बिजली के क्षेत्र में अनुसंधान की व्यापक संभावनायें हैं। हम आज भी लगभग उसी आधारभूत तरीके से बिजली उत्पादन व वितरण कर रहे हैं जिस तरीके से सौ बरस पहले कर रहे थे। दुनिया की सरकारों को चाहिये कि बिजली के क्षेत्र में अन्वेषण का बजट बढ़ायें। वैकल्पिक स्त्रोतों से बिजली का उत्पादन, बिना तार के बिजली का तरंगो के माध्यम से वितरण, बिजली को व्यवसायिक तौर पर एकत्रित करने के संसाधनो का विकास, कम बिजली के उपयोग से अधिक क्षमता की मशीनो का संचालन, अनुपयोग की स्थिति में विद्युत उपकरणों का स्व-संचालन से बंद हो जाना, दिन में बल्ब इत्यादि प्रकाश स्त्रोतों का स्वतः बंद हो जाना आदि बहुत से अनछुऐ बिन्दु हैं जिन पर ध्यान दिया जाये तो बहुत कुछ नया किया जा सकता है तथा वर्तमान संसाधनों को सस्ता व अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। हर घर में शौचालय होता है, जो बायो गैस का उत्पादक संयत्र बनाया जा सकता है, जिससे घर की उर्जा व प्रकाश की जरूरत को पूरी की जा सकती है. कुछ युवा छात्रों ने रसोई के अपशिष्ट से भी बायोगैस के जरिये चूल्हा जलाने के प्रयोग किये हैं। कुछ लोगो ने व्यक्तिगत स्तर पर तो कुछ संस्थाओ ने अभिनव प्रयोग बिजली को लेकर किये भी हैं, जरूरत है कि इस दिशा में व्यापक कार्य हो।
भारत के हरीश हांडे को मैग्सेसे अवार्ड दिया गया है जिन्होंने अपनी कंपनी सेल्को के माध्यम से लाखों ग़रीबों तक सौर ऊर्जा की प्रौद्योगिकी पहुंचाई है, इसी तरह इण्डोनेशिया की मुनीपुनी को लघु पन बिजली योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये मैग्सेसे अवार्ड दिया गया है, ये संकेत है कि उर्जा के क्षेत्र में समाज नवोन्मेषी प्रयासों की सराहना कर रहा है।
“भारत अतिरिक्त कृषि अवशेष का इस्तेमाल कर 18 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन कर सकता है”, लोक सभा में एक सवाल के जवाब में ऊर्जा मंत्री ने यह जानकारी दी थी।
“आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, और पश्चिम बंगाल में यह संभावना है कि वे जैव ईंधन के लिए 100 मेगावाट तक के ऊर्जा संयंत्र लगा सकते हैं। इस तरह देश में अनुमानित अतिरिक्त कृषि अवशेष से 18 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है।”
कई राज्यों में स्थित चीनी मिलों के अवशेषों से पांच हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। इसी तरह गन्ने और इससे मिलते-जुलते पौधों से रस निकाले जाने बाद भी इससे बिजली उत्पादन संभव है। सीमेंट व स्टील उत्पादन संयत्रो में कोजनरेशन इकाईओं से सह उत्पाद के रूप में बिजली भी प्रचुर मात्रा में बनाई जा सकती है।
वैकल्पिक ऊर्जा की राह अख्तियार करने के मामले में देश के मंदिर भी पीछे नहीं हैं। आंध्र प्रदेश का तिरुमला मंदिर का बड़ा नाम है। यहां हर रोज तकरीबन पांच हजार लोग आते हैं। अब इस मंदिर में खाना और प्रसाद बनाने के लिए सौर ऊर्जा पर आधारित तकनीक अपनाई जा रही है। इसके अलावा यहां सौर प्लेटों के जरिए भी बिजली की आपूर्ति की जा रही है। इन बदलावों की वजह से यहां से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में भारी कमी आई है। इस मंदिर में सौर ऊर्जा तकनीक की सफलता से प्रेरित होकर राज्य के अन्य मंदिरों ने भी ऐसी तकनीक को अपनाना शुरू कर दिया है।
ये एक ऐसी तकनीक है जिसमें ईंधन के तौर पर बायोमास का इस्तेमाल किया जाता है और उससे पैदा हुई गैस को जलाकर बिजली बनाई जा सकती है। पटना से बाहर का इलाका धान की खेती के लिए मशहूर है और खेती के बाद कचरे के रुप में धान की भूसी इस इलाके में बहुतायत में मौजूद थी।
ऐसे में रत्नेश यादव व उनके साथियों ने ईंधन के तौर पर धान की भूसी का ही इस्तेमाल करने का फ़ैसला किया। अपनी इस परियोजना को उन्होने ‘हस्क पावर सिस्टम्स’ का नाम दिया। लालटेन और ढिबरी की रोशनी में जी रहे गांववालों को एकाएक इस नए तरीके पर विश्वास नहीं हुआ, लेकिन आधी से भी कम कीमत पर मिल रही बिजली की सुविधा को जल्दी ही उत्साह से स्वीकार गया। आमतौर पर गांव में हर घर दो से तीन घंटे लालटेन या ढिबरी जलाने के लिए कैरोसीन तेल पर 120 से 150 रुपए खर्च करता है। ऐसे में ‘हस्क पावर सिस्टम्स’ के ज़रिए गांववालों को 100 रुपए महीना पर छह घंटे रोज़ के लिए दो सीएफएल जलाने की सुविधा दी गई। साल 2007 में ‘हस्क पावर सिस्टम्स’ की पहली कोशिश क़ामयाब हुई। बिहार के ‘तमकुआ’ गांव में धान की भूसी से बिजली पैदा करने का पहला प्लांट लगया और गांव तक रौशनी पहुंचाई। संयोग से ‘तमकुआ’ का मतलब होता है ‘अंधकार भरा कोहरा’ और इस तरह 15 अगस्त 2007 को भारत की आज़ादी की 60वीं वर्षगांठ पर ‘तमकुआ’ को उसके अंधेरे से बिहार के कुछ युवाओ ने आज़ादी दिलाई।
तमसो मा ज्योतिर्गमय के इस अभियान को साल 2011 में ‘एशडेन पुरस्कार’ से भी नवाज़ा गया। कचरे से बिजली उत्पादन की यह तकनीक प्रत्येक महानगर के कचरे को बिजली में बदलने हेतु विकसित की जा सकती है।
राजस्थान के जयपुर के पास के कुछ गांवों में चरखा ही बिजली उत्पादन का जरिया बन गया है। महात्मा गांधी ने कभी चरखे को आत्मनिर्भरता का प्रतीक बताया था। आज गांधी के उसी संदेश को एक बार फिर राजस्थान के कुछ लोगों ने पूरे देश को देने की कोशिश की है।
इस चरखे को ई-चरखा का नाम दिया गया है. इसे एक गांधीवादी कार्यकर्ता एकंबर नाथ ने बनाया है। जब इस चरखे को दो घंटे चलाया जाता है तो इससे एक विशेष प्रकार के बल्ब को आठ घंटे तक जलाने के लिए पर्याप्त बिजली का उत्पादन हो जाता है. यहां यह बताते चलें कि बिजली बनाने के लिए अलग से चरखा नहीं चलाना पड़ता बल्कि सूत कातने के साथ ही यह काम होता रहता है। इस तरह से कहा जाए तो ई-चरखा यहां के लोगों के लिए दोहरे फायदे का औजार बन गया है।
सूत कातने से आमदनी तो हो ही रही है साथ ही साथ इससे बनी बिजली से घर का अंधियारा भी दूर हो रहा है। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में चरखा चलाने के काम में महिलाओं की भागीदारी ही ज्यादा है। कई महिलाएं तो ऐसी भी हैं जो बिजली जाने के बाद जरूरत पड़ने पर घर में रोशनी बिखेरने के लिए चरखा चलाना शुरू कर देती हैं।
इस खास चरखे को राजस्थान में एक सरकारी योजना के तहत लोगों को उपलब्ध कराया जा रहा है. इसकी कीमत साढ़े आठ हजार रुपए है. बिजली बनाने के लिए इसके साथ अलग से एक यंत्र जोड़ना पड़ता है, जिसकी कीमत पंद्रह सौ रुपए है। सरकारी योजना के तहत इसे खरीदने के लिए पचहत्तर प्रतिशत आर्थिक सहायता दी जा रही है। बाकी पचीस प्रतिशत पैसा खरीदार को लगाना पड़ता है जिसे किस्तों में अदा करने की व्यवस्था है।
गोबर गैस प्लांट से बिजली बनाना तो सबको मालूम है। लेकिन कुल्हड़ में गोबर से बिजली पैदा करने का अनोखा प्रयोग हो रहा है, बाराबंकी जिले के एक गाँव में। यह गाँव है पूरेझाम तिवारी जो सुलतानपुर रोड पर हैदरगढ़ कस्बे से पाँच किलोमीटर की दूरी पर है। यह प्रयोग शुरू किया है एक युवा किसान ब्रजेश त्रिपाठी ने, जिनकी शैक्षिक योग्यता ‘इंटर पास, बीए इनकम्पलीट (यानी अधूरा) है। ग्राम पूरेझाम के खेतों से बिजली की बड़ी लाइन गुजरती है। गाँव में बिजली देने के लिए कुछ साल पहले खंभे भी गड़ गए थे, लेकिन न तार खिंचे, न बिजली आई। राशन की दूकान से मिट्टी तेल महीने में प्रति परिवार केवल दो लीटर मिलता है, इसीलिए रोशनी का इंतज़ाम एक मुश्किल काम है।
ब्रजेश त्रिपाठी का कहना है, “करीब दो महीने पहले मैंने पेपर में पढ़ा था कि ऐसा हो सकता है। उसको प्रैक्टिकल करके देखा तो लाइट जल गई, जल गई तो फिर बाजा भी लगाकर देखा गया कि जब लाइट जली तो बाजा भी चलना चाहिए। वे कहते हैं, “संयोग से एक दिन हमनें कहा देखते हैं, मोबाइल भी चार्ज हो जाएगा या नहीं, तो इस तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं.”
इस तरह बिजली बनाने के लिए वह झालर वाले सस्ते चीनी बल्व और बेकार हुए तीन बैट्री सेल लेते हैं। बैट्री सेल का कवर उतार कर उसमें पाजिटिव निगेटिव तार जोड़ देते हैं और फिर इन्हें अलग-अलग तीन कुल्हड़ में भरे गोबर के घोल में डाल देते हैं। इस घोल में थोड़ा सा नमक, कपड़ा धोने का साबुन या पाउडर मिला देते हैं। इस तरह घर बैठे रोशनी पैदा करने का प्रयोग सफल देख पूरेझाम में घर-घर लोग बिजली बनाने लगे। आसपास के सैकड़ों गाँवों में भी लोग इस तरह लाइट जला रहे हैं। इसी गाँव के सदाशिव त्रिपाठी का कहना है,“जो बैट्री सेल हम बेकार समझकर फेंक देते थे, उन्हीं को अब गोबर के साथ इस्तेमाल करके बिजली बना रहे हैं।”
बिजली बनाने का यह फार्मूला गाँव के छोटे-छोटे बच्चों को भी समझ में आ गया है। बच्चों का कहना है कि इस लाइट से पढ़ाई में बहुत मदद मिलती है। इसकी रोशनी लालटेन जैसी है। इस तरह सस्ती और आसान बिजली मिलने से गाँव वाले प्रसन्न और आश्चर्यचकित हैं, हालांकि उनको यह नहीं मालूम कि कुल्हड़ भर गोबर और पुराने बैट्री सेल में ऐसी कौन सी रासायनिक क्रिया होती है, जिससे बिजली बनती है। गाँव वालों को उम्मीद है कि जब तकनीकी जानकार लोग इस प्रयोग में हाथ लगाएंगे तो एक बेहतर टेक्नॉलॉजी बनकर तैयार होगी। दरसल यह विद्युत सैल के रूप में विद्युत उत्पादन का छोटा सा नमूना है।
नर्मदा नदी के बरगी बांध डूब क्षेत्र के ग्राम खामखेड़ा में एचसीएल कम्प्यूटर के संस्थापक सदस्य पदम्भूषण अजय चौधरी के आर्थिक सहयोग से सौर्य उर्जा से रात में उजाला ही उजाला। जबलपुर के छायाकार रजनीकांत यादव पेशे से भले ही एक फोटोग्राफर हैं पर उनके अंदर एक वैज्ञानिक व संवेदनशील मनुष्य है, सालो की मेहनत से सोलर विद्युत व्यवस्था पर काम करके गांव की छोटी सी बस्ती को रोशन करने की तकनीक उन्होने विकसित की है जिसे एचसीएल कम्प्यूटर के संस्थापक सदस्य पदम्भूषण अजय चौधरी के आर्थिक सहयोग से मूर्त रूप दिया गया और परिणाम स्वरूप ७ अक्टूबर १२ को खामखेड़ा गांव, रात में भी सूरज की रोशनी से नन्हें नन्हें एलईडी के प्रकाश के रूप में नहा उठा।
अब तक मिट्टी का तेल ही गांव में रोशनी का सहारा था, प्रति माह हर परिवार रात की रोशनी के लिये लालटेन, पैट्रोमेक्स या ढ़िबरी पर लगभग १५० से २०० रुपये खर्च कर रहा था। विद्युत वितरण कंपनी यहां बिजली पहुचाना चाहती है पर केवल ३० घरो के लिये पहुंच विहीन गांव में लंबी लाइन डालना कठिन और मंहगा कार्य था, इसके चलते अब तक यह गांव बिजली की रोशनी से दूर था। वर्तमान में मध्य प्रदेश में ऐसे बिजली विहीन लगभग ७०० गांव हैं। नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री, मप्र शासन अजय विश्नोई ने कहा कि यदि इस गांव को रोशन करने वाले सरकार से सहयोग करें तथा यह तकनीक प्रायोगिक रूप से सफल पाई जाये तो इन गांवो को रोशनी देने के लिये भी यही तकनीक सहजता से अपनाई जा सकती है। गांव के निवासियों को उद्घाटन के अवसर पर गुल्लक बांटी गई है, आशय है कि वे प्रतिदिन मिट्टीतेल से बचत होने वाली राशि संग्रहित करते जाएँ जिससे कि योजना का रखरखाव किया जा सके। सोलर सैल से रिचार्ज होने वाली जो बैटरी गांव वालो को दी गई है, उसकी गारंटी २ वर्ष की है।
इन दो बरसों में जो राशि मिट्टी तेल की बचत से एकत्रित होगी उन लगभग ३६०० रुपयों से सहज ही नई बैटरी खरीदी जा सकेगी। यदि सूरज बादलों से ढ़का हो तो एक साइकिल चलाकर बैटरी रिचार्ज की जा सकने का प्रावधान भी किया गया है। पूर्व क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी के प्रबंध संचालक श्री सुखवीर सिंह जो एक आईएएस अधिकारी हैं, ने इस पहल पर कहा कि आने वाला समय वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के बेहतर इस्तेमाल का होगा। अजय चौधरी और रजनीकांत यादव ने बहुत सराहनीय काम किया है। शहरी बिजली उपभोक्ताओं को भी इस दिशा में सोचना होगा। इससे बिजली की मांग कम होगी तथा मांग और आपूर्ति के अंतर को मिटाने में सहायता मिलेगी।
गुजरात के वडोदरा जिले के छोटाउदयपुर क्षेत्र के 24 जनजातीय गांवों में एक अनोखा प्रयोग चल रहा है, जिसके अंतर्गत बैलों की शक्ति से बिजली बन रही है। बिजली निर्माण की यह नई तकनीक श्री कांतिभाई श्रोफ के दिमाग की उपज है और इसे श्रोफ प्रतिष्ठान का वित्तीय समर्थन प्राप्त है। श्री कांतिभाई एक सफल उद्योगपति एवं वैज्ञानिक हैं। इस खोज से एक नया नवीकरणीय उर्जा स्रोत प्रकट हुआ है। इस विधि में बैल एक अक्ष के चारों ओर एक दंड को घुमाते हैं। यह दंड एक गियर-बक्स के जरिए जनित्र के साथ जुड़ा होता है। इस विधि से बनी बिजली की प्रति इकाई लागत लगभग चार रुपया है जबकि धूप-पैनलों से बनी बिजली की प्रति इकाई लागत हजार रुपया होता है और पवन चक्कियों से बनी बिजली का चालीस रुपया होता है। अभी गियर बक्से का खर्चा लगभग 40,000 रुपया आता है, पर इसे घटाकर लगभग 1,500 रुपया तक लाने की काफी गुंजाइश है, जो इस विधि के व्यापक पैमाने पर अपनाए जाने पर संभव होगा। बैलों से बिजली निर्माण की पहली परियोजना गुजरात के कलाली गांव में चल रही है। बैलों से निर्मित बिजली से यहां चारा काटने की एक मशीन, धान कूटने की एक मशीन और भूजल को ऊपर खींचने का एक पंप चल रहा है। कृषि में साधारणतः बैलों की जरूरत साल भर में केवल 90 दिनों के लिए ही होती है। बाकी दिनों उन्हें यों ही खिलाना पड़ता है। यदि इन दिनों उन्हें बिजली उत्पादन में लगाया जाए तो उनकी खाली शक्ति से बिजली बनाकर अतिरिक्त मुनाफा कमाया जा सकता है।
उपरोक्त नवाचारी विचारों को व्वसायिक रूप से प्रयोग हेतु व्यापक जन समर्थन की आवश्यकता है, और यह सब अब भी सरकार के हाथों में है। नवकरणीय उर्जा मंत्रालय बनाये गये हैं, युवा वैज्ञानिको को प्रेरित किये जाने और नई सोच को क्रियांवित किये जाने की बहुत आवश्यकता दिखती है।
स्त्रोत:
विवेक रंजन श्रीवास्तव
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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