उत्तर बाल्यावस्था की अवधि 7 से 12 वर्ष तक की होती है जब परिवार के दायरे से निकलकर बालक स्कूल या विद्यालय में प्रवेश लेता हो, उसके बाद उसका सामाजिक दायरा बड़ा हो जाता है जिसके कारण व्यक्तित्व को कई बातें प्रभावित करती हैं| अतः बालक के अंह सम्प्रत्यय में बार-बार परिमार्जन की आवश्यकता होती हैं| चूँकि शैशवावस्था में शिशु पूरी तरह से अपने माता-पिता पर निर्भर रहता है इसलिए बालक का अंह सम्प्रत्यय एकांगी हो जाता है| परन्तु इस अवस्था में बालक माता-पिता के प्रति नये ढंग से प्रतिक्रिया करने लगता है क्योंकि उसका सम्पर्क पड़ोसी, शिक्षक तथा सहपाठियों से अपेक्षाकृत अधिक होने लगता है| अतः बालक के प्रारम्भिक अंह सम्प्रत्यय का स्वरुप परिवर्तित होने लगता है तथा बालक में एक नये अंह सम्प्रत्यय का विकास होता है जो बालक के ‘प्रतिविम मूल्यांकनों’ से बना होता है| यदि ये मूल्यांकन अनुकूल हुए तो बालक का अंह सम्प्रत्यय भी अनुकूल होगा| रेमी (1955) ने इस तथ्य को स्पष्ट किया है कि जब बालक का मुल्यांकन कुछ और होता है और बालक उससे भिन्न समझता है तो बालक का अंह सम्प्रत्यय उसी के अनुरूप निर्मित होता है, जिससे बालक का व्यक्तित्व पूरी तरह प्रभावित होता है|
इस अवस्था में बालक स्वयं को अन्य लोगों से पृथक समझता है| वह अपनी योग्यताओं और अयोग्यताओं के बारे में स्पष्ट विचार निश्चित नहीं कर पाता| अनिश्चयता की इस भावना के कारण वह अपने समूह के स्वीकृत तरीके का अनुसरण करता है और स्वयं को उसी के अनुसार ढाल लेता है|
बाल्यावस्था के अंतिम चरण में बालक ऐतिहासिक या काल्पनिक कथाओं के नायक होते हैं| इसके अतिरिक्त वह किसी न किसी को अपना प्रतिरूप या मॉडल चुनता है| वह प्रतिरूप नाटक या सिनेमा के पात्रों अथवा खेल की दुनिया या राष्ट्र के नायकों को मानने लगता है तथा स्वयं वैसा ही बनने की कोशिश करता है| प्रारंभ में इनके आदर्श माता-पिता, शिक्षक आदि होते हैं| परन्तु जब बालक का सामाजिक दायरा बढ़ता है तो वह अपना आदर्श काल्पनिक कथाओं, इतिहास अथवा इस चकाचौंध की दुनिया के आधार पर निर्मित करता है| बहुत कम ही बालक ऐसे होते हैं जो वास्तविक दुनिया, जिसे वे देख रहे हैं तथा जिसमें अन्तः क्रिया कर रहे हैं, से अपने आदर्श क चुनाव करते हैं तथा उस तक न पहुँचने पर असमर्थता की भावना से पीड़ित होते हैं|
इस आयु में मित्र मण्डली की भूमिका अहम होती है| जैसे-जैसे बालक की अन्तःक्रिया अन्य बालकों के साथ बढ़ती जाती है वैसे-वैसे बालक व्यक्तित्व के कुछ लक्षणों को पसंद करता है तथा कुछ को नापसंद| बड़े बालक के व्यक्तित्व को ढालने में समाज की महती भूमिका होती है| बालक इस अवस्था में सामाजिक मान्यता और स्वीकृति की कामना रखता है तथा उसे पाने की आशा में अपने व्यक्तित्व को समूह द्वारा अनुमोदित प्रतिमान के अनुसार ढालने की कोशिश करता है| सामाजिक वर्गों के अनुसार भी व्यक्तित्व की विशेषताओं में अंतर दृष्टिगत होता है| निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर के बालक अपेक्षाकृत अधिक आक्रामक होते हैं| शीलगुण सम्पन्न होते हैं|
आयु वृद्धि के साथ-साथ बालक का व्यक्तित्व क्रमशः स्थिर होता जाता है| जो बालक शर्मीले, एकांतप्रेमी तथा स्वयं को तुच्छ समझते हैं वे अपनी इन विशेषताओं की परिणति को जानने के बाद भी इसमें परिवर्तन करने में अक्षम होते हैं| इसके अतिरिक्त वे बालक जो माता-पिता द्वारा अस्वीकृत होने के कारण आक्रामक हो जाते हैं, आयु बढ़ने के साथ-साथ उनके और भी आक्रामक होने की संभावना प्रबल होती है| अर्थात् उत्तर बाल्यावस्था को व्यक्तित्व विकास में एक ऐसी क्रान्तिक अवस्था के रूप में स्वीकार किया जा सकता हैं, जहाँ व्यक्तित्व के शीलगुणों का निर्माण होने पश्चात् उसके उसके व्यक्तित्व में परिवर्तन की संभावना नगण्य होती है| एकान्तप्रियता, अति उत्तेजनशीलता, प्रभुत्व के प्रति अत्यधिक रोष, दीर्धकालिक अवसाद एवं दीर्घकालिक आकुलता आदि ऐसे लक्षण हैं जो भविष्य में बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं तथा उनके रूपों को विकृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं| बालक को अपने तथा दूसरों की बारे में उचित मार्गदर्शन दिया जाये तो उसमें बेहतर समायोजनशीलता विकसित हो सकती है|
स्त्रोत: मानव विकास का मनोविज्ञान, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 6/8/2019
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