पूर्व बाल्यावस्था में सामाजिक व्यवहार के कुछ रूप तो शैशवावस्था में सीखे गए व्यवहार के अवशेष होते हैं परन्तु वे व्यवहार, जो सफल समायोजन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं इसी समय प्रकट होते हैं, और विकसित होने लगते हैं| बाल्यावस्था के आरंभिक वर्षों में वे इतनी अच्छी तरह तो विकसित नहीं होते हैं तथापि या समय इन व्यवहारों के विकास का निर्णायक काल होता है, क्योंकि इस काल में आधारभूत समाजिक व्यवहारों के रूप न्रिधारित होते हैं (फ्रीमैन, 1953) तीन वर्ष से कम के बच्चों की सामाजिक अंतः क्रिया निम्न स्तर की होती है, तत्पश्चात सामाजिक अंतःक्रिया में तीव्रता से वृद्धि होती है| बालक में विकसित सामाजिक व्यवहार का स्वरुप और परिणाम (जैसे बालक में प्रभुत्व का विकास, नेतृत्व के गुण, अधीनता, आज्ञापालन का गुण या अनुपालन की संस्थिति एवं मात्रा), बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि उसका परिवेश कैसा है? और बालक का लोगों से साथ सम्बन्ध कैसा है? रेयान (1949) ने विकाशील सामाजिक व्यवहारों का अन्वेषणात्मक अध्ययन किया तथा परिणामों में पाया कि ‘स्कूल पूर्व आयु’ में जो सामाजिक अभिवृत्तियां निर्मित हो चुकी होती हैं वे थोड़े से सुधार और परिवर्तन के साथ आगे भी बनी रहती है|
इस आयु में प्रकट होने वाले कुछ सामाजिक व्यवहार हैं, अनुकरण, प्रतिस्पर्धा. नकारवृति, आक्रामकता,कलह, सहयोग, प्रभुता, स्वार्थपरता, सहानुभूति तथा सामाजिक अनुमोदन की इच्छा | बालक में सामाजिक के साथ-साथ अनेक सामाजिक व्यवहार भी विकसित होते हैं| विकास मनोवैज्ञानिकों ने कुछ प्रमुख सामाजिक व्यवहारों को रेखांकित किया है जिनका उदभव या विकास पूर्व बाल्यावस्था में होता है|
बच्चे माता-पिता को आदर्श मानते हैं| अतः बच्चे उनका अनुकरण करके अनेक सामाजिक व्यवहारों को सीखते हैं| माता-पिता के अतिरिक्त जब बालकों की रूचि दूसरे बालकों में पैदा होने लगती है, तब वे उनकी बोली, क्रियाओं और संवेगों का अनुकरण करने लगते हैं| इस तरह से आगे चलकर वे समूह के साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं| अल्बर्ट बैन्डूरा ने सामाजिक अधिगम सिद्धांत के अतर्गत प्रतिरूप के व्यवहारों के अनुकरण द्वारा सामाजिक विकास के प्रक्रम को पुष्ट किया है| एक अध्ययन में बैन्डूरा, राँस एवं राँस (1961) ने बतया कि बालक का सामाजिक विकास अनुकरण प्राविधि द्वारा होता है| इसमें इन्होंने बच्चों में आक्रामकता के अध्ययन के लिए एक ‘बोबो गुड्डा (खिलौना)’ बच्चों के सामने प्रस्तुत किया तथा उनके सामने दो प्रकार के आक्रामक व्यवहार प्रस्तुत किये| पहली दशा में प्रतिरूप ने गुड्डे के प्रति केवल वाचिक आक्रामकता जैसे-मारो, पीटो, फेंको इत्यादि की ध्वनि प्रस्तुत की तथा दूसरी दशा में शारीरिक आक्रामकता प्रदर्शित किया| बच्चों ने प्रतिरूप के व्यवहारों का अवलोकन किया तत्पश्चात इन बच्चों को स्वतंत्र रूप से खिलौनों से खेलने के लिए छोड़ दिया गया| इन खिलौनों में बोबो गुड्डा भी था| परिणामों में पाया गया कि यद्यपि दोनों दशाओं में बालकों ने अनुकरण द्वारा आक्रामकता प्रदर्शित परन्तु शारीरिक आक्रामकता की दशा में अधिक आक्रामकता प्रदर्शित की| इन प्रयोगों के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि बच्चे अनुकरण द्वारा अधिकांश सामाजिक व्यवहारों को सीखते हैं|
दूसरों से आगे बढ़ जाने की इच्छा चौथे वर्ष (4 वर्ष) की आयु में दिखाई देने लगती है| छोटे बालकों का अपनी चीजों की तारीफ करना प्रतिस्पर्धा का ही एक रूप है| ऐसा प्रायः दूसरे की उपस्थिति में होता है, समान्यता: ऐसे वयस्क या वृद्ध की उपस्थिति में जिसका ध्यान बालक आकर्षित करना चाहता है| गेविट्ज (1954) का मानना है कि छोटा बालक अपने समवयस्कों के बजाय किसी प्रौढ़ का ध्यान आकर्षित करने के लिए अधिक व्यग्र होता है तथा उनके ध्यान केन्द्र को पाने के लिए कोई भी तरीका अपना सकता है| प्रतिस्पर्धा परिवार के अन्दर बहुत होती है, विशेष रूप से जब सहोदरों में ईर्ष्या होती है| ऐसे घरों में प्रतिस्पर्धा अधिक पायी जाती है जहाँ बालक, और बालिकाएं दोनों होने हैं या जहाँ माँ किसी बालक के प्रति अधिक अनुराग प्रकट करती अहि (बोसार्ड, 1953) |
नकारवृत्ति अर्थात बड़ों की आज्ञा का प्रतिरोध करना शैशवावस्था के अंत में होता है| इसका कारण घर के अन्दर अभिभावकों द्वारा बच्चें को अनुशासित करने के लिए दवाव बनाना या दवाब पूर्वक अनुशासन को लागू किया जाना, शामिल है| दो या तीन वर्ष की आयु में नकारवृत्ति अंह के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है| शुरू के अंह सम्प्रत्यय को त्यागने की आवश्यकता के प्रति यह एक अतिरंजित प्रतिक्रिया होती है| माता-पिता की आज्ञा का प्रतिरोध तीसरे और चौथे वर्ष के बीच पराकाष्ठ पर पहुँच जाता है और उसके बाद या प्रवृत्ति अधिकतर अन्य बालकों या दूसरे व्यक्तियों की आज्ञा न मानने का रूप ले लेता है| मास्टेक्स (1955) के अनुसार समायोजित बालक भी नकारवृत्ति प्रकट करते हैं, लेकिन उनकी नकारवृत्ति कुसमायोजित बालकों की अपेक्षा कम अवसरों पर तथा कम तीव्रता के साथ प्रकट होती है|
नकारवृत्ति का रूप विभिन्न आयु में, अलग-अलग बालकों में भिन्न-भिन्न होती है| प्रायः इसके जो रूप देखने में आते हैं उनमें कुछ शाब्दिक अनुक्रियाएँ तथा गति सम्बन्धी अनुक्रियाएँ होती है| बालक जब बड़े हो जाते हैं, तब वे बातों को न सुनने या समझने का प्रायः बहाना करते हैं, दिनचर्या में समय नष्ट करते हैं या उसकी बिलकुल उपेक्षा कर देते हैं| सुमायोजित बालक नकारवृति को प्रायः सीधे तरीके से व्यक्त करते हैं जबकि कुसमायोजित बालक व्यापक, सामान्यीकृत तरीके अपनाते हैं| चार और छह वर्ष के बीच में प्रायः शारीरिक प्रतिरोध घट जाता है और प्रतिरोध का शाब्दिक रूप बढ़ जाता है|
आक्रामकता कुण्ठा के प्रति एक सामान्य प्रतिक्रिया है, जिसे डोलार्ड एवं मिल्लर ने एक परिकल्पना के रूप में स्थापित किया| अत्यधिक आक्रामकता प्रदर्शित करने वाला बालक वह होता है जिसे बहुत ही कुण्ठा हो या जिसको आक्रामकता के कारण बहुत दण्डित किया जाता है| लेविन (1956) ने अपने प्रयोगों के आधार पर स्पष्ट किया है कि ऐसे बालकों में आक्रामकता विशेष रूप से प्रबल होती है जो शक्ति और प्रभाव चाहते हैं या किसी आक्रामक प्रौढ़ से अपना तादात्म्य स्थापित किये होते हैं| बल्टर्स (1957) ने प्रदर्शित किया है कि बालक, बालिकाओं की अपेक्षा सामान्यतः अधिक आक्रामक होते हैं|
लोकप्रिय बालक अपने आक्रामकता को खेल के सन्दर्भ में प्रकट करते हैं और उनका लक्ष्य कोई निश्चित व्यक्ति नहीं होता है, लेकिन अलोकप्रिय बालक किसी भी व्यक्ति पर जो भौतिक रूप से पास होता है, आक्रामक कर देता है| चाहे उस व्यक्ति ने उनका अहित किया हो या न किया हो बालक की आक्रामकता दिन के समय, खेल के समय और अन्य बालकों से उसके परिचय के स्तर के अनुसार बदलती है| बालक का, अन्य बालकों से जितना परिचय होगा बालक में उसी के अनुरूप आक्रामकता होगी| यद्यपि थोड़ी बहुत आक्रामकता सभी प्रकट करते हैं, तथापि बालक और बालिकाएँ दोनों ही आक्रामक व्यवहार के बजाय स्नेहपूर्ण व्यवहार से सामाजिक सम्पर्क अधिक बनाते हैं| बच्चों में आक्रामकता दूसरे वर्ष से चौथे वर्ष तक बढ़ती है और फिर घटने लगती है|
आक्रामकता के रूप आयु के साथ परिवर्तित होते हैं| पहले बालक आक्रामकता होने पर रोता है और अन्य बालकों पर हमला करता है जबकि बाद में आक्रामकता का रूप परिवर्तित होकर गाली गलौज करना, दूर हट जाना तथा वयस्कों से शिकायत करना इत्यादि के रूप में परिलक्षित हो जाता हैं| पांच वर्ष के बालक की आक्रामकता का प्रदर्शन शारीरिक न होकर मौखिक हो जाती है| बालक जितना छोटा होगा उतना ही अधिक सीधे तौर पर अपने आक्रामक भावों को व्यक्त करेगा और रोएगा, बालक अन्य बालकों के द्वारा पसंद किये जाते हैं, वे नापसंद किये जाने वाले बालकों की अपेक्षा प्रौढ़ का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए शाब्दिक आक्रामकता का प्रयोग कम करते हैं| वहीं अलोकप्रिय बालक शारीरिक या शाब्दिक आक्रमण के द्वारा माता-पिता या वयस्कों का ध्यान अपनी ओर उतना ही अधिक आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं|
छोटे बच्चे आत्मकेंद्रित होते हैं तथा स्वार्थपरता 4 वर्ष से 6 वर्ष के बीच अपनी चरमोत्कर्ष पर होती है| जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही सबके ध्यान का केंद्र होने से छोटा बालक आत्मकेंद्रित हो जाता है और प्रत्येक बात को अपने ही ढंग से करना या मनवाना चाहता है| दूसरे बालकों के साथ खेलते हुए यदि बालक सीख जाता है कि स्वार्थपरता उसके रास्ते की रुकावट है, तभी वह अपने स्वार्थों को समूह के स्वार्थों के साथ एकाकार करने के कोशिश करता है| जब वह अपनी चीजों के बारे में अधिक उदार बनने लगता है तो अपने खेल के साथियों को भी उनका उपयोग करने देने के लिए तैयार रहता है फिर भी, उदारता प्रारम्भिक बाल्यावस्था में अविकसित होती है|
पूर्व बाल्यावस्था में कलह सहयोगी खेल के अनुभव के आभाव में उत्पन्न होता है| जब बालक झगड़ता है तब वह दूसरे बालकों के खेल खिलौने को छीनना, हाथ पैर चलाना, दांतों से काटना इत्यादि व्यवहार प्रदर्शित करता है| यद्यपि इस समय बालक अत्यधिक उद्धेलित होता है तथापि उद्धेलन की यह अवस्था बच्चे में प्रायः थोड़ी देर तक ही रहती है| शांत होने के पश्चात् बालक अपने समूह के बालकों (जिसके साथ वह खेल रहा है)से मित्रवत व्यवहार करने लगता है| बालक जितना ही छोटा होगा अन्य बालकों से होने वाले झगड़े की संभावना उतनी ही कम होगी| तीन वर्ष की आयु में यह कलह अपनी पराकाष्ठ पर पहुँच जाता है| कालान्तर में सामाजिक समायोजन में सुधार के कारण झगड़ों की तीव्रता और आवृति में कमी आ जाती है| सियर्स (1972) ने स्पष्ट किया है कि लड़के, लड़कियों की अपेक्षा अधिक झगड़ालू होते हैं| चार वर्ष के बालक, दो वर्ष के बालकों की अपेक्षा अधिक लड़ते हैं तथा वे झगड़े में डराना या भयभीत करने का प्रयास करते हैं, किन्तु जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं उनके झगड़े की आवृति कम होती जाती हैं| (सीगल एंव लावेन, 1884) अन्य बालकों से सामाजिक सम्पर्क जितना ही अधिक होगा झगड़े की संभावना उतनी ही अधिक होगी| इसके बावजूद सामाजिकीकरण में झगड़े का विशेष महत्व होता है क्योंकि उससे बालक सीखता है कि अन्य बालक किस बात को सहन करेंगे और किस बात को नहीं सहन करेंगे|
छोटे बालक आत्मकेंद्रित होते हैं अतः दूसरे बालकों के साथ खेलने में वह कम ही सहयोग करने वाले होते हैं| बड़ों के साथ भी वे कम सहयोग करते हैं| तीसरे वर्ष के अन्त तक सहयोगी खेल और सामूहिक कार्य, सख्यां और अवधि की दृष्टि से बढ़ जाते हैं| अभ्यास से बालक अन्य बालकों से सहयोग करना और अधिकाधिक शांत तरीके से खेलना सीख लेता है| बॉल (1954) के अनुसार छोटे बालकों में दोस्ती जितनी पक्की होती है उनका खेल उतना ही सहयोगपूर्ण होता है|
प्रायः सभी बालकों में अपना प्रभुत्व दिखाने की जबर्दस्त प्रवृत्ति पायी जाती है| तीन वर्ष के बाद सामाजिक सम्पर्क बढ़ने से बालक के अंदर प्रभाविता भी बढ़ती है| पांचवें वर्ष के आस-पास बालक का प्रभावी व्यवहार अपने चरमोत्कर्ष पर होता है| जैसे-जैसे बालक का प्रभावी व्यवहार बढ़ता है वैसे-वैसे उसके एकाकी व्यवहार में घतोत्तरी होती जाती है किन्तु अधीनता के व्यवहार में होने वाला परिवर्तन नाम मात्र ही होता है|
प्रभुत्वशाली व्यवहार जैसे-रौब दिखाना, नेतृत्व या प्रभुत्व का प्रदर्शन आदि का विकसित होना या न होना बालक के पर्यावरण पर निर्भर करता है| मन्मरी (1950) ने प्रयोगों के आधार पर या स्पष्ट किया है कि ‘स्कूल पूर्व आयु में, दूसरों के साथ खेलते समय लड़कियाँ लड़कों से अधिक प्रभावी व्यवहार व्यक्त करती हैं|
दो से तीन वर्ष का बालक दूसरों की पीड़ा, दुःख, दुखांत कहानियों, दुर्घटनाओं आदि के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने की योग्यता नहीं रखता| तीन वर्ष के बाद बालक व्यक्ति की वेदना को पहचाने लगता है| बालक अपनी सहानुभूति दूसरों की सहायता करने की कोशिश करके, कष्ट के कारण को हटाने की कोशिश करके, दूसरों को यह खबर देकर कि अमुक व्यक्ति विपत्ति में पड़ा हुआ है तथा उपाय का सुझाव देकर प्रकट करता है| लेकिन, कभी-कभी बालक असहानुभुतिपूर्ण अनुक्रियाएँ भी करता है, जैसे विपत्ति में पड़े हुए व्यक्ति को देखकर हंसना (ग्युरेल एवं सेमिन, 195२)
शिशु की तरह छोटा बालक भी दूसरों से अनुमोदन/स्वीकृति प्राप्त करना चाहता है| शुरू में उसके लिए वयस्कों के अनुमोदन का अन्य बालकों के अनुमोदन से अधिक महत्व होता है| छोटा बालक प्रश्न पूछकर, टिप्पणी देकर और तत्काल अनुक्रिया करके बड़ों का ध्यान खींचकर उनका अनुमोदन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है| लड़के पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का ध्यान अधिक चाहते हैं|
छोटे बच्चे विभिन्न क्रियाओं में ध्यान आकर्षण द्वारा प्रश्न पूछकर टिप्पणी देकर और तत्काल अनुक्रिया करके वयस्कों का ध्यान खींचकर उनका अनुमोदन प्राप्त करने का प्रयास करते है| लड़के पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का ध्यान अधिक चाहते हैं|
आयु वृद्धि के साथ, ज्यों –ज्यों समूह के साथ रहने में रूचि बढती जाती है त्यों-त्यों बालक के लिए साथियों का अनुमोदन बड़ों के अनुमोदन से अधिक महत्वपूर्ण होता जाता है| इसका परिणाम यह हो सकता है कि बालक शरारती और उपद्रवी हो जाता है| प्रायः बड़ों के अनुमोदन के बजाय अपने साथियों के अनुमोदन को पसंद करना बालक के समाज द्वारा स्वीकृति व्यवहार को अभिप्रेरित करता है|
छोटे बालकों के साथियों की संख्या और विविधता सिमित होती है| उसके साथियों में अधिकतर परिवार के बड़े लोग, सहोदर और निकट पड़ोस के बच्चे शामिल होते हैं| बालक जब विद्यालयीय वातावरण में प्रविष्ट करता है तो उसके साथियों की संख्या में वृद्धि होती है| विद्यालयीय वातावरण में होने वाली मित्रता तथा उनसे समायोजन में घर परिवार में होने वाली मित्रता का बहुत प्रभाव पड़ता है| जब बालक के सहोदर समलिंगी होते हैं तब बालक को विपरीत लिंग के साथियों से हिलने-मिलने में कठिनाई अधिक होती है| यदि बालक अपने साथियों से आयु में छोटा होता है तो वह उनसे दबा रहता है तथा यदि वह अपने साथियों या सहोदरों से बड़ा होता है तो वह प्रायः प्रभावी होता है| चार वर्ष की आयु तक बालक लड़के या लड़की किसी के साथ खेलना पसंद करता है लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है अपने ही लिंग को पसंद करने की उसकी प्रवृत्ति बढ़ती जाती है| बालकों के मित्र सच्चे मित्र नहीं बल्कि खेल के मित्र होते हैं अतः इनकी मित्रता में स्थायित्व नहीं होता है| अध्ययनों के परिणाम दर्शाते हैं कि दस सप्ताह की अवधि के भीतर बालकों ने बालिकाओं की अपेक्षा अधिक दोस्त तथा सबसे ज्यादा परिवर्तन चौथे और छठे सप्ताह के बीच हुए| इसमें समलिंगी पसंद की शुरुआत दिखाई दी|
पूर्व बाल्यावस्था की आयु ‘खिलौनों की आयु’है| इसका कारण यह है कि इस आयु में बालक के खेलने का सबसे प्रमुख साधन खिलौना होता है| बालक खिलौनों को सजीव मानता है तथा उनके साथ सजीवों जैसा व्यवहार करता है| सात वर्ष तक ही बच्चा खिलौनों के साथ खेलना पसंद करता है उसके बाद खिलौनों के साथ खेलने की प्रवृति घटने लगती है| मायर (1955) तथा विल्सन (1956) ने यह सिद्ध किया है कि जब खिलौनों का चुनाव आयु के और विकास के स्तर के अनुसार किया जाता है तब बालक खेल के मुश्किल होने पर भी अधिक समय तक खेल में लीन रहता है| खेल पर बुद्धि और लिंग का प्रभाव पड़ता है यथा-उत्कृष्ट बुद्धि के बालक रचनात्मक खेल या कार्य करना और ज्ञानवर्धक पुस्तकें न कि मनोरंजक पुस्तकों को पढ़ना अधिक पसंद करते हैं| रेनवाटर (1956) ने पूर्व बाल्यावस्था में लड़कों की खेल सम्बन्धी रुचियों को लड़कियों की अपेक्षा अधिक विस्तृत बताया है|
तीन वर्ष के बालकों में जीवनवाद का उदभव होता है| खेल के दौरान बालक अपने खिलौनों को सजीव मानते हुए उनके साथ वास्तविक जीवन की चीजों की छोटे पैमाने पर नकल कर, नाटकीकरण का प्रदर्शन करते हैं| तीन वर्ष के बालक गुड़िया या जानवरों से बातें करने का स्वांग या खाली कप से झूठमूठ में चाय पीना| चार वर्षीय बालक के नाटकीय खेल में परिस्तिथियों की झूठी नकल होती है जिसमें साथी तथा चीजें शामिल होती हैं| यथा, पुस्तकों से सुने हुए अंशों के दृश्यों का नाटक करना| अति बुद्धिमान बालक निम्न स्तर की बुद्धि के बालकों की अपेक्षा नाटकीय खेल अधिक करते हैं| (एमेन एवं रेनिसन , 1954)
पूर्व बाल्यावस्था में नेता अपने समूह में बौद्धिक एवं आयु की दृष्टि से बड़ा होता है| बड़ी आयु और श्रेष्ठ बुद्धि के कारण वह खेल के बारे में सुझाव देने में समर्थ होता है जिन्हें अन्य बालक आसानी से मान लेते हैं| पूर्व बाल्यावस्था में अधिकतर नेता दूसरों की इच्छा का ध्यान न रखते हुए उनको धमकी देकर उनके व्यवहार पर काबू पाने की कोशिश करते हैं| जब नेता अधिक सख्ती करने लगता है तो उसका पद छिन जाता है और उसकी जगह पर दूसरे नेता का चयन किया जाता है| पूर्व बाल्यावस्था में लड़कियाँ प्रायः ऐसे समूह का न नेतृत्व करती हैं जिनमें लड़के भी होते हैं तथा लड़कियाँ अपने इस समूह में प्रभुत्वपूर्ण व्यवहार प्रदर्शित करती हाँ (सीगल तथा बैरेली, 1985)|
बच्चे पढ़ने योग्य होने से पहले अपनी कहानी की पुस्तकों में तस्वीरें देखना और किसी से पढ़वाकर कहानियाँ सुनना पसंद करने लगते हैं| आयु में वह परियों, प्राकृतिक चीजों यथा पेड़, पक्षी, पशु आदि से सम्बन्धित कहानियों में अधिक रूचि लेता है| बालक काल्पनिक कहानियों को वास्तविक कहानियों की अपेक्षा अधिक पसंद करता है साथ ही वह भविष्य की घटनाओं से सम्बन्ध कहानियों को भी सुनना पसंद करता है| छोटे बालक कॉमिक्स की तस्वीरें देखना तथा उसे पढ़कर सुनना पसंद करते हैं| ये क्रियाएँ अध्ययन व्यवहार के उदभव की सूचक होती हैं|
पूर्व बाल्यावस्था में बालक टेलीविजन में मात्र वही कार्यक्रम देखते हैं जो विशेष रूप से बच्चों के लिए ही बनाये गए होते हैं| बच्चे जो कार्यक्रम पसदं करते हैं वे उन कहानियों से मिलते जुलते हैं जिन्हें पढ़ना वे पसंद करते हैं अर्थात् ऐसी कहानियों में जिसमें आदमियों और जानवरों से सम्बन्धित कपोल कल्पनाएँ होती हैं, उन्हें पसंद करते हैं| वे बालक जिन्हें खेलने में कम अवसर मिलते हैं तथा जिन्हें खेलने में आनन्द नहीं आता वे अपना खेलने से सम्बन्धित समय टेलीविजन देखने में देते हैं| अत्यधिक रेडियो सुनने या टेलीविजन देखने के दुष्परिणाम बालकों के दुःस्वप्नों और मानसिक तनावों के रूप में प्रकट होते हैं|
स्त्रोत: मानव विकास का मनोविज्ञान, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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