पेट में कई प्रकार के कृमिओं का होना सामान्य बात है। बच्चों से ले कर बूढ़ो तक की आंतों में ये कृमि पाये जाते हैं। इन कृमियों के कारण सैकड़ों लोग प्रतिवर्ष मौत का शिकार होते हैं और सैकड़ों हीे अन्य रोगों की गिरफ्त में आ जाते हैं। पेट के कीड़ों का मनुष्य पर आक्रमण करने का प्रमुख कारण हैं स्वच्छ पीने के पानी का अभाव, दूषित एवं अशुद्ध खाद्य पदार्थों का सेवन तथा शारीरिक स्वच्छता के प्रति उदासीनता। पेट में कीड़े होने से बुखार, शरीर का पीला पड़ जाना, पेट में दर्द, दिल में धक-धक होना, चक्कर आना, खाना अच्छा न लगना तथा यदा-कदा दस्त होना आदि लक्षण दिखाई देते हैं।
कृमि का लार्वा त्वचा के जिस स्थान पर प्रवेश करता है, उसपर तीव्र खुजली होती है और वह स्थान लाल हो कर सूज जाता है। इसके कारण रोगी को वमन, भूख की कमी, हल्का ज्वर, दमा जैसा श्वास और रुक-रुक कर खांसी होने लगती है। आमाशय में दर्द, अफरा तथा कभी कब्ज और कभी अतिसार की शिकायतें रहने लगती हैं। बच्चों का पेट फूल जाता है। इन कृमियों से फेफड़ों में संक्रमण के कारण कभी-कभी निमोनिया भी हो जाता है, जिससे रोगी की मृत्यु भी हो जाती है। पाये जाने वाले कृमि के आधार पर इसके लक्षणों में फर्क हो सकता है।
पेट के कीड़े कई प्रकार के होते हैं। लेकिन मुख्यतः ये दो प्रकार की श्रेणियों में बंटे हैं- गोल कृमि, या ‘राउंड वर्म’ और फीता कृमि, या ‘टेप वर्म’।
गोल कृमि
ये सबसे अधिक पाये जाने वाले आंत्र कृमि हैं। इन कृमियों में नर और मादा अलग-अलग होते हैं। इनका रंग सफेद या पीलापन लिए होता है। इस कृमि की मादा एक ही दिन में हजारों की संख्या में अंडे देती है। ये अंडे हजारों की संख्या में मल के साथ निकल कर मिटटी, पानी, सब्जियों और अन्य खाद्य एवं पेय पदार्थों को दूषित करते रहते हैं। जब कोई स्वस्थ व्यक्ति इन संक्रमित खाद्य, या पेय पदार्थों का सेवन करता है, तो ये अंडे उसकी छोटी आंत में पहुंच कर वहां फूट जाते हैं तथा उनसे वहां पर लार्वा पैदा होते हैं। ये लार्वा छोटी आंत में पहुंच जाते हैं। ये कृमि गुदा और स्त्री योनि तक भी पहुंच जाते हैं।
धागे वाले कृमि
सबसे अधिक व्यक्तियों में इसी प्रकार के आंत कृमि पाये जाते हैं। इन कृमियों का अधिकतर आक्रमण बच्चों पर ही होता है। ये कृमि बहुत छोटे होते हैं। इसके भी अंडे मल द्वारा धूल, मिटटी, पानी, सब्जियों आदि तक पहुंच जाते हैं, जिनके सेवन मात्र से ये अंडे पेट में पहुंच जाते हैं।
अंकुश कृमि
ये कृमि धागे की भांति, बारीक हरियाली लिए, सफेद रंग के होते हैं। ये संक्रमित व्यक्ति की ग्रहणी तथा मध्य आंत में काफी संख्या में पाये जाते हैं। इन कृमियों के अंडे भी मल के साथ शरीर से बाहर आ कर मिट्टी में मिल जाते हैं। जब व्यक्ति नंगे पांव इनके संपर्क में आता है, तो ये पैर की कोमल त्वचा से चिपक कर, त्वचा में प्रवेश कर के, रक्त में मिल कर, फेफड़ों आदि से छोटी आंत में ग्रहणी तक पहुंच जाते हैं।
फीता कृमि
आम तौर से फीता कृमि कम व्यक्तियों में ही देखा गया है। जो लोग मांसाहारी हंै और गाय, या सुअर के मांस का उपयोग करते हैं, उन्हीं में ये कृमि पाये जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह कृमि इन दो पशुओं के शरीर में अपने जीवन का मुख्य काल व्यतीत करते हैं। इनके मांस को खाने वाले व्यक्तियों के पेट में ये कृमि आसानी से स्थानांतरित हो जाते हैं। ये कृमि, व्यक्ति की आंत की दीवार में अपना सिर गड़ाये रख कर, उसका रक्त चूसते रहते हैं।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 9 फरवरी 2015 को जयपुर में राष्ट्रीय डी-वॉर्मिंग पहल की शुरूआत की है।
मानव और पशुओं को राउंड वॉर्म, हुक वॉर्म, फ्लूक और टेप वॉर्म जैसे परजीवी कृमियों से बचाने के लिए एंटी हेलमिंटिक दवा दी जाती है। स्कूली बच्चों के सामूहिक डी-वॉर्मिंग अभियान के तहत हेलमिनथिएसिस की रोकथाम और उपचार के लिए इस दवा का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें मिट्टी के संपर्क से पैदा होने वाला हेलमिनथिएसिस भी शामिल है। बच्चों का उपचार मेबेनडेजॉल और एलबेनडेजॉल से किया जा सकता है। एलबेनडेजॉल की एक गोली से बच्चों को परजीवी कृमियों से बचाया जा सकता है, जो बच्चे की आंतों में रहते हैं और मानसिक स्वास्थ्य तथा शारीरिक विकास के लिए आवश्यक पोषण तत्वों को अपना आहार बनाते हैं। यह गोली संक्रमित और गैर संक्रमित बच्चों के लिए सुरक्षित है तथा इसका स्वाद बहुत अच्छा है।
यह परजीवियों का एक समूह है जिन्हें कृमि के रूप में जाना जाता है। इनमें सिस्टोसोम्स और मिट्टी के संपर्क से पैदा होने वाले हेलमिंथ्स शामिल हैं। यह संक्रमण विकासशील देशों के आम संक्रमणों में से एक है। मामूली संक्रमण पर प्राय: ध्यान नहीं जाता, लेकिन गंभीर कृमि संक्रमण होने पर पेट में दर्द, कमजोरी, आयरन की कमी से पैदा होने वाली रक्त अल्पता, कुपोषण, शारीरिक विकास का रुकना आदि जैसे गंभीर रोग हो सकते हैं। संक्रमणों के कारण मानसिक कमजोरी हो सकती है तथा ऊतकों का नुकसान भी संभावित है, जिसके लिए शल्य चिकित्सा आवश्यक होती है।
कृमि संक्रमण को कम करने के लिए महामारी क्षेत्रों में रहने वाले स्कूल जाने की आयु वाले बच्चों के इलाज के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने समय आधारित औषध उपचार की सिफारिश की है। संगठन का कहना है कि पूरी दुनिया में स्कूल जाने की आयु वाले संक्रमित बच्चों की संख्या लगभग 600 मिलियन है, जिनकी डी-वॉर्मिंग करने से स्कूलों में उनकी उपस्थिति बढ़ेगी, उनका स्वास्थ्य ठीक होगा और वे सक्रिय होंगे। अधिकतर प्रकार के कृमि मुंह से लेने वाली दवा से मर जाते हैं। यह दवा बहुत सस्ती है और उसकी एक ही डोज दी जाती है।
इस तरह देखा जाये तो डी-वॉर्मिंग उपचार कठिन और महंगा नहीं है। इसे स्कूलों के जरिए आसानी से किया जा सकता है और उपचार के बाद बच्चों को बहुत फायदा होता है। पूरी दुनिया में अभी भी हजारों, लाखों बच्चे ऐसे हैं जिन्हें कृमि संक्रमण का जोखिम है। इनके उपचार के लिए स्कूल आधारित डी-वॉर्मिंग उपचार की नीति बनाई जानी चाहिए ताकि स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास में तेजी आ सके।
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत स्कूल स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाया जा रहा है। कार्यक्रम में यह प्रावधान किया गया है कि वर्ष में दो बार निर्धारित अवधि में राष्ट्रीय दिशा निर्देशों के आधार पर डी-वॉर्मिंग की जायेगी। बिहार में विश्व की सबसे बड़ी स्कूल आधारित डी-वॉर्मिंग पहल की शुरूआत की गई थी। दिल्ली सरकार ने भी इसी तरह के अभियान चलाये थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार 1 से 14 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 24 करोड़ बच्चों को आंतों में पलने वाले परजीवी कृमियों से प्रभावित होने का जोखिम है।
नई योजना के तहत एक से 19 वर्ष की आयु वर्ग के स्कूल पूर्व और स्कूली आयु के बच्चों (पंजीकृत और गैर पंजीकृत) के डी-वॉर्मिंग करने का स्वास्थ्य मंत्रालय ने लक्ष्य निर्धारित किया है। पहले चरण के दौरान असम, बिहार, छत्तीसगढ़, दादर एवं नागर हवेली, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु और त्रिपुरा जैसे 11 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के 14 करोड़ बच्चों को रखा गया है। दूसरे चरण के दायरे में लगभग 10 करोड़ बच्चों को रखा गया है। 10 फरवरी 2015 को राष्ट्रीय डी-वॉर्मिंग दिवस पर पहले चरण की शुरूआत की गई। इसके तहत सभी लक्षित बच्चों को एलबेनडेजॉल की गोलियां दी गई। तदनुसार एक से दो वर्ष के बच्चों को इसकी आधी गोली और 2 से 19 वर्ष के बच्चों को इसकी पूरी गोली खिलाई गई। जो बच्चे बच गये उन्हें 14 फरवरी 2015 तक इसके दायरे में लाकर डी-वॉर्म किया गया।
स्वास्थ्य मंत्री ने इस बात पर जोर दिया है कि भारत को पोलियो मुक्त करने के बाद अब बच्चों में व्याप्त आंत में पलने वाले परजीवी कृमियों का इलाज करके देश को कृमि मुक्त भी बनाया जायेगा। उन्होंने स्कूली अध्यापकों सहित सभी सांसदों, विधायकों, स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों, आशा और आंगनवाड़ी कर्मियों का आह्वान किया कि वे एकजुट होकर सरकार के इस अभियान का समर्थन करें ताकि भारत को कृमि मुक्त देश बनाया जा सके।
इस पहल के लिए जरूरी है कि इसके साथ स्वच्छता और स्वास्थ्य में सुधार किया जाये तथा सुरक्षित पेयजल को उपलब्ध कराया जाये ताकि कृमि का जोखिम कम हो सके। इसके लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, पंचायती राज मंत्रालय और जल एवं स्वच्छता मंत्रालय की सक्रिय भागीदारी और साझेदारी आवश्यक है।
स्त्रोत : डॉ. एच. आर. केश्वमूर्ति, पत्र सूचना कार्यालय, कोलकाता में निदेशक हैं।
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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