहले से बिगड़ रही वनस्पति की स्थिति पर और दबाव बढ़ता जा रहा है। गैर उन्नत चूल्हा, लकड़ी इकट्ठा करने वाली महिलाएँ एवं बच्चों की कठिनाई को और अधिक बढ़ा देती है। सबसे अधिक, खाना पकाते समय इन घरेलू चूल्हों से निकलने वाला धुंआँ महिलाओं और बच्चों के श्वसन तंत्र को काफी हद तक प्रभावित करता है।
अक्षय ऊर्जा प्राकृतिक प्रक्रिया के तहत सौर, पवन, सागर, पनबिजली, बायोमास, भूतापीय संसाधनों और जैव ईंधन और हाइड्रोजन से लगातार अंतरनिहित प्राप्त होती रहती है।
सूर्य ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत है। यह दिन में हमारे घरों में रोशनी प्रदान करता है कपड़े और कृषि उत्पादों को सुखाता है हमें गर्म रखता है इसकी क्षमता इसके आकार से बहुत अधिक है।
लाभ
हानियां
सौर्य ऊर्जा का उपयोग बिजली उत्पादन के लिए किया जा सकता है। सोलर फोटोवोल्टेइक सेल के माध्यम से सौर विकिरण सीधे डीसी करेन्ट में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार, उत्पादित बिजली का उसी रूप में इस्तेमाल किया जा सकता या उसे बैटरी में स्टोर/जमा कर रखा जा सकता है। संग्रह किये गये सौर ऊर्जा का उपयोग रात में या वैसे समय किया जा सकता जब सौर्य ऊर्जा उपलब्ध नहीं हो। आजकल सोलर फोटोवोल्टेइक सेल का, गाँवों में घरों में प्रकाश कार्य, सड़कों पर रोशनी एवं पानी निकालने के कार्य में सफलतापूर्वक उपयोग किया जा रहा है। पहाड़ी क्षेत्रों में सौर ऊर्जा का उपयोग पानी गर्म करने में भी किया जा रहा है।
पवन स्थल या समुद्र में बहने वाली हवा की एक गति है। पवन चक्की के ब्लेड जिससे जुड़े होते है उनके घुमाने से पवन चक्की घुमने लगती है जिससे पवन ऊर्जा उत्पन्न होती है । शाफ्ट का यह घुमाव पंप या जनरेटर के माध्यम से होता है तो बिजली उत्पन्न होती है। यह अनुमान है कि भारत में 49,132 मेगावॉट पवन ऊर्जा का उत्पादन करने की क्षमता है।
लाभ
नुकसान
पौधों प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के माध्यम सौर ऊर्जा का उपयोग बायोमास उत्पादन के लिए करते हैं। इस बायोमास का उत्पादन ऊर्जा स्रोतों के विभिन्न रूपों के चक्रों से होकर गुजरता है। एक अनुमान के अनुसार भारत में बायोमास की वर्तमान उपलब्धता 150 मिलियन मीट्रिक टन है। अधिशेष बायोमास की उपलब्धता के साथ, यह उपलब्धता प्रति वर्ष लगभग 500 लाख मीट्रिक टन होने का अनुमान है।
बायोमास सक्षम प्रौद्योगिकियों के कुशल उपयोग द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित हो रहा है। इससे ईंधन के उपयोग की दक्षता में वृद्धि हुई है। जैव ईंधन ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है जिसका देश के कुल ईंधन उपयोग में एक-तिहाई का योगदान है और ग्रामीण परिवारों में इसकी खपत लगभग 90 प्रतिशत है। जैव ईंधन का व्यापक उपयोग खाना बनाने और उष्णता प्राप्त करने में किया जाता है। उपयोग किये जाने वाले जैव ईंधन में शामिल है- कृषि अवशेष, लकड़ी, कोयला और सूखे गोबर।
लाभ
स्थानीय रूप से उपलब्ध और कुछ हद तक बहुत ज़्यादा।
जीवाश्म ईंधन की तुलना में यह एक स्वच्छ ईंधन है। एक प्रकार से जैव ईंधन, कार्बन डायऑक्साइड का अवशोषण कर हमारे परिवेश को भी स्वच्छ रखता है।
हानि
ईंधन को एकत्रित करने में कड़ी मेहनत।
खाना बनाते समय और घर में रोशनदानी (वेंटीलेशन) नहीं होने के कारण गोबर से बनी ईंधन वातावरण को प्रदूषित करती है जिससे स्वास्थ्य गंभीर रूप से प्रभावित होता।
जैव ईंधन के लगातार और पर्याप्त रूप से उपयोग न करने के कारण वनस्पति का नुकसान होता है जिसके चलते पर्यावरण के स्तर में गिरावट आती है।
जैव ईंधन के उत्पादक प्रयोग हेतु प्रौद्योगिकी
जैव ईंधन के प्रभावी उपयोग को सुरक्षित करती प्रौद्योगिकियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में फैल रहीं हैं।
ईंधन उपयोग की क्षमता निम्नलिखित कारणों से बढ़ाई जा सकती है -
विकसित डिज़ाइन के स्टोवों का उपयोग, जो क्षमता को दोगुणा करता है जैसे धुँआ रहित ऊर्जा चूल्हा।
जैव ईंधन को सम्पीड़ित/सिकोड़कर (कम्प्रेस) ब्रिकेट के रूप में बनाये रखना ताकि वह कम स्थान ले सके और अधिक प्रभावी ढंग से कार्य कर सके।
जैव वस्तुओं को एनारोबिक डायजेशन के माध्यम से बायोगैस में रूपांतरित करना जो न केवल ईंधन की आवश्यक्ताओं को पूरा करता है बल्कि खेतों को घुलनशील खाद भी उपलब्ध कराता है।
नियंत्रित वायु आपूर्ति के अंतर्गत जैव ईंधन के आंशिक दहन के माध्यम से उसे उत्पादक गैस में रूपांतरित करना।
जैव ईंधन
जैव ईंधन मुख्यत: सम्मिलित बायोमास से उत्पन्न होता है अथवा कृषि या खाद्य उत्पाद या खाना बनाने और वनस्पति तेलों के उत्पादन की प्रक्रिया से उत्पन्न अवशेष और औद्योगिक संसाधन के उप उत्पाद से उत्पन्न होता है। जैव ईंधन में किसी प्रकार का पेट्रोलियम पदार्थ नहीं होता है किन्तु इसे किसी भी स्तर पर पेट्रोलियम ईंधन के साथ जैव ईंधन का रूप भी दिया जा सकता है। इसका उपयोग परंपरागत निवारक उपकरण या डीजल इंजन में बिना प्रमुख संशोधनों के साथ उपयोग किया जा सकता है। जैव ईंधन का प्रयोग सरल है। यह प्राकृतिक तौर से नष्ट होने वाला सल्फर तथा गंध से पूर्णतया मुक्त है।
बहता पानी और समुद्र ज्वार ऊर्जा के स्रोत हैं। जनवरी 2012 में लघु पन बिजली के संयत्रों ने ग्रिड इंटरेक्टिव क्षमता में 14% योगदान दिया । लघु पन बिजली परियोजनाओं में बड़ी परियोजनाओं पर भारी निवेश किया जाता है। हाल के वर्षों में, पनबिजली ऊर्जा (मध्यम और छोटे पनबिजली संयंत्र) का उपयोग दूरदराज के अविद्युतीकृत गांवों तक बिजली पहुंचने के लिए प्रयोग किया जाता है। लघु जल विद्युत की अनुमानित क्षमता देश में लगभग 15,000 मेगावाट है।वर्ष 2011-12 के दौरान, लघु जल विद्युत परियोजनाओं (3MW तक) की स्थापित क्षमता 258 मेगावाट के बराबर रही है।
भूतापीय ऊर्जा पृथ्वी से उत्पन्न गर्मी है। प्रकृति में प्रचलित गर्म जल के फव्वारे हैं जो भूतापीय ऊर्जा स्रोतों की उपस्थिति के लिए निदेशक का काम रूप में काम करते हैं। भारत में 340 से अधिक गर्म जल के फव्वारे हैं जिनका दोहन होना अभी बाकी है।
नाभिकीय ऊर्जा ऐसी ऊर्जा है जो प्रत्येक परमाणु में अंतर्निहित होती है। नाभिकीय ऊर्जा संयोजन (परमाणुओं के संयोजन से) अथवा विखंडन (परमाणु-विखंडन) प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न की जा सकती है। इनमें विखंडन की प्रक्रिया व्यापक रूप से प्रयोग में लाई जाती है।
नाभिकीय विखंडन प्रक्रिया के लिए यूरेनियम एक प्रमुख कच्चा पदार्थ है। दुनियाभर में यह कई स्थानों से खुदाई के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। इसे संसाधित कर छोटी गोलियों में बदला जाता है। (संवर्धित यूरेनियम अर्थात्, रेडियो सक्रिय आइसोटोप प्राप्त करने हेतु)। इन गोलियों को लंबी छ्ड़ों में भरकर ऊर्जा इकाईयों के रिएक्टर में डाला जाता है। परमाणु ऊर्जा इकाई के रिएक्टर के अंदर यूरेनियम परमाणु नियंत्रित श्रृंखला अभिक्रिया (कंट्रोल्ड चेन रिएक्शन) द्वारा विखंडित किये जाते हैं। विखंडित होकर बनने वाले अन्य पदार्थों में प्लूटोनियम तथा थोरियम शामिल हैं।
किसी श्रृंखला अभिक्रिया में परमाणु के टूटने से बने कण अन्य यूरेनियम परमाणुओं पर प्रहार करते हैं तथा उन्हें विखंडित करते हैं। इस प्रक्रिया में निर्मित कण एक श्रृंखला अभिक्रिया द्वारा पुनः अन्य परमाणुओं को विखंडित करते हैं। यह प्रक्रिया बड़ी तीव्र गति से न हो इसके लिए नाभिकीय ऊर्जा प्लांट में विखंडन को नियंत्रित करने के लिए नियंत्रक रॉड का प्रयोग किया जाता है। इन्हें मंदक (मॉडरेटर) कहते हैं।
श्रृंखला अभिक्रिया द्वारा ऊष्मा ऊर्जा मुक्त होती है। इस ऊष्मा का प्रयोग रिएक्टर के कोर में स्थित भारी जल को गर्म करने में किया जाता है। इसलिए नाभिकीय ऊर्जा प्लांट परमाण्विक ऊर्जा को ऊष्मा ऊर्जा में बदलने के लिए किसी अन्य इंधन को जलाने की बजाय, श्रृंखला अभिक्रिया द्वारा उत्पन्न ऊर्जा का प्रयोग करता है। नाभिकीय कोर के चारों तरफ फैले भारी जल को ऊर्जा प्लांट के अन्य खंड में भेजा जाता है। यहां यह जल से भरे पाइपों के दूसरे सेट को गर्म कर भाप पैदा करता है। पाइपों के इस दूसरे सेट से उत्पन्न वाष्प का प्रयोग टर्बाइन चलाने में किया जाता है, जिससे बिजली पैदा होती है।
नाभिकीय ऊर्जा के लाभ
नाभिकीय ऊर्जा के दोष
कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों हैं। पौधों के उत्पाद हजारों साल दबे रहे थे जिन्हें धीरे-धीरे पृथ्वी से निकाला जाता है जो जीवाश्म ईंधन कहलाते हैं। जीवाश्म ईंधन आज मुख्य रूप से इस्तेमाल ऊर्जा के स्रोत हैं। भारत लगभग 286 अरब टन (मार्च 2011) के अनुमानित भंडार के साथ दुनिया में कोयले का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। कोयला देश के कुल ऊर्जा जरूरतों का 50% से अधिक की पूर्ति करता है। भारत में सालाना 210 लाख टन के बराबर कच्चे तेल की खपत होती है।
स्रोतः http://edugreen.teri.res.in
अंतिम बार संशोधित : 3/3/2020
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