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गर्भावस्था की समस्याएं

गर्भावस्था की समस्याएं

मोलर गर्भधारण

मोलर गर्भधारण, गर्भावस्था की एक दुर्लभ बीमारी है। यह समस्या गर्भाधान के दौरान निषेचन में किसी प्रकार की त्रुटि होने पर उत्पन्न होती है और नाल का निर्माण करने वाली कोशिकाओं में खराबी आ जाती है। मोलर गर्भाधान को कभी-कभी हाइडेटिडिफॉर्म मोल भी कहते हैं जो गेस्टेशनल ट्रोफोब्लास्टिक ट्यूमर्स नाम की कई स्थितियों के समूह का एक हिस्सा होता है। सामान्यतया वे हानि-रहित होते हैं। भले ही वे गर्भाशय से आगे भी फैल सकते हैं पर उनका इलाज संभव है।

सामान्य गर्भावस्था में निषेचित अंडे में पिता के 23 तथा माता के 23 क्रोमोजोम मौजूद होते हैं। परन्तु, एक संपूर्ण मोलर गर्भाधान की स्थिति में निषेचित अंडे में माता का कोई क्रोमोजोम मौजूद नहीं होता पर पिता के शुक्राणुओं की संख्या दुगुनी हो जाती है जिससे पिता के क्रोमोजोम की संख्या भी दुगुनी हो जाती है और इस तरह निषेचित अंडे में पिता के क्रोमोजोम के 2 सेट आ जाते हैं और माता का एक भी क्रोमोजोम नहीं होता। इस स्थिति में कोई अपरिपक्व भ्रूण, एम्नियोटिक सैक या कोई सामान्य प्लेसेंटल ऊतक नहीं बनता। बल्कि इसके बदले नाल पुटी के एक पिंड का निर्माण करता है जो अंगूर के गुच्छे की तरह दिखता है। ये पुटी अल्ट्रासाउंड स्कैन में दिखाई पड़ती हैं।

ज्यादातर आंशिक मोलर गर्भाधान में निषेचित अंडे में माता के सामान्य क्रोमोजोम होते हैं पर पिता के दुगुने क्रोमोजोम मौजूद रहते हैं इसलिए क्रोमोजोम की सामान्य संख्या अर्थात् 46 की बजाय 69 क्रोमोजोम मौजूद होते हैं (यह तभी होता है जब शुक्राणु वाले क्रोमोजोम की संख्या दुगुनी हो जाती है या दो शुक्राणु समान अंडे को निषेचित कर डालते हैं)। इस स्थिति में गुच्छेनुमा त्रुटिपूर्ण ऊतक के पिंड के बीच कुछ प्लेसेंटल ऊतक दिखते हैं। अल्प विकसित भ्रूण वृद्धि करना आरंभ करता है इसलिए अपेक्षाकृत विकसित भ्रूण, या भ्रूणीय ऊतक अथवा एम्नियॉटिक सैक मौजूद हो सकता है। पर भले ही भ्रूण हो पर यह समझना अहम है कि आनुवंशिक रूप से यह त्रुटिपूर्ण होता है तथा यह जीवित नहीं रह सकता, इससे शिशु का निर्माण भी नहीं हो सकता। इस तरह के गर्भ का गिरना काफी गंभीर तथा परेशानी भरा हो सकता है। यदि सही इलाज तथा देखभाल की जाए तो भविष्य में शरीर पर हानिकर प्रभाव पड़ने की संभावना कम हो जाती है।

मोलर गर्भधारण कितना सामान्य

  • एशियाई मूल की महिलाओं में मोलर गर्भधारण का होना एक आमबात है।
  • बी रक्त समूहवाली महिलाओं में मोलर गर्भधारण होने की संभावना ज्यादा होती है।
  • भारतीय/पाकिस्तानी महिलाओं में द्वितीय मोलर गर्भधारण होने की प्रवृत्ति बढ़ी है।

मोलर गर्भधारण पता करने की विधि

  • आरंभिक अवस्था में आपको गर्भवस्था के कुछ सामान्य लक्षण दिखाई दे सकता है परन्तु कुछ समय बाद थोड़ा-थोड़ा रक्तस्राव आरंभ हो जाता है। (गर्भावस्था में रक्तस्राव सदा किसी गंभीर रोग का लक्षण नहीं होता, पर कभी-कभी यह मोलर गर्भधारण का लक्षण हो सकता है। इसके बारे में अपने डॉक्टर से संपर्क करें।) रक्तस्राव का रंग हल्का लाल या गहरा भूरा हो सकता है, जो लगातार या रूक-रूक कर, हल्का अथवा भारी मात्रा में हो सकता है। रक्तस्राव आपकी गर्भावस्था के छ्ठे हफ्तों से लेकर 16वें हफ्तों के बीच आरंभ हो सकता है। आपको तीव्र उल्टी तथा उदरीय सूजन (सामान्य की तुलना में गर्भाशय की वृद्धि तेज होती है।) भी हो सकता है। गर्भावस्था में स्रावित होने वाले हॉर्मोन- ह्युमैन कॉरियोनिक गोनैडोट्रोपिन (एचसीजी) का स्तर सामान्य से काफी ऊंचा हो जाता है।
  • संपूर्ण मोलर गर्भधारण प्रायः अल्ट्रासाउंड स्कैन में दिखाई पड़ता है और रक्त जांच द्वारा एचसीजी के स्तर का निर्धारण कर इस मोलर गर्भधारण का पता लगाया जा सकता है। हालांकि आंशिक मोलर गर्भधारण का पता लगाया जाना कुछ कठिन हो सकता है।
  • यदि आपके संभावित मोलर गर्भधारण के परीक्षण से पहले ही गर्भपात हो जाता है तो गर्भपात हुए ऊतकों के जरिए कोई रोगविज्ञानी (पैथेलॉजिस्ट) इसकी जांच द्वारा पता लगा सकता है।

मोलर गर्भधारण की चिकित्सा

  • यदि मोलर गर्भधारण का पता चलता है तो त्रुटिपूर्ण ऊतकों को हटाने के लिए डी एंड सी (डायलेशन एंड क्युरेटेज) शल्य-चिकित्सा करने की जरूरत होती है या बिना शल्य-चिकित्सा के दवा से इसे दूर किया जा सकता है। कभी-कभी पूरी तरह से मोलर गर्भधारण को हटाने के लिए दूसरे डी एंड सी शल्य-चिकित्सा की जरूरत होती है।
  • शल्य-चिकित्सा के बाद डॉक्टर अगली जांच करेंगे तथा मूत्र या रक्त नमूनों के परीक्षण के लिए निर्देश देते हैं ताकि एचसीजी स्तर की निगरानी का जा सके। जब शरीर में किसी प्रकार का रोग नहीं रहता तो एचसीजी का स्तर प्रायः शून्य रहता है।

मोलर गर्भधारण के प्रभाव

  • इसका पता चलने के बाद विषेश परिस्थिति के अनुसार मोलर गर्भधारण की 6 महीने तक निगरानी जरूरी होता है। ऐसा इसलिए कि मोलर गर्भधारण की थोड़ी मात्रा भी तेजी से फैल सकती है और कई बार यह चिकित्सा के कई महीने बाद भी हो सकता है। यदि एचसीजी स्तर बढ़ना शुरू करता है या ऊंचा रहता है तो इसकी जानकारी दी जाती है।
  • इंवेसिव मोल कभी-कभी मोलर गर्भधारण को हटाने के लिए किये डी एंड सी ऑपरेशन के बाद भी विकसित हो सकता है। इंवेसिव मोल गर्भधारण का अर्थ है कि मोलर ऊतक गर्भाशय की मांसपेशियों की तहों में फैल जाता है। इंवेसिव मोल का सबसे सामान्य लक्षण है शल्य-चिकित्सा के बाद अनियमित या लगातार रक्तस्राव होना।
  • एक बार जब तिल, गर्भाशय के मांसपेशी सतह पर उत्पन्न हो जाता है तब इंवेसिव मोल से समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। क्योंकि वृद्धि होने के बाद यह शरीर के दूसरे अंगों जैसे- फेफड़े, यकृत तथा मस्तिष्क में फैल सकता है। इंवेसिव मोलर गर्भधारण, आंशिक मोलर गर्भधारण के बाद विकसित हो सकता है पर संपूर्ण मोलर गर्भधारण के बाद इसके विकास की संभावना अधिक होती है।
  • कभी-कभी ऊतकों के हटाये जाने के बाद भी त्रुटिपूर्ण कोशिकाएं छूट जाती हैं। इसे पर्सिटेंट गेस्टेशनल ट्रोफोब्लास्टिक रोग कहते हैं। यह संपूर्ण मोलर गर्भधारण से ग्रस्त 15 प्रतिशत से कम महिलाओं में होता है तथा आंशिक मोलर गर्भधारण वाली महिलाओं में इसके होने का दर 1 प्रतिशत से भी कम देखा जाता है। यदि ऐसा होता है तो यह सुनिश्चित करने के लिए कि रोग गर्भाशय में न फैले रसायन चिकित्सा (कीमोथेरेपी) करवाये जाने की जरूरत होती है। यह चिकित्सा तब तक जारी रहती है जब तक एचसीजी स्तर सामान्य न हो जाए।

रोग की संपूर्ण चिकित्सा

  • यदि यह गर्भाशय से आगे नहीं पहुंचा हो तो त्वरित तथा समुचित चिकित्सा द्वारा इसके 100 प्रतिशत मामले ठीक किये जा सकते हैं। भले ही ऐसी दुर्लभ स्थिति में जब त्रुटिपूर्ण कोशिका दूसरे अंगों में फैल जाती हैं, तब भी करीब सभी मामले पूरी तरह से ठीक किये जा सकते हैं। आपको जीवनभर एचसीजी स्तर की जांच करवाते रहनी होगी।
  • बहुत कम मामलों में मोलर गर्भधारण से कोरिओकार्सिनोमा होने की संभावना होती है, जो काफी दुर्लभ मामला होता है परन्तु ऐसे कैंसर का इलाज संभव है जिसमें प्लेसेंटा की कोशिकाएं काफी उग्र हो जाती हैं। ऐसे मामले 30,000:1 (अर्थात् 30,000 गर्भवती महिलाओं में से 1) के अनुपात में होता है। यह मोलर गर्भधारण, सामान्य गर्भ या गर्भपात से उत्पन्न हो सकता है।

पुनः गर्भधारण का समय

  • अगर कीमोथेरेपी का प्रयोग नहीं किया गया है तो एचसीजी स्तर के शून्य पर पहुंचने के बाद पुनः गर्भधारण हेतु 6 महीनों तक इंतजार करने की जरूरत होती है।
  • अगर कीमोथेरपी का प्रयोग किया गया है तो पुनः गर्भधारण करने से पहले 12 महीनों तक इंतजार करने की सलाह दी जाती है। अगर इस अवधि से पहले ही गर्भाधान हो जाए तो एचसीजी स्तर में वृद्धि हो जाता है तथा डॉक्टर के लिए यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि त्रुटिपूर्ण ऊतक की वृद्धि फिर से हो रही है या नहीं।
  • दूसरे मोलर गर्भधारण होने की संभावना 1 से 2 प्रतिशत तक रहती है। इससे बचने के लिए आपको पहली तिमाही में अल्ट्रासाउड करवाना होगा।
  • अच्छी बात यह है कि मोलर गर्भधारण के ज्यादातर मामलों में, यहां तक कि कीमोथेरपी का प्रयोग करने के बाद भी सामान्य गर्भधारण की क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता। जन्म, जन्म से जुड़ी समस्याएं, अपरिपक्व गर्भ-पीड़ा या अन्य जटिलताओं की संभावना अधिक नहीं होती।

इन परिस्थितियों में परामर्श

  • पुनः गर्भधारण करने से पहले कम से कम 6 महीनों तक नियमित रूप से जांच करवानी चाहिए। अगर आपमें रोग है तो कीमोथेरपी चिकित्सा काफी परेशानी भरी हो सकती है और आपके अगले गर्भाधान में ज्यादा विलंब हो सकता है।
  • अपने पति से बात करते रहें तथा अपनी परेशानियों को उनसे साझा करें। अगर दोनों को यह लगता हो कि वे एक-दूसरे की भावनाओं को नहीं समझ पा रहे हों तो अपने पारिवारिक चिकित्सक, परिवार, दोस्तों या योग्य परामर्शदाता से सलाह ले सकते हैं।

अतिउल्वोदकता - उल्वद्रव की अधिकता

अतिउल्वोदकता गर्भावस्था में होने वाला एक ऐसा रोग है जिसमें उल्वद्रव की अधिकता हो जाती है।इसे उल्वद्रव विकार या पॉलिहाइड्राम्नियास के नाम से भी जाना जाता है।

अतिउल्वोदकता में शिशु अत्यधिक उल्वद्रव से घिरा होता है

उल्व द्रव एक जीवाणुरहित घोल होता है जो गर्भावस्था में शिशु को घेरकर संभाले रखता है।यह तरल शिशु के गुर्दों से आता है – यह शिशुजन्य मूत्र है –और शिशु द्वारा पिये जाने से अवशोषित होता हैं।इस तरल की मात्रा गर्भावस्था के 36वें सप्ताह तक बढ़ती रहती है जिसके बाद धीरे-धीरे घटने लगती हैं।यदि शिशु अत्यधिक मूत्र का उत्पादन करता है या पर्याप्त मात्रा में इसे नहीं पीता हो तो तरल की अधिकता हो जाती है जिसके कारण अतिउल्वोदकता हो जाती हैं।

तीव्र अतिउल्वोदकता शिशु के किसी विकार का संकेत होती है जैसे केन्द्रीय नाड़ी तंत्र का रोग,उदरांत्र में रूकावट, या गुणसुत्र (क्रोमोसोम) समस्या.कुछ विरले मामलों में इसके कारण समयपूर्व प्रसव या शिशु की मृत्यु भी हो सकती हैं।हल्की अतिउल्वोदकता सामान्य है और किसी समस्या का संकेत नहीं होती,दरअसल द्वितीय त्रिमास में प्रकट होने वाला अतिरिक्त तरल बिना किसी इलाज के सामान्य स्तर को लौट सकता हैं।

मुझे कैसे मालूम होगा कि मुझे अतिउल्वोदकता रोग हो गया है ?

हल्की अतिउल्वोदकता के अकसर कोई लक्षण नहीं होते,लेकिन यदि आपको सांस लेने में कठिनाई,पेट दर्द,और पेट अपेक्षा से अधिक फूल जाए तो अपने चिकीत्सक को बताएं क्योंकि ये अधिक गंभीर अतिउलवोदकता के चिन्ह हो सकते हैं।

नियमित शिशुजन्मपूर्व की जांच के समय आपका चिकीत्सक टेप द्वारा आपकी ‘फंडल ऊंचाई’ – जघनास्थि और गर्भाशय के सबसे ऊपरी बिन्दु के बीच की दूरी – नापेगा।वह पेट के जरिये गर्भाशय को महसूस करके या अल्ट्रासाउंड से शिशु की वृद्धि की जांच भी करेगा।यदि उसे अतिउल्वोदकता का शक हुआ तो वह अल्ट्रासाउंड द्वारा शिशु के चारों ओर उपस्थित उल्वद्रव की मात्रा मापेगा।

इसका उपचार कैसे किया जाता है ?

चिकीत्सक अतिउल्वोदकता के लक्षणों का उपचार तो कर सकते हैं पर उसके कारणों का नहीं।यदि आपको सांस लेने या चलने में कठिनाई हो तो आपको अस्पताल में भर्ती किया जा सकता है.और चूंकि इसके कारण समयपूर्व प्रसव हो सकता है इसलिये इसकी रोकथाम के लिये दवाईयां दी जाएंगी.।वह आपको आराम पहुंचाने के लिये सुई द्वारा अतिरिक्त उल्वद्रव निकलवाने (एमनियोसेंटेसिस) की सलाह भी दे सकता हैं।

आपको ऐसी परीक्षाओं की जरूरत पड़ सकती है जिससे यह पता लगाया जा सके कि आपकी उल्वद्रव की मात्रा क्यों बढ़ गई हैं।आपका चिकीत्सक अल्ट्रासाउंड द्वारा शिशु की समस्याएं मालूम करने का यत्न करेगा और सुई द्वारा उल्वद्रव निकाल कर गुणसूत्र (क्रोमोसोम)विकारों की जांच की जाएगी।वह मधुमेह और संक्रमणों के लिये आपकी रक्त-परीक्षाएं भी करवा सकता हैं।कई मामलों में द्रव की अधिकता की कोई वजह नहीं मालूम होती।

मैं इसकी रोकथाम कैसे कर सकती हूं ?

आप कुछ नहीं कर सकती हैं।किसी को यह पक्का पता नहीं है कि अतिउल्वोदकता क्यों होती है लेकिन कभी-कभी कतिपय जन्मजात विकारों के चलते शिशु की त्रुटिपूर्ण निगलने की क्रिया के कारण ऐसा हो सकता हैं।चूंकि अतिउल्वोदकता के कारकों की रोकथाम के लिये कुछ नहीं किया जा सकता है इसलिये इस रोग को भी होने से नहीं रोका जा सकता हैं।

आमतौर पर पूछे जाने वाले प्रश्न

मैने ‘उल्वद्रवअल्पता’के बारे में सुना है. क्या यह और अतिउल्वोदकता एक ही हैं ?

नहीं.उल्वद्रवअल्पता इसका बिल्कुल विलोम है – इस दशा में पर्याप्त उल्वद्रव नीं होता।यह रोग सामान्यतः तब होता है जब शिशु या अपरा में कोई समस्या हो या माता को उच्चरक्तचाप हो।उल्वद्रवअल्पता से सबसे बड़ा खतरा यह है कि तैरने के लिये पर्याप्त मात्रा में तरल न होने से शिशु का शरीर गर्भनाल को दबा सकता है जिससे उसे आक्सीजन और पोषकों का वहन बंद हो सकता हैं।यदि आपको उल्वद्रवअल्पता होने का निदान हो तो आपका चिकीत्सक आपके शिशु के स्वास्थ्य की सतर्कता से जांच करेगा जिससे ऐसा कुछ न हो।

क्या अतिउल्वोदकता मेरे शिशु को हानि पहुंचा सकती है ?

समयपूर्व प्रसव के खतरे के अलावा अतिउल्वोदकता से कोई स्वास्थ्य समस्याएं नहीं होती – यह केवल उनकी ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।यदि आपको गंभीर अतिउल्वोदकता हो जाए तो आपका चिकीत्सक शिशु के उदरांत्र तंत्र,केन्द्रीय नाड़ी तंत्र और ह्रदय तथा गुणसूत्र विकारों जैसे डाउन्स सिंड्रोम जैसी समस्याओं के लिये देखेगा।

यदि मुझे अतिउल्वोदकता हो तो क्या मेरे शिशु में अवश्य कोई विकार होगा ?

कदापि नहीं.दरअसल यदि दूसरे त्रिमास में आपको यह रोग हो तो आपके शिशु के अच्छे रहने की संभावना अधिक होगी और अतिउल्वोदकता स्वतः ही अदृष्य हो जाएगी।अतिउल्वोदकता बिल्कुल स्वस्थ एकाधिक गर्भों में भी हो सकती है।फिर भी आप अपने चिकीत्सक से अल्ट्रासाउंड करते समय जन्मजात विकारों और अन्य समस्याओं के लिये देखने के लिये कह सकती हैं।

क्या अतिउल्वोदकता मेरे प्रसव में समस्याएं उत्पन्न करेगी ? शिशु के अधिक मात्रा में द्रव से घिरे होने पर वह प्रसव के समय तक उसमें उछल और पलट सकता है और उसके पैर नीचे की ओर हो जाने या ब्रीच की संभावना अधिक हो सकती है.ब्रीच शिशुओं को कभी- कभी वापस सिर नीचे की स्थिति में लाया जा सकता है लेकिन अक्सर उन्हें सी-सेक्शन द्वारा निकाला जाता हैं।

उल्वद्रवअल्पता - उल्वद्रव की बहुत कमी होना

जब किसी स्त्री को उल्वद्रवअल्पता होती है तब शिशु को घेर कर रखने वाले उल्वद्रव का स्तर बहुत कम हो जाता हैं।यह जानने के लिये कि इसका आपके और शिशु के स्वास्थ्य पर क्या असर हो सकता है,पहले स्वस्थ गर्भ बनाए रखने में उल्वद्रव की भूमिका को समझना उचित होगा।

उल्वद्रव क्या है ?

शिशु के चारों ओर मौजूद उल्वद्रव शिशु के विकास और वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।यह साफ रंग का द्रव शिशु की रक्षा करता है और उसे द्रव उपलब्ध करता हैं।शिशु इस द्रव द्वारा सांस लेता है और पीता हैं।इससे शिशु के फुफ्फूस और पाचन-तंत्र मजबूत होते हैं।उल्वद्रव शिशु को घूमने भी देता है जिससे उसकी पेशियों और हड्डियों के विकास में मदद मिलती हैं।

उल्वथैली जिसमें शिशु निवास करता है गर्भाधान के लगभग 12 दिनों बाद बनने लगती हैं।उसी समय उल्वद्रव भी बनने लगता हैं।गर्भावसथा के प्रारंभिक हफ्तों में उल्वद्रव में माता से प्राप्त पानी होता हैं।करीब 12 हफ्तों बाद द्रव में बड़ी मात्रा शिशु के मूत्र की होती हैं।

उल्वद्रव की मात्रा गर्भावस्था के करीब 28-32 हफ्तों तक बढ़ती रहती हैं।उस समय तक लगभग 1 क्वार्टर द्रव होता हैं।इसके बाद 37-40 हफ्तों तक यही स्तर बना रहता है जब शिशु पूरी तरह से विकसित माना जाता है.इसके पश्चात द्रव का स्तर घटने लगता हैं।

उल्वद्रवअल्पता क्या होती है ?

करीब 100 में से 8 गर्भाधानों में उल्वद्रवअल्पता होती हैं।यह अधिकतर गर्भ के अंतिम त्रिमास में होती है लेकिन वैसे किसी भी समय हो सकती हैं।गर्भ के अपेक्षा से 2 सप्ताह अधिक हो जाने पर 8 में से 1 स्त्री को उल्वद्रवअल्पता हो जाती हैं।ऐसा उल्व द्रव स्तर के प्राकृतिक रूप से घट जाने से होता हैं।

उल्वद्रवअल्पता का निदान अल्ट्रासाउंड द्वारा किया जाता हैं।इस दशा के कारण पूरी तरह से मालूम नहीं हैं।दरअसल अधिकांश गर्भवती स्त्रियों में इसकी कोई वजह नहीं पाई जाती।

इसके मुख्य कारण क्या हैं ?

प्रारंभिक गर्भावस्था में उल्वद्रवअल्पता के मुख्य कारण निम्न हैं -

  • शिशु के कतिपय जन्मजात विकार
  • फटी हुई उल्व कलाएं (उल्वथैली में दरारें या फटन)

गुर्दों और मूत्रमार्ग के विकार इस समस्या के संभावित मुख्य कारण हैं।ऐसा इसलिये माना जाता है क्योंकि ऐसे विकारों से ग्रस्त शिशु मूत्र का उत्पादन कम करते हैं जो उल्वद्रव का मुख्य भाग होता हैं।माता की कुछ स्वास्थ्य समस्याएं का संबंध भी उल्वद्रवअल्पता से जोड़ा गया हैं।इन समस्याओं में उच्चरक्तचाप,मधुमेह,लूपस और अपरा के विकार शामिल हैं।

इसका क्या प्रभाव होता है ?

उल्वद्रवअल्पता स्त्री और शिशु तथा प्रसवक्रिया को विभिन्न तरह से प्रभावित कर सकती हैं।ये प्रभाव इसके कारणों,होने के समय और द्रव की कमी की मात्रा पर निर्भर करते हैं।

  • गर्भावस्था के प्रथमार्ध में उल्वद्रव की कमी फुफ्फूस और हाथ-पैरों में विकार उत्पन्न कर सकती हैं।इस काल में गरभपात,समयपूर्व जन्म और मृतशिशु-जन्म का खतरा बढ़ जाता हैं।
  • गर्भावस्था के द्वितीयार्ध में होने पर इसके कारण शिशु का विकास कुंठित हो सकता हैं।
  • प्रसव के पहले होने पर शिशुजन्म और प्रसव में जटिलताओं का खतरा बढ़ सकता हैं।

मुझे क्या करना चाहिये ?

हाल में किये गए अध्ययनों से समझा जा रहा है कि सामान्य रूप से गर्भवती स्त्रियों में उल्वद्रवअल्पता होने पर कदाचित किसी उपयार की जरूरत नहीं हैं।उनके शिशुओं के स्वस्थ रहने की संभावना हैं।

  • जब इलाज की जरूरत हो तो प्रसव शुरू होने पर कृत्रिम उल्व द्रव देना चाहिये। .
  • चिकीत्सक द्वारा गर्भाशय के आकार व कोख में स्थित उल्वद्रव की मात्रा की निगरानी की जानी चाहिये ताकि जटिलताओं से निपटने के लिये कदम उठाए जा सकें।
  • उच्चरक्तचाप,मधुमेह,लूपस और अपरा के विकारों से ग्रस्त स्त्रियों को उल्वद्रवअल्पता का अधिक खतरा होता हैं।उच्चरक्तचाप होने पर गर्भाधान के पहले चिकीत्सक से सलाह लेनी चाहिये।गर्भावस्था में हर दवा चिकीत्सक की निगरानी में लेनी याहिये।यह सुनिश्चित कर लें कि आपका रक्तचाप अचछी तरह से नियंत्रण में हो।
  • उल्वद्रवअल्पता का निदान होने पर स्वस्थ और पोषक भोजन खाएं,बहुत सारा द्रव पियें(पानी सर्वश्रेष्ठ है),खूब आराम करें और समयपूर्व प्रसव के लक्षण होने पर चिकीत्सक को सूचित करें।

अभिशप्त डिंब

अभिशप्त डिंब क्या है ?

जब कोई अंडा गर्भाधान के बाद गर्भाशय की भित्ति से जुड़ तो जाता हो लेकिन उससे भ्रूण का विकास न हो तो उसे अभिशप्त डिंब(भ्रूणहीन गर्भ) कहते हैं।ऐसे में कोशिकाएं भ्रूण में विकसित होने के बजाय केवल गर्भ-थैली के रूप में विकसित होती हैं।अभिशप्त डिंब सामान्यतः प्रथम त्रिमास में उत्पन्न होता है जब स्त्री को पता भी नहीं होता है कि वह गर्भवती है।सामान्यतः अधिक मात्रा में गुणसूत्र (क्रोमोसोम) विकृतियां होने पर उस स्त्री के शरीर में प्राकृतिक गर्भपात हो जाता है।

मुझे कैसे पता चले मैं अभिशप्त डिंब से ग्रस्त हूं ?

अभिशप्त डिंब गर्भावस्था की अत्यन्त प्रारंभिक दशा में होता है जब स्त्री को अपने गर्भवती की जानकारी भी नहीं होती।आपको गर्भाधान होने के लक्षण महसूस हो सकते हैं जैसे - मासिक स्राव का न होना या देर से होना –और गर्भाधान की परीक्षा भी पाज़िटिव हो सकती है.संभव है कि आपके पेट में हल्का दर्द हो या योनि से हल्का रक्तस्राव हो.सामान्य माहवारी की तरह गर्भाशय की पर्त निष्कासित हो सकती है पर रक्तस्राव सामान्य से अधिक हो सकता है.

अधिकतर महिलाएं समझती हैं कि चूंकि उनके अंतःस्राव का स्तर बढ़ रहा हो तो उनका गर्भ भी सही मार्ग पर होगा।अपरा(गर्भनाल) का कुछ समय तक विकास होता रहता है और इसीलिये गर्भावस्था के अंतःस्राव भी बढ़ते रहते हैं जिससे महिला को लगता है कि वह गर्भवती है।इसका निदान तभी हो पाता है जब अल्ट्रासाउंड परीक्षा में रिक्क गर्भाशय या गर्भथैली दिखाई देती है।

अभिशप्त डिंब कैसे होता है ?

अभिशप्त डिंब का कारण प्रथम त्रिमासो में होने वाले 50% गर्भपात हैं जो अधिकतर गुणसूत्र समस्याओं के कारण होता है।स्त्री का शरीर भ्रूण के विकृत गुणसूत्र को पहचानता है और स्वाभावीक रुप से गर्भधारणा जारी नही करना चाहती है क्यौंकि ऐसा भ्रूण सामान्य,स्वस्थ शिशु में विकसित नहीं हो सकता।ऐसा असामान्य कोशिका-विभाजन या खराब गुणवत्ता के शुक्राणु या अंडे के कारण हो सकता हैं।

क्या मुझे विस्फारण व खुरचन करवानी चाहिये या प्राकृतिक गर्भपात की प्रतीक्षा करनी चाहिये ?

यह निर्णय आप स्वयं ही अपने लिये ले सकती हैं।अधिकांश चिकीत्सक प्रारंभिक अवस्था की गर्भक्षति के लिये विस्फारण व खुरचन की सिफारिश नहीं करते हैं।ऐसी धारणा है कि स्त्री का शरीर अवांछित ऊतकों का निकास करने में सक्षम होता है और इसके लिये किसी आक्रामक शल्यक्रिया की जरूरत नहीं होती है जिससे जटिलताओं का जोखिम हो सकता हैं हां,यदि आप किसी पैथालाजिस्ट से ऊतकों की जांच करवाकर गर्भक्षति के कारण का पता करना चाहती हों तो डी एंड सी उपयोगी हो सकता है।कुछ महिलाओं को डी एंड सी की प्रक्रिया से मानसिक व शारीरिक संतुष्टि मिलती है।

अभिशप्त डिंब की रोकथाम कैसे करें ?

दुर्भाग्यवश,अधिकतर मामलों में अभिशप्त डिंब को होने से नहीं रोका जा सकता है।यदि बारबार प्रारंभिक अवस्था में गर्भक्षति हो रही हो तो कुछ दंपति आनुवंशिक परीक्षा करवाते हैं।अभिशप्त डिंब अकसर एक बार ही होता है और बहुत कम स्त्रियों में यह एक बार से अधिक होता है।अधिकांश चिकीत्सक दंपतियों को किसी भी तरह के गर्भपात के बाद पुनः गर्भाधान की कोशिश के पहले कम से कम 1 से 3 बार नियमित मासिक स्राव होने तक रूकने की सलाह देते हैं।

गर्भाशयग्रीवा की अक्षमता


गर्भाशयग्रीवा की अक्षमता क्या है
?

कभी-कभी गर्भाशयग्रीवा का असामयिक विस्फारण(ग्रीवा के योनि वाले भाग का सिकुड़ना और भित्तियों का पतला होना) प्रसवक्रिया के कारण न होकर ग्रीवा की रचनात्मक शिथिलता के कारण होता है इसे गर्भाशयग्रीवा की अक्षमता कहते हैं।य़ह कमजोरी अनेक कारणों से हो सकती है मुख्यता ग्रीवा को पहले कभी लगी चोट या ग्रीवा की वंशागत प्राकृतिक शामिल अवस्था।

द्वितीय त्रिमास में होने वाली गर्भक्षतियों मे से करीब 15 से 20 प्रतिशत गर्भाशयग्रीवा की अक्षमता के कारण होती हैं.

गर्भाशयग्रीवा की अक्षमता का विवरण

जब ग्रीवा क्षतिग्रस्त हो जाती है तो वह गर्भ के भार को संभाल नहीं पाती हैं।ग्रीवा बिना संकुचन या दर्द हुए फैल जाती है और कभी-कभी पूरी खुल जाती हैं।इसके परिणामस्वरूप उल्व कलाएं बाहर निकल आती हैं और अंततः शिशु के गर्भाशय के बाहर जीवित रहने योग्यय होने के पहले ही फूट जाती हैं।इससे गर्भाशय क्षोभित हो जाता है और समयपूर्व प्रसव शुरू हो जाता हैं।अधिकांश मामलों में प्रसव का पता काफी देर से होता है जब इसे होने से रोका नहीं जा सकता।

गर्भाशयग्रीवा अक्षमता के कारण और जोखम घटक

अक्षम ग्रीवा के जोखम घटक हैं –पूर्व गर्भधारण के समय ग्रीवा की अक्षमता का इतिहास,शल्यचिकित्सा,ग्रीवा पर लगी चोट,डाईइथाइलस्टिलबेस्ट्राल का प्रयोग और ग्रीवा की रचनात्मक विकृतियां.उदाहरणतः पहले कभी किया हुआ डी एंड सी ग्रीवा को क्षतिग्रस्त कर सकता हैं।

ग्रीवा की अक्षमता के अन्य कारणों में ग्रीवा की काटरी(अर्बुदों को निकालने या रक्तस्राव रोकने के लिये) और शंकु जीवोति परीक्षण(कैंसर जैसे अर्बुद की परीक्षा के लिये शंकु के आकार के ऊतक के भाग को काट कर निकालना) शामिल हैं.गरभाधान के पहले या प्रथम त्रिमास में यह पता करने की कोई विधि उपलब्ध नहीं है कि ग्रीवा अंततः अक्षम होगी या नही.

गर्भाशयग्रीवा की अक्षमता के लक्षण

अक्षम गर्भाशयग्रीवा से ग्रस्त स्त्रियां 16 से 18 सप्ताह की गर्भावस्था में ‘खामोश’ग्रीवा विस्फारण(अर्थात् न्यूनतम गर्भाशय संकुचनों के साथ) लेकर आती हैं.उनमें ध्यान देने योग्य ग्रीवा विस्फारण (2 सेमी या अधिक) और न्यूनतम संकोचन पाए जाते हैं.जब ग्रीवा 4 सेमी से अधिक खुल जाती है तो गर्भाशय के तीव्र संकुचन होने लगते हैं या उल्वकलाएं फटने लगती हैं.

गर्भाशयग्रीवा अक्षमता का निदान

इसका निदान रोगी के इतिहास,परीक्षण और अल्ट्रासाउंड अध्ययन द्वारा किया जाता है.गर्भाधान की परीक्षा भी की जाती है.

गर्भाशयग्रीवा अक्षमता का उपचार

सरक्लेज : अक्षमता का निदान होने पर उसका इलाज सरक्लेज(ग्रीवा की सिलाई) नामक शल्यक्रिया से किया जा सकता है.ग्रीवा में या उसके चारों ओर टांके लगाकर उसे अचछी तरह से बंद कर दिया जाता है.यह प्रक्रिया सामान्यतः गर्भावस्था के 12वें सप्ताह के बाद की जाती है क्योंकि इसके बाद अन्य कारणों से गर्भपात होने की आशंका बहुत कम हो जाती है-लेकिन यदि उल्वकलाएं फट गई हों या संक्रमण हो गया हो तो यह प्रक्रिया नहीं की जाती है.शल्यक्रिया के बाद मरीज की संक्रमण और संकुचनों के लिये निगरानी रखी जाती है जो कि इस प्रक्रिया के कारण हो सकते हैं.अस्पताल से रिहाई के बाद मरीज को बिस्तर में आराम की सलाह दी जाती है ताकि ग्रीवा पर कोई दबाव न पड़े और शिशु के परिपक्व होने तक गर्भ बना रहे.सरक्लेज को सामान्यतः प्रसव के ठीक पहले निकाला जाता है ताकि योनि के रास्ते शिशु का जन्म हो सके.कुछ मामलों में सरक्लेज को न निकालकर सिजेरियन सेक्शन द्वारा शिशु को निकाला जाता है.

संक्रामक रोगों के साथ गर्भाधान

 

रोग

कैसे फैलता है

शिशु को जोखम ?

रोकथाम/उपचार कैसे करें ?

एड्स(वाइरस)

  • संक्रमित सुइयों का साझा प्रयोग
  • असुरक्षित संभोग
  • अपरा द्वारा,प्रसव के समय और मां के दूध के जरिये संचरण
  • यदि प्रारंभिक गर्भावस्था में शिशु संक्रमित हो जाय तो-छोटा सिर,विकृत चेहरा
  • एचआईवी+ माता द्वारा 50% तक शिशु संक्रमित हो सकते हैं
  • जोखम की स्थितियों से बचें

मोतीझरा(वाइरस)

  • प्रारंभिक गर्भावस्था में संक्रमण से जन्मजात विकृतियां हो सकती हैं पर संक्रमण का जोखम कम~ 2.2% है
  • प्रथम त्रिमास में-अविकसित अंग,आंखें और मस्तिष्क की क्षति,त्वचा पर वृण,कम जन्मवजन,जन्मजात नवजात ज़ास्टर
  • यदि माता को प्रसव के 5 दिन पहले या 2 दिन बाद दाने निकल आएं तो शिशु के लिए जोखम 20% है
  • पहली जन्मपूर्व परीक्षा के समय रोगप्रतिरोधकता की जांच करें-वेरिसेला ज़ास्टर इम्यून ग्लाब्युलिन मोतीझरा को रोकने या कम करने के लिये दे सकते हैं
  • टीका उपलब्ध है और गर्भवती स्त्रियों को नहीं दिया जा सकता है.टीका लेने के बाद स्त्रियों को कम से कम एक महीने तक गर्भधारण नहीं करना चाहिये.

क्लेमाइडिया(यहसूजाक पर भी लागू होता है)
(जीवाणु)

  • संभोग से संक्रमित-यह योनि में बिना लक्षणों के भी रह सकता है
  • माता से शिशु को प्रसव के समय
  • गर्भावस्था में -अल्प जन्मभार और असामयिक उल्वकला पतन
  • नवजात को आंखों का संक्रमण,निमोनिया, जननांगों और पाचननाल के संक्रमण हो सकते हैं
  • निदान होने पर माता,शिशु और पिता का एंटीबायोटिक दवाओं से उपचार करें तथा उन्हें चिकित्सक द्वारा पुनः जांच करने तक कंडोम का प्रयोग करना चाहिये

साइटोमिगेलो-वाइरस
(वाइरस)

  • वीर्य,मूत्र और रक्त,गर्भाशयग्रीवा के स्राव,मां के दूध से संचरित
  • पूर्वपरिपक्वता,मानसिक मंदता,यकृत के विकार
  • शारीरिक स्रावों से संपर्क में आने पर अच्छी तरह से हाथ धोना
  • मूत्र में भीगे डायपरों को ध्यान से उठाएं औऱ फेंकें

पांचवा रोग-पारवो वाइरस
(वाइरस)

  • व्यक्ति से व्यक्ति को संक्रमित नाक व गले के स्रावों से संपर्क द्वारा(खांसने,छींकने) यापीने के गिलस और बर्तनों का साझा करने पर
  • यदि माता को गरभावस्था प्रथमार्ध में संक्रमण हो तो लाल रक्ताणुओं के निर्माण पर असर होने की 10 %आशंका होती है जिससे शिशु को तीव्र रक्ताल्पता,गर्भपात या मृत्यु हो सकती है
  • अधिकांश वयस्कों को यह रोग पहले हो चुका होता है
  • ज्वरग्रस्त लोगों से दूर रहें,बार-बार हाथ धोते रहें,खांसते या छींकते समय मुंह को ढंक लें,साझा बर्तन में खाना न खांएं

समूह बी स्ट्रेप्टोकॉकल
(जीवाणु)

  • 15-30%स्त्रियों की योनि और निचली आंत में पाये जाते हैं
  • प्रसव के ठीक रहले उल्व गुहा में प्रवेश द्वारा या उल्व थैली के फटने पर या जन्म के समय शिशु के इसे निगल लेने या सांस के जरिये संक्रमण हो सकता है.50-75% संक्रमित शिशुओं में से 1-2% को गंभीर रोग हो सकता है,उदा.मस्तिष्ककलाशोथ,सेप्सिस या निमोनिया
  • गर्भावस्था में जांच और निम्न रोगों के उपचार की व्यवस्था-समयपूर्व प्रसव(<37 सप्ताह),उल्वकलाओं का समयपूर्व फटना(<37सप्ताह),कलाओं के फटने में अपेक्षा से अधिक समय लगना(>18 घंटे),प्रसव के समय बुखार,अनेक बार प्रसव,इन जीवाणुओं का मूत्र में पाया जाना,भारी संख्या में इन जीवाणुओं की उपस्थिति,20 से कम आयु की माता,पिछली गर्भावस्थाओं में इन जीवाणुओं का संक्रमण
  • प्रसव के समयशिरा द्वारा एंटीबायोटिक दवाओं का प्रयोग
  • टीके का विकास किया जा रहा है

हेपेटाइटिस बी
(वाइरस)

  • संक्रमित शरीर द्रवों से संपर्क-रक्त,वीर्य,योनि स्राव और संभवतः लार,असुरक्षित संभोग,सुइयों,रेज़र और टूथब्रश का साझा प्रयोग
  • संक्रमित माता से बच्चे को जन्म के समय या तुरंत बाद,कदाचित मां के दूध के द्वारा
  • जन्म के बाद हुए संक्रमण से दीर्घकालिक हेपेटाइटिस,कड़ापन या कैंसर होने की अधिक संभावना होती है
  • गर्भवती स्त्रियों की अनिवार्य परीक्षा.पाज़िटिव होने पर जन्म के 12 घंटों के भीतर शिशु को हेपेटाइटिस बी इम्यून ग्लाब्युलिन और 3 हेपेटाइटिस टीकों का पहला इंजेक्शन देना चाहिये जो 3 और 6 महीनों की उम्र में दोहराना चाहिये
  • पिता की भी जांच करके आवश्यक हो तो उसे भी टीके देन चाहिये

हरपीज़ सिम्प्लेक्स
(वाइरस –एचएसवी टाइप 1 या 2)

  • त्वचा से त्वचा को हरपीज़ से ग्रस्त व्यक्ति से लैंगिक संसर्ग द्वारा और/या जख्मों को छूकर शरीर के अन्य भागों में प्रसार
  • जननेन्द्रियों के संक्रमित होने पर 20 सप्ताह के पहले स्वतः गर्भपात हो जाता है, संभवतःअपरिपक्वता-अपरा के जरिये सामान्यतः संक्रमण नहीं होता ।
  • शिशु को यकृत के विकार,अपस्मार, दीर्घकालिक मानसिक समस्याएं, मस्तिष्ककलाशोथ आदि हो सकते हैं।
  • सक्रिय रोग होने पर संभोग न करें
  • प्रसव के समय संक्रमण होने पर सिज़ेरियन सेक्शन
  • वाइरस-उन्मूलक उपचार

रूबेला(जर्मन मीज़ल्स)
(वाइरस)

  • अपरा के द्वारा
  • प्रथम त्रिमास में,गर्भपात,अवयवों की विकृति,बहरापन,मोतियाबिंद,छोटा सिर,मंदबुद्धिता,ह्रदय की विकृतियां,यकृत की समस्याएं हो सकती हैं
  • गर्भवती स्त्रियों का टीकाकरण
  • गर्भधारण से कम से कम 1 महीना पहले टीका लेना चाहिये

टाक्सोप्लाज़्मोसिस
(परजीवी-टाक्सोप्लाज़मा गोंडी)

  • संक्रमित बिल्ली के मल द्वारा
  • -अधपका या कच्चा मांस
  • -कच्चे मांस को तैयार करने के बाद चाक,ओं को न धोना,संक्रमित मिट्टी से प्राप्त बेर,सब्जियां व फल
  • -बागबानी
  • -रेती के डिब्बे जिनमें बिल्लियां घुस सकती हों
  • -शिशु को अपरा द्वारा
  • -प्रथम त्रिमास में-गर्भपात,मस्तिष्क की क्षति,दौरे,देखने की क्षमता में गंभीर कमी,सिर में पानी जमा होना और अन्य समस्याएं
  • -गर्भ की अगली अवस्था में,गर्भपात,मरे हुए शिशु का जन्म,यकृत का कड़ापन,मस्तिष्कशोथ,दृष्टि के विकार,मंदबुद्धिता,15-20 वर्ष बाद तक नाड़ीतंत्र की समस्याएं
  • -कच्चे मांस व सब्जियों को छूने और भोजन के बाद हाथों को धो लेवें
  • -कच्चे और पकाए हुए भोजन के लिये अलग बर्तनों का प्रयोग करें
  • -मांस को अच्छी तरह पकाएं(माइक्रोवेव में नहीं)
  • -गर्भवती होने पर धुंआ किये मांस का सेवन न करें
  • -दूषितजमीन से प्राप्त सब्जियों को पकाएं लेकिन कच्चा होने पर अच्छी तरह धोलें
  • सभी बिल्लियों को संक्रामक मान कर चलें-बिल्ली के मल-मूत्र को दस्ताने पहनकर हाथ लगाएं,मलपदार्थ को टॉयलेट में डालकर फ्लश कर दें,लिट्टर की ट्रे को रोजउबलते पानी से धो दें या फेंक दें,बिल्लियों को न पालें.
  • -जहां बिल्लियां आती-जाती हों वहां बागबानी न करें
  • -मक्खियों व तिलचट्टों को भोज्यपदार्थों से दूर रखें.

 

दवाइयां और गर्भावस्था

 

कभी-कभी गर्भवती महिला और और उसके भ्रूण के लिए दवाइयां आवश्यक होती हैं। ऐसे मामलों में, कोई भी दवाई (काउंटर पर मिलने वाली दवाओं सहित) या आहार पूरक (दवायुक्त जड़ी बूटियों सहित) लेने से पहले गर्भवती महिला को अपने डाक्टर से सलाह लेनी चाहिए। डाक्टर गर्भावस्था के समय कुछ विटामिनों और खनिज तत्त्व लेने की सिफारिश कर सकता है।

दवाईयों का भ्रूण पर प्रभाव

गर्भवती महिला द्वारा ली गई दवाइयां भ्रूण तक मुख्यतया अपरा को पार करके उसी मार्ग से पहुंचती हैं, जिससे ऑक्सीजन और पोषक पदार्थों पहुंचते है और ये भ्रूण के विकास और वृद्धि के लिये जरूरी होती है। गर्भवती महिला द्वारा गर्भावस्था में ली गई दवाइयां भ्रूण पर कई प्रकार से असर डाल सकती हैं:

  • वे भ्रूण पर सीधा असर कर सकती हैं, जिससे नुकसान, असामान्य विकास (जिससे जन्मजात विकार हो जाते हैं) या मृत्यु हो सकती है।
  • वे सामान्य तौर पर रक्त वाहिनियों को संकरा करती हैं और इस प्रकार से माता से भ्रूण को आक्सीजन और पोषक पदार्थों की आपूर्ति कम करके अपरा के कार्य को बाधित कर सकती हैं। कभी-कभी इसके परिणामस्वरूप शिशु कमवजन वाला और कम विकसित रह जाता है।
  • उनके कारण गर्भाशय की पेशियों का बलपूर्वक संकुचन हो सकता है, जिससे रक्त प्रवाह में कमी हो जाने से भ्रूण को क्षति हो सकती है या समयपूर्व प्रसव क्रिया और संतान-जन्म हो सकता है।

माता के रक्त और अंतर्प्रवर्ध स्थल में स्थित प्रवर्धों में मौजूद भ्रूण के रक्त को केवल एक महीन झिल्ली (अपरा झिल्ली) अलग करती है। माता के रक्त में मौजूद दवाइयां इस झिल्ली को पार कर प्रवर्धों की रक्त वाहिकाओं में जा सकती हैं और गर्भ नाल से होकर भ्रूण तक पहुंच सकती हैं।
कोई दवा भ्रूण पर किस तरह से प्रभाव डालती है यह भ्रूण को विकास की अवस्था और दवा की शक्ति और मात्रा पर निर्भर करता है। कुछ दवाओं को गर्भावस्था के प्रारंभ में (निषेचन के 20 दिनों के भीतर) लेने से भ्रूण की मृत्यु हो सकती है या उस पर कोई असर नहीं होता। इस प्रारंभिक अवस्था में भ्रूण जन्म -जात विकारों के प्रति अत्यंत प्रतिरोधी होता है। लेकिन,निषेचन के बाद के तीसरे और आठवें सप्ताह में भ्रूण में जन्मजात विकार होने की तब खास संभावना होती है, जब उसके अवयवों का विकास हो रहा होता है। इस अवस्था में भ्रूण तक पहुंचने वाली दवाओं का या तो कोई प्रभाव नहीं होता या उनके कारण गर्भपात, जन्मजात विकार या कोई स्थायी लेकिन हल्का सा प्रभाव होता है, जिस पर आगे चल कर कभी ध्यान जाता है। अवयवों के न पूरा होने के बाद ली गई दवाओं से जन्मजात विकार होने की संभावना नहीं होती है,लेकिन वे सामान्य रूप से बने अवयवों और ऊतकों की वृद्धि और कार्यकलाप को नष्ट कर सकती हैं।

खाद्य और औषधि प्रशासन (एफडीए) दवाइयों का वर्गीकरण, गर्भावस्था में उनके प्रयोग करने पर भ्रूण के प्रति उत्पन्न जोखम की संभावना के आधार पर करता है। कुछ दवाइयां अत्यंत विषैली होती हैं और उनका प्रयोग गर्भवती महिला पर कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि वे गंभीर जन्मजात विकार उत्पन्न करती हैं। एक उदाहरण है,थैलिडोमाइड(व्यापारिक नाम-थैलिडोमिड)। कई दशक पहले, इस दवाई को जिन स्त्रियों ने अपनी गर्भावस्था में लिया था, उनके शिशुओं में भुजाओं और पैरों की तीव्र अविकसितता और लघु आंत्र,हृदय और रक्तवाहिकाओं के विकार उत्पन्न हुए। कुछ दवाइयाँ पशुओं में तो जन्मजात विकार उत्पन्न करती हैं,लेकिन वही प्रभाव मनुष्यों में नहीं देखे गए हैं। ऐसा एक उदाहरण है, मेक्लिज़िन (व्यापारिक नाम – एंटीवर्ट), जिसे अकसर गति रोग, मितली और उल्टी के उपचार के लिये लिया जाता है।

गर्भावस्था के समय प्रयुक्त औषधियों के जोखमों के वर्ग

वर्ग

विवरण

A

ये औषधियां सबसे सुरक्षित हैं। लोगों में किए गए सुनियोजित अध्ययनों में इनसे भ्रूण को कोई खतरा नहीं देखा गया है।

B

पशुओं में किये गए अध्ययनों में भ्रूण के लिये कोई जोखम नहीं देखा गया है और लोगों में कोई सुनियोजित अध्ययन नहीं किये गए हैं।
या
पशुओं में किये गए अध्ययनों में तो भ्रूण के प्रति जोखिम देखा गया है, परंतु लोगों में किये गए सुनियोजित अध्ययनों में नहीं।

C

पशुओं या लोगों पर कोई पर्याप्त अध्ययन नहीं किये गए हैं।
या
पशु-अध्ययनों में, औषधि के प्रयोग से भ्रूण को हानि पहुंची है, लेकिन मानव भ्रूण पर औषधि के प्रभाव के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

C

पशुओं या मनुष्यों में कोई पर्याप्त अध्ययन नहीं किये गए हैं।
या
पशु-अध्ययनों में औषधि के प्रयोग से भ्रूण को हानि पहुंची है, लेकिन मानव भ्रूण पर उसके प्रभाव के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

D

मानव भ्रूण के प्रति जोखिम के प्रमाण उपलब्ध हैं, लेकिन औषधि से होने वाले लाभों का महत्व कुछ परिस्थितियों में जोखिम से अधिक हो सकता है, उदाहरण के लिए माता में जीवन के लिये कोई खतरनाक रोग या गंभीर विकार हो,जिसका उपचार अधिक सुरक्षित औषधियों से नहीं किया जा सकता हो।

X

भ्रूण के प्रति होने वाला जोखम किसी भी संभावित लाभ से अधिक सिद्ध किया गया है।

अक्सर,किसी अधिक सुरक्षित दवा के स्थान पर ऐसी दवा दी जा सकती है जिससे गर्भावस्था में हानि होने की संभावना होती है। अतिसक्रिय थायरॉयड ग्रंथि के लिये प्रोपाइलथायोयूरेसिल को आम तौर पर प्राथमिकता दी जाती है। खून के थक्कों की रोकथाम के लिये,थक्कानिरोधक हिपैरिन को प्रमुखता मिलती है। कई सुरक्षित एंटीबायोटिक जैसे,पेनिसिलिन उपलब्ध हैं।
कई दवाइयों को रोक देने के बाद भी उनके प्रभाव बने रह सकते हैं, उदाहरण के लिए आइसोट्रेटिनॉइन (व्यावसायिक नाम – एक्युटेन), जो त्वचा के रोगों के उपचार के लिये प्रयुक्त दवा है,त्वचा के नीचे मौजूद वसा में संग्रहीत हो जाती है और धीरे-धीरे मुक्त होती है। यदि आइसोट्रेटिनॉइन (व्यावसायिक नाम – एक्यूटेन) को रोकने के 2 हफ्तों के भीतर कोई महिला गर्भवती हो जाती है, तो उसके कारण जन्मजात विकार हो सकते हैं। इसलिये,महिलाओं को इस दवा को बंद करने के बाद गर्भवती होने के पहले कम से कम 3 से 4 हफ्तों तक प्रतीक्षा करने की सलाह दी जाती है।

जीवित वाइरस से बने टीके (जैसे रूबेला और वेरिसेला टीके) उन स्त्रियों को नहीं दिये जाते हैं, जो गर्भवती हों या होने वाली हों। अन्य टीके (जैसे हैजे,हिपैटाइटिस ए और बी,प्लेग,रेबीज़,टिटैनस, डिप्टीरिया और टायफॉयड) गर्भवती स्त्रियों को तभी दिये जाते हैं यदि उनके उस संक्रमण से ग्रस्त होने की काफी संभावना हो.फिर भी इनफ्लुएंज़ा (फ्लू) के मौसम में दूसरे या तीसरे त्रैमास वाली सभी गर्भवती स्त्रियों को इनफ्लुएंज़ा वाइरस के विरूद्ध टीका देना चाहिये।
उन गर्भवती स्त्रियों को जिन्हें गर्भधारण के पहले से उच्च रक्तचाप हो या गर्भावस्था में उच्च रक्तचाप हो जाय तो बढ़े हुए रक्तचाप को कम करने के लिये दवाइयों (उच्च रक्तचापनिरोधक) की जरूरत पड़ सकती है। किसी भी तरह उच्च रक्तचाप निरोधी दवाएं – एंजियोटेंसिन कनवर्टिंगम एंजाइम (एस) इनहिबिटर्स और थायाज़ाइड डाइयूरेटिक्स –सामान्यतया गर्भवती स्त्रियों को नहीं दी जाती हैं क्योकि ये दवाएं भ्रूण में गंभीर समस्याएं उत्पन्न कर सकती हैं।

डिजाक्सिन (व्यावसायिक नाम- लैनाक्सिन),जिसका प्रयोग हृदय की विफलता और कुछ असामान्य हृदय तालों के उपचार के लिये किया जाता है,आसानी से अपरा के पार चली जाती है। लेकिन इसका शिशु पर जन्म के पहले या बाद बहुत मामूली असर होता है।

कुछ दवाएं जो गर्भावस्था में समस्याएं उत्पन्न कर सकती हैं

प्रकार

उदाहरण

समस्या

चिंता-उन्मूलक दवा

डायजेपाम(व्या.नाम-
डायास्टैट,वैलियम)

दवा को गर्भावस्था के अंतिम दौर में लेने पर, अवसाद,चिड़चिड़ापन,कम्पन और नवजात में आशातीत प्रतिवर्ती क्रियाएं

एंटीबायोटिक

क्लोरामफेनिकॉल

धूसर शिशु रोगसमूह, ग्लुकोज-6-फास्फेट की कमी वाली स्त्रियों या भ्रूणों में लालरक्तकणों का विच्छेदन

 

फ्लोरोक्विनोलोन,जैसे,सिप्रोफ्लॉक्ससिन, ओफ्लॉक्ससिन,लीवोफ्लॉक्ससिन और नॉरफ्लॉक्ससिन

जोड़ों के विकारों की संभावना(केवल पशुओं में)

 

केनामाइसिन

भ्रूण के कानों को हानि,जिसके परिणामस्वरूप बहरापन हो जाता है

 

नाइट्रोफ्युरैंटाइन
(फ्यूराडैंटिन,मैक्रोडैंटिन)

जी6 पीडी की कमी वाली स्त्रियों या भ्रूणों में लाल रक्तकणों का विच्छेदन

 

स्ट्रेप्टोमाइसिन

भ्रूण के कानों को हानि,परिणामस्वरूप बहरापन

 

सल्फोनामाइड जैसे सल्फासैलेजिन (एजुलफिडीन), और ट्राईमेथोप्रिम-सल्फामेथाक्सजोल

जब गर्भावस्था के उत्तरकाल में ये दवाइयां दी जाती हैं तो नवजात में पीलिया और संभवतया मस्तिष्क को हानि हो सकती है

 

टैट्रासिक्लिन (सुमाइसिन)

धीमा अस्थिविकास,दांतों का स्थायी पीलापन,और शिशु के दांतों में गुहाएं होने की संभावना,कभी-कभी गर्भवती स्त्रियों में यकृत की विफलता

थक्कानिरोधक

हिपैरिन

लंबे अर्से तक लेने पर, अस्थिसुषिरता और गर्भवती स्त्री में बिंबाणुओं(जो खून के जमने में सहायक होते हैं) की संख्या कमी

 

वारफैरिन (कूमेडिन)

जन्मजात विकार,भ्रूण और गर्भवती स्त्री में रक्तस्राव की समस्याएं

दौरा-निरोधक

कार्बामजेपाइन (टेग्रिटॉल)

जन्मजात विकारों का थोड़ा जोखिम नवजात में रक्तस्राव की समस्याएं,जिन्हें गर्भवती स्त्रियों द्वारा प्रसव के एक महीने पहले रोजाना विटामिन खाकर या नवजात को जन्म के तुरंत बाद विटामिन का एक इंजेक्शन देकर रोका जा सकता है.

 

फेनोबार्बिटॉल(लूमिनॉल)

कार्बामजेपाइन के समान ही

 

फेनिटॉइन(डाइलैंटिन)

कार्बामजेपाइन के समान ही

 

ट्राइमेथाडयोन (ट्राइडयोन)

स्त्री में गर्भपात का अधिक खतरा जन्मजात विकारों का अधिक (70%) खतरा,फटा हुआ तालू और हृदय,चेहरे,खोपड़ी.हाथों या पेट के अवयवों के विकार

 

वैलप्रोएट (डेपाकॉन)

फटे हुए तालू और हदय,चेहरे,खोपड़ी,रीढ़ या हाथ-पैरों के जन्मजात विकारों का कुछ जोखम(1%)

उच्च रक्तचाप निरोधक

एंजियोटेंसिन-परिवर्तक एंजाइम(ACE) प्रतिरोधक
(ACE) inhibitors

गर्भावस्था के पश्चकाल में लेने पर,भ्रूण के गुर्दों को हानि,विकसित हो रहे भ्रूण के चारों ओर स्थित द्रव (ऐमनियाटिक द्रव) में कमी। और चेहरे, हाथ-पैरों और फेफड़ों के विकार

 

बीटा-ब्लॉकर

गर्भावस्था में कुछ बीटाब्लॉकरों का प्रयोग करने पर, भ्रूण के हृदय की गति का धीमा होना,रक्त शर्करा स्तर में कम और संभवतया धीमा विकास

 

थायाजाइड मूत्रकारक

भ्रूण के रक्त में आक्सीजन,सोडियम और पोटाशियम के स्तरों तथा बिंबकणों की संख्या में कमी

रसायन उपचार दवाएं

एक्टिनोमाइसिन

जन्मजात विकारों की संभावना (केवल पशुओं में देखी गई)

 

बुसल्फान (माइलेरॉन)

जन्मजात विकार जैसे निचले जबड़े का अपूर्ण विकास,फटा हुआ तालू,खोपड़ी की हड्डियों का असामान्य विकास,रीढ़ के विकार,कानों के विकार और क्लब पांव मंद विकास

 

क्लोरैम्बुसिल(ल्यूकेरॉन)

बुसाल्फान के समान ही

 

साइक्लोफास्फेमाइड (लयोफिलाइज्ड साइटॉक्सान)

बुसल्फान के समान ही

 

मर्कैप्टोप्यूरीन(प्यूरीनेथॉल)

बुसल्फान के समान ही

 

मेथोट्रेक्सेट(ट्रेक्साल)

बुसल्फान के समान ही

 

विनब्लास्टीन

जन्मजात विकारों की संभावना (केवल पशुओं में देखी गई)

 

विनक्रिस्टीन

जन्मजात विकारों की संभावना(केवल पशुओं में देखी गई)

मूड को बनाए रखने वाली दवाई

लीथियम

नवजात में जन्मजात विकार (मुख्यतया हृदय के),थकान,पेशीय तनाव में कमी,कम आहार सेवन,थायरॉयड ग्रंथि का कम सक्रियता और गुर्दाजनित डायबिटीज इनसिपिडस

गैरस्टीरायडीय शोथनिरोधी दवाएं

एस्पिरिन और अन्य सैलिसिलेट
इबुप्रोफेन(ऐडविलमॉट्रिन)

नैप्रॉक्सेन(नैप्रोसिन)

बड़ी मात्रा में इन दवाओं को लेने पर,प्रसवक्रिया के शुरू होने में देर,महाधमनी और फेफड़ों की धमनी(डक्टस आर्टीरियोसस) के बीच की कड़ी का समयपूर्व बंद हो जाना,पीलिया और (कभी-कभी) भ्रूण के मस्तिष्क को हानि तथा प्रसव के पहले और बाद स्त्री और नवजात में रक्तस्राव की समस्याएं
जब ये दवाएं गर्भावस्था के उत्तरार्ध में ली जाती हैं,विकसित हो रहे भ्रूण के चारों ओर स्थित द्वव में कमी

मौखिक अतिरक्त शर्करा निरोधक दवाएं

क्लोरप्रोपामाइड (डायाबिनीज)

नवजात के रक्त में शर्करा का बहुत कम स्तर गर्भवती स्त्री में मधुमेह का अपर्याप्त नियंत्रण जब मधुमेह प्रकार 2 से ग्रस्त किसी स्त्री द्वारा यह दवाई ली जाती है तो जन्मजात विकारों का खतरा बढ़ जाता है

 

टोलबुटामाइड

क्लोरप्रोपामाइड के समान ही

सेक्स हारमोन

दानाज़ॉल

गर्भावस्था में बहुत जल्दी लेने पर,मादा भ्रूण का पुरूषीकरण,जिसको सुधारने के लिये शल्यक्रिया की जरूरत हो सकती है.

 

डाईइथाइस्टिलबेस्ट्रॉल (डीईएस)

गर्भाशय के विकार,मासिकधर्म की समस्याएं और योनि के कैंसर का अधिक जोखम और पुत्रियों में गर्भावस्था के समय समस्याएं
पुत्रों में लिंग के विकार

 

संश्लेषित प्रोजेस्टिन (लेकिन मौखिक गर्भनिरोधकों में प्रयुक्त कम मात्राओं में नहीं)

दानाज़ॉल के समान ही

त्वचा के उपचार

एट्रीटिनेट

जन्मजात विकार जैसे हृदय के विकार,छोटे कान और हाइड्रसेफेलस (जिसे कभी-कभी मस्तिष्क पर जल कहते हैं)

 

आइसोट्रेटिनॉइन(एक्यूटेन)

एट्रेटिनेट के समान ही मंद बुद्धि
गर्भपात का जोखिम

थायरॉयड दवाएं

मेथिमेजोल (टापाजोल)

भ्रूण में बढ़ी हुई या अल्पसक्रिय थायरॉयड ग्रंथि
नवजात में सिर की खाल के विकार

 

प्रोपाइलथायोयूरेसिल

भ्रूण में थायरॉयड ग्रंथि का बढ़ जाना या अल्पसक्रिय हो जाना

 

रेडियोसक्रिय आयोडीन

भ्रूण की थायरॉयड ग्रंथि का नष्ट हो जाना
जब पहले त्रैमास के पास दवाई दी जाती है तो भ्रूण में अत्यंत अतिसक्रिय और बढ़ी हुई थायरॉयड ग्रंथि पाई जाती है/td>

 

ट्राईआयोडोथायरोनीन (थायरोलार)

भ्रूण में अतिसक्रिय और बढ़ी हुई थायरॉयड ग्रंथि

टीके(जीवित वाइरस)

जर्मन मीजल्स(रूबेला) और चिकन पॉक्स(वेरिसेला)

अपरा और विकसित हो रहे भ्रूण का संभावित संक्रमण

 

खसरा,कनपड़ा,पोलियो या पीले बुखार के टीके

संभावित परन्तु अज्ञात जोखम

* जब तक अनिवार्य न हो जाए,गर्भावस्था में दवाईयों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। फिर भी कभी-कभी दवाईयां गर्भवती स्त्री और भ्रूण के स्वास्थ्य के लिये आवश्यक होती हैं। ऐसे मामलों में स्त्री को अपने चिकित्सक से दवाईयों के लेने से होने वाले जोखम और लाभों के बारे में बात करनी चाहिये।

सामाजिक दवाईयां

धूम्रपान:

हालांकि धूम्रपान से गर्भवती स्त्री और भ्रूण दोनों को हानि होती है। धूम्रपान करने वाली केवल 20% के लगभग स्त्रियां गर्भावस्था में धूम्रपान बंद करती हैं। गर्भावस्था में भ्रूण पर होने वाला सबसे सतत प्रभाव जन्म के समय वजन में कमी होता है। स्त्री गर्भावस्था में जितना अधिक धूम्रपान करती है,भ्रूण के वजन के उतना ही कम होने की संभावना होती है। गर्भावस्था में धूम्रपान करने वाली स्त्रियों द्वारा जन्मे शिशुओं का वजन धूम्रपान न करने वाली स्त्रियों द्वारा जन्म दिये गए शिशुओं से 170 ग्राम कम होता है। जन्म वजन में कमी अधिक उम्र की धूम्रपान करने वाली स्त्रियों में अधिक होती प्रतीत होती है।
हृदय,मस्तिष्क और चेहरे के जन्मजात विकार धूम्रपान न करने वालों की अपेक्षा धूम्रपान करने वालों में अधिक आम होते हैं। साथ ही,अकस्मात शिशु मृत्यु रोगसमूह (SIDS) होने का खतरा भी बढ़ जाता है। विस्थापित अपरा (प्लासेंटा प्रीविया), अपरा का समयपूर्व पृथक्कीकरण, झिल्लियों (भ्रूण से युक्त) का समयपूर्व फूट जाना, समयपूर्व प्रसव,गर्भाशयी संक्रमण,गर्भपात, मृतशिशु-जन्म,और समयपूर्व जन्म होने की संभावना अधिक होती है। इसके अलावा,धूम्रपान करने वाली स्त्रियों के बच्चों में हल्के से लेकिन मापी जा सकने वाली शारीरिक विकास और बुद्धिमत्ता व बर्ताव के विकास की कमियां होती हैं। ये प्रभाव कार्बन मोनो ऑक्साइड और निकोटीन के कारण उत्पन्न माने जाते हैं। गर्भवती स्त्रियों को दूसरों के द्वारा किये गए धूम्रपान से उत्पन्न धुंए से भी बचना चाहिये क्योंकि यह भी समान रूप से भ्रूण को हानि पहुंचा सकता है।

अल्कोहल:

गर्भावस्था में मद्यपान शिशुजन्म के विकारों का मुख्य ज्ञात कारण है। चूंकि भ्रूण में अल्कोहल रोगसमूह को उत्पन्न करने के लिये आवश्यक अल्कोहल की मात्रा अज्ञात है, इसलिये स्त्रियों को नियमित रूप से या विशेष मौकों पर शराब का सेवन न करने की सलाह दी जाती है; शराब को पूरी तरह से छोड़ देना और भी हितकर हो सकता है। गर्भावस्था में शराब पीने से होने वाले प्रभावों का दायरा काफी बड़ा है।

गर्भावस्था में किसी भी रूप में शराब पीने वाली स्त्रियों में गर्भपात होने का खतरा दुगुना हो जाता है,खास तौर पर यदि वे भारी मात्रा में शराब पीती हों। अकसर,गर्भावस्था में नियमित रूप से शराब पीने वाली स्त्रियों के शिशुओं का जन्म वजन सामान्य से काफी कम होता है। सभी शिशुओं के 7 पौंड औसत जन्म वजन की तुलना में अल्कोहल की बड़ी मात्रा से प्रभावित शिशुओं का औसत जन्म वजन करीब 4 पौंड ही होता है। गर्भावस्था में मद्यपान करने वाली स्त्रियों के नवजातों का विकास नहीं भी हो सकता है और जन्म के तुरंत बाद मृत्यु होने की अधिक संभावना होती है।

भ्रूणीय अल्कोहल रोगसमूह गर्भावस्था में मद्यपान से होने वाली गंभीर समस्याओं में से एक है। दावत के समय एक दिन में तीन बार शराब पीने से यह रोगसमूह हो सकता है। 1000 जीवित जन्मों में से करीब 2 में यह रोगसमूह होता है। इस रोगसमूह में जन्म के पहले या बाद अपर्याप्त विकास,चेहरे के विकार,छोटा सिर (संभवतया मस्तिष्क के अपर्याप्त विकास के कारण),मंदबुद्धि,और बर्ताव का असामान्य विकास शामिल हैं। कभी-कभार जोड़ों की स्थिति और कार्यक्षमता असामान्य होती है और हृदय के विकार पाए जाते हैं।

गर्भावस्था में मद्यपान करने वाली स्त्रियों के शिशुओं या विकसित हो रहे बच्चों में बर्ताव की गंभीर समस्याएं हो सकती हैं, जैसे असामाजिक बर्ताव और ध्यान में कमी का रोग। ये विकार शिशु को कोई शारीरिक जन्म विकारों के न होने पर भी हो सकते हैं।

कैफीन:

यह स्पष्ट नहीं है कि गर्भावस्था में कैफीन का सेवन करने से भ्रूण को कोई हानि पहुंचती है। सबूत के अनुसार ऐसा लगता है कि गर्भावस्था में थोड़ी मात्रा,(उदा.रोजाना एक कप काफी) में कैफीन के सेवन से भ्रूण को कोई खतरा नहीं होता।

काफी,चाय,कुछ तरह के सोडा,चाकलेट और कुछ दवाईयों में मौजूद कैफीन एक उत्तेजक है जो अपरा को पार करके भ्रूण के पास आसानी से पहुंच जाता है।इस तरह यह भ्रूण को उत्तेजित करके उसकी हृदय दर को बढ़ा सकता है। कैफीन अपरा में से रक्त प्रवाह को भी कम कर सकता है और लौह का अवशोषण घटाता है (जिससे संभवतया रक्ताल्पता उत्पन्न हो सकती है)। कुछ प्रमाणों के अनुसार एक दिन में सात कप से अधिक काफी पीने से मृतशिशु जन्म, समयपूर्व जन्म,कम जन्म वजन वाले शिशु या गर्भपात होने का खतरा बढ़ सकता है। कुछ विशेषज्ञ यदि संभव हो तो काफी का सेवन कम करने और कैफीन-रहित पेयों का सेवन करने की सलाह देते हैं।

एस्पार्टेम:

एस्पार्टेम जो एक कृत्रिम मीठा करने वाला पदार्थ है, जो गर्भावस्था के दौरान कम मात्राओं में उपयोग करने पर सुरक्षिर रहता है। यह खाद्यपदार्थों और पेयों में प्रयुक्त होता है। फिनाइल कीटोनूरिया,जो एक असाधारण विकार है, से ग्रस्त गर्भवती स्त्रियों को एस्पार्टेम का प्रयोग नहीं करना चाहिये।

स्तनपान के समय दवाओं का सेवन

जब कभी स्तनपान कराने वाली स्त्रियों को कोई दवा लेनी हो,उन्हें स्तनपान कराना रोक देना चाहिये या नहीं,यह बात निम्न तथ्यों पर निर्भर है -

  • दूध में दवाई की कितनी मात्रा पहुंचती है
  • क्या दवा शिशु द्वारा अवशोषित हो रही है
  • दवा का शिशु पर कैसा असर होता है
  • शिशु कितना दूध पीता है,जो कि शिशु की उम्र और उसके आहार में अन्य खाद्यों और द्रवों की मात्रा पर निर्भर होता है।

कुछ दवाएं जैसे एपीनेफ्रीन,हिपैरिन और इंसुलिन स्तन के दूध में नहीं जाती हैं, इसलिये उनका सेवन सुरक्षित है। अधिकांश दवाएं स्तन के दूध में जाती तो हैं लेकिन साधारणतया बहुत लघु मात्राओं में ही। फिर भी बहुत कम मात्रा में भी कुछ दवाएं शिशु को हानि पहुंचा सकती हैं। कुछ दवाएं स्तन के दूध में चली तो जाती हैं परंतु शिशु उसमें से इतनी कम मात्रा का अवशोषण करता है कि उनका उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उदा.एंटीबायोटिक जेंटामाइसिन,केनामाइसिन,स्ट्रेप्टोमाइसिन और टैट्रासाइक्लिन. सुरक्षित मानी जाने वाली दवाओं में अधिकांश गैर-नुस्खा(काउंटर पर प्राप्त) दवाएं शामिल हैं। इनमें अपवाद हैं,एंटीहिस्टामिन (आम तौर पर खांसी और जुकाम की दवाओं,एलर्जी की दवाओं,गति विकार की दवाओं,और नींद की दवाओं में प्रयुक्त) और लंबे समय के लिये बड़ी मात्राओं में लेने पर,एस्पिरिन और अन्य सैलिसिलेट।

त्वचा,आखों,या नाक पर लगाई जाने वाली या सूंघी जाने वाली दवाएं आम तौर पर सुरक्षित होती हैं। अधिकांश उच्चरक्तचाप निनरोधी दवाएं स्तनपान करने वाले शिशुओं में विशेष समस्याएं उत्पन्न नहीं करती हैं। स्तनपान कराते समय स्त्रियां बीटा-ब्लॉकर ले सकती हैं,लेकिन शिशु की संभावित अवांछित प्रभावों,जैसे मंद हृदय गति और कम रक्तचाप, के लिये नियमित जांच की जानी चाहिये। यदि शिशु पूरे समय का हो और स्वस्थ हो तो कूमेडिन का प्रयोग किया जा सकता है,लेकिन इसके प्रयोग पर निगरानी रखनी चाहिये। कैफीन और थियोफिल्लीन(थियोलेयर) स्तनपान कर रहे शिशुओं को हानि नहीं पहुंचाते हैं लेकिन उन्हें चिड़चिड़ा बना सकते हैं। शिशु की हृदय और श्वसन गति बढ़ सकती है। कुछ दवाओं के स्तनपान कर रहे शिशुओं के लिये सुरक्षित होने पर भी स्तनपान करा रही स्त्री को कोई भी दवा,काउंटर पर उपलब्ध या जड़ी-बूटी की दवा को भी,लेने से पहले चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिये। सभी दवाओं के लेबल की यह देखने के लिये जांच करनी चाहिये कि उनमें स्तनपान के विरूद्ध चेतावनियां तो नहीं हैं।

कुछ दवाईयों के प्रयोग के समय डाक्टर की देखरेख की जरूरत होती है। स्तनपान कराते समय उन्हें सुरक्षापूर्वक लेने के लिये मात्रा के अनुकूलीकरण,दवा के प्रयोग की अवधि की लंबाई को कम करने या स्तनपान के संदर्भ में दवा के लेने को समय के अनुकूलीकरण की जरूरत पड़ सकती है। अधिकांश बैचेनी-निरोधी दवाएं,अवसाद निरोधक,और मानसिक रोग निरोधक दवाओं के लिये डाक्टर की देखरेख की आवश्यकता होती है, हालांकि उनसे शिशु में कोई खास समस्याएं होने की संभावना नहीं है। फिर भी ये दवाएं लंबे समय तक शरीर में रहती हैं। जीवन के पहले कुछ महीनों में,शिशुओं को इन दवाओं का निकास करने में कठिनाई होती है,और ये दवाएं शिशु के नाड़ी तंत्र को प्रभावित कर सकती हैं। उदाहरण, बेचैनी-निरोधी दवा डायजेपाम (डायास्टैट वैलियम),जो एक बेंजोडायजेपाइन है,स्तनपान करने वाले शिशुओं में सुस्ती,अनमनापन और वजन में कमी पैदा कर सकती है। शिशु फेनोबार्बिटाल(लूमिनाल),जो एक मिर्गीनिरोधक तथा बार्बिचुरेट है,का निकास धीरे-धीरे करते हैं,इसलिये यह दवा अत्यधिक सुस्ती उत्पन्न कर सकती है। इन प्रभावों के कारण डाक्टर बेंजोडायजेपाइनों और बार्बिचुरेटों की मात्रा को घटा देते हैं और स्तनपान करा रही स्त्रियों द्वारा उनके प्रयोग की निगरानी करते हैं।

महत्वपूर्ण सावधानियां

  • यदि स्तनपान कराने वाली स्त्रियों को कोई ऐसी दवा लेना जरूरी हो जो शिशु के लिये हानिकारक हो तो उन्हें स्तनपान नहीं कराना चाहिये। लेकिन दवा का प्रयोग बंद करने के बाद वे स्तनपान पुनः शुरू कर सकती हैं।दवा लेते समय,स्त्रियों को अपने दूध की आपूर्ति बनाए रखने के लिये स्तन के दूध को पंप द्वारा निकाल कर फेंक देना चाहिये।
  • धूम्रपान करने वाली स्त्रियों को धूम्रपान के 2 घंटों के भीतर स्तनपान नहीं कराना चाहिये और अपने शिशु की उपस्थिति में कभी धूम्रपान नहीं करना चाहिये, चाहे वे स्तनपान करा रही हों या नहीं। धूम्रपान दूध के उत्पादन को घटा देता है और शिशु के वजन में सामान्य वृद्धि में अवरोध उत्पन्न करता है।
  • बड़ी मात्राओं में शराब पीने से शिशु को उनींदापन हो सकता है और बहुत पसीना आ सकता है।

अवैध दवाएं

गर्भावस्था में अवैध दवाओं (खासकर अफीम-सदृश) के प्रयोग से गर्भावस्था में जटिलताएं और विकसित हो रहे भ्रूण और नवजात के लिये समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। गर्भवती स्त्रियों में अवैध दवाओं के इंजेक्शन लेने से संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है,जो भ्रूण को प्रभावित कर सकते हैं या उस तक फैल सकते हैं। इन संक्रमणों में हेपेटाइटिस और लैंगिक तरीके से संचरित रोग (एड्स सहित) शामिल हैं। साथ ही,जब गर्भवती स्त्रियां अवैध दवाएं लेती हैं तो भ्रूण का विकास भी अपर्याप्त होने की अधिक संभावना होती है और समयपूर्व प्रसव होना अधिक आम है।

कोकेन का प्रयोग करने वाली माताओं के शिशुओं में अकसर समस्याएं होती हैं,लेकिन ये समस्याएं कोकेन से ही होती हैं या नहीं,यह बात स्पष्ट नहीं है। उदाहरण धूम्रपान,अन्य अवैध दवाओं का प्रयोग,अपर्याप्त प्रसवपूर्व देखरेख या गरीबी भी इसके कारण हो सकते हैं।

अफीम-सदृश दवाएं :

अफीम-सदृश दवाएं जैसे,हेरोइन,मेथाडोन और मॉर्फीन आसानी से अपरा के पार चली जाती हैं। इसके फलस्वरूप भ्रूण उनका आदी हो सकता है और जन्म के 6 घंटों से 8 दिनों में उसमें इन दवाओं को रोकने से होने वाले लक्षण उत्पन्न होते हैं। फिर भी अफीम-सदृश दवाओं से जन्मजात विकार विरल रूप से ही होते हैं। गर्भावस्था में अफीम-सदृश दवाओं के प्रयोग से गर्भपात,शिशु की असामान्य प्रस्तुति,और समयपूर्व प्रसव जैसी समस्याएं हो सकती हैं। हेरोइन का प्रयोग करने वालों के शिशुओं के आकार में छोटे होने की संभावना अधिक होती है।

एम्फीटैमीन दवाएं :

गर्भावस्था में एमफीटैमीनों के प्रयोग से जन्मजात विकार,खास तौर पर हृदय के,उत्पन्न हो सकते हैं।

मारिजुआना :

मारिजुआना का प्रयोग गर्भावस्था में करने से भ्रूण को हानि होती है या नहीं यह स्पष्ट नहीं है। मारिजुआना का मुख्य अंश,टैट्राहाइड्रोकैनाबिनॉल,अपरा को पार कर सकता है और इस तरह भ्रूण को प्रभावित कर सकता है.फिर भी मारिजुआना जन्मजात विकारों के जोखम को बढ़ाता या भ्रूण के विकास को धीमा करता नजर नहीं आता है। मारिजुआना गर्भावस्था में उसके भारी प्रयोग करने पर ही नवजात में बर्ताव संबंधी समस्याएं उत्पन्न करता है।

प्रसव और शिशु जन्म के समय प्रयुक्त दवाएं

स्थानिक सुन्नताकारक, अफीम सदृश पदार्थ और अन्य दर्दनिवारक अपरा को पार कर सकते हैं और नवजात को प्रभावित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए वे नवजात की सांस लेने की इच्छा को कमजोर कर सकते हैं। इसलिये,यदि प्रसव के समय इन दवाओं की जरूरत हो तो वे सबसे छोटी प्रभावी मात्राओं में दी जाती हैं। शिशु की लंबाई सामान्य तरीके से नहीं बढ़ती है और उसका वजन बढ़ सकता है।

प्रसव-पश्चात् अवसाद

प्रसव-पश्चात अवसाद क्या होता है?

प्रसव के उपरांत पहले कुछ हफ्तों या महीनों में होने वाली अत्यंत दुख और संबंधित मानसिक विचलितताओं की अनुभूति को प्रसव-पश्चात् अवसाद कहते हैं। शिशु-जन्म के उपरांत 3 दिनों के भीतर दुख या बेबसी का अनुभव होना आम है। स्त्रियों को इन अनुभूतियों के बारे में बहुत अधिक चिंता नहीं करनी चाहिये क्योंकि ये अनुभूतियां सामान्यतया 2 हफ्तों में गायब हो जाती हैं। प्रसव-पश्चात् अवसाद एक अधिक गंभीर मूड का बदलाव होता है। यह हफ्तों या महीनों तक रहता है और दैनिक कार्य-कलाप में विघ्न डालता है। लगभग 10 से 15 प्रतिशत स्त्रियां इससे प्रभावित होती हैं। यदा-कदा, एक और भी गंभीर विकार, प्रसव-पश्चात् मनोविक्षिप्तता भी उत्पन्न होता है।

  • जिन स्त्रियों को पहले कभी अवसाद हुआ हो, उनमें प्रसव-पश्चात् अवसाद होने की संभावना अधिक होती है।
  • स्त्रियां अत्यंत दुखी महसूस करती हैं, चिड़चिड़ी और मूडी हो जाती हैं, तथा दैनिक गतिविधियों और शिशु में रूचि खो सकती हैं।
  • परामर्श के साथ अवसाद रोधी दवाओं का प्रयोग इसके उपचार में मददगार हो सकता है।

कारण

प्रसव के बाद दुख या अवसाद होने के कारण अस्पष्ट हैं, लेकिन निम्न इसमें भागीदार हो सकते हैं -

  • प्रसव के पहले या उसके दौरान होने वाला अवसाद या कोई अन्य मानसिक विकार
  • अवसाद से ग्रस्त करीबी रिश्तेदार (पारिवारिक इतिहास)
  • हारमोनों के स्तरों में अकस्मात गिरावट (जैसे ईस्ट्रोजन,प्रोजेस्टोरोन), शिशु को जन्म देने और उसे पालने संबंधी तनाव (जैसे शिशु-जन्म के समय की कठिनाईयां, नींद का अभाव, थकान, स्वतंत्रता खो देना, और अकेलेपन और असामर्थ्य की अनुभूतियां)
  • सामाजिक सहयोग का अभाव
  • वैवाहिक मतभेद
  • जीवन के अन्य महत्वपूर्ण तनाव कारक जैसे आर्थिक कठिनाईयां या हाल में हुआ बदलाव

यदि स्त्रियों को गर्भाधान होने के पहले अवसाद हुआ हो तो उन्हें इसकी सूचना डाक्टर या दाई को देनी चाहिये। ऐसा अवसाद अकसर प्रसव-पश्चात् के अवसाद में बदल जाता है। गर्भावस्था में अवसाद होना आम है और यह प्रसव-पश्चात् अवसाद के लिये महत्वपूर्ण जोखिम-कारक है।

लक्षण

लक्षणों में बार-बार रोना, मूड के उतार-चढ़ाव, चिड़चिड़ापन और अत्यंत दुख के भाव शामिल हैं। कम आम लक्षणों में तीव्र थकान, ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, निद्रा की समस्याएं, संभोग और अन्य गतिविधियों में अरूचि, बेचैनी, भूख में बदलाव और अपर्याप्तता या निराशा की भावनाएं शामिल हैं। स्त्रियों को काम करने में कठिनाई होती है। उन्हें अपने शिशु में रूचि नहीं होती है।
प्रसव-पश्चात् मनोविक्षिप्तता में, अवसाद के साथ आत्महत्या के या हिंसक विचार, मतिभ्रम, या विचित्र व्यवहार हो सकते हैं। कभी-कभी प्रसव-पश्चात् मनोविक्षिप्तता में शिशु को हानि पहुंचाने की इच्छा शामिल हो सकती है। पिता भी अवसाद-ग्रस्त हो सकते हैं और वैवाहिक तनाव बढ़ सकता है। बिना उपचार के, प्रसव-पश्चात् अवसाद कई महीनों या वर्षों तक रह सकता है, और स्त्रियां अपने शिशु के साथ बंध नहीं पाती हैं। परिणाम-स्वरूप बच्चे को आगे चलकर भावनात्मक, सामाजिक, और बोध-संबंधी समस्याएं हो सकती हैं। प्रसव-पश्चात् अवसाद से ग्रस्त करीब तीन या चार स्त्रियों में से एक को यह फिर से हो सकता है।

निदान

शीघ्र निदान और उपचार स्त्रियों और उनके शिशुओं के लिये महत्वपूर्ण है। प्रसव के बाद 2 हफ्तों से अधिक तक लगातार दुखी महसूस करने और अपनी सामान्य गतिविधियां करने में कठिनाई होने पर या स्वयं या शिशु को हानि पहुंचाने के विचार आने पर स्त्रियों को अपने डाक्टर से सलाह करनी चाहिये। यदि परिवार के सदस्यों और मित्रों को लक्षण दिखें तो उन्हें स्त्री से बात करनी चाहिये और डाक्टर की सलाह लेने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये।
डाक्टर अवसाद का निदान करने का प्रयत्न कर सकते हैं। वे यह जानने के लिये रक्त परीक्षण भी कर सकते हैं कि कहीं कोई विकार, जैसे थायरायड विकार, लक्षणों का कारण तो नहीं है।

प्रसव के बाद अवसाद की रोकथाम

शिशु-जन्म के बाद स्त्रियां दुख की अनुभूतियों को होने से रोकने के लिये कदम उठा सकती हैं -

  • जितना संभव हो उतना विश्राम करना---उदाहरण के लिए ।जब बच्चा सो रहा हो तभी स्वयं भी झपकी ले लेना
  • सब-कुछ करने का यत्न न करना---उदाहरण के लिए ।घर को साफ रखने और हर समय घर में भोजन तैयार करने की कोशिश नहीं करना
  • परिवार के सदस्यों और मित्रों से सहायता का अनुरोध करना
  • अपनी अनुभूतियों के बारे में किसी से (पति या सहयोगी, परिवार के सदस्य या मित्र) बात करना
  • प्रतिदिन स्नान करना और सजना-संवरना
  • नियमित रूप से घर के बाहर जाना---उदाहरण के लिए ।खरीदारी के लिये निकलना,मित्रों से मिलना या सैर करना
  • अपने पति या सहयोगी के साथ अकेले में समय बिताना
  • अन्य माताओं को साथ समान अनुभवों और अनुभूतियों के विषय में बात करना
  • अवसाद-ग्रस्त स्त्रियों के किसी सहायता समूह में शामिल होना

उपचार

यदि स्त्रियां दुखी महसूस करें, तो परिवार के सदस्यों और मित्रों का समर्थन ही साधारणतया काफी होता है। लेकिन अगर अवसाद का निदान हो जाए,तो पेशेवर मदद की भी जरूरत होती है। आदर्श रूप से परामर्श और प्रतिअवसादकों की सिफारिश की जाती है। प्रसव-पश्चात् मनोविक्षिप्तता से ग्रस्त स्त्रियों को अस्पताल में रखना पड़ सकता है, विशेषकर ऐसी पर्यवेक्षित इकाई में जहां उनके साथ शिशु को रहने दिया जाता हो। उन्हें मनोविक्षिप्तता-रोधी और प्रतिअवसादक दवाओं की जरूरत हो सकती है।
जो स्त्रियां स्तनपान करवा रही हों उन्हें ऐसी कोई भी दवा लेने के पहले अपने डाक्टर से स्तनपान जारी रखने के बारे में परामर्श कर लेना चाहिये। स्तनपान जारी रखने देने के लिये कई विकल्प उपलब्ध हैं।

प्रसवोत्तरकाल

यह शिशुजन्म के बाद की उस अवधि का चिकित्सकीय नाम है जिसमें शरीर के ऊतक, विशेषकर जनन और श्रोणि के अंग, गर्भावस्था के पहले की अपनी अवस्था में वापस लौटते हैं। प्रसव के पश्चात के परिवर्तनों की यह अवधि प्रसव से लगभग 6 हफ्तों (42 दिन) तक जारी रहती है। इस अवधि के अंत में, जरा से बढ़े हुए वज़न जैसे कुछ परिवर्तनों को छोड़ कर, आप पुनः लगभग पूर्ण रूप से सामान्य महसूस करेंगी। शायद यही वजह है कि अधिकांश भारतीय घरों में प्रसव के पश्चात 40 दिनों (‘सवा महीना’) तक घर में ही रखने के पारम्परिक सिद्धांत का पालन किया जाता था। यह स्त्री को ठीक होने का अवसर प्रदान करता है।

तुरंत प्रसवोत्तरकाल

शिशुजन्म के बाद के पहले 24 घंटे की अवधि एक नाज़ुक अवस्था होती है। यह वह समय है जब आपके गर्भाशय को अपरा के संलग्न होने के स्थान से होने वाले रक्तस्राव को रोकने के लिये संकुचित होना होता है। इसी अवधि में स्तनपान और बंधनक्रिया की शुरूआत भी होती है। कभी-कभी इसी समय प्रसव की अधिकांश जीवनघातक समस्याएं भी प्रकट होती हैं। इनमें प्रसवोत्तरकाल में अत्यधिक रक्तस्राव, रक्तप्रवाह का पतन, हृदय की विफलता आदि शामिल हैं। ये समस्याएं आम नहीं हैं, लेकिन सामान्य योनिमार्ग से जन्म के बाद भी, 10000 में से करीब एक स्त्री की मृत्यु का जोखिम इनसे रहता है। यह जोखिम पूर्ववर्ती रोगों जैसे रक्ताल्पता, रक्तचाप या हृदय रोगों से ग्रस्त स्त्रियों में अधिक हो सकता है। यह शल्यक्रिया से हुए प्रसवों में भी अधिक होता है। इसलिये आपको शिशुजन्म के बाद कम से कम 24 घंटे अस्पताल में रहने की सलाह दी जाती है।

प्रारंभिक प्रसवोत्तरकाल

इसका संबंध प्रसव-पश्चात दूसरे से सातवें दिन से है जब आपके जनन मार्ग में मुख्य परिवर्तन होते हैं। यही संभवतः अधिकतम अनुकूलन का समय भी होता है जब आप मां के रूप में अपनी नई भूमिका का सामना करती हैं। इसी अवधि में आपको अपने शिशु को लेकर घर जाना होता है। इस समय कई अपेक्षाकृत लघु, लेकिन महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन भी होते हैं, जिनकी जानकारी आपको होनी चाहिये।
इनमें शामिल हैं:

सूतिस्राव/योनिस्राव:

यह पद योनि से होने वाले स्राव के लिये प्रयुक्त किया जाता है, जो मुख्यतःगर्भाशय की भीतरी कला के झड़ने से उत्पन्न होता है। पहले 4 दिनों तक भारी मासिक प्रवाह की तरह ताज़ा रक्तस्राव होता है। आपको एक बार में 2 पैडों की जरूरत पड़ सकती है, जिन्हें दिन भर में 3-4 बार बदलना पड़ता है। फिर भी यदि आपको यह बहुत अधिक महसूस हो या बड़े थक्के निकलते जा रहे हों तो अपने डाक्टर को सूचित करना चाहिये। साधारणतः पांचवे दिन तक बहाव काफी कम हो जाता है, और रक्त से सने पीलापन लिये भूरे स्राव में बदल जाता है। आपको अब भी सैनिटरी संरक्षण-2—3 पैड प्रतिदिन- की जरूरत हो सकती है। यह स्राव आम तौर पर दूसरे हफ्ते के अंत तक थम जाता है जिसके बाद यह एक सादे सफेद स्राव में बदल जाता है। अच्छी शुभ्रता और भगच्छेदन की सुश्रूषा संक्रमण की रोकथाम करेगी। स्राव में किसी भी तरह की बदबू आने पर डाक्टर को बताएं।

मूत्रत्याग:

पहले दिन टांकों में दर्द होने पर भी, आपको कम से कम 2-3 घंटे में एक बार मूत्रत्याग करना चाहिये। ऐसा इसलिये करना है क्योंकि मूत्राशय आपकी जानकारी के बिना अधिक भर सकता है, जिसके कारण बाद में समस्याएं, विशेषकर संक्रमण हो सकते हैं। पहले हफ्ते में, आपको लगेगा कि आप बहुत अधिक मूत्रत्याग कर रही हैं। ऐसा इसलिये होता है कि आपका शरीर गर्भावस्था में एकत्रित अधिक पानी और नमक को बाहर निकाल रहा होता है।

मलत्याग:

प्रसव के बाद के पहले 2 दिनों में विभिन्न कारणों से अच्छा मल-त्याग नहीं हो पाता है। एक कारण है, प्रसव के समय आपका अधिक भोजन न करना, थक जाना और उनींदा होना। दूसरे, आपको भगच्छेदन के टांकों में दर्द रह सकता है। सख्त मल से बचने के लिये अधिक रेशे वाला आहार और खूब सारा द्रव लेना महत्वपूर्ण है। आपको कुछ दिनों के लिये हल्का विरेचक लेने की जरूरत पड़ सकती है।

स्तन:

पहले दिन आपके स्तनों से केवल पानी जैसा,पीला सा स्राव निकलेगा जो ‘असली’ दूध जैसा नहीं दिखता है। इसे कलोस्ट्रम कहते हैं और यह आपके शिशु के लिये आवश्यक कई पोषक तत्त्वों से युक्त होता है। आपको इस समय अपने शिशु को स्तनपान अवश्य कराना चाहिये। तीसरे दिन तक, आपके शरीर में हार्मोनल परिवर्तनों के कारण दूध का प्रवाह काफी बढ़ जाता है। स्तन को फूल जाने से बचाने के लिये नियमित स्तनपान कराना जरूरी है।

भगच्छेदन की सुश्रूषा

यदि आपके मूलाधार पर टांके लगे हों तो आपके आराम और स्वास्थ्य के लिये, विशेषकर पहले हफ्ते में आपको कुछ चीजों की जरूरत होती है।

  • उस स्थान को स्थानिक एंटीसेप्टिक घोल जैसे सैवलॉन या डेटॉल से दिन में कम से कम दो बार साफ करना। यह मलत्याग के बाद आवश्यक है, और मूत्रत्याग करने के बाद इसे पानी से धोना चाहिये। याद रखें कि संक्रमण की रोकथाम के लिये हमेशा सामने से पीछे की ओर, न कि इसके विपरीत,धोएं।
  • एंटीसेप्टिक मलहमों जैसे सोफ्रामाइसिन, मेट्रोजिल जेल, बीटाडीन ई-कॉम का स्थानिक प्रयोग संक्रमण की रोकथाम में मददगार हो सकता है। ऐसा साधारणतया दिन में दो बार, नहाने के बाद और रात में सोने के पहले किया जाता है।
  • दर्द निवारक विधियां जैसे गर्म पानी से धोना या गर्म पानी की थैली उपयोगी हो सकती हैं।
  • दर्द से छुटकारा पाने का एक और तरीका है, 2%जाइलोकेन जैसे मरहमों का स्थानिक लेप, जो स्थानिक दर्द-निवारक का काम करता है।
  • टांकों के भाग को सेंकने के लिये अस्पताल में आपको इन्फ्रारेड लैम्प दिया जा सकता है।
  • मौखिक दवाएं जैसे संक्रमण की रोकथाम के लिये एंटीबायोटिक और दर्द निवारक गोलियां (पैरासिटामॉल, इबुप्रोफेन आदि) अपने डाक्टर की सलाह के अनुसार ही लेनी चाहिये।
  • अधिकांश डाक्टर स्वयं घुल जाने या झड़ जाने वाले टांकों का प्रयोग करते हैं। अपने डाक्टर से पूछ लें कि क्या टांके दिखाने के लिये आपके फिर उनके पास जाने की आवश्यकता है।

गतिविधियों का पुनरारंभ

जैसा कि पहले कहा गया है, आपके शरीर को गर्भावस्था के परिवर्तनों से उबरने में 6 हफ्तों तक का समय लगता है। इसलिये,धीरज बनाए रखें। विभिन्न स्त्रियों में अपने स्वास्थ्य के परिवर्तनों से निपटने की विभिन्न क्षमताएं होती हैं। फिर भी सामान्य योनिमार्ग से हुए प्रसव के बाद, आप एक दिन के भीतर अपनी दैनिक व्यक्तिगत गतिविधियां शुरू कर सकती हैं, और अपना घरेलू कामकाज एक हफ्ते में पुनरारंभ कर सकती हैं। आवश्यकता से अधिक परिश्रम न करें—यह वह समय है जब आपको अपना और अपने शिशु का ख्याल रखना है। अपने जीवन को सुगम बनाने के लिये अन्य उपलब्ध लोगों की सहायता लें। समस्याग्रस्त शिशुजन्म या सीजेरियन प्रसव के बाद आपको ठीक होने में दुगुना समय लग सकता है।

प्रसवपश्चात कसरतें

प्रारंभिक प्रसवपश्चात अवधि में लैंगिक गतिविधि को टालना ही सर्वोत्तम होता है। इसका कारण यह है कि आपके टांके कच्चे या दर्दपूर्ण हो सकते हैं, और आपका जनन मार्ग, विशेषकर पहले हफ्ते में आसानी से संक्रमित हो सकता है। अपरा के स्थल सहित गर्भाशय कला का पुनर्स्थापन तब तक पूरा नहीं हुआ होता है। इसलिये पारम्परिक रूप से कुछ लोग प्रसव के बाद 6 हफ्तों तक परहेज की सलाह देते हैं। लेकिन यदि आपका प्रसव सामान्य हुआ हो और कोई समस्या न हो तो आप लैंगिक जीवन पहले भी शुरू कर सकती हैं। आप और आपके सहयोगी को विशेषकर गर्भावस्था के अंतिम माह में एक दूसरे से वंचित रहना पड़ सकता है। इसलिये, अपने लैंगिक जीवन का नवीकरण करने की इच्छा महसूस करना असामान्य नहीं है। जब तक आप वास्तविक भेदक संभोग के लिये तैयार न हों, तब तक सुश्रूषा और स्नेह के अन्य प्रदर्शन पर्याप्त हो सकते हैं। गर्भावस्था या प्रसव के बाद के समय कभी भी गले लगना, चुम्बन करना, थपथपाना या स्पर्श करना मना नहीं है।

दुग्धस्रावी अनार्तव

जब आप खास तौर पर स्तनपान करा रही हों तो आपके शरीर के हारमोन परिवर्तन जनन मार्ग को प्रभावित करके डिम्बोत्सर्जन और मासिकस्राव का दमन करते हैं।
हो सकता है कि आपको कुछ महीनों तक मासिक स्राव न हो। स्तनपान कराने के तरीके और बारम्बारिता के अनुसार कुछ स्त्रियों में मासिक स्राव एक साल तक शुरू नहीं होता है।

समय

बिना दुग्धस्राव के

दुग्धस्राव होने पर

मासिकस्राव

6 – 12 हफ्तों में

36 हफ्तों में (औसत)

जल्दी से जल्दी डिम्बोत्सर्जन

4 हफ्ते

12 हफ्ते

डिम्बोत्सर्जन के लिये औसत समय

8 – 10 हफ्ते

17 हफ्ते (परिवर्तनीय)

तो क्या इसका यह अर्थ है कि आप गर्भवती नहीं हो सकती हैं? इसका उत्तर नहीं में है। लगभग 5% स्त्रियां प्रसव के बाद मासिकस्राव शुरू होने के पहले ही गर्भवती हो जाती हैं। दुग्धस्रावी अनार्तव (मासिकस्राव का अभाव) कुछ हद तक आपको गर्भवती होने से बचाता है। फिर भी आप दुग्धस्रावी अनार्तव पर गर्भनिरोधक तरीके के रूप में केवल तभी भरोसा कर सकती हैं यदि नीचे दी गई सभी 3 शर्तें पूरी हों:

  • आप शिशु को केवल स्तनपान करा रही हों।
  • प्रसव के बाद 6 महीनों से अधिक न हुए हों।
  • प्रसव के बाद आपको एक बार भी मासिकस्राव न हुआ हो।

गर्भनिरोध

यदि आप दुग्धस्रावी अनार्तव पर भरोसा कर रही हैं, तो आप सुरक्षित रह सकती हैं। यदि नहीं,तो एक महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आता है। क्या आप एक और गर्भधारण के लिये तैयार हैं? आपको अपने शरीर को सामान्य होने का, आपके शिशु को बढ़ने का और स्वयं को ‘मां’ की नई भूमिका में जमने का समय देना होगा, बेशक, यह व्यक्तिगत चुनाव का प्रश्न है, लेकिन दो गर्भधारणों के बीच कम से कम 2 वर्षों का अंतर रखने की सिफारिश की जाती है।
प्रसव-पश्चात की अवधि में गर्भाधान को कैसे रोकें? इसके लिये कई विधियां उपलब्ध हैं।

प्रसव-पश्चात की अवधि में कुछ बातों को ध्यान में रखना जरूरी है:

  • स्तनपान करा रही हैं या नहीं।
  • लैंगिक संभोग की आवृति।
  • गर्भाधान की रोकथाम की जरूरत कब तक है।
  • अंतिम चुनाव पर आपकी व्यक्तिगत जरूरतों और अनुभव का प्रभाव पड़ता है।

कंडोम
कंडोम एक अच्छा, स्थानिक रूप से काम करने वाला तरीका है, जो सही तरह से और लगातार प्रयोग करने पर भरोसेमंद है। उसके कोई दुष्प्रभाव नहीं हैं और कम बार लैंगिक संभोग करने वाले युगलों के लिये उपयोगी है।

आईयूसीडी या लूप
यह एक बहुत भरोसेमंद तरीका है, जिसे लगाने के लिये डाक्टर के पास एक बार जाना पड़ता है, और बिना बेहोश किये आसानी से लगाया जा सकता है। ये औसतन (उपकरण के अनुसार) 3–5 वर्षों तक प्रभावकारी होते हैं और उन पर कंडोमों की तरह लैंगिक क्रिया का कोई असर नहीं पड़ता। यह एक या अधिक बच्चों वाली स्त्रियों के लिये बहुत लोकप्रिय विधि है। वास्तव में, इसे स्थायी तरीके के विकल्प के रूप में किया जा सकता है। आईयूसीडी को प्रसव-पश्चात पहले निरीक्षण (शिशुजन्म से 6 हफ्तों बाद) के समय या बाद में, आपको मासिकस्राव न भी हो तो लगाया जा सकता है, अगर आपका आंतरिक परीक्षण सामान्य हो।

मौखिक गर्भनिरोधक गोलियां
अखंडित स्तनपान की अवधि में संयुक्त मौखिक गर्भनिरोधी(ईस्ट्रोजन व प्रोजेस्ट्रॉन युक्त) गोलियां स्तन के दूध के प्रवाह को कम कर सकती हैं। इसलिये इनकी लोकप्रिय रूप से सिफारिश नहीं की जाती है। स्तनपान बंद करना शुरू करने पर इनका प्रयोग सुरक्षापूर्वक किया जा सकता है।

बन्ध्यीकरण
यह एक स्थायी तरीका है,जिसे अपने परिवार को पूर्ण करने के बाद चुना जा सकता है। यह एक विधि है,जो प्रसव के तुरंत बाद(प्रसव-पश्चात बन्ध्यीकरण) या सीजेरियन सेक्शन के समय आसानी से किया जा सकता है। दोनों विकल्पों के लिये, आपको इसके लाभ और हानि के बारे में प्रसव के पहले, आदर्श रूप से प्रारंभिक प्रसवपूर्व काल में, अपने डाक्टर और पति से बात करनी होगी। कुछ लोग यह स्थायी प्रक्रिया करवाने के पहले, सबसे छोटे बच्चे के बड़े होने तक, जहां तक हो सके एक वर्ष से अधिक का होने तक रूकना पसंद करते हैं। मध्यांतर प्रक्रिया के रूप में यह सामान्यतया लैपरोस्कोपी द्वारा प्रसव के 6 हफ्तों या अधिक होने के बाद किया जाता है।

प्रथम प्रसव-पश्चात परीक्षण।
आप और आपका शिशु काफी कुछ से गुजर चुके होते हैं। आपके घर जाने के बाद और शिशुजन्म की प्रक्रिया से निकलने के बाद आपके डाक्टर को कम से कम एक बार आपका परीक्षण यह जानने के लिये करना होगा कि आप पूरी तरह से ठीक हो गई हैं या नहीं। पहला परीक्षण आम तौर पर प्रसव के 6 हफ्तों के बाद किया जाता है। यदि प्रसव के समय आपको विशेष सुश्रूषा की जरूरत पड़ी हो या प्रसव में कोई कठिनाई हुई हो तो यह पहले भी, करीब 3 हफ्तों के बाद किया जा सकता है।

पहले परीक्षण के समय, आपका डॉक्टर निम्नलिखित परीक्षाएं करेगा

  • आपका वजन
  • रक्तचाप
  • रक्ताल्पता के चिन्ह
  • आपके स्तन
  • आपकी भगच्छेदन का निशान(अब तक घुल चुकना चाहिये)
  • आपका गर्भाशय(यह देखने के लिये कि वह संकुचित होकर सामान्य आकार में लौट रहा है)

आपको कुछ परीक्षणों की जरूरत पड़ सकती है। आपको अपने डाक्टर से निम्न विषयों पर बात करना होगा:

  • अपने संपूर्ण स्वास्थ्य का पुनर्स्थापन
  • प्रसव-पश्चात की कसरतें ।
  • आहार और पोषण
  • आपके शिशु का स्वास्थ्य
  • टीकाकरण सारणी
  • अखंडित स्तनपान जारी रखना
  • गर्भनिरोध

अब आप अपनी यात्रा के अंतिम चरण पर पहुंच गई हैं—यह कैसी रही? आपको कैसा महसूस हुआ? आपकी प्रतिक्रिया ई-मेल पर दें।

 

अंतिम बार संशोधित : 2/23/2020



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