जब किसी समाज में सारे व्यक्ति किसी निर्दिष्ट भौगोलिक सीमा के अन्दर अपने पारस्परिक भेद-भावों को भुलाकर सामूहीकरण की भावना से प्रेरित होते हुए एकता के सूत्र बन्ध जाते हैं तो उसे राष्ट्र के नाम से पुकारा जाता है। राष्ट्रवादीयों का मत है – “ व्यक्ति राष्ट्र के लिए है राष्ट्र व्यक्ति के लिए नहीं “ इस दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अपने राष्ट्र का अभिन्न अंग होता है। राष्ट्र से अलग होकर उसका कोई अस्तित्व नहीं होता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्र की दृढ़ता तथा अखंडता को बनाये रखने में पूर्ण सहयोग प्रदान करे एवं राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिए राष्ट्रीयता की भावना परम आवश्यक है। वस्तुस्थिति यह है कि राष्ट्रीयता एक ऐसा भाव अथवा शक्ति है जो व्यक्तियों को अपने व्यक्तिगत हितो को त्याग कर राष्ट्र कल्याण के लिए प्रेरित करती है। इस भावना की विकसित हो जाने से राष्ट्र की सभी छोटी तथा बड़ी सामाजिक इकाइयां अपनी संकुचती सीमा के उपर उठकर अपने आपको समस्त राष्ट्र का अंग समझने लगती है। स्मरण रहे कि राष्ट्रीयता तथा देशप्रेम का प्राय: एक ही अर्थ लगा लिया जाता है। यह उचित नहीं है। देश प्रेम की भावना तो पर्चिन काल से ही पाई जाती है परन्तु रस्थ्रियता की भावना का जन्म केवल 18 वीं शताबदी में फ़्रांस की महान क्रांति के पश्चात ही हुआ है। देश-प्रेम का अर्थ उस स्थान से प्रेम रखना है जहाँ व्यक्ति जन्म लेता है। इसके विपरीत राष्ट्रीयता एक उग्र रूप का सामाजिक संगठन है जो एकता के सूत्र में बन्धकर सरकार की नीति को प्रसारित करता है। यही नहीं, राष्ट्रीयता का अर्थ केवल राज्य के प्रति अपार भक्ति ही नहीं अपितु इसका अभिप्राय राज्य तथा उसके धर्म, भाषा, इतिहास तथा संस्कृति में भी पूर्ण श्रद्दधा रखना है। संक्षेप में राष्ट्रीयता का सार – राष्ट्र के प्रति आपार भक्ति, आज्ञा पालान तथा कर्तव्यपरायणता एवं सेवा है। ब्रबेकर ने राष्ट्रीयता की व्याख्या करते हुए लिखा है – “ राष्ट्रीयता शब्द की प्रसिद्धि पुनर्जागरण तथा विशेष रूप से फ़्रांस की क्रांति के पश्चात हुई है। यह साधारण रूप से देश-प्रेम की अपेक्षा देश-भक्ति से अधिक क्षेत्र की ओर संकेत करती है। राष्ट्रीयता में स्थान के सम्बन्ध के अतिरिक्त प्रजाति, भाषा तथा संस्कृति एवं परमपराओं के भी सम्बन्ध आ जाते हैं।”
प्रत्येक राष्ट्र की उन्नति अथवा अवनित इस बात पर निर्भर करती है की उसके नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना किस सीमा तक विकसित हुई है। यदि नागरिक राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत है तो राष्ट्र उन्नति के शिखर पर चढ़ता रहेगा अन्यथा उसे एक दिन रसातल को जाना होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि राष्ट्र को सबल तथा सफल बनाने के लिये नागरिकों में राष्ट्रीयता की बहावना विकसित करना परम आवश्यक है। धयान देने की बात है कि राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करने के लिए शिक्षा की आवशयकता है। इसीलिए प्रत्येक राष्ट्र अपने आस्तित्व बनाये रखने के लिए अपने नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना में विकास हेतु शिक्षा को अपना मुख्य सधान बना लेता है। स्पार्टा, जर्मनी, इटली , जापान तथा रूस एवं चीन की शिक्षा इस सम्बन्ध में ज्वलंत उदहारण है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्राचीन युग में स्पार्टा तथा अन्धुनिक युग में नाजी जर्मनी एवं फासिस्ट इटली में शिक्षा द्वारा ही वहाँ के नागरिकों में राष्ट्रीयता का विकास किया गया तथा आज भी रूस तथा चीन के बालकों में प्रराम्भिक कक्षाओं से साम्यवादी भावना का विकास किया जाता है। चीन के बालकों में प्रारंभिक कक्षाओं में साम्यवादी भावना का विकास किया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि तानाशाही, समाजवादी एवं जनतंत्रीय सभी प्रकार के राष्ट्र अपनी-अपनी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अपने-अपने नागरिकों में शिक्षा के द्वारा राष्ट्रीयता की भावना को विकसति करते हैं।
राजनीतिक एकता – राष्ट्रीयता की शिक्षा से राष्ट्र में राजनितिक एकता का विकास होता है। राजनीतिक एकता का विकास होता है। राजनीतिक एकता का अर्थ है – राष्ट्र में जातीयता, प्रान्तीयता तथा समाज के वर्ग भेदों से ऊपर उठाकर राष्ट्र के विभिन्न प्रान्तों, समाजिक इकाईयों तथा जातियों में एकता का होना। राष्ट्रीय शिक्षा प्राप्त करके राष्ट्र के सभी नागरिक अपने सारे भेद-भावों को भूलकर एकता के सूत्र में बन्ध जाते हैं जिससे राष्ट्र दृढ तथा सबल बन जाता है।
सामाजिक उन्नति – राष्ट्र की उन्नति अथवा अवनति उसकी सामाजिक स्थिति पर भी बहुत कुछ आधारित होती है। सामाजिक कुरीतियाँ, अन्ध-विश्वास तथा दोषपूर्ण रीती-रिवाज राष्ट्र की प्रगति में बाधक सिद्ध होते हैं तथा उसे पतन की ओर ढकेल देते हैं। राष्ट्रीयता की शिक्षा उक्त सभी दोषों को दूर करके नागरिकों में समानता का ऐसा स्वस्थ वातावरण निर्मित करती है, जो राष्ट्र को निर्मल स्वच्छता की ओर ले जाता है।
आर्थिक उन्नति – राष्ट्रीयता की शिक्षा से राष्ट्र की कला, कारीगर, तथा उधोग-धन्धे पनपते हैं। ऐसी शिक्षा को प्राप्त करके राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक किसी न किसी धन्धे में काम करते हुए अधिक से अधिक परिश्रम करता है तथा स्वावलम्बी बनाने के लिए राष्ट्र की दिन-प्रतिदिन उन्नति होती है। इससे राष्ट्र की निर्धनता दूर हो जाती है तथा वह शैने –शैने , धन-धान्य से परिपूर्ण होकर स्म्रिधिशील बन जाता है।
संस्कृति का विकास – राष्ट्रीयता की शिक्षा राष्ट्र की संस्कृति का संरक्षण, विकास तथा हस्तांतरण करती है। यदि राष्ट्रीयता की शिक्षा की व्यवस्था उचित रूप से नहीं की गई तो राष्ट्र की संस्कृति विकसित नहीं होगी। परिणामस्वरूप राष्ट्र उन्नति की दौड़ में पिछड़ जायेगा।
भ्रष्टाचार का अन्त- राष्ट्रीयता की शिक्षा के द्वरा राष्ट्र में भ्रष्टाचार का अन्त हो जाता है। ऐसी शिक्षा प्राप्त करके सभी नागरिक राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत हो जाते हैं। परिणामस्वरूप वे निन्दनीय कार्यों को करते हुए डरने लगते हैं। दूसरे शब्दों में , राष्ट्रीयता की शिक्षा प्राप्त करके राष्ट्र का कोई व्यक्ति ऐसा अवांछनीय कार्य नहीं करता जिससे राष्ट्र की उन्नति में बाधा आये।
स्वार्थ त्याग की भावना का विकास – राष्ट्रीयता की शिक्षा राष्ट्र के द्वारा राष्ट्र के सभी नागरिकों में आत्म-त्याग की भावना विकसित हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप उनकी सभी स्वार्थपूर्ण भावनायें समाप्त हो जाती है तथा वे अपने कर्तव्यों एवं उतरदायित्यों को पूर्ण निष्ठा के साथ निभाने का प्रयास करते रहते हैं। इससे राष्ट्र सुखी, उन्नतिशील तथा शक्तिशाली बन जाता है।
राष्ट्रीय भाषा का विकास – प्रत्येक राष्ट्र अपने नागरिकों को किसी अमुख भाषा के द्वारा राष्ट्र की सम्पूर्ण विचारधारा तथा साहित्य की शिक्षा प्रदान करके समाज की विभिन्न इकाईयों, राज्यों तथा जातियों एवं प्रजातियों को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास करता है। इससे राष्ट्रीय भाषा का विकास हो जाता है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रीयता की शिक्षा नागरिकों में राष्ट्र के प्रति अपार भक्ति, आज्ञा-पालन, आत्म-त्याग, कर्तव्यपरायणता तथा अनुशासन आदि गुणों को विकसति करके सभी प्रकार के भेद-बावों को भुलाकर एकता के सूत्र में बाँध देती है। इससे राष्ट्र की राजनीतिक, आर्थिक , सामाजिक तथा सांस्कृतिक आदि सभी प्रकार की उन्नति होती रहती हैं।
भारत एक विशाल देश है। इस विशालता के कारण इस देश में हिन्दू, मुस्लिम, जैन, ईसाई, पारसी तथा सिक्ख आदि विभिन्न धर्मों तथा जातियों एवं सम्प्रदायों के लोग हैं। अकेले हिन्दू धर्म को ही ले लीजिए। यह धर्म भारत का सबसे पुराना धर्म है जो वैदिक धर्म, सनातन धर्म, पौराणिकधर्म तथा ब्रह्म समाज आदि विभिन्न मतों सम्प्रदायों तथा जातियों में बंटा हुआ है। लगभग यही हाल दूसरे धर्मों का भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत में विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों जातियों तथा प्रजातियों एवं भाषाओं के कारण आश्चर्यजनक विलक्षणता तथा विभिन्नता पाई जाती है। पर इस विभिन्नता से हमें यह नहीं समझ लेना चाहिएय की भारत में आधारभूत एकता का अभाव है। जदुनाथ सरकार तथा हरबर्ट रिजेल आदि विद्वानों का मत है कि भारत में परस्पर विरोधी विचारों, सिधान्तों भाषाओं, रहन-सहन के ढंगों, अचार-विचार तथा वस्त्रों एवं खाद्यानो आदि बहुत से बातों में विभिन्नता के होते हुए भी जीवन की एकता पाई जाती है। इस एकता का आधार में विभिन्नता के होते हुए भी जीवन की एकता पाई जाति है। इस एकता का आधार भारतीय संस्कृति की एकता है जिसे अलग-अलग तत्वों में विघटित करना असंभव है।
उपर्युत्क पक्तिओं से स्पष्ट हो जाता है कि भारत में विभिन्नता के होते हुए भी संस्कृति की एकता पाई जाती है। ध्यान देने की बात है कि भारत में विभिन्नता तो अवश्य पाई जाति है, पर संस्कृति की एकता के विषय में मतभेद है। इसका कारण यह है कि प्राचीन युग में भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों को अपने में असानी से अवश्य मिला लेती थी, परन्तु अब उसका यह गुण समाप्त हो गया है। परिणामस्वरूप अब एक राज्य के निवासी दूसरे राज्य के निवासियों की भाषाओं तथा रीती-रिवाजों एवं परम्पराओं को भी सहन नहीं कर रहे हैं। संस्कृति की संकीर्णता के साथ-साथ जब देश में और भी ऐसी विघटनकारी प्रविर्तियाँ विकसित हो गई है जिनके कारण राष्ट्रीय एकता एक जटिल समस्या बन गई है। इस समस्या को सुलझाने के लिए माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार – “ हमारी शिक्षा को ऐसी आदतों तथा दृष्टिकोण एवं गुणों का विकास करना चाहिये जो नागरिकों को इस योग्य बना दें कि वे जनतंत्रीय नागरिकता के उत्तरदायित्वों को वहन करके उन विघटनकारी प्रवितियों का विरोध कर सकें जो व्यापक, राष्ट्रीय तथा धर्म-निपेक्ष, दृष्टिकोण के विकास में बाधा डालती है।”
स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात भारत को अनके समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं में सबसे गंभीर समस्या राष्ट्रीय एकता की समस्या है। इस समस्या को सुलझाने के लिए हमें उन सभी बाधाओं को दूर करना आवशयक है जो इसके रस्ते में वज्र के समान पड़ी हुई है। मुख्य बाधायें निम्नलिखित है –
(1) जातिवाद- भारत की राष्ट्रिय एकता के मार्ग में जातिवाद प्रमुख बाधा है। यहाँ के निवासी विभिन्न धर्मों तथा जातियों में विश्वास करते हैं जिसके कारण इन सब में आपसी मतभेद पाये जाते हैं। प्रत्येक जाति अथवा धर्म व्यक्ति दूसरे धर्म अथवा जाति के व्यक्ति से अपने आप को ऊंचा समझता है। इससे प्रत्येक व्यक्ति में एक-दूसरे के प्रति प्रथकता की भावना इतना उग्र रूप धारण कर चुकी है कि इस संकुचित भावना को त्याग कर वह राष्ट्रीय हित के व्यापक दृष्टिकोण को अपनाने में असमर्थ है। हम देखते हैं कि चुनाव के समय भी प्रत्येक व्यक्ति अपना मत प्रतयाशी की योग्यता को दृष्टि में रखकर नहीं अपितु धर्म तथा जाती के आधार पर देता है। यही नहीं चुनाव के पश्चात भी जब राजनीतिक सत्ता किसी अमुक वर्ग के हाथ में आ जाती है तो वह वर्ग अपने ही धर्म अथवा जाति के लोगों को अधिक से अह्दिक लाभ पहुँचाने का प्रयास करता है। जिस राष्ट्र में धर्म तथा जाती का इतना पक्षपात पाया जाता हो, वहाँ रष्ट्रीय एकता की भावना को विकसित करना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।
(2) साम्प्रदायिकता- साम्प्रदायिकता भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में महान बाधा है। हमारे देश में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, आदि अनके सम्प्रदाय पाये जाते हैं। यही नहीं, इन सम्प्रदायों में भी अनके सम्प्रदाय हैं। उदाहरण के लिए, अकेला हिन्दू धर्म ही अनके सम्प्रदायों में बंटा हुआ है। इन सभी सम्प्रदायों में आपसी विरोध तथा घ्रणा की भावना इस सीमा तक पहुँच गई है कि एक सम्प्रदाय के व्यक्ति दूसरे सम्प्रदाय को एक आँख से नही देख सकते। प्राय: सभी सम्प्रदाय राष्ट्रीय हितों को अपेक्षा केवल अपने-अपने साम्प्रदायिक हितों को पूरा करने में ही जूटे हुए हैं। इससे राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ गई है।
(3) प्रान्तीयता – भारत की राष्ट्रीय एकता के मार्ग में प्रान्तीयता भी एक बहुत बड़ी बाधा है। ध्यान देने की बात है कि हमारे देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ‘ राज्य पुनर्गठन आयोग’ ने प्रशासन तथा जनता की विभिन्न सुविधाओं को दृष्टि में रखते हुए देश को चौदह राज्यों में विभाजित किया जाता था। इस विभाजन के आज विघटनकारी परिणाम निकल रहे हैं। हम देखते हैं कि अब भी जहाँ एक ओर भाषा के आधार पर नये –नये राज्यों की मांग की जा रही है वहाँ दूसरी ओर प्रत्येक राज्य यह चाहता है उसका केन्द्रीय सरकार पर सिक्का जम जाये। इस संकुचित प्रान्तीयता की भावना के कारण देश के विभिन्न राज्यों में परस्पर वैमन्स्य बढ़ता जा रहा है। इससे राष्ट्रीयता एकता एक जटिल समस्या बन गई है।
(4) राजनीतिक दल- जनतंत्र में राजनीतिक चेतना तथा जनमत के निर्माण हेतु राजनीतिक दलों का होना परम आवशयक है। इसीलिए हमारे देश में भी स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात विभिन्न दलों का निर्माण हुआ है। खेद का विषय है कि इन राजनीतिक दलों में से कुछ ही ऐसे डाल है जो सच्चे धर्म में राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होते हुए अपना कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न कर रहे हैं। अधिकांश दल तो केवल जाति धर्म तथा सम्प्रदाय एवं क्षेत्र के आधार पर ही जनता से वोट मांग कर चुनाव लड़ते हैं तथा राष्ट्र हित की उपेक्षा राष्ट्रीय विघटन के कार्यों में जुटे रहते हैं। जब तक देश में ऐसे विघटनकारी राजनीतिक दलों का अस्तित्व बना रहेगा तब तक जनता राजनीतिक दलदल में फंसी रहेगी। इससे राष्ट्रीय एकता की समस्या बनी ही रहेगी।
(5) विचित्र भाषायें- हमारे देश में विभिन्न भाषायें पाई जाती है। ये सभी भाषायें की राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधा है। वस्तु-स्थिति यह है कि वह व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के निकट केवल भाषा के माध्यम से ही आ सकता है। अत: भारत जैसे विशाल राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रीय भाषा का होना परम आवशयक है। खेद का विषय है कि हमारे देश में भाषा के नाम पर असम, पंजाब, आन्ध्र तथा तमिलनाडु आदि राज्यों में अनके घ्रणित घटनाएँ घटी जा चुकी है तथा अब भी भाषा की समस्या खटाई में ही पड़ी है। अब समय –आ चूका है कि हम राष्ट्रीय एकता के लिए भाषा सम्बन्धी वाद-विवाद का अन्त करके सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए केवल एक ही भाषा को स्वीकार करें।
(6) सामाजिक विभिन्नता – भारत में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई तथा सिक्ख आदि विभिन्न सामाजिक वर्ग पाये जाते हैं। इन सभी सामाजिक वर्गों में आपसी घ्रणा तथा विरोध की भावना पाई जाती है। उदहारण के लिए हिन्दू समाज मुस्लिम समाज को आँखों देखने के लिए तैयार नहीं है और न ही वह ईसाई समाज के साथ भी किसी प्रकार के सम्बन्ध रखना चाहता है। अन्य सामाजिक वर्गों का भी यही हाल है। जब तक भारत में सामाजिक विभिन्नता बनी रहेगी तब तक राष्ट्रीयता एकता कोरी कल्पना है।
(7) आर्थिक विभिन्नता – हमारे देश में सामाजिक विभिन्नता के साथ-साथ आर्थिक विभिन्नता भी पाई जाती है। सम्पूर्ण देश में केवल मुट्ठी भर लोग धनवान है तथा अधिकतर निर्धन। निर्धन होने के नाते लोगों के आगे रोटी की समस्या एक महान समस्या बनी हुई है जिसके सुलझाने में वे हर समय इतने व्यस्त रहते हैं कि राष्ट्रीय एकता के विषय में सोच भी नहीं सकते। इस दृष्टि से राष्ट्रीय एकता के मार्ग में देश की आर्थिक विषमता एक महान बाधा है। जब तक हम देश की आर्थिक दशा को नहीं सुधारेंगे तब तक राष्ट्रीय एकता एक समस्या बनी ही रहेगी।
(8) नेतृत्व का अभाव – जनतंत्र की सफलता के लिए उचित नेतृत्व का होना परम आवशयक है। हमारे देश में इस समय उच्च स्तरीय नेतृत्व तो कमाल का है परन्तु स्थानीय स्तर पर इसकी कमी है। प्राय: देखा जाता है कि स्थानीय नेता अपने निजी स्वार्थों को पूरा करने के लिए जनता में जातीयता, साम्प्रदायिकता तथा प्रान्तीयता आदि अवांछनीय भावनाओं को भड़काते रहते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता हर समय खतरे में पड़ी रहती है।
(9) आधुनिक शिक्षा – भारत में शिक्षा को राज्यों का विषय माना जाता है। इस नियम के अनुसार भारत का प्रत्येक राज्य अपनी-अपनी आवश्यकताओं तथा शक्ति के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था कर रहा है। राज्य स्तर पर शिक्षा की व्यवस्था होने से दो मुख्य रोष पैदा हो गये हैं। पहला, बालकों की भावनाओं राष्ट्र की अपेक्षा केवल अपने ही प्रदेश तक सीमित रह जाती है। दूसरा, विभिन्न राज्यों के शिक्षकों के वेतनों में भरी विषमता है। इससे शिक्षकों में एक दूसरे प्रदेश के प्रति इर्ष्य की भावना विकसित हो गई है। जब राष्ट्र के निर्माताओं में ही ईर्ष्या की भावना विकसति हो गई हो तो फिर राष्ट्रीय एकता असम्भव है।
उपर हमने ऐसी अनेक बाधाओं की चर्चा की है जो राष्ट्रीय एकता के मार्ग में आती है। इन बाधाओं को दूर करके राष्ट्रीय एकता स्थापित करने के लिए भारतीय सरकार ने दो समितियों का गठन किया – एक भावनात्मक एकता समिति तथा दूसरी राष्ट्रिय एकता समिति। भावनात्मक एकता समिति के अध्यक्ष डॉ० सम्पूर्णानन्द थे। ऐसे ही राष्ट्रीय एकता समिति के अध्यक्ष श्रीमती गांधी ने की थी। भावनात्कम एकता समिति का गठन सन 1961 ई० में हुआ तथा राष्ट्रीय एकता समिति की स्थापना सन 1967 ई० में हुई। भावनात्मक एकता समिति के विषय में चर्चा कर रहें है। इस समिति की बैठक जून 1968 ई० में श्रीनगर में हुई जहाँ पर राष्ट्रिय एकता विकास हेतु मुख्य-मुख्य उद्देश्यों की घोषणा की गई। इस समिति ने राष्ट्रीय विकास की समस्या को सुलझाने के लिए तीन उपसमितियों का गठन किया। पहली उपसमिति ने अपने-अपने विषयों के समबन्ध में राष्ट्रीय एकता समिति के सामने उपयुक्त सुझाव रखे जिन्हें समिति ने स्वीकार कर लिया। समिति ने राष्ट्रीय एकता के लिये जहाँ एक ओर विभिन्न सुझाव दिए वहाँ दूसरी ओर यह भी खुले शब्दों में स्पष्ट कर दिया कि राष्ट्रीय एकता को स्थापति करने का उत्तरदायित्व केवल सरकार पर ही नहीं अपितु देश के प्रत्येक नागरिक पर है। अत: समिति ने राष्ट्र से अपील की कि इन महान कार्य को सफल बनाने के लिए राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण सहयोग प्रदान करे।
राष्ट्रीय एकता समिति के सुझाव – राष्ट्रीय एकता समिति ने जहाँ एक ओर राष्ट्रीय एकता के लिए शैक्षिक कार्यक्रमों का सुझाव किया वहाँ दूसरी ओर शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्यों तथा कार्यक्रमों के विषय में भी सुझाव दिये –
(1) राष्ट्रीय एकता के लिए शिक्षा के उद्देश्य – राष्ट्रीय एकता समिति ने शिक्षा के निम्नलिखित उदेशों पर बल दिया -
(1) सभी बालकों को देश के विभिन्न पहलुओं का ज्ञान कराया जाये।
(2) बालकों को स्वतंत्रता प्राप्ति के सम्बन्ध में प्रमुख घटनायें का ज्ञान कराया जाये।
(3) देश की विभिन्न जातियों तथा सम्प्रदायों में राष्ट्रीय एकता को विकसति करने वाली पढाई-लिखाई पर विशेष बल दिया जाये।
(2) राष्ट्रीय एकता के लिए शैक्षिक कार्यक्रमों का सुझाव – समिति ने राष्ट्रीय एकता के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये –
उपर्युक्त बातों को दृष्टि में रखते हुए हमें स्कूलों में इस प्रकार की शैक्षिक कार्यक्रम तैयार करना चाहिये जिसमें प्रत्येक बालक राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत हो जाये। निम्नलिखित पंक्तिओं में हम विभिन्न स्तरों के शैक्षिक कार्यक्रम पर प्रकाश डाल रहें हैं –
(1) प्राथमिक स्तर – प्राथमिक स्तर पर निम्नलिखित कार्यक्रम होना चाहिये –
(2) माध्यमिक स्तर – माध्यमिक स्तर पर निम्नलिखित कार्यक्रम होना चाहिये –
(3) विश्वविधालय स्तर – विश्वविधालय स्तर पर शिक्षा का निम्नलिखित कार्यक्रम होना चाहिये।
इसमें सन्देह नहीं की राष्ट्रीयता की शिक्षा व्यक्ति में राष्ट्रीयता की भावना विकसित करती हैं, परन्तु आज के अंतर्राष्ट्रीय युग में इस प्रकार की शिक्षा कुछ घातक भी सिद्ध हो रही है। राष्ट्रीयता की शिक्षा में गुणों के साथ-साथ कुछ निम्नलिखित दोष भी है –
(1) संकुचित राष्ट्रीयता का विकास – राष्ट्रीयता की शिक्षा बालकों में संकुचित राष्ट्रीयता का विकास करती है। इस प्रकार की शिक्षा का उद्देश्य ऐसे नागरिकों का निर्माण करना है जो आँख भींचकर राष्ट्र उद्देश्यों का पालन करते रहे तथा उसकी सेवा करते हुए अपने जीवन को अर्पण कर दें। ऐसी संकुचित भावना के विकसित हो जाने से देश के नागरिक अपने ही राष्ट्र को संसार का सबसे महान राष्ट्र समझने लगते हैं। रसल का मत है – “ बालक तथा बालिकाओं को यह सिखाया जाता है कि उसकी सबसे बड़ी भक्ति उस राज्य के प्रति है जिससे वे नागरिक हैं तथा उस राज्यभक्ति का धर्म यह है कि सरकार जैसा कहे वैसा होना चाहिये। उनको इसलिए झूठा इतिहास, राजनीति तथा अर्थशास्त्र समझाया जाता है कि कहीं वे अंधे राज्य भक्ति के पाठ पर मुक्ता-चीनी न करें। अपने देश के नहीं किन्तु दूसरे देशों के बुरे कारनामों का ज्ञान कराया जाता है जबकि सत्य यह है प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के साथ अन्याय करता है।”
(2) व्यक्ति की स्वतंत्रता की उपेक्षा – राष्ट्रीयता की शिक्षा व्यक्ति के विकास को लक्ष्य न मानकर उसे राष्ट्र की उन्नति का साधन बना देती है। इससे राष्ट्र के सभी लोग जाती-पाति, रंग-रूप तथा लिंग के भेद-भावों को भूल जाते हैं एवं उनमें कर्तव्यपरायणता, सेवा, आज्ञा-पलान तथा बलिदान एवं राष्ट्र के प्रति असीम श्रधा जैसे गुण विकसति हो जाते हैं। संकुचित राष्ट्रीयता के इस विकास में नागरिकों का अपना निजित्व कुण्ठित जा जाता है तथा केवल राष्ट्र ही व्यक्ति का सब कुछ बन जाता है जिससे उसका समुचित विकास नहीं हो पाता। इस प्रकार की शिक्षा मनोविज्ञान की अवहेलना करती है तथा जनतंत्र के भी विरुद्ध है।
(3) कट्टरता का विकास – राष्ट्रीय शिक्षा नागरिकों में कट्टरता का विकास करके उन्हें अपने देश के लिए बलिदान होना सीखती है। ऐसी शिक्षा का उद्देश्य ही यह है कि चाहे अपने देश के हित में लिए बलिदान की क्यों न होना पड़े तो भी पीछे नहीं हटना चाहिये। इटली के फासिस्टों ने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षक की व्यवस्था की थी। इस प्रकार की कट्टरता अवांछनीय है। इसका परिणाम यही होगा कि देश में कुछ बुराइयां भी होंगी तो भी उनको प्रोत्साहन ही मिलता रहेगा।
(4) युद्ध – कभी-कभी कट्टर राष्ट्रीयता के कारण युद्ध भी छिड़ जाता है। जब राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा नागरिकों में कट्टर राष्ट्रीयता की भावना विकसित हो जाती है तो वे अन्य राष्ट्रों के नागरिकों को अपनी तुलना में हेय समझने लगते हैं तथा अपनी महानता के गर्व में आकर दूसरे शब्दों पर आक्रमण भी कर बैठते हैं। पिछले दो महायुद्ध इसी संकीर्ण तथा कट्टर राष्ट्रीयता की भावना के कारण हुए।
(5) पृथकत्व की भावना का विकास – राष्ट्रीयता के शिक्षा के कारण राजनीतिक पृथकत्व की भावना बड़े वेग के साथ विकसति हो जाती है। यही कारण है कि संसार का कोई भी रष्ट्र विश्व सरकार में विश्वास नहीं करता।
(6) स्वार्थपरता तथा अनैतिक को प्रोत्साहन – राष्ट्रीय शिक्षा केवल अपने ही देश की उन्नति देखकर इर्ष्या पैदा हो जाती है। यही नहीं, राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर एक राष्ट्र अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए दूसरे शब्दों का विध्वंश करने तथा उन्हें हड़पने के लिए भी सदैव तैयार रहता है। राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा बालकों के ह्रदय में आरम्भ से ही ‘ मेरा देश अच्छा अथवा बुरा, तथा ‘ हमारा देश सर्वश्रेष्ट बने ‘ आदि जैसी भावनाओं को विकसित किया जाता है। इससे बालक बड़े होकर अपने राष्ट्र के हित के लिए दूसरे राष्ट्रों को कुचलने के लिए तैयार हो जाते हैं। चीन तथा पाकिस्तान ने जो आक्रमण भारत पर किये, वे इसी ईर्ष्या तथा स्वार्थपरता पर आधारित थे।
(7) घृणा तथा भय का विकास – राष्ट्रीयता की शिक्षा अपने राष्ट्रों को ही सर्वश्रेष्ठ मानती है। इससे एक राष्ट्र के नागरिकों के मन में अन्य राष्ट्रों के प्रति घृणा जागृत हो जाती है। घृणा के भाव भय के संवेग को, भी जन्म देते हैं। प्राय: घृणा करने वाले राष्ट्र को सदैव यही भय बना रहता है कि कहीं दूसरा राष्ट्र अधिक शक्तिशाली बनाकर उसके उपर न टूट पड़े। इस प्रकार से राष्ट्रीयता की शिक्षा द्वारा अमानवीय प्रवृतियों को विकसित होने का मार्ग प्राप्त होता रहता है। के० जी० सैयदेन ने ठीक ही लिखा है – “ राष्ट्रीयता की शिक्षा तीव्र घृणा, पारस्परिक द्वेष व ईर्ष्या, अविश्वास उचित तत्वों की अवहेलना, राजनीतिक क्षेत्र में साम्प्रदायिक झगडे, जीवन को पवित्र बनाने वाले दृष्टिकोण का नाश मनुष्य के महत्त्व क अवहेलना आदि ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है जिनसे प्रत्येक सभ्यता व संस्कृति खतरे में पड़ सकती है।” रसल का भी विचार है – “घृणा उत्पन्न करने की शिक्षा, जो राष्ट्रीय शिक्षा का महत्पूर्ण उद्देश्य है, स्वयं बुरी बात है।”
(8) सभ्य जीवन में बाधक – राष्ट्रीयता की शिक्षा मानव के सभ्य जीवन की निरन्तरता में कभी-कभी बाधक भी सिद्ध हो जाती है। इसका कारण यह ही की सभ्य जीवन मानवीय गुणों का होना परम आवश्यक है। क्योंकि राष्ट्रीय शिक्षा नागरिकों में ईर्ष्या, द्वेष तथा जलन आदि अमानवीय गुणों को विकसित करती है, इसलिए सभ्य जीवन की निरन्तरता में बाधा आ जाना स्वस्भाविक ही है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि संकुचित राष्ट्रीयता से मानव का हित नहीं हो सकता है। अत: शिक्षा में संकुचती राष्ट्रीयता की भावना को त्यागकर राष्ट्रीयता के व्यापक दृष्टिकोण को अपनाना चाहिये। इसके लिए राष्ट्रीय शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को अपनी सामाजिक तथा सांस्कृतिक सम्पति की प्रशंसा करना उसकी कमियों को दृष्टि में रखना तथा उन कमियों को दूर करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। वास्तविकता यह है कि आधुनिक युग में प्रत्येक राष्ट्र को अपना दृष्टिकोण उदार बनाना चाहिए तथा राष्ट्रीयता के व्यापक सिद्धांत को अपनाकर नागरिकों में विश्व बंधुत्व एवं विश्व नागरिकता की भावना को प्रोत्साहित करना चाहिए। इन अंतर्राष्ट्रीय भावना से विश्व में शान्ति बनी रहेगी जिससे प्रत्येक राष्ट्र उन्नति के शिखर पर चढ़ता रहेगा।
स्त्रोत: पोर्टल विषय सामग्री टीम
अंतिम बार संशोधित : 3/13/2023
इसमें अनुसूचित जनजातियों हेतु राष्ट्रीय प्रवासी छा...
इस भाग में नोबेल शांति पुरस्कार(2014) प्राप्त शख्...
इस पृष्ठ में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न - नि:शुल्...
इस लेख में विश्व में उपलब्ध अजब-गज़ब वृक्षों के बार...