गर्भकालीन अवस्था में शिशु माँ के गर्भ में सर्वाधिक सूराक्षित होता है तथापि कुछ परिवेशीय कारक उसे प्रभावित भी करते हैं जिसके फलस्वरूप बालक का गर्भकालीन विकास दोषपूर्ण हो सकता है। अत: प्रत्येक माता- पिता का यह दायित्व होता है की वे परिवेशीय कोरकों की पहचान करके इनसे शिशु को सुरक्षित रखें जिससे गर्भस्थ शिशु का स्वस्थ विकास हो सके। गर्भकालीन विकास को प्रभावित करने वाले कुछ महत्वपूर्ण परिवेशीय कारक निम्न हैं –
माँ द्वारा ग्रहण किए जा रहे खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों की कमी के कारण के अनेक क्षतिकारक प्रभाव जैसे- उच्च शिशु मृत्युदर, शिशु में अपरिपक्वता, मंद बृद्धि जैसी जटिलतायें पायी जाती हैं। माँ को पर्याप्त पोषण न मिल पाने के कारण फेमिन रोग उत्पन्न होता है जो गर्भकाल के प्रारंभिक 3-4 महीनों में अति तीव्र गति से प्रभाव डालता है। अनेक अध्ययनों से पुष्टि होती है की इसके प्रभाव के कारण बच्चों का भर निम्न एवं सिर का आकार छोटा हो जाता हैं (स्टाइन, 1975)। कुपोषण के कारण अन्य जटिलतायें जैसे केन्द्रीय स्नायु संस्थान का अपेक्षित विकास न हो पाना, अल्प मस्तिष्क कोशिकायें निम्न मस्तिष्क भर एवं प्रकार्यत्मक दोष इत्यादि शिशुओं में पाये जाते हैं (पारिख एवं अन्य, 1970, रामालिंगास्वामी, 1973; जैमनाफ एवं अन्य, 1971)। कुपोषण एक कारक के रूप में जन्म पूर्व एवं पश्चात शिशु के सरंचनात्मक एवं प्रकार्यत्मक विकास को प्रभावित करता है, अथवा नहीं इसकी पूर्णत: पुष्टि तो नहीं जो पायी है, परन्तु कुपोषण का दुष्प्रभाव प्रभाव शिशु के विकास को सर्वथा प्रभावित करता है। कुपोषण की सर्वाधिक समस्या विकासशील देशों के निम्न वर्गों में तथा 20 से 25% मध्यमवर्गीय परिवारों में भी पायी जाती है जहाँ बच्चे अनके प्रकार की विकास संबधी समस्याओं के शिकार पाये जाते हैं।
जो भी परिवेशीय कारक गर्भकालीन विकास को हानि पहुँचाते हैं, उन्हें टेरेटोजेन्स खाते हैं। यह शब्द ग्रीक भाषा टेरस से निर्मित है जिसका अर्थ है कुनिर्माण अथार्त गर्भस्थ शिशु के विकास को गंभीर रूप से हानि पहूँचाने। हानि की मात्रा निम्नलिखित कारकों से निर्धारित होती है।
1. टेरेटोजेन्स की मात्रा एवं प्रदर्शन काल की आवधि जिनती अधिक होगी, प्रभाव उतना ही तीव्र एवं हानिकारक होगा।
2. माँ एवं शिशु की आनुवांशिक संरचना की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती है। कोपिंग की क्षमता कुछ लोगों में अधिक पायी जाती है।
3. अनेक निषेधात्मक कारकों की एक साथ उपस्थिति जैसे, कुपोषण, औषिधिय देख रेख का अभाव जैसे हानिकारक अभिकर्ता अधिक प्रबल होकर विकास को अवरूद्ध करते हैं।
4. विकास के कुछ चरणों में इन अभिकर्ताओं का प्रदर्शन अधिक हो जाता है। जैसे संवेदी अवधि में शरीरिक विकास एवं विकास व्यवहार का विकास तीव्रतम क्षतिग्रस्त हो जाता है। जिससे पुनरावर्तन कठिन अथवा असम्भव जो जाता है बीजावास्था में टेरेटोजेन्स का प्रभाव नहीं के बराबर होता है परंतु यदि प्रभाव पड़ जाय तो भ्रूण में गंभीर दोष उत्पन्न हो जाता है जिससे शारीरिक संरचना पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। गर्भ में इसके प्रभाव से मस्तिष्क, आँख एवं जननेन्द्रियों का विकास बाधित हो जाता है एवं शिशु में तीव्र मानसिक क्षति पायी जाती है। माँ द्वारा नशीले पदार्थों का सेवन बच्चे में अनूक्रियात्मक दोष पैदा कर देता है। इससे अंत: क्रियात्मक, अंत: वैयक्तिक संबंधों के निर्माण में अयोग्यता आ जाती है तथा अन्वेषण क्षमता भी बाधित हो जाती है। कालान्तर में संज्ञानात्मक, संवेगिक एवं सामाजिक विकास बाधित हो जाते हैं। अनूसंधान कर्ताओं ने कतिपय हानिकारक टेरेटोजेन्स के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल की जिसका संक्षिप्त विवरण दिया है।
गर्भवती स्त्री द्वारा सेवित दवाएँ भ्रूण अथवा गर्भस्थ शिशु के रक्तस्रोत में प्रवेश कर जाती है जिससे विकास प्रदूषित हो जाता है। दवाओं का सेवन करने वाली माताओं के गर्भस्थ शिशु के विकास में आये दुष्परिणामों की अनेक घटनाएँ सामने आयी हैं । जैसे थेलिडामाइड दवा भ्रूण के विकास को क्षतिग्रस्त कर देती है। इसके चलते शिशु/बच्चे में निम्न बौद्धिक स्तर एवं केन्द्रीय स्नायु संस्थानीय दोष पाए गए। बिना चिकित्सकीय परामर्श के एस्प्रिन का लगातार सेवन का कारण मृत शिशु जन्म या शिशु का औसत से कम शारीरिक भार तथा निम्न चाकलेट में पाये जाने वाली कैफीन के प्रभाव के कारण गर्भपात एवं जन्मे शिशु में चिड़चिड़ापन आदि समस्याएं मिलीं। अन्य अध्ययनों से यद्यपि इस तथ्य की पूर्णत: पुष्टि नहीं होती तथापि गर्भवती स्त्रियों द्वारा दवाओं के सेवन का परिहार श्रेयस्कर है।
दिन प्रतिदिन नशीली दवाएँ जैसे कोकीन और हेरोइन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। इनका उपयोग प्रतिबल, तनाव एवं विषाद से मुक्ति पाने हेतु किया जाता है। पाश्चात्य देशों में करीब 25% महिलाएँ नशीली दवाओं का प्रयोग करती है। भारत जैसे विकासशील देश में भी, इसके उपयोग से महिलाएँ अछूती नहीं हैं। एलेन एवं अन्य (1991) के अनुसार “कोकीन से शिशु जन्म दर” में पिछले वर्षो में भरी वृद्धि हुई है जिसके परिणामस्वरूप अपरिपक्व, कम शरीरिक भारयुक्त श्वसन क्रिया में कठिनाई अनुभव करें वाले शिशु एवं मृत शिशु पैदा होते हैं, बच्चे में मेथाडोन इत्यादि के प्रभाव से बच्चे में अवधान दोष एवं मंद विकास गति पायी गयी (वारीस एवं मल्नो, 1987)। पिता द्वारा नशीली दवाओं का सेवन भी गर्भस्थ शिशु के लिए हानिकारक होता है । लोग मेरिजूआना का उपयोग भी बहुतायत से करते हैं परिणामस्वरूप अनेक दोष जैसे – नवजात द्वारा अधिक रोना, चिल्लाना, अवधान क्षमता में बाधा, प्रात्यक्षिक एवं व्यावाहारिक दोष पाये गये (फ्रिड एवं ओकोनेल, 1987; ज्यूकरमैन एवं अन्य, 1987) तथा शिशु के बाद का विकास भी प्रभावित होता गया।
शराब के सेवन का गर्भस्थ शिशु पर अत्यंत घातक प्रभाव पड़ता है। “ फिटल अल्कोहल सिंड्रोम” के शिकार बच्चों में मानसिक मंदता, बाधित अवधान एवं अतिसक्रियता जैसे दोष पाये जाते हैं। प्रभाव की तीव्रता इस बात से निर्धारित होती है की गर्भकाल में कब से एवं कितनी बार शराब का प्रयोग किया गया है (हाँसिंथ एवं जोन्स, 1989) फिटल अल्कोहल सिंड्रोम के शिकार मृत बच्चों पर किये गए अनुसंधानों से पता चलता है की इनमें कोशिकाओं की संख्या कम थी एवं वृहद संरचनात्मक दोष भी पाये गये (नोवाकोस्की, 1987)। शराब के सेवन से आक्सीजन का क्षय होता है जिसकी पूर्ति गर्भस्थ शिशु के आक्सीजन से होता है फलस्वरूप शिशु के विकास पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। प्रश्न यह utht उठता है की शराब के सेवन की कितनी मात्रा सुरक्षित है? अध्ययन दर्शाते हैं की मात्र दो औंस अल्कोहल का उपयोग भी बच्चे में फिटल अल्कोहल सिंड्रोम के समान आकृति दोष विकसित कर देता हैं (एत्सली एवं अन्य, 1992)। इन बच्चों में निम्न गत्यात्मक संयोजन, निम्न बौद्धिक स्तर एवं निम्न उपलब्धि स्तर पायी गयी (वार एवं अन्य, 1990; कोल्स एवं अन्य, 1992)। अत: गर्भकाल में शराब का सेवन पूर्णत: निषिद्ध होना चाहिए।
धूम्रपान गर्भस्थ शिशु के लिए अत्यंत हानिकारक होता है। तम्बाकू में निहित निकोटिन एवं अन्य तत्व प्लेसेंटा के विकास को अवरूद्ध कर देते हैं। साथ ही माँ एवं बच्चे के रक्तस्रोत में कार्बन मोनोआक्साइड जमा होने लगता है। परिणामत: केन्द्रीय स्नायु संस्थान क्षतिग्रस्त हो जाता है तथा बच्चे का शारीरिक भार अति निम्न हो जाता है (नाग एवं प्रसाद, 1988), इसके अतिरिक्त गर्भपात, मृत शिशु जन्म एवं बाल्यावस्था में कैंसर होने की संभवना पायी जाती है। निष्क्रिय धूम्रपानकर्ता अथार्त वह गर्भवती माँ जो पति एवं सगे संबंधियों के धूम्रपान की शिकार होती हैं, इसका प्रभाव परोक्षत: गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ता है । ऐसे शिशुओं में अधिक विकास संबंधी दोष पाये गए। अत: माँ एवं परिजनों का दायित्व है की वे इन कारकों के दुष्प्रभाव से बच्चे को बचाएं।
गर्भपात को रोकने के लिए कृत्रिम हारमोंस का उपयोग महिलाओं द्वारा किया जाता रहा है परंतु इसके निषेधात्मक प्रभाव भी पाये गए हैं। जैसे किशोरावस्था में लड़कियों में योनि कैंसर, अपरिपक्वता, बच्चे में निम्न भार एवं गर्भपात की घटनायें पायी जाती हैं।
आधुनिक अनूसंधान स्पष्ट करते हैं की अज्ञानतावश जो स्त्रियाँ गर्भकाल में गर्भ निरोधकों का उपयोग करती रही ; उनके शिशुओं में अविकसित हृदय एवं लिंग पाया गया। तथापि आगे और अनूसंधान अपेक्षित हैं (ग्राइमन एवं मिशेल, 1988) ।
आयोनाइजिंग विकिरण के प्रभाव से डी. एन. ए. क्षतिग्रस्त हो जाता है। गर्भकाल में इसके प्रदर्शन से भ्रूण एवं गर्भस्थ शिशु का विकास तीव्र रूप से बाधित हो जाता है। हिरोशिमा एवं नागासाकी में द्वितीय विश्व युद्ध में प्रलयंकारी विकिरण प्रभाव कई दशकों तक बना रहा है। इसके कारण गर्भपात, निम्न शारीरिक विकास, अविकसित मस्तिष्क एवं शारीरिक ढाँचा तथा आँखों की बनावट दोषपूर्ण पायी गई (मिशेल,1989)। यदि समान्य शिशु का जन्म हो गया हो तो भी बाल्यावस्था में ही उसमें कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है
प्रदूषण का तीव्रगतिक प्रसार औद्योगिकीकरण का दुष्परिणाम है । यह वातज जलीय एवं अन्य माध्यमों में जीवन को क्षत- विक्षत कर रहा है। कारखानों से निकले जहरीले रासायनिक तत्व, पारा और सीसा आदि ऐसे टेरेटोजेन्स हैं जिनके परिणामस्वरूप गर्भस्थ शिशु में मानसिक मंदता, गंभीर विकासात्मक दोष, असामान्य वाणी विकास, चबाने एवं निगलने में कठिनाई, क्षतिग्रस्त मस्तिष्क समंजित गति दोष पाये जाते हैं (वारीस एवं मालो, 1987)।
गर्भकाल में कुछ महिलाएँ किसी न किसी संक्रमण रोग से प्रभावित होती हैं। यद्यपि जुकाम, फ़्लू, इत्यादि का गर्भस्थ शिशु पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता तथापि कुछ बीमारियाँ उसे तीव्र रूप से प्रभावित करती है। इनमें से प्रमुख हैं – एड्स, रूबेला इत्यादि। रूबेला से प्रभावित शिशु में ह्रदय रोग, आँख, कान, मूत्र एवं पेट संबंधी समस्याएँ पायी जाती हैं। यद्यपि इन्हें आधुनिक उपचार पद्धति द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है तथापि 10% से 20% घटनाओं का उपचार नहीं हो पाता।
गर्भकालीन विकास पर कुछ संक्रामक रोगों का प्रभाव
क्र०सं |
रोग |
गर्भपात |
शारीरिक कुगठन |
मानसिक मंदता |
अपरिपक्वता या निम्न जन्म भार |
1 |
एक्वायड इम्यून डेफ़िसिएन्सि सिंड्रोम (एड्स) |
0 |
? |
. |
? |
2 |
चिकेन पाक्स |
0 |
+ |
+ |
+ |
3 |
साइटोमेगेलो वाइरस |
+ |
+ |
+ |
+ |
4 |
ह्पर्स सिम्पलेक्स (जननेद्रिय ह्पर्स) |
+ |
+ |
+ |
+ |
5 |
मम्पस (गलसूआ) |
+ |
? |
0 |
0 |
6 |
रूबेला |
+ |
+ |
+ |
+ |
7 |
वैक्ट्रियल |
|
|
|
|
8 |
सिफिलिस |
+ |
+ |
+ |
+ |
9 |
ट्यूबर क्यूलिसस |
+ |
? |
+ |
+ |
10 |
पैरा साइटिका |
|
|
|
|
11 |
मलेरिया |
+ |
0 |
+ |
+ |
12 |
टाक्सोप्लास्मोसिस |
+ |
+ |
+ |
+ |
सांवेगिक प्रतिबल
माँ द्वारा प्रतिबल का अनुभव गर्भस्थ शिशु के लिए अत्यंत हानिकारक होता है। तीव्र स्तर की चिंता से गर्भपात, अपरिपक्वता, निम्न भर एवं श्वांस संबंधी रोग शिशुओं में पाये जाते हैं। ह्यूटूमैन एवं निस्नेने (1978) ने अपने अध्ययन में दर्शाया कि पतिकी मृत्यु के कारण तीव्र पाये गये। तीव्र प्रतिबल की दशा में हारमोंस रक्तस्रोत में हानिकारक क्रियाशीलता उत्पन्न करते हैं। इससे मस्तिष्क, हृदय, भुजाओं, पैर, कमर आदि की मांसपेशियों में रक्त का बहाव मंद जो जाता है। ये हारमोंस प्लेसेंटा को पार कर गर्भस्थ शिशु की हृदय गति एवं क्रियाशीलता को प्रभावित करते हैं। परंतु सामाजिक सहयोग द्वारा प्रतिबल के दुष्प्रभाव को नियंत्रित किया जा सकता है।
आजकल बाल्टी जीवनशैली एवं जीवनवृत्ति के प्रति बढ़ते रूझान के कारण महिलाएँ पूर्णत: कैरिअर में व्यवस्थित हो जाने के पश्चात् विवाह एवं शिशु जन्म के प्रति निर्णय लेती हैं जिससे अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। जैसे – कम आयु की स्त्री में बच्चे के जन्म के समय समस्या का प्रमुख कारण है, कमर एवं हिप में फैलाव का जारी रहना ताकि स्त्री गर्भधारण एवं जन्म देने योग्य हो सके। इसके अतिरिक्त, गरीबी, कुपोषण इत्यादि भी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न करते हैं, जिनके कारण गर्भस्थ शिशु का विकास अवरूद्ध होता है।
माँ एवं बच्चे के रक्त प्रोटीन में असमानता के कारण भी आक्सीजन वंचना संभव है। यदि माँ में आर. एच. निगेटिव (आर. एच. कारक का अभाव) प्रबल है एवं पिता में आर. एच. पोजिटिव तो संभव है की शिशु आर. एच. पाजिटिव युक्त हो इससे तीसरे त्रैमासिकी में माँ एवं गर्भस्थ शिशु की रक्त कोशिकाओं का प्लेसेंटा को पार करके मिलने की संभावना होती है। यदि आर. एच. कारक का थोड़ा अंश है तो कोई क्षति नहीं होती है परंतु यदि बच्चे की आर. एच. निगेटिव कोशिका थोड़ी भी माँ के (आर. एच. पाजीटिव) रक्त स्रोत में प्रविष्ट हुई तो माँ के रक्त में वाह्य आर. एच. के प्रति एंटीबाडीज निर्मित होने लगते हैं। यदि ये एंटीबॉडीज बच्चे के संस्थान में प्रवेश कर गए तो इससे लाल रक्त (कणिकाएँ) कोशिकाएं क्षत हो जाती है, जिससे ऑक्सीजन वंचना की संभावना बढ़ जाती बढ़ जाती है। परिणामस्वरुप बच्चे में मानसिक मन्दत, हृदय की मांसपेशियाँ का क्षतिग्रस्त होना एवं शिशु की मृत्यु तक हो सकती है। चूंकि माँ में एंटीबॉडीज विकसित होने में समय लगता है। अत: प्रथम शिशु पर इसका शायद ही प्रभाव पड़ता हो। परन्तु बाद के गर्भ पर खतरा बढ़ता जाता है। वैसे उपयुक्त औषधीय देखरेख द्वारा इस समस्या का निदान संभव हो सकता है। आर. एच. निगेटिव का टिका माँ को नियमित लगवाकर, असंतुलन को दूर किया जा सकता है (सिंकिन एवं अन्य, 1984)। ऑक्सीजन वंचना का प्रभाव क्या आगे की विकास पर भी पड़ता है ? इस प्रश्न का उत्तर अनके अनुसंधानों के आधार पर प्राप्त किया गया है। जिनसे प्रमाणित होता है की पूर्व वाल्यावस्था तक इन बच्चो का अन्य बच्चों की तुलना में बौद्धिक एवं गत्यात्मक विकास मंद होता है परंतु कुछ वर्ष पश्चात ये सामान्य बच्चों जैसी गति प्राप्त कर लेते हैं (कोराह एवं अन्य, 1965); ग्रैहम एवं अन्य, 1962 )। परंतु अत्याधिक ऑक्सीजन वंचना के कारण समस्याएँ अधिक तीव्र हो जाती हैं। गर्भकाल की पूर्वावधि (6 सप्ताह पूर्व ही) में जन्मे बच्चों में श्वसन रोग या हेलीन मेम्ब्रेन्स रोग पाया जाता है। फेफड़े अविकसित होने से साँस लेने में कठिनाई आती है। आजकल वेंटीलेटर मशीन का उपयोग करके शिशु को जीवित रखा जाता है। इसके बाद भी ऑक्सीजन के कमी के कारण, कुछ बच्चे सदा के लिए क्षत मस्तिष्क के शिकार हो जाते हैं ( वोहर एवं कर्सिया काल,1988)।
स्त्रोत
ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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