शिशु में विभिन्न कौशलों का विकास माता- पिता के लिए आह्वाद्कारी होता है। चीजों को हाथ में लेना, स्वत: बैठना, घुटनों के बल चलना एवं स्वत: चलना, विकास क्रम में ये उपलब्धियां मिल्क पत्थर साबित होती हैं। जैसे शिशु की गतिविधियों को देखकर माता – पिता उसके साथ खेलने एवं बोलने में अधिक समय व्यतीत करते हैं। बच्चे का हँसना, मुस्कुराना एवं बलबलाना, दूसरों को अच्छा लगता है। इससे उसका गत्यात्मक कौशल, सामाजिक क्षमताएं, संज्ञानात्मक एवं भाषिक विकास समृद्ध होता है।
इसका तात्पर्य उन क्रियाओं पर नियंत्रण से है जो शिशु को परिवेश के साथ समायोजन में सहयोग देती हैं जैसे; घुटने के बल चलना, खड़ा होना एवं पूर्णत: चलना इत्यादि। इसके बाद उत्कृष्ट गत्यात्मक विकास जैसे – वस्तुओं तक पहुँचना या पकड़ने जैसी क्रियाओं की शूरूआत होती है। प्राय: शिशु इसी क्रम में गत्यात्मक योग्यता प्राप्त करता है एवं उनकी अभिव्यक्ति भी करता है। तथापि विकास क्रम में वैयक्तिक भिन्नता पायी जाती है यह आवश्यक नहीं की एक चरण में यदि विकास विलम्बित है तो दुसरे चरण का विकास भी विलम्ब से ही होगा। शिशु की गत्यात्मक उपलब्धियों में संगठन एवं दिशा निर्दिष्टता की विशेषता पायी जाती है अथार्त सिर से पैर की ओर जिसे सिफैलो काडल प्रवृति कहा जाता है, पाया जाता है। इस रूझान के अंतर्गत सिर के हिस्से में गत्यात्मक नियंत्रण पहले होता है, उसके बाद भुजा एवं मध्य भाग में तथा पैर के अंगों में नियंत्रण सबसे अंत में होता है गत्यात्मक विकास में केंद्र से वाह्य की ओर जिसे ‘निकट- दूर प्रवृति’ कहते हैं, दृष्टिगत होता है। शिशु की भुजाओं, सिर एवं शरीर के मध्य भागों में नियंत्रण पहले आता है, उसके बाद हाथ एवं अंगूलियों की बारी आती है। यही प्रवृति शरीरिक विकास में भी पायी जाती है ये दोनों प्रवृतियाँ आनुवंशिकता से निर्धरित होती हैं।
आधुनिक अनुसंधानों से स्पष्ट होता है कि गत्यात्मक विकास में क्रियाओं की जटिल व्यवस्था अर्जित होती है। जब ये कौशल, संस्थान के रूप में कार्य करते हैं तो परिवेश के साथ समायोजन एवं नियंत्रण संभव हो पाता है। संस्थानों के सतत विकास शैशवावस्था में चलता रहता है जैसे – बैठना, इस क्रिया के लिए सिर एवं वक्ष का सयुंक्त नियंत्रण अपेक्षित है। इसी प्रकार घुटने के बल चलने में उछलना, खिसकना एवं पहुँचना आदि क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।
सूक्ष्म कौशल के विकास में सक्रियता निहित है| जिसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहूँचना, अंगीकृत करना, देखना, भुजाओं को घुमाना इत्यादि। इनसे शिशु परिवेश में निहित वस्तुओं के बारे में जानकारी प्राप्त करता है। एक बार सफल हो जाने के पश्चात् वह अन्य कौशलों से स्वयं को संबंध करना सीख जाता है (कोनाली एवं इंग्लिश, 1989)|
1930 – 1940 ई. के मध्य के अनुसंधान दर्शाते हैं की गत्यात्मक विकास में परिपक्वता की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है (वेल व डेनिस, 1940)। इन्होनें होपी भारीतियों के बच्चों पर अध्ययन किया। कुछ माताएं अपने बच्चों को पालने में दिन- रात बांधे रहती हैं, परंतु कुछ माताओं ने इस प्रचलन को त्याग दिया है। बंधे बच्चे यद्यपि अपना हाथ, पैर, भुजाओं को स्वछंदता से गतिशील नहीं कर पाते थे फिर भी वे सामान्य समूह (बिना बंधे) की ही भांति, समय से चलने – दौड़ने लगे। इससे सिद्ध हुआ की अनुभव की भूमिका महत्त्वहीन है। इस कारक को सार्वभौमिक स्वीकृति नहीं मिली। वैसे बंधे बच्चों को भी अपने ऊपरी भाग के खुले होने के कारण अथवा रात को बाहर निकलने के कारण दिन भर के बंधन के बावजूद गति करने का अवसर प्राप्त हुआ। इसलिए अन्य प्रेक्षणों के आधार पर डेनिस (1960) ने पाया की पेशीय विकास में आरंभिक अनुभवों की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। यतीम ईरानी बच्चे जो विस्तर पर पड़े रहते हैं, खिलौनों अथवा अन्य उद्दीपनो के अभाव के कारण खेलने से वंचित रहते हैं, ये शिशु प्राय: 2 वर्ष की आयु तक चल नहीं पाते। 3-4 वर्ष की आयु में इनके चलने की क्रिया विकसित हो पाती है। अफ्रीका एवं वेस्टइंडीज के बच्चों के पेशीय विकास में संस्कृतिक प्रभाव विषय पर किये गए अनुसंधान उपयुक्त तथ्य की पुष्टि करते हैं। अत: सिद्ध होता है कि प्रारंभिक पेशीय विकास में प्रकृति एवं पोषण की अंत:क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है।
एच्छिक पहुँच की भूमिका, संज्ञानात्मक विकास प्रक्रिया का अध्ययन में महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकी इससे परिवेशीय अन्वेषण को प्रथम एवं नवीन माध्यम मिलता है (पियाजे, 1936, 1952)। वस्तुओं को पकड़ने पलटने देखने के पश्चात् क्या होता है ? शिशु जब वस्तुओं को छूता है या पकड़ता है तो इससे दृश्यों, ध्वनियों एवं त्वक अनुभवों को अर्जित करता है एवं वस्तुओं का प्रत्यक्ष अनुभव करता है।
हाथ उठाकर किसी वस्तु की ओर जाने की क्रिया को पूर्व पहुँच कहा जाता है। नवजात में नेत्र – हस्त संयोजन की क्षमता विकसित नहीं होती। उसकी यह चेष्ठा 7 सप्ताह की आयु के पश्चात स्वत: समाप्त हो जाती है पुन: 3 माह की आयु में ऐच्छिक पहुँच उत्पन्न होकर धीरे- धीरे उपयुक्तता को प्राप्त कर लेता है। 5 माह की आयु तक शिशु एक बार जब चीजों तक पहुँचने लगता है तो क्रिया परिमार्जित होने लगती है। 4 से 5 माह के अंदर चीजों को ढूढंने में दोनों हाथों का प्रयोग करने लगता है। वह वस्तुओं को दोनों हाथों में लेकर एक दुसरे में हस्तांतरित करता रहता है। (रोचट, 1989)| प्रथम वर्ष के अंत तक शिशु से एक अन्य गति, जिसे पिंसर ग्रैस्प कहते हैं (हल्बर्सन, 1931) विकसति होता है, इसमें शिशु का अंगूठा एवं मध्य की अंगुलियाँ, पूर्णत: संयोजित हो जाती है। इससे उसमे वस्तुओं के साथ प्रहस्तन की योग्यता विकसित होती है। 8-11 माह के मध्य तक पहुँच एवं अंगीकरण पूर्णत: विकसित हो जाते हैं जो उसके संज्ञात्मक विकास में सहायक होते हैं जैसे – शिशु प्रथम वर्ष की आयु तक छिपी हुई वस्तुओं को खोजने का प्रयास करने लगता है (वूशलेन, 1985)
शोध अध्ययन दर्शाते हैं की आरंभिक अनुभव ऐच्छिक पहुँच को प्रभावित करते हैं। ह्वाइट एवं हेल्ड (1966) ने देखा की बच्चे जिन्हें आरंभ में सामान्य और बाद में अधिक उद्दीपन दिया गया वे सामान्य बच्चों के तुलना में ऐच्छिक पहुँच में बेहतर पाये गए। तीसरा समूह जिसे अति उद्दीपन दिया गया, उन्होंने भी अन्य सभी समूह से कम थी। अस्तु अध्ययनों से यह प्रमाणित हुआ है कि परिपक्वता के अनुरूप ही अनुभव की भूमिका उपयोगी होती है।
स्रोत: जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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