शिशुओं एवं छोटे बच्चों का पोषण बहुत लम्बे समय से वैज्ञानिकों एवंयोजनाकारों का ध्यान आकृष्ट कर रहा है। इसका सीधा सा कारण यह है कि मानव जीवन के प्रथम वर्ष के दौरान मानव विकास दर सर्वाधिक होती है और बच्चे की पौषणिक स्थिति निर्धारित करने में शिशु आहार पद्धति समें स्तनपान एवं पूरक आहार शामिल हैं की प्रमुख भूमिका होती है। कुपोषण एवं शिशु आहार के बीच संबंध को भली-भांति सिद्ध किया जा चुका है I हाल ही के वैज्ञानिक साक्ष्य यह दर्शाते हैं कि प्रति वर्ष पांच से कम आयु में वाले बच्चों में से 60% बच्चों की मृत्यु का कारण कुपोषण होता है। इनमें से दो तिहाई से भी अधिक बच्चों की मृत्यु का कारण अनुपयुक्त आहार पद्धतियां हैं और इनकी मृत्यु 1 वर्ष से कम आयु में हो जाती है। विश्व भर में केवल 35% शिशुओं को जीवन के प्रथम चार माह के दौरान माँ का दूध प्राप्त होता है और अधिकतर शिशुओं का पूरक आहार बहुत पहले या देर से आरम्भ हो पाता है। यह पूरक आहार पोषाहारीय दृष्टि से अपर्याप्त एवं असुरक्षित होता है। शिशु अवस्था एवं प्रारंभिक बाल्यावस्था में गलत आहार पद्धतियां सामाजिक आर्थिक विकास के लिए एक बड़ा खतरा है क्योंकि क्षीण होता है, इस महत्वपूर्ण आयु वर्ग के दौरान स्वस्थ विकास की प्राप्ति एवं इस बनाये रखने के मार्ग में ये पद्धतियां अत्यधिक गम्भीर रुकावट हैं।
शिशु एवं छोटे बच्चे के लिए इस्टतम आहार पद्धतियां विशेष रूप प्रथम छः माह के दौरान केवल स्तनपान- छोटे बच्चों के जीवन की सम्भावित सर्वोत्तम शुरुआत सुनिश्चित करने में सहायता करती हैं। स्तनपान बच्चे के पालन-पोषण तथा मां एवं बच्चों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध बनाने का प्राकृतिक तरीका है। स्तनपान शिशु के लिए विकास और सीखने के अवसर प्रदान करता है तथा बच्चे के पांचों बोधों-देखना, सूंघना, सुनना, चखना, छूना-को उत्प्रेरित करता है। स्तनपान बच्चे के मनो-सामाजिक विकास पर आजीवन प्रभाव के साथ-साथ उसमें सुरक्षा एवं अनुराग विकसित करता है। माँ के दूध में मौजूद विशिष्ट फैटी एसिड बौद्धिक स्तर में वृद्धि तथा बेहतर दृष्टि तीक्ष्णता प्रदान करते हैं। स्तनपान करने वाले बच्चे का बौद्धिक स्तर (आई0क्यू0) स्तनपान न करने वाले बच्चे की तुलना में 8 अंक अधिक होता है।स्तनपान छोटे बच्चे की उत्तरजीविता, स्वास्थ्य, पोषण, बच्चे में विश्वास एवं सुरक्षा की भावना के विकास को ही नहीं, अपितु मस्तिष्क विकास और सीखने की शक्ति में वृद्धि करता है।
शिशु दुग्ध पाउडर तथा शिशु आहार उत्पादक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के धूआधार प्रचार अभियान के कारण स्तनपान की उत्तम पद्धति को काफी नुकसान पहुंचा। 70 के दशक के अंत में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्तनपान की प्रवृत्ति में आ रही कमी की गम्भीरता को पहचाना और स्तनपान के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु अंतर्राष्ट्रीय कोड 1981 में जारी किया। भारत सरकार ने 1983 में स्तनपान के संरक्षण एवं संवर्धनार्थं राष्ट्रीय कोड अंगीकृत किया। वर्ष 1993 से महिला एवं बाल विकास द्वारा शिशु दुग्ध अनुकल्प, दूध पिलाने वाली बोतलें तथा शिशु आहार (उत्पादन, आपूर्ति एवं वितरण का विनियमन) अधिनियम, 1992 का कार्यान्वयन किया जा रहा है।
उस समय उपलब्ध वैज्ञानिक साक्ष्य के अनुसार शिशुओं के लिये केवल स्तनपान की अवधि तक अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय कोड में शामिल की गयी थी। इस आयु वर्ग का बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा दुरुपयोग किया गया तथा उन्होंने तीन माह तथा अधिक आयु के बच्चों के लिए अपने उत्पादों का संवर्धन करना आरम्भ कर दिया। पूरक आहार शीघ्र आरम्भ किये जाने के परिणाम-स्वरूप बच्चों में संक्रमण तथा कुपोषण की समस्याएं उत्पन्न हो रही थीं I वर्ष 1993 में महिला एवं बाल विकास विभाग के तत्वावधान में भारत सरकार द्वारा अंगीकृत राष्ट्रीय पोषाहार नीति में शिशुओं एवं छोटे के आहार के संबंध में माताओं को पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा देने में बल दिया गया I
स्वास्थ्य विभाग के सक्रिय सहयोग से महिला एवं बाल विकास विभाग के निरन्तर प्रयासों के परिणाम-स्वरूप मई 2001 में विश्व स्वास्थ्य सभा में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया तथा संकल्प सं0 54.2 में प्रथम छः माह के दौरान ‘केवल स्तनपान' को तद्नन्तर दो वर्ष या उससे अधिक आयु तक सतत् स्तनपान सहित पूरक आहार देने की बढ़ावा देने, वैश्विक अनुशंसा की गई। इसके अतिरिक्त, मई, 2002 में 55वीं विश्व स्वास्थ्य सभा द्वारा शिशुओं एवं छोटे बच्चों हेतु पोषाहार पर एक नया संकल्प (डब्ल्यू.एच.ए. 55.25) अंगीकृत किया गया। इस संकल्प में शिशुओं एवं छोटे बच्चों हेतु आहार संबंधी वैश्विक पुष्टि की गई है। यह भी कहा गय है कि विशेषकर उपयुक्त आहार पद्धतियों के माध्यम से इष्टतम बाल वृद्धि एवं विकास सुनिश्चित किए बिना, कोई भी सरकार दीर्घकालीन सन्दर्भों में आर्थिक विकास में गति लाने के अपने प्रयासों में सफल नहीं हो पाएगी।
वैश्विक कार्यनीति में माँ तथा बच्चे के आहार को समुचित महत्व दिया गया है तथा इस तथ्य का भी समर्थन किया गया है कि माँ के सम्पूर्ण जीवन के दौरान उसकी स्वास्थ्य एवं पोषाहारीय
स्थिति सुनिश्चित करके,जो कि उसका अधिकार भी है शिशुओं एवं छोटे बच्चों के आहार में सुधार किया जा सकता है। महिला एवं बाल विकास विभाग के सतत् प्रयास डिब्बा दूध, दूध पिलाने वाली बोतलों और डिब्बा बन्द शिशु आहार संशोधित अधिनियम 2003 को लाने में सफल रहे। यह संशोधित अधिनियम 1 जनवरी, 2004 से लागू है। इस कानून के तहत अनन्य स्तनपान कराने की अवधि 4-6 मास से बढ़ाकर 6 मास कर दी गयी है और डिब्बा बन्द शिशु आहार पर भी पाउडर दूध की भांति विज्ञापित बिक्री पर रोक लगा दी गयी है। इस समय भारत में स्तनपान को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मजबूत कानून उपलब्ध है।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के लक्ष्य योजना आयोग ने शिशुओं एवं छोटे बच्चों की उपयुक्त आहार पद्धतियों के महत्व को स्वीकारते हुए पहली बार दसवी पंचवर्षीय योजना के राष्ट्रीय पोषण लक्ष्यों में स्तनपान तथा पूरक आहार के लक्ष्यों को शामिल किया है। दसवीं योजना में वर्ष 2007 तक प्राप्त किये जाने वाले विशिष्ट पोषण लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं। इनमें से प्रमुख लक्ष्य इस प्रकार के थे-
शिशुओं एवं बच्चों हेतु आहार पद्धतियों तथा उनकी देखभाल में सुधार के लिए पोषण एवं स्वास्थ्य शिक्षा को बढ़ावा देना, ताकि -
तीन वर्ष से कम आयु के अल्पवज़नी बच्चों की दर को वर्तमान 47% से घटाकर 40% किया जा सके;छ वर्ष तक की आयु के बच्चों में गम्भीर कुपोषण के मामलों में 50% तक की कमी की जा सके;
आरम्भ से स्तनपान (माँ का आरम्भिक दूध पिलाने) के मामलों की दर को वर्तमान 15.8% से बढ़ाकर 50% करना;
प्रथम छः माह के दौरान ‘केवल स्तनपान' के मामलों को वर्तमान 55.2% (0-3 माह हेतु) से बढ़ाकर 80% करना; और
छः माह की आयु से पूरक आहार देने के मामलों को वर्तमान 33.5% से बढ़ाकर 75% करना।
शिशु तथा बाल पोषण के नये मानकों अर्थात् छः माह की आयु तक केवल स्तनपान (पिछले दिशा-निर्देशों में निर्धारित 4-6 माह की आयु के स्थान पर), छः माह की आयु से पूरक आहार के साथ दो वर्ष अथवा अधिक आयु तक सतत् स्तनपान के विषय में सभी व्यवसायिओं, प्रशिक्षण संस्थाओं के अनुदेशकों तथा देश के विभिन्न भागों के क्षेत्रीय कर्मियों को जानकारी नहीं है। इस महत्वपूर्ण जानकारी के अभाव उपरोक्त व्यक्ति अब भी पुराने मानकों का समर्थन कर रहे हैं। अतः, यह निर्णय लिया गया है कि खाद्य एवं पोषण बोर्ड, महिला एवं बाल विकास विभाग, भारत सरकार द्वारा और दूसरे संस्थान द्वारा समय-समय पर जारी किये गये दिशा-निर्देशों के स्थान पर शिशु तथा बाल पोषण संबंधी राष्ट्रीय दिशा निर्देश जारी किये जायें Iइसलिए, शिशु तथा बाल पोषण संबंधी राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों के उद्देश्य इस प्रकार हैं :
• शिशु तथा बाल पोषण का समर्थन करना तथा राष्ट्र-व्यापी इष्टतम आहार पद्धतियों के माध्यम से इसमें सुधार करना,
• नीति-निर्माण स्तर से देश के विभिन्न भागों के जन-सामान्य तक क्षेत्रीय भाषाओं में स्तनपान एवं पूरक आहार के सही मानकों का प्रचार-प्रसार करना,
• शिशुओं तथा छोटे बच्चों हेतु आहार पद्धतियों की इष्टतम सफलता के लिए सरकार के संबद्ध क्षेत्रों, राष्ट्रीय संगठनों तथा व्यावसायिक समूहों प्रतिबद्धता एवं जागरूकता में वृद्धि के प्रयासों की आयोजना में सहायता करना, तथा
• योजना आयोग द्वारा दसवी पंचवर्षीय योजना हेतु निर्धारित शिशुओं एवं छोटे बच्चों के लिए आहार पद्धति संबंधी राष्ट्रीय लक्ष्य प्राप्त करना, ताकि बच्चों में कुपोषण के स्तर में कमी लाई जा सके।
विश्व स्वास्थ्य संगठन 2002 के अनुसार, स्तनपान शिशुओं को स्वस्थ विकास हेतु उन्हें आदर्श आहार प्रदान करने का अनुपम साधन है। यह महिलाओं को स्वास्थ्य हेतु महत्वपूर्ण निहितार्थों सहित प्रजनन प्रक्रिया का एक भाग भी है। यह एक वैश्विक सार्वजनिक अनुशंसा है कि शिशुओं को उनको जीवन को प्रथम छः माह को दौरान केवल स्तनपान कराया जाय ताकि उनकी इष्टतम वृद्धि विकास एवं स्वास्थ्य सुनिश्चित किया जा सको/ इसलिए शिशुओं की बढ़ती पोषाहारीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उन्हें दो वर्ष या उससे अधिक आयु तक सतत् स्तनपान को साथ पोषाहारीय दृष्टि से पर्याप्त एवं सुरक्षित पूरक खाद्य पदार्थ प्राप्त होने चाहिंए I
माँ के दूध की पोषाहारीय श्रेष्ठता आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी भी शिशुओं के लिए माँ के दूध से बेहतर उत्पाद तैयार कर पाने में असमर्थ हैं। शिशु की पोषाहारीय एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की संतुष्टि हेतु स्तनपान सर्वोत्तम साधन है। प्राचीन समय से ही मानव दूध की अनुपम पोषाहारीय गुणवत्ता को मान्यता दी जाती रही है। माँ का दूध सुपाच्य एवं परिपाच्य होता है। माँ के दूध में विद्यमान प्रोटीन अधिक विलेय होता है, जिसे शिशु द्वारा आसानी से पचाया तथा आत्मसात् किया जा सकता है। इसी प्रकार माँ के दूध में विद्यमान वसा और केल्शियम को भी शिशु द्वारा आसानी से आत्मसात् किया जा सकता है। माँ के दूध में मौजूद दुग्धशर्करा शिशु को तत्काल ऊर्जा प्रदान करती है। इसके अतिरिक्त, इस दुग्धशर्करा का एक भाग आँतों में जाकर दुग्धाम्ल बनकर वहां मौजूद हानिकारक जीवाणुओं को समाप्त करता है तथा कैल्शियम एवं अन्य खनिजों को आत्मसात् करने में शिशु की सहायता करता है। माँ के दूध में पाये जाने वाले थायमीन, विटामिन ए और विटामिन सी जैसे विटामिनों की मात्रा मां के आहार पर निर्भर करती है। सामान्य परिस्थितियों में ये सभी विटामिन मां के दूध में पर्याप्त मात्रा में मौजूद होते हैं। मानव दूध में संक्रमण-रोधी गुण विद्यमान होते हैं जो कि किसी अन्य दूध में नहीं होते। विकासशील देशों में मानव दूध का यह संरक्षक गुण विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि इन देशों में संक्रमण होने की संभावना अधिक है। स्तनपान के कुछ महत्वपूर्ण लाभ इस प्रकार हैं -
स्तनपान की शीघ्र शुरुआत स्तनपान की सफलता तथा शिशु को मां का आरम्भिक दूध कोलोस्टूम' प्रदान करने हेतु अत्यन्त आवश्यक है। आदर्श रूप से शिशु को उसके जन्म के बाद यथाशीघ्र एवं यदि संभव हो सके तो एक घंटे के भीतर पहली बार मां का दूध पिला दिया जाना चाहिए। नवजात शिशु अपने जीवन के इस दौरान बहुत सक्रिय होता है और यदि शिशु को उसकी मां के साथ रखा जाय तथा उसे मां का दूध पिलाने का प्रयास किया जाय तो वह स्तनपान करना शीघ्र ही सीख जाता है। शिशु द्वारा शीघ्र ही स्तनपान आरम्भ करने से मां के शरीर में दूध बनने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है और इससे शीघ्र ही मां को दूध आने लगता है। ऑपरेशन द्वारा प्रसव के मामले में नवजात शिशु को उसके जन्म के बाद 4-6 घंटे के भीतर मां का दूध पिलाना आरम्भ किया जा सकता है। इस कार्य के लिए मां को सहारा देने की आवश्यकता होती है। नवजात शिशुओं को उनकी माताओं के निकट रखा जाना चाहिए, ताकि उन्हें मां की गर्माहट मिले और बार-बार मां का दूध उपलब्ध हो सके। इससे भी मां के स्तनों में शीघ्र दूध आता है। यह आवश्यक है कि शिशु को मां का पहला दूध (कॉलोस्टूम) प्राप्त हो। यह दूध बाद में आने वाले दूध से अधिक गाढ़ा व पीला होता है तथा यह दूध बहुत कम मात्रा में पहले कुछेक दिन ही आता है। इस समय आवश्यक सम्पूर्ण आहार एवं पेय मां के पहले दूध में मौजूद होते हैं। नहीं होती।
इस अवधि के दौरान तथा बाद में, शिशु को अन्य कोई पेय पदार्थ या शहद घुट्टी, पशु अथवा पाउडर का दूध, चाय, पानी या ग्लूकोज जल जैसे खाद्य पदार्थ नहीं दिये जाने चाहिएं, क्योंकि ये सभी शिशु के लिए काफी हानिकारक होते हैं। पहली बार मां बनने वाली महिला को स्तनपान कराने हेतु उपयुक्त मुद्रा की जानकारी दी जानी चाहिए। शिशु को उतनी बार तथा उतनी देर तक मां का दूध पिलाया जाना चाहिए, जितना वह चाहे।
बच्चे के जन्म के उपरांत पहले कुछ दिनों तक मां के दूध को कॉलोस्ट्रम कहा जाता है। यह दूध पीला और गाढ़ा होता है। यह दूध अत्यधिक पोषक होता है और इसमें संक्रमण-रोधी तत्व विद्यमान होते हैं। इसमें बड़ी मात्रा में विटामिन ए पाया जाता है। कॉलोस्ट्रम में अधिक प्रोटीन होता है, जो कि कई बार 10 प्रतिशत तक होता है। इसमें बाद में आने वाले दूध से कम मात्रा में वसा, कार्बोहाइड्रेट तथा दुग्धशर्करा होते हैं। शिशु को मां का आरम्भिक दूध पिलाने से उसके शरीर में पोषक तत्वों तथा संक्रमण-रोधी पदार्थों की मात्रा बढ़ाने में सहायता मिलती है। संक्रमण-रोधी पदार्थ शिशु को अतिसार जैसे संक्रामक रोगों से बचाते हैं, जो कि जन्म के बाद पहले कुछेक सप्ताहों के दौरान बच्चों को हो सकते हैं। मां का आरम्भिक दूध मूलतः शिशु को मां से प्राप्त होने वाला पहला प्रतिरक्षक है।कुछ माताएं इस प्रारम्भिक दूध को खराब तथा अपाच्य मानती हैं। दूध के रंग में अंतर तथा निरन्तरता में कमी ऐसी मान्यता के संभावित कारण हो सकते हैं।
सामान्यतः देश में विलम्ब से स्तनपान की शुरूआत का चलन है।इस चलन के कारण नवजात शिशु मां संक्रमण-रोधी तत्वों, विटामिन ए तथा प्रोटीन के संकेन्द्रित स्रोत से वंचित रह जाते हैं। कई समुदायों में विभिन्न स्तनपान की शुरूआत बच्चे के जन्म के आरम्भिक दूध में विद्यमान अंधविश्वासों तथा अज्ञान के कारण के बाद पांचवे दिन से की जाती है। भारत में जन्म लेने वाले केवल 15.8% नवजात शिशुओं को ही अपने जन्म के एक घंटे के भीतर मां का दूध प्राप्त होता है और केवल 37.1% नवजात शिशुओं को एक दिन के भीतर मां का दूध प्राप्त होता है।
विलम्ब से स्तनपान की शुरूआत के परिणाम-स्वरूप शिशु न केवल बहुमूल्य कॉलोस्ट्रम से वंचित रह जाता है, बल्कि स्तनपान की शुरुआत से पहले ही नवजात शिशुओं को ग्लूकोज जल,शहद घुट्टी, पशु या पाउडर का दूध दिया जाता है, जो कि शिशुओं के लिए काफी हानिकारक होते हैं और बहुधा अतिसार का कारण बनते हैं। विलम्ब से स्तनपान की शुरूआत के कारण माताओं के स्तन अतिपूरित हो जाते हैं,जिससे उनमें दूध उतरने में कठिनाई उत्पन्न हो जाती मां के आरम्भिक दूध के महत्व के विषय में माताओं तथा समुदायों को जानकारी देने से यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि मां के आरम्भिक दूध को व्यर्थ करने की बजाय शिशुओं को पिलाया जाय।
‘केवल स्तनपान' से अभिप्राय यह है कि शिशुओं को केवल मां के दूध के अलावा कोई अन्य दूध, खाद्य पदार्थ, पेय पदार्थ और यहां तक कि पानी भी न पिलाया जाय शिशु के जन्म के उपरांत पहले छः माह के दौरान केवल स्तनपान कराया जाय I पहले छ: माह के लिए माँ का दूध शिशु के लिए सर्वोत्तम तथा पूर्ण पोषण प्रदान करता है I केवल माँ का दूध पीने वाले शिशुओं को किसी और खाद्य पदार्थ या पेय, औषधीय जल, ग्लूकोज जल, फलों के रस या पानी की आवश्यकता नहीं होती। देश में व्याप्त अत्यधिक गर्म एवं शुष्क ग्रीष्मकालीन मौसम में भी शिशु की पानी की आवश्यकता को पूरा करने हेतु केवल मां का दूध पर्याप्त होता है। यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है कि सभी शिशुओं को केवल स्तनपान कराया जाय क्योंकि केवल स्तनपान शिशुओं को अतिसार तथा निमोनिया से बचाता है। केवल स्तनपान विशेष रूप से कान के तथा अस्थमा एवं एलजी के दौरों से बचाव में सहायक होता है।
शिशु को एक बार भी पशु या पाउडर का दूध, अन्य कोई खाद्य पदार्थ या पानी देने के दो नुकसान होते हैं। पहले तो शिशु में चूसने की प्रवृत्ति कम हो जायेगी, जिसके परिणाम-स्वरूप मां को कम दूध आयेगा और दूसरे अन्य कोई खाद्य पदार्थ या पानी दिये जाने से संक्रमणों, विशेषकर अतिसार की सम्भावनाएं बढ़ जायेंगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययनों में यह अनुमान लगाया गया है कि पहले छः माह के दौरान केवल मां का दूध पिलाया जाय तो शिशु मृत्य दर में में 4 गुनी कमी हो सकती हैI
केवल स्तनपान न शिशुओं के स्वस्थ जीवन की सर्वोत्तम शुरुआत है। इससे वे अधिक बुद्धिमान बनते हैं तथा उनका इष्टतम विकास होता है इसलिए केवल स्तनपान अतिसार एवं आरम्भिक काल में होने वाले तीव्र शवसन संक्रमणों के निवारणार्थ आवश्यक है।
मामूली रूप से कुपोषित से लेकर औसत दर्जे की कुपोषित एवं चिरकालिक कुपोषित माताओं सहित सभी माताएं सफलतापूर्वक स्तनपान करा सकती हैं। गर्भवती महिलाओं, विशेषकर उन महिलाओं को, जिन्हें स्तनपान कराने में कठिनाई का सामना करना पड़ा हो, आरम्भ से ही स्तनपान की शुरूआत करने व केवल स्तनपान कराने हेतु प्रेरित तथा तैयार किया जान चाहिए। यह कार्य उन्हें स्तनपान के महत्व तथा विधियों के विषय में व्यक्तिगत तौर पर जानकारी प्रदान करके किया जा सकता है। गर्भावस्था की अंतिम तिमाही में स्तनों तथा चूचकों की जांच की जानी चाहिए और आवश्यक सलाह दी जानी चाहिए।
आरम्भ से ही स्तनपान की शुरूआत करने, शिशु को मां क आरम्भिक दूध पिलाने, केवल स्तनपान की प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने और स्तनपान से पहले अन्य कोई आहार देने की प्रवृत्ति को रोकने के लिए प्रसव-पूर्व जांच तथा माताओं को टिटनेस के टीके लगाने वाले सम्पर्क बिन्दुओं का प्रयोग किया जाना चाहिए। आहार, आराम तथा लौह तत्व एवं फोलिक एसिड की गोलियों के विषय में भी सलाह दी जानी चाहिए।
छः माह की आयु के बाद से बढ़ते हुए शिशु की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पूरक आहार अत्यन्त आवश्यक है। शिशु बहुत तीव्र गति से विकसित होते हैं। इस आयु में उनकी विकास दर की तुलना जीवन के अन्य किसी दौर के विकास दर से नहीं की जा सकती । छः माह में ही जन्म के समय तीन किलोग्राम वज़न के शिशु का वज़न दोगुना हो जाता है और एक वर्ष पूरा होने तक उसका वज़न तीन गुना हो जाता है Iतथा उसके शरीर की लम्बाई जन्म के समय से डेढ़ गुना बढ़ जाती है।
जीवन के शुरूआती वर्षों के दौरान शरीर के सभी अंग संरचनात्मक एवं कार्यात्मक दृष्टि से बहुत तीव्र गति से विकसित होते हैं। बाद में, यह विकास दर धीमी हो जाती है। जीवन के पहले दो वर्षों में तंत्रिका प्रणाली और मस्तिष्क का विकास पूर्ण हो जाता है। इष्टतम वृद्धि एवं विकास के अधिक लिए बेहतर पोषाहार के रूप में कच्ची सामग्री की नियमित आपूर्ति की आवश्यकता होती है।
मां का दूध उत्कृष्ट आहार होता है पहले छः माह के दौरान शिशु की सभी पोषणिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। तथापि, छः माह की आयु के बाद से शिशु की समुचित विकास हेतु केवल मां का दूध पर्याप्त नहीं होता अतः, अन्य खाद्य-पदार्थों की आवश्यकता होती है, क्योंकि शिशु का आकार और उसके कार्यकलापों में वृद्धि हो रही होती है। इस कारण इस आयु में शिशु की पोषाहरीय आवश्यकताओं में काफी वृद्धि हो जाती है।
छः माह की आयु से पूरक आहार आरम्भ किया जाना चाहिए।पूरक आहार का उद्देश्य मां के दूध की सम्पूर्ति करना तथा यह सुनिश्चित करना है कि शिशु को पर्याप्त ऊर्जा, प्रोटीन तथा अन्य पोषक तत्व प्राप्त होते रहें, ताकि वह सामान्य रूप से विकसित हो सके। यह आवश्यक है कि दो वर्ष की आयु या उससे अधिक आयु तक स्तनपान को जारी रखा जाए, क्योंकि मां का दूध ऊर्जा, उत्तम गुणवत्ता प्रोटीन तथा अन्य पोषक तत्वों की उपयोगी मात्रा प्रदान करता रहता है Iछः महीने की अवस्था के पश्चात् स्तनपान के साथ-साथ पूरक आहार का समयोजन शिशु की सम्पूर्ण वृद्धि और विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है। प्रारम्भिक तीन वर्षों में उपयुक्त आहार शैलियां बच्चे की प्रखर बुद्धि विकास और मस्तिष्क विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
1. जन्म के तुरन्त बाद स्तनपान का आरम्भ, यदि हो सके तो 1 घंटे के भीतर
2. प्रथम छह माह के दौरान केवल स्तनपान अर्थात शिशु को केवल माँ का दूध दिया जाए तथा अन्य कोई दूध, खाद्य, पेय पदार्थ पानी जैसा कुछ नहीं।
3. छह माह की आयु से सतत् स्तनपान के साथ साथ उपयुक्त एवं पर्याप्त पूरक आहार।
4. दो वर्ष की आयु तक अथवा उसके बाद भी सतत स्तनपान।
शिशु हेतु प्रारम्भिक आहार तैयार करने के लिए परिवार के मुख्य खाद्यान्न का प्रयोग किया जाना चाहिए। सूजी, गेंहूँ आटा (गेहूँ का आटा), चावल, रागा, बाजरा आदि से थोड़े से पानी अथवा दूध, यदि उपलब्ध हो, का प्रयोग करके दलिया बनाया जा सकता है। शिशु हेतु प्रारम्भिक पूरक आहार तैयार करने हेतु किसी अनाज के भुने हुए आटे को उबले हुए पानी, चीनी तथा थोड़ी सी वसा के साथ करीब दो मिनट तक पकाकर बनाया जा सकता है तथा बच्चे को छः माह की आयु हो जाने पर खिलाना शुरू किया सकता है। चीनी अथवा गुड़ तथा घी अथवा तेल को मिलाना आवश्यक है क्योंकि यह ऊर्जा शक्ति को बढ़ाता है। प्रारम्भ में दलिया पतला बनाया जा सकता है, परन्तु जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता जाता है, होता है। गाढ़ा दलिया पतले दलिये की अपेक्षा इसे गाढ़ा किया जाना चाहिए क्योंकि यह अधिक पौष्टिक होता है। यदि कोई परिवार अलग से शिशु हेतु दलिया तैयार नहीं कर सकता, तो आधी चपाती के टुकड़ों कर आधे प्याले दूध या उबले हुए पानी में भिगोया जा सकता है, अच्छी तरह मसल कर तथा चीनी एवं वसा मिलाने के पश्चात् शिशु को खिलाया जाना चाहिए I भिगोयी हुई तथा मसली हुई चपाती को छलनी से छाने ताकि शिशु हेतु नरम अर्ध ठोस आहार प्राप्त हो सके I केला, पपीता, चीकू, आम आदि जैसे फलों को मसल कर दिया जा सकता है। शिशुओं को सत्तू जैसा तुरन्त तैयार किया शिशु आहार भी दिया जा सकता है।
जो बच्चा अनाज का दलिया अच्छी तरह खा रहा है, उस बच्चे को पके हुए अनाज, दाल तथा सब्जियों सहित मिश्रित आहार दिया जा सकत है। देश के विभिन्न भागों में शिशुओं को दिया जाने वाला सर्वाधिक पारम्परिक आहार, जैसे कि खिचड़ी, दलिया, सूजी, खीर, उपमा, इडली, ढोकला, भात-भाजी आदि मिश्रित आहारों के उदाहरण हैं। कभी-कभी पारम्परिक आहार थोड़ा सा बदलाव करने के पश्चात् दिया जाता है, ताकि बच्चों हेतु और अधिक उपयुक्त भोजन तैयार हो सके। उदाहरण के तौर पर थोड़े से तेल तथा चीनी के साथ मसली हुई इडली शिशु हेतु अच्छा पूरक आहार होती है। इसी तरह, भात में भी कुछ पकी हुई दाल अथवा सब्जी डालकर इसे और अधिक पोषक बनाया जा सकता है। खिचड़ी को पकाते समय उसमें एक अथवा दो सब्जियाँ डालकर उसे और अधिक पोषक बनाया जा सकता है
अधिकांश परिवारों में रोटी अथवा चावल तथा दाल अथवा सब्जी के रूप में खाद्यान्न पकाया जाता है। परिवार हेतु पकाए गए आहार से शिशु हेतु पूरक आहार तैयार करने के लिए इसमें मसाले मिलाने से पूर्व थोड़ी सी मात्रा में दाल अथवा सब्जी को अलग से निकाला जाना चाहिए। आधी कटोरी दाल तथा थोड़ी सब्जी, यदि उपलब्ध हो, में चपाती के टुकड़ों को भिगोया जा सकता है। मिश्रित आहार को अच्छी तरह मसलकर तथा इसे थोड़ा तेल मिलाने के बाद शिशु को खिलाएं। यदि आवश्यक हो तो इस मिश्रण को अर्ध-ठोस पेस्ट बनाने के लिए छलनी से छाना जा सकता है। इस प्रकार, शिशु हेतु पोषक पूरक आहार तैयार करने के लिए पकाए गए चावल अथवा गेहूँ को दाल तथा/अथवा सब्जी में मिलाया जा सकता है। परिवार के भोजन में आशोधन करके बनाया गया आहार शिशुओं के पूरक आहार को सुनिश्चित करने के तरीकों में से सर्वाधिक प्रभावशाली तरीका है।
शिशु आहार मिश्रण को घर में उपलब्ध खाद्यान्नों से घर पर बनाया जा सकता है। इन मिश्रण को का कम से कम एक माह तक भण्डारण किया जा सकता है तथा शिशुओं को बार-बार खिलाया जा सकता है। ये सतु जैसे आहार हैं, जो भारतीय समुदाय में बहुत प्रसिद्ध हैं। इसमें तीन भाग किसी अनाज (चावल/गेहूँ) अथवा मिलेट (रागी/बाजरा/ज्वार) का, तथा तिल एक भाग किसी दाल (मूंग/चना/अरहर) तथा मूंगफली अथवा सफेद , का आधा भाग यदि उपलब्ध हों, को डालकर तैयार कर सकते हैं। खाद्य पदार्थ पृथक रूप से भूना, पीसा तथा सही तरीके से मिश्रित होना चाहिए तथा वायुरूद्ध डिब्बों में इसका भण्डारण किया जाए। आहार हेतु दो चम्मच शिशु खाद्य मिश्रण लें, उबले हुए गर्म पानी अथवा दूध, चीनी तथा तेल /घी को डालकर मिश्रण को अच्छी तरह से मिलाएं। यदि उपलब्ध हो तो पकायी हुई तथा मसली हुई गाजर, कददू अथवा हरी पतेदार सब्जियों को दलिए में मिलाया जा सकता है। जब कभी परिवार में ताजा पकाया हुआ भोजन उपलब्ध न हो, तो शिशु को यह आहार खिलाया जा सकता है। शिशु आहार मिश्रण से हलवा, बरफी, उपमा, दलिया भी बनाए जा सकते हैं I
आशोधित आहार तथा सकते हैं तथा बच्चे को दिए जा सकते हैं Iशिशु आहार मिश्रणों के अतिरिक्त दूध,दही, लस्सी, अण्डा, मछली एवं फलों तथा सब्जियों जैसे संरक्षक आहार शिशुओं के स्वस्थ विकास में सहायता हेतु भी महत्वपूर्ण हैं। बच्चे में विटामिन ‘ए’ तथा लौह तत्व की अच्छी मात्रा सुनिश्चित करने के लिए हरी पत्तीदार सब्जियाँ, गाजर, कददू मौसमी फल जैसे पपीता, आम, चीकू, केले आदि महत्वपूर्ण होते हैं। शिशु को छह माह की आयु के पश्चात् स्तनपान के अतिरिक्त अनाजों, दालों, सब्जियों, विशेषकर हरी पतेदार सब्जियों, फलों, दूध तथा से बनी चीजों, यदि मांसाहारी हैं तो अण्डे, मॉस तथा मछली, तेल/घी, चीनी तथा आयोडीन-युक्त नमक आदि सभी खाद्यों की आवश्यकता होती है। बच्चे में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी में स्तनपान के साथ-साथ शिशु के नानारूपी आहारों से भी सुधार आएगा।
छोटे बच्चों को न्यून ऊर्जा सघनता वाले पूरक आहार दिए जाने हैं तथा खाने की कम आवृत्ति से अपर्याप्त कैलोरी के परिणामस्वरूप कुपोषण होता है। अधिकतर आहार भारी होते हैं तथा बच्चा इन्हें एक ही बार में अधिक मात्रा में नहीं खा सकता। इस प्रकार बच्चे में पर्याप्त ऊर्जा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बच्चों को बार-बार थोड़े–थोड़े अन्तराल पर थोड़ी ऊर्जा के घनत्व वाले आहार देना आवश्यक है।
शिशुओं तथा छोटे बच्चों को दिए जाने वाले आहारों की उर्जा सघनता को चार विभिन्न तरीकों से बढ़ाया जा सकता है :
(i)प्रत्येक शिशु आहार में एक छोटा चम्मच तेल अथवा घी डालना। वसा ऊर्जा का संकेंद्रित स्रोत है तथा उसमे विद्यमान ऊर्जा में भरपूर वृद्धि करता है I यह जानकारी प्रदान करके कि एक छोटा शिशु मां के दूध तथा अनाजों एवं दालों जैसे सभी अन्य आहारों में विद्यमान वसा को पचा सकता है, इस मिथ्या भ्रम को तोड़ना होगा कि छोटा बच्चा वसा को नहीं पचा सकता तथा यह मानने का कोई कारण नहीं कि बच्चा आहार में मिलाई गयी वसा को नहीं पचा सकता ।
(ii) बच्चे के अहार में चीनी अथवा गुड़ मिलाना I बच्चों को अधिक उर्जा की जरुरत होती है इसलिए बच्चे के आहार में पर्याप्त मात्रा में चीनी अथवा गुड़ मिलाना चाहिये I
(iii) ‘माल्टिड' आहार देना I माल्टिंग आहार के गाढ़ेपन को घटाती है तथा इस प्रकार बच्चा एक बार में अधिक खा सकता है I माल्टिंग साबुत अनाज अथवा अथवा दाल का अकुरण करके इसको पीसने के पश्चात् सुखाना है I अनाज अथवा दाल के माल्टिंग से तैयार शिशु आहार मिश्रण बच्चों को और अधिक ऊर्जा प्रदान करेगा I अन्य आहारो के साथ माल्टिंग आहार का आटा बच्चे को और अधिक ऊर्जा प्रदान करेगा। अन्य आहारो के साथ माल्टिंग आहार का आटा बच्चे को दिए जाने वाले भोजन के गाढ़ेपन को घटाने में मदद करता है। ए.आर.एफ. माल्टिड आहारों के आटे को दिया गया वैज्ञानिक नाम है तथा इसका शिशु अहारों में अवश्य उपयोग किया जाना चाहिये I
(iv) गाढ़े मिश्रित आहार देना। पतला दलिया पर्याप्त ऊर्जा प्रदान नहीं करता है। विशेषकर 6-9 माह के दौरान एक छोटे शिशु को गाढ़े परन्तु सुपाच्य दलिए की आवश्यकता होती है, क्योंकि अर्ध-ठोस आहार के सख्त टुकड़ों को निगलने में शिशु को कठिनाई हो सकती है। छोटे शिशुओं हेतु अर्ध-ठोस आहारों को मूसल से कूटा व छलनी से छाना जा सकता है, ताकि मिश्रित आहार सुपाच्य तथा अथवा पिण्डों रहित समरस हों।
शिशुओं तथा छोटे बच्चों को स्तनपान के अतिरिक्त दिन में 5-6 बार खाना खिलाये जाने की आवश्यकता होती है। यह भी याद रखना चाहिए कि पहले दो वर्षों के दौरान शिशुओं तथा छोटे बच्चों का अपर्याप्त आहार कुपोषण का मुख्य कारण हैI
स्तनपान दो या दो से अधिक वर्षों तक अवश्य जारी रखना चाहिए। शिशु को स्तनपान जारी रखने के साथ-साथ दिया जा रहा पर्याप्त पूरक आहार शिशु को स्तनपान के समग्र लाभ प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में, बच्चा अपने अधिकाधिक विकास हेतु अत्यधिक अनिवार्य स्तनपान से भावनात्मक सन्तुष्टि प्राप्त करने के अलावा ऊर्जा, उच्च गुणवत्ता युक्त टीन, विटामिन ‘ए’, संक्रमण रोधी तत्व तथा अन्य पोषक तत्व प्राप्त करता है। विशेषकर रात का स्तनपान अनवरत दुग्ध स्रवण सुनिश्चित करता है।
प्रारम्भ में जब छह माह की आयु के पश्चात् पूरक आहार दिये जाते हैं, तब शिशु को पूरक आहार भूख लगने पर खिलाया जाना चाहिए। जब बच्चा पूरक आहारों को अच्छी तरह लेना शुरू कर देता है, तब बच्चे को पहले स्तनपान कराना चाहिए तथा बाद में पूरक अहार देना चाहिए। इससे पर्याप्त दुग्ध स्रवण सुनिश्चित होगा।
बच्चे को खिलाते अथवा स्तनपान कराते समय बच्चे के साथ बातचीत, बच्चे के साथ खेलने आदि जैसे तरीकों से दुलार जताने से बच्चे की भूख तथा विकास को बढ़ावा मिलता है। एक या दो साल के बच्चे को अलग प्लेट में भोजन दिया जाना चाहिए तथा उसे स्वयं खाने के लिए प्रेरित करना चाहिए। एक ही समय पर तथा एक साथ खाना भूख को बढ़ाने तथा अन्यमनस्कता को दूर करने में भी मदद करता है।
नियमित रूप से बच्चे का वजन कराना तथा स्वास्थ्य कार्ड पर वजन को दर्ज करना शिशु के विकास के प्रबोधन के महत्वपूर्ण साधन हैं। शिशुओं तथा छोटे बच्चो का प्रत्येक माह उनकी मां की उपस्थिति में वजन किया जाना चाहिए तथा मां को बच्चे के विकास की स्थिति समझाई जानी चाहिए। वृद्धि चार्ट प्लास्टिक जैकेट में रखकर बच्चे की मां को दिया जाना चाहिए। यदि बच्चे में कुपोषण की समस्या है, तो प्रति दिन बच्चे को अतिरिक्त आहार प्रदान करने के लिए माताओं को कहा जाना चाहिए। कुपोषित बच्चों की घर पर निगरानी की जानी चाहिए तथा माताओं को आने तथा बच्चों के अहार तथा देखभाल से सम्बन्धित प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। ।
पूरक आहारों को सावधानी-पूर्वक तैयार कर उनका भण्डारण करना संदूषण से बचाव हेतु महत्वपूर्ण है। व्यक्तिगत साफ-सफाई शिशुओं के आहार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि स्वच्छता नहीं होती है, तो पूरक आहार बच्चे में संक्रमण फैलाकर बच्चे की भलाई के बजाए उसे और अधिक नुकसान पहुँचा सकता है। अतः, यह महत्वपूर्ण है कि शिशुओं हेतु तैयार सभी आहार इस तरह रखे जाएं कि वे कीटाणुओं से मुक्त रहें। शिशुओं हेतु आहारों को तैयार करते समय ध्यान देने योग्य कुछ बातें इस प्रकार हैं –
लगभग सभी स्थानों पर छोटे बच्चों के लिए कई प्रकार की पोषाहार एवं स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं। समुदाय के लोगों को प्रजनन एवं स्वास्थ्य कार्यक्रम, समेकित बाल विकास सेवा स्कीम आदि के अंतर्गत गांवों में, उप-केन्द्रों पर, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर बच्चों के लिए उपलब्ध विभिन्न सेवाओं के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए। सामुदायिक जाना चाहिए, ताकि बाल स्वास्थ्य को बढ़ावा दिया जा सके।
छः माह से दो वर्ष की आयु तक, छोटे बच्चे अतिसार खसरा, सर्दी, खांसी, आदि संक्रमणों से अक्सर पीड़ित रहते हैं। यदि उनका आहार उचित हो, तो इनके लक्षण अल्प-पोषित बच्चे की तुलना में सामान्य रूप से कम तीव्र होते हैं। एक बीमार बच्चे को ज्यादा पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, ताकि वह अपने शरीर के पोषक तत्वों के सुरक्षित भण्डार का उपयोग किये बिना संक्रमण से लड़ सके। तथापि, बच्चे की भूख मिट सकती है और वह खाना खाने से मना कर सकता है। किन्तु बच्चे को बीमारी से ठीक होने के लिए पर्याप्त पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है I
वजन कम होने तथा अन्य पोषक तत्वों की कमी से बचने के लिए बीमारी के दौरान एवं बाद में उपयुक्त आहार जरूरी है। शिशुओं को उपयुक्त आहार सुनिश्चित करके ही संक्रमण तथा कुपोषण के दुष्चक्र को तोड़ा जा सकता है। स्तनपान करने वाले बच्चे कम बीमार होते हैं और पोषित होते हैं। छः माह से अधिक आयु के शिशुओं के लिए बीमारी के दौरान स्तनपान एवं पूरक पोषण दोनों ही जारी रहने चाहिए। आहार में आने वाली कमी को रोकना चाहिए। बीमार बच्चे द्वारा पर्याप्त भोजन करने में सहायतार्थ समय एवं ध्यान देना चाहिए। शिशुओं को कम मात्रा में किन्तु बार-बार भोजन करने के लिए प्रेरित करना चाहिए तथा उन्हें ऐसा भोजन देना चाहिए, जिसे बच्चा पसंद करता है। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि खसरा, अतिसार एवं श्वसन संक्रमण से प्रभावित बच्चे विटामिन ‘ए’ से भरपूर भोजन अधिक मात्रा में खाएं। चिकित्सा अधिकारी की सलाह से ऐसे बच्चों को विटामिन ‘ए’ की बड़ी खुराक भी दी जा सकती है।
बीमारी के बाद जब बच्चे के स्वास्थ्य में सुधार हो रहा हो, तो उसे पर्याप्त ऊर्जा, प्रोटीन एवं अन्य पोषक तत्वों की उपयुक्त मात्रा वाले पोषक आहार की आवश्यकता होती है। यह आहार उसे तीव्र विकास एवं पोषक तत्वों के संग्रहण के योग्य बनाएगा। बीमारी के बाद लगभग एक महीने के लिए बच्चे के दैनिक आहार में एक या दो भोजन बढ़ा देने चाहिए।
कुपोषित शिशु एवं छोटे बच्चे अक्सर उस माहौल में पाये जाते हैं। जहां पर ग्राह्य भोजन की गुणवत्ता एवं मात्रा बढ़ाना एक समस्या है। कुपोषण की पुनरावृति को रोकने एवं चिरकालिक कुपोषण के प्रभावों पर काबू पाने के लिए ऐसे बच्चों पर प्रारम्भिक पुनर्वास चरण में एवं उसके बाद एक लम्बे समय तक अतिरिक्त ध्यान देने की आवश्यकता होती है।लगातार बार-बार स्तनपान और जब आवश्यकता हो, पुनः स्तनपान मुख्य निवारक उपाय हैं, क्योंकि कुपोषण की उत्पत्ति अक्सर अपर्याप्त एवं बाधित स्तनपान से होती है। पर्याप्त पोषणिक एवं सुरक्षित पूरक आहार प्राप्त करनसे कठिन हो सकता है और ऐसे बच्चों के लिए विशेष रूप आहारीय पूरकों की आवश्यकता हो सकती है। कुपोषित बच्चों की माताओं को शिविर में बुलाया जा सकता है और उन्हें निर्देशों के साथ 15 दिन का अनाज-दालों का भुना हुआ मिश्रण उपलब्ध कराया जा सकता है। बच्चों की प्रत्येक 15 दिन के बाद विकास प्रबोधन, स्वास्थ्य जांच तथा 3 माह के लिए तत्काल खाद्य रसद के लिए निगरानी की जानी चाहिए। जब उपयुक्त आहार से कुपोषित बच्चों की स्थिति में सुधार हो जाएगा, तो वे स्वयं ही अन्य परिवारों के बच्चों के लिए प्रेरक का कार्य करेंगे।
मां का दूध समय से पूर्व जन्मे बच्चों या अल्प वजनी जन्मे बच्चों के लिए विशेष रूप से आवश्यक होता है, क्योंकि उन्हें संक्रमण, लम्बे समय तक अस्वस्थता एवं मुत्यु का जोखिम होता है। समय से पूर्व जन्मे बच्चों या अल्प वजनी जन्मे बच्चों को गर्म रखें।कंगारू देखभाल पद्धति को अपनाएं। कंगारू देखभाल समय से पूर्व जन्मे बच्चों को दी जाने वाली वह देखभाल है, जिसमें बच्चे को मां के दोनों स्तनों के बीच जब तक सम्भव हो, त्वचा से त्वचा के सम्पर्क के लिए रखा जाता है, क्योंकि इससे गर्भाशयी वातावरण बनाने और शिशु के विकास में सहायता मिलती है। यह बच्चे को दो रूपों में मदद करता है (i) बच्चे को माँ के शरीर की गर्मी मिलती है और (ii) बच्चा मां के स्तनों से जब भी आवश्यक हो, दूध पी सकता है। ऐसे बच्चों को थोड़ी-थोड़ी देर बाद कई बार दूध पीने की आवश्यकता हो सकती है।
समय से पूर्व प्रसव के फलस्वरूप आने वाले दूध का सरक्षात्मक सम्मिश्रण अत्यधिक गाढ़ेपन के कारण समय से पूर्व जन्मे बच्चे के लिए उपयुक्त होता है। समय से पूर्व जन्मे बच्चों को दिन और रात के दौरान हर दो घन्टे बाद दूध पिलाना चाहिए।
शिशु एवं छोटे बच्चे प्राकृतिक या मानव-जनित आपदाओं के सर्वाधिक शिकार होते हैं। बाधित स्तनपान एवं अनुपयुक्त पूरक आहार कुपोषण, बीमारी एवं मृत्यु के जोखिम को बढ़ाता है। मां के दूध के अनुकल्पों का अनियंत्रित वितरण, उदाहरणार्थ शरणार्थी शिविरों में, स्तनपान को जल्दी एवं अनावश्यक ही बन्द करा देता है।
हालांकि नवजात शिशुओं के लिए मां का दूध ही सबसे सुरक्षित और अक्सर एकमात्र विकल्प होता है, लेकिन आपात स्थितियों में तत्काल आवश्यक राहत पहुंचाने के लिए कुछ बुनियादी बातों जैसे शिशुओं को स्तनपान कराने की अनदेखी कर दी जाती है। नियमित रूप से उदारतापूर्वक दिया जाने वाला दूध पाउडर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं । बच्चों की उत्तरजीविता, उनके पोषक आहार और स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए खतरे वाले इलाकों में निम्निलिखित बातों को ध्यान में रखते हुए स्तनपान के संरक्षण, संवर्धन और इसमें सहायत प्रदान करने का आवश्यकता है –
एच.आई.वी. एवं स्तनपान के माध्यम से प्रभावित परिवारों में मां से बच्चे को भी स्तनपान संवर्धन के मार्ग में चुनौती खड़ी करता हैI एक वर्ष से अधिक समय तक स्तनपान के कारण एच.आई.वी. के जोखिम –विश्व स्तर पर 10 एवं 20 प्रतिशत के बीच शिशुओं को स्तनपान ना कराना की दशा में मृत्यु एवं रुग्णता के बढ़ते देख संतुलन की आवश्यकता हुई I एच.आई.वी. पाजिटिव माताओं द्वारा कृत्रिम पोषण अपनाना सुरक्षित नहीं होगा I इसलिये स्तनपान व संक्रमण माता को परामर्श हेतु बल दिया गया I
एक परामर्शी द्वारा एच.आई.वी. से प्रभावित माताओं को शिशुओं के मिश्रित आहारों के जोखिम के बारे में बताया जाना चाहिए। कुछ माताएं बच्चों को कृत्रिम आहार देना चाहती हैं, लेकिन कुछ सामाजिक दबावों के कारण वे भी बच्चों को स्तनपान कराती हैं । कृत्रिम आहार से पोषित बच्चे को मिश्रित आहारों अर्थात् स्तनपान एवं कृत्रिम आहारों से पोषित बच्चे की तुलना में कम जोखिम होता है। इसलिए, एच.आई.वी. प्रभावित माताओं को शिशुओं पोषण हेतु परामर्श का उद्देश्य मिश्रित पोषण से बचाव होना चाहिए। सभी स्तनपान कराने वाली माताओं को छः माह तक केवल स्तनपान कराने के लिए समर्थन देना चाहिए। यदि महिला स्तनपान नहीं कराना चाहती है, उसे कृत्रिम आहारों के लिए सहायता उपलब्ध करायी जानी चाहिए, ताकि पोषण सुरक्षित हो।
एच.आई.वी. पाजिटिव माताओं द्वारा शिशु को स्तनपान कराने के लिए डॉक्टरों और नर्सों सहित परामर्शदाताओं और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की क्षमता सृजित करना आवश्यक है। तभी माता इच्छानुसार "केवल स्तनपान" या "केवल कृत्रिम पोषण" से किसी एक विकल्प का चयन कर सकेंगी ।
दायित्व
शिशुओं एवं छोटे बच्चों के आहार में सुधार हेतु केन्द्र एवं राज्य सरकारें राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठन और अन्य सम्बन्धित पक्ष हिस्सेदारी निभाते हैं ताकि बच्चों में कुपोषण की व्यापकता को कम किया जा सके और अपेक्षित संसाधनों जैसे मानवीय, वित्तीय एवं संगठनात्मक इत्यादि का संघटन किया जा सके। सरकारों का प्रथम दायित्व नीति निर्माण के सर्वोच्च स्तर पर शिशुओं एवं छोटे बच्चों के आहार में सुधार की महत्ता को मान्यता देना तथा मौजूदा नीतियों एवं कार्यक्रमों में शिशुओं एवं छोटे बच्चों के आहार से सम्बन्धित सभी समस्याओं को एकीकृत करना है। सभी संबंधित सरकारी अभिकरणों, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों तथा अन्य संबंधित पक्षों के बीच पूर्ण सहयोग समन्वय अपेक्षित है। शिशुओं एवं छोटे बच्चों के आहार पर राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों के क्रियान्वयन में क्षेत्रीय स्थानीय प्रशासन क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
महिला एवं बाल विकास तथा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभागों की विशेष शिशुओं एवं छोटे बच्चों के आहार में इष्टतम योगदान की जिम्मेवारी है। शिशुओं एवं छोटे बच्चों के आहार पर राष्ट्रीय दिशा निर्देशों को राष्ट्र-व्यापी समेकित बाल विकास सेवा तथा प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम का अभिन्न अंग होना चाहिए। इन दिशा-निर्देशों का जारी परियोजनाओं के कार्यक्रम प्रबंधकों तथा क्षेत्र कार्यकर्ताओं के माध्यम से प्रभावी परिचालन किया जाना चाहिए I इन कार्यक्रमों के प्रबन्धकों एवं क्षेत्र कार्यकर्ताओं को शिशुओं एवं छोटे व्यावहारिक जानकारी दी जानी चाहिए। दिशा-निर्देश नर्सिंग एवं गैर-स्नातक चिकित्सा पाठयक्रम का आवश्यक अंग होने चाहिए।
बाल चिकित्सा, प्रसूति विज्ञान, स्त्री-रोग विज्ञान तथा निवारक एवं समाजिक औषधि विभागों के चिकित्सकीय तथा परा - चिकित्सकीय कार्मिकों द्वारा माताओं एवं अन्य सम्बन्धित लोगों को शिशूओं और बच्चों के आहार के चयन के लिए शिक्षित एवं प्रेरित किया जाना चाहिए I इसके अलावा इन दिशा -निर्देशों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए सामुदायिक स्तर के अन्य कार्यकर्ताओं की सेवाओं एवं औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा, जन-प्रचार माध्यमों एवं स्वैच्छिक संगठनों की सहभागिता का उपयोग संस्तुत किया जाता है
इस संदर्भ में, शिशु दुग्ध अनुकल्प, दूध पिलाने वाली बोतलें एवं शिशु आहार (उत्पादन, आपूर्ति एवं वितरण का विनियमन) अधिनियम, 1992 एवं इसमें बाद में किए गए संशोधनों के क्रियान्वयन के प्रबोधन पर ध्यान दिया जाना भी आवश्यक है I
पोषाहार एवं स्वास्थ्य व्यवसायी निकाय
पोषाहार एवं स्वास्थ्य व्यवसायी निकायों, जिनमें गृह विज्ञान (आहार एवं पोषाहार) एवं चिकित्सा संकाय, जन स्वास्थ्य विद्यालय, पोषाहार एवं स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (दाइयों, नसों, पोषाहार विशेषज्ञों एवं आहार विशेषज्ञों सहित) को प्रशिक्षण प्रदान करने वाली सार्वजनिक एवं निजी संस्थाएं तथा व्यावसायिक संघ शामिल हैं के अपने विद्यार्थियों एवं सदस्यों के प्रति निम्नलिखित मुख्य दायित्व होने चाहिए –
गैर-सरकारी संगठन
स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय अनेक प्रकार के गैर-सरकारी संगठनों के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों में छोटे बच्चों एवं परिवारों की आहार तथा पोषाहार सम्बन्धी आवश्यकताओं को बढ़ावा देना शामिल है। उदाहरणार्थ, धर्मार्थ एवं धार्मिक संगठनों, उपभोक्ता संघों, माताओं के सहायता समूहों, पारिवारिक क्लबों एवं बाल देखभाल संगठनों के पास शिशुओं एवं छोटे बच्चों के आहार पर राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों के क्रियान्वयन में सहभागिता के बहुत अवसर हैं जैसे -
वाणिज्यिक उद्यम
शिशुओं एवं छोटे बच्चों के लिए अभिप्रेत औद्योगिक रूप से संसाधित आहारों के निर्माताओं एवं वितरकों को भी इन दिशा- निर्देशों के उद्देश्यों की प्राप्ति में रचनात्मक भूमिका हैं I ये शिशु दुग्ध अनुकल्प अधिनियम के सिद्धांतों एवं उद्देश्यों तथा शिशुओं एवं छोटे बच्चों के आहार पर राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों के अनुसार अपनी विपणन प्रक्रियाओं के प्रबोधन के लिए उत्तरदायी है
अन्य समूह
अच्छी आहारीय प्रथाओं के संवर्धन में समाज के कई अन्य घटकों की प्रभावी भूमिका है I इन घटकों/तत्वों में निम्नलिखित शामिल है -
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन
अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों तथा सार्वभौम एवं क्षेत्रीय ऋण संस्थाओं को बच्चों एवं महिलाओं के अधिकारों को साकार करने के लिए अपनी केन्द्रीय महत्ता को मान्यता प्रदान करते हुए शिशु एवं छोटे बच्चे के आहार को सार्वभौमिक स्वास्थ्य कार्यसूची में प्रमुख स्थान देना चाहिए; उन्हें इन दिशा निर्देशों के व्यापक क्रियान्वयन के लिए मानव, आर्थिक एवं संस्थागत संसाधनों में, जहां तक सम्भव हो, इस उद्देश्य के लिए अतिरिक्त संसाधन मुहैया कराने चाहिए I
सरकार के काम में सहायता देने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के विशिष्ट सहयोग में निम्नलिखित शामिल हैं -
शिशु तथा बाल पोषण पर ये राष्ट्रीय दिशा-निर्देश सरकार एवं सुरक्षित एवं पर्याप्त आहार के संरक्षण, संवर्धन व समर्थन के प्रति अपने स्तर पर तथा सामुदायिक रूप से स्वयं को पुनः समर्पित करने का बहुमूल्य व्यावहारिक अवसर प्रदान करेंगे।
गर्भवती महिला की निम्नलिखित आवश्यकताएं होती हैं -
● पर्याप्त पोषाहारीय आहार
● गर्भावस्था के अन्तिम तीन महीनों के दौरान पर्याप्त आराम
● गर्भावस्था के दौरान लौह एवं फॉलिक एसिड की गोलियों का सेवन
● टीकाकरण
आहार
आराम
लौह एवं फॉलिक एसिड की गोलियां
टीकाकरण
आहार
आराम
स्तनपान आराम की मुद्रा में करायें। किसी भी प्रकार का मानसिक तनाव दुग्ध स्राव में कमी लाता है।
लौह एवं फॉलिक एसिड की गोलियां
स्तनपान के प्रथम छः माह तक लौह एवं फॉलिक एसिड की गोलियों का सेवन करें।
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
इस भाग में बाल विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने ...
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