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बाल सुरक्षा पर पुस्तिका

बाल-सुरक्षा

आपने जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की प्रसिद्ध उक्ति सुनी होगी - 'मेरी दृष्टि में मानव मुक्ति शिक्षा से ही संभव है।' प्राचीन काल से भारतीय समाज में शिक्षकों का स्थान सबसे ऊँचा रहा है अर्थात् ईश्वर के बाद दूसरा स्थान गुरु का ही आता है ऐसे तो गुरु को परमबह्म कहा गया है।

एक शिक्षक अपनी निजी जिन्दगी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अच्छे शिक्षक अपने छात्र-छात्राओं के दिल में महत्वपूर्ण और पवित्र स्थान रखता है। माता-पिता के बाद शिक्षक ही बच्चों को सबसे अधिक प्रभावित करता है तथा उसके व्यक्तित्व को सही रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

आप सब जानते हैं कि प्रत्येक समाज में बच्चों को दुर्व्यवहार, हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता है। यदि आप अपने आस-पड़ोस में झाँककर देखें, तो पाएँगे कि छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जाने के बजाय मजदूरी के काम में लगे हुए हैं। अधिकाँश बँधुआ माता-पिता अपने बच्चों की पिटाई करते हैं। कक्षा में शिक्षक भी उनकी पिटाई करते या फिर जाति व धर्म के आधार पर उनके साथ भेदभाव किया जाता है। महिला बाल शिशु को जन्म लेने से रोका जाता है। इसके लिए उनकी गर्भ में या फिर जन्म के बाद हत्या कर दी जाती है अथवा फिर उन्हें परिवार या समाज में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। जन्म के बाद बालिकाओं को बाल-विवाह, बलत्कार या फिर तिरस्कार की मार अलग से झेलनी पड़ती है।

हाँ, कई बच्चों की जीवन की यही सच्चाई है। इनमें से कुछ बच्चें आपकी कक्षा या स्कूल में भी होंगे।

एक शिक्षक के रूप में जब आप देखते या सुनते हैं कि एक बच्चा अपमानित हो रहा है या शोषित हो रहा है, तो उस बारे में आप क्या करेंगे ?

क्या आप ...

भाग्य को दोष देंगे ?

  • क्या आप यह तर्क देंगे कि सभी प्रौढ़, बाल अवस्था से गुजरते हुए उस अवस्था तक पहुँचे हैं, तो इसके साथ गलत क्या है ?
  • तर्क देंगे कि यह तो रीति-रिवाज व प्रचलन है इसलिए इस बारे में कुछ नहीं किया जा सकता।
  • गरीबी पर दोष मढ़ेगे।
  • भ्रष्टाचार पर आरोप लगाएँगे।
  • परिवार वालों को दोषी ठहराएँगे कि वे इसके लिए कुछ नहीं करते।

यदि बालक आपका छात्र नहीं हो, तो आप चिंता क्यों करें ?

  • यह पता लगाने की कोशिश करें कि बच्चे को सचमुच सुरक्षा की जरूरत है।
  • तब तक इंतजार करें जब तक कोई साक्ष्य नहीं मिल जाता।

या फिर आप ...

  • यह सुनिश्चित करेंगे कि बच्चा सुरक्षित जगह पर है।
  • बच्चे से बात करेंगे।
  • उसके परिवार वालों से बात करेंगे और उन्हें यह बताएँगे कि प्रत्येक बच्चा को सुरक्षित बाल्यावस्था, उसका अधिकार है और माता-पिता की यह पहली जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों की देखभाल करें।
  • आवश्यक होने पर बच्चे और उसके परिवार की मदद करेंगे।
  • यह पता लगाएँगे कि उस बच्चे की सुरक्षा के लिए क्या खतरा है ?
  • बच्चों के विरुद्ध क्रूर व्यवहार करने वाले या जिनसे बच्चों को सुरक्षा की जरूरत है वैसे व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे।
  • कानूनी सुरक्षा और उपचार की आवश्यकता होने की स्थिति में मामले को पुलिस थाने में दर्ज करवाएँगे।

इस बारे में आपकी प्रतिक्रिया, इस पर निर्भर करेगी कि आप स्वयं को किस नजरिए से देखते हैं। क्या आप स्वयं को मात्र एक शिक्षक या सर्वोच्च प्रदर्शक या प्रेरक या मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं ? क्योंकि शिक्षक या सर्वोच्च प्रदर्शक या प्रेरक या मार्गदर्शक को एक संरक्षक, बचावकर्त्ता एवं सामाजिक बदलाव लाने वाले अभिकर्त्ता की भूमिका भी अवश्य निभानी चाहिए।

आप शिक्षक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ...

  • आप बाल समुदाय और परिवार के प्रमुख अंग हैं। इस तरह, आप उनके अधिकारों को बढ़ावा देने एवं उन्हें सुरक्षा देने के प्रति जिम्मेदार हैं।
  • आप बच्चों के रोल मॉडल या आदर्श हैं और इसके लिए आप कुछ मानक निश्चित करें।
  • आप शिक्षक के रूप में युवा छात्र-छात्राओं की उन्नति, विकास, भलाई और सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार हैं।
  • आपके पद के कारण यह जिम्मेदारी एवं प्राधिकार आपमें व्याप्त है।
  • आप एक शिक्षक से अधिक उच्च हो सकते हैं जो स्कूलों में केवल पाठ्यक्रम पूरा करते व बेहतर परिणाम लाते हैं। आप सामाजिक बदलाव लाने वाले अभिकर्त्ता भी हो सकते हैं।

यह जानकारी विशेष रूप से आपके लिए बनाई गई है। क्योंकि आप बच्चों की मदद कर सकते, उन्हें अपमानित व शोषण का शिकार होने से बचा सकते हैं। यद्यपि हमने संक्षिप्त में कानून की चर्चा की है अतः इस मामले में किसी वकील से कानूनी सलाह लेना उपयोगी होगा।

बाल अधिकारों को समझना

बच्चे कौन हैं?

अंतरराष्ट्रीय नियम के अनुसार बच्चा का मतलब है वह व्यक्ति जिसकी उम्र 18 वर्ष से कम है। यह विश्व स्तर पर बालक की परिभाषा है जिसे बाल-अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र संघ संयोजन (यूएनसीआरसी, अंतरराष्ट्रीय कानूनी संस्था) में स्वीकार किया गया है और जिसे दुनिया के अधिकाँश देशों द्वारा मान्यता दी गई है।

भारत ने हमेशा से 18 वर्ष से कम उम्र के लोगों को एक अलग कानूनी अंग के रूप में स्वीकार किया है। क्योंकि भारत में 18 वर्ष की उम्र के बाद ही कोई व्यक्ति वोट डाल सकता, ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त कर सकता या किसी अन्य कानूनी समझौते में शामिल हो सकता है। 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की और 21 वर्ष के कम उम्र के लड़के की शादी को बाल-विवाह रोकथाम अधिनियम, 1929 के अंतर्गत निषिद्ध किया गया है। यद्यपि 1992 में यूएनसीआरसी को स्वीकार करने के बाद भारत ने अपने बाल कानून में काफी फेरबदल किया है। उसके अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है कि वह व्यक्ति जो 18 वर्ष से कम उम्र का है और जिन्हें देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता है, वे राज्य से उस प्रकार की सुविधा प्राप्त करने का अधिकारी है।

भारत में कुछ और कानून हैं जो बालकों को अलग ढ़ंग से परिभाषित करता है। लेकिन अब यूएनसीआरसी के प्रावधानों के अनुरूप उसमें बदलाव लाकर दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। जैसा कि पहले कहा गया है कानूनी रूप से बालिकाओं के वयस्क होने की उम्र 18 वर्ष और लड़के की 21 वर्ष है।

इसका यह मतलब है कि आपके गाँव या शहर में जो युवा 18 वर्ष से कम उम्र के हैं वे बालक हैं और उन्हें आपकी सहायता, समर्थन और मार्गदर्शन की जरूरत है।

एक व्यक्ति को बच्चा उसकी उम्र ही बनाता है। यदि किसी व्यक्ति की उम्र 18 वर्ष से कम है और उसका विवाह कर दिया गया है और उसका भी बच्चा है तो उसे भी अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार बालक ही माना जाएगा।

मुख्य बिन्दुएँ

  • 18 वर्ष से कम उम्र के सभी व्यक्ति बच्चे हैं
  • बाल्यावस्था एक प्रक्रिया है जिससे होकर प्रत्येक मानव को गुजरना पड़ता है।
  • बाल्यावस्था के दौरान बच्चों को अलग-अलग अनुभव होते हैं।
  • सभी बच्चों को अपमानित और शोषित होने से बचाना जरूरी है

बच्चों पर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत क्यों है ?

  • बच्चे जिस वातावरण में रहते, उसके प्रति वयस्क की अपेक्षा वे अधिक संवेदशील होते। इसलिए वे किसी निर्णय व अनिर्णय से अन्य उम्र आयु समूह की अपेक्षा अधिक प्रभावित होते हैं।
  • अधिकतम समाजों में (साथ ही, हमारे समाज में भी) बच्चे को माता-पिता की संपत्ति माना जाता है या फिर वे प्रौढ़ होने की प्रक्रिया में होते या फिर समाज में अपना योगदान देने को तैयार नहीं होते।
  • बच्चे वयस्क लोगों की तरह नहीं दिखते जिनके पास अपना दिमाग, व्यक्त करने को विचार, अपनी पसंद को चुनने का विकल्प तथा निर्णय-निर्माण की क्षमता होती है।
  • प्रौढ़ व्यक्ति द्वारा बच्चे को मार्गदर्शन दिए जाने के बजाए, वे उनके जीवन का निर्णय ही करते हैं।
  • बच्चों के पास मतदान, राजनीतिक प्रभाव या थोड़ी-बहुत भी आर्थिक शक्ति नहीं होती। इस वजह से उनकी आवाज नहीं सुनी जाती है।

बाल अधिकार क्या है?

देश में निर्मित तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बने जिन कानूनों को भारत में स्वीकार किया गया है, उसके अंतर्गत निर्धारित मानक और अधिकारों को पाने का अधिकार उन सभी व्यक्तियों को है जिनकी उम्र 18 वर्ष से कम है।

भारतीय संविधान

भारतीय संविधान ने सभी बच्चों के लिए कुछ अधिकार निश्चित किए हैं, जिसे विशेष रूप से उनके लिए संविधान में शामिल किया गया है। वे अधिकार इस प्रकार हैं –

  • 6-14 वर्ष की आयु समूह वाले सभी बच्चों को अनिवार्य और ऩिःशुल्क प्रारंभिक शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद - 21 ए)
  • 14 वर्ष की उम्र तक के बच्चे को किसी भी जोखिम वाले कार्य से सुरक्षा का अधिकार (अनुच्छेद - 24)
  • आर्थिक जरूरतों के कारण जबरन ऐसे कामों में भेजना जो उनकी आयु या क्षमता के उपयुक्त नहीं है, उससे सुरक्षा का अधिकार (अनुच्छेद - 39 ई)
  • समान अवसर व सुविधा का अधिकार जो उन्हें स्वतंत्रत एवं प्रतिष्ठापूर्ण माहौल प्रदान करे और उनका स्वस्थ रूप से विकास हो सके। साथ ही, नैतिक एवं भौतिक कारणों से होने वाले शोषण से सुरक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 39 एफ)

साथ ही, उन्हें भारत के वयस्क पुरुष एवं महिला के बराबर समान नागरिक का भी अधिकार प्राप्त है जैसे -

  • समानता का अधिकार ( अनुच्छेद 14)
  • भेदभाव के विरुद्ध अधिकार ( अनुच्छेद 15)
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून की सम्यक् प्रक्रिया का अधिकार ( अनुच्छेद 21)
  • जबरन बँधुआ मजदूरी में रखने के विरुद्ध सुरक्षा का अधिकार ( अनुच्छेद 23)
  • सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से, समाज के कमजोर तबकों के सुरक्षा का अधिकार ( अनुच्छेद 46)

राज्य को चाहिए कि -

  • वह महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाएँ ( अनुच्छेद 15 (3))
  • अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करे ( अनुच्छेद 29)
  • समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षणिक हितों को बढ़ावा दें (अनुच्छेद 46)
  • आम लोगों के जीवन-स्तर और पोषाहार स्थिति में सुधार लाने तथा लोक स्वास्थ्य में सुधार हेतु व्यवस्था करे (अनुच्छेद 47)

संविधान के अलावे भारत में कई ऐसे कानून हैं जो विशेष रूप से बच्चों के लिए बने हैं। एक जिम्मेदार शिक्षक और नागरिक होने के नाते आप उन्हें और उसकी महत्ता को अवश्य जानते हैं।

बाल-अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन

बाल-अधिकारों पर बने अंतरराष्ट्रीय कानून की महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह बाल अधिकार पर हुए संयुक्त राष्ट्र संयोजन से सम्बद्ध है जिसे सीआरसी कहा जाता है। ये अंतरराष्ट्रीय कानून और भारतीय संविधान व विधि-विधान के साथ मिलकर तय करते हैं कि बच्चों को वास्तव में क्या अधिकार होने चाहिए।

मानव अधिकार सभी लोगों के लिए हैं जिसका उम्र से कोई लेना-देना नहीं है। यद्यपि विशेष दर्जे के कारण बच्चों को वयस्क से अधिक सुरक्षा और मार्गदर्शन की जरूरत है। साथ ही, बच्चों के लिए कुछ विशेष अधिकारों का भी प्रावधान किया गया है।

बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की मुख्य विशेषताएँ -

  • 18 वर्ष की उम्र तक के लड़के और लड़कियों दोनों पर समान रूप से लागू होता है। भले ही वे विवाहित हों और उनके अपने बच्चे भी हों
  • बच्चों के बेहतर हित, भेदभावरहित जीवन और बच्चों के विचारों का सम्मान के सिद्धान्त पर सम्मेलन निर्देशित हों
  • यह परिवार के महत्व तथा ऐसे वातावरण के निर्माण पर जोर देता है जो बच्चों के स्वस्थ विकास और उन्नति में सहायक हो

इसमें सरकार पर यह जिम्मेदारी भी सौंपी गई है कि वे बच्चों के प्रति समाज में स्वच्छ और समान व्यवहार को सुनिश्चित करे।

यह नागरिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों के चार सेटों की ओर ध्यान आकर्षित करती है। वे अधिकार हैं -

  • जीने का अधिकार
  • सुरक्षा का अधिकार
  • विकास का अधिकार
  • सहभागिता का अधिकार

जीने के अधिकार में सम्मिलित हैं

  • जीवन का अधिकार
  • स्वास्थ्य का उच्चतम जरूरी मानक प्राप्त करने का अधिकार
  • पोषण का अधिकार
  • समुचित जीवन स्तर प्राप्त करने का अधिकार
  • नाम एवं राष्ट्रीयता पाने का अधिकार

विकास के अधिकार में शामिल हैं -

  • शिक्षा का अधिकार
  • प्रारंभिक बाल्यावस्था में देखभाल एवं विकास हेतु सहायता का अधिकार
  • सामाजिक सुरक्षा का अधिकार
  • अवकाश, मनोरंजन एवं सांस्कृतिक क्रियाकलापों का अधिकार
  • सुरक्षा के अधिकार में सभी प्रकार की स्वतंत्रता सम्मिलित है -
  • शोषण से सुरक्षा का अधिकार
  • अपमान व दुर्व्यवहार से सुरक्षा का अधिकार
  • अमानवीय या निम्न कोटि के व्यवहार से सुरक्षा का अधिकार
  • उपेक्षा से मुक्ति का अधिकार
  • आपातकाल एवं सशस्त्र संघर्ष जैसी विशेष परिस्थितियों में विकलांग आदि को विशेष सुरक्षा व्यवस्था प्राप्त करनेका अधिकार।

सहभागिता के अधिकार में सम्मिलित हैं -

  • बच्चों को अपने विचार के लिए सम्मान पाने का अधिकार
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार
  • उपयुक्त सूचना प्राप्त करने का अधिकार
  • विचार, चेतना एवं धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार

सभी अधिकार एक-दूसरे पर निर्भर और अविभाजित हैं। फिर भी, उनकी प्रकृति के कारण दो भागों में विभाजित किया गया है-

त्वरित अधिकार (नागरिक व राजनैतिक अधिकार)- इसमें भेदभाव, दंड, आपराधिक मामलों में पारदर्शी एवं सत्यतापूर्ण सुनवाई का अधिकार, बच्चों के लिए अलग न्यायिक व्यवस्था, जीवन का अधिकार, राष्ट्रीयता का अधिकार, परिवार के साथ पुनर्मिलन का अधिकार आदि। इस श्रेणी के अंतर्गत अधिकाँश सुरक्षा अधिकार आते हैं। इस वजह से इन अधिकारों के लिए तत्काल ध्यान दिए जाने एवं हस्तक्षेप की माँग की जाती है।

प्रगतिशील अधिकार (आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार) - इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और वे अधिकार हैं जिन्हें प्रथम वर्ग में शामिल नहीं किया गया है। इन्हें सीआरसी के अंतर्गत अनुच्छेद 4 में मान्यता दी गई है, जो कहता है - आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों के संदर्भ में जहाँ जरूरी हो, सरकार के विभिन्न अँग अंतरराष्ट्रीय सहकारिता के ढाँचे के दायरे में उपलब्ध संसाधनों को लोगों तक पहुँचाने के लिए उचित कदम उठाएँगे।

सुरक्षा का अधिकार

बच्चों को इन चीजों से सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए

शिक्षकगण, यह सुनिश्चित करें कि आपके क्षेत्र के सभी बच्चों को निम्न शोषण से सुरक्षा प्राप्त हों -

  • शोषण
  • अपमान
  • अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार
  • उपेक्षा

सामाजिक, आर्थिक यहाँ तक कि भौगोलिक परिस्थितियों के कारण सभी बच्चों को सुरक्षा की जरूरत होती है। उनमें से कुछ बच्चों की स्थिति ज्यादा ही संवेदनशील होती है जिसपर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत होती है। ये बच्चे हैं -

  • बेघर बच्चे (सड़क किनारे रहने वाले, विस्थापित/ घर से निकाले गए, शरणार्थी आदि)
  • दूसरी जगह से आए बच्चे
  • गली या घर से भागे हुए बच्चे
  • अनाथ या परित्यक्त बच्चे
  • काम करने वाले बच्चे
  • भीख माँगने वाले बच्चे
  • वेश्याओं के बच्चे
  • बाल वेश्या
  • भगाकर लाए गए बच्चे
  • जेल में बंद बच्चे
  • कैदियों के बच्चे
  • संघर्ष से प्रभावित बच्चे
  • प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित बच्चे
  • एचआईवी/एड्स से प्रभावित बच्चे
  • असाध्य रोगों से ग्रसित बच्चे
  • विकलांग बच्चे
  • अनुसूचित जाति या जनजाति समुदाय के बच्चे

मिथक एवं सच्चाईः बाल सुरक्षा

सभी वर्गों में लड़कियाँ जरूरत से ज्यादा कमजोर एवं असहाय होती हैं। बच्चों के अपमान एवं शोषण से संबंधित कुछ प्रचलित मिथक निम्नलिखित हैं -

1. मिथक - बच्चों का कभी भी अपमान या शोषण नहीं किया जाता। समाज अपने बच्चों से प्यार करता है।
सच्चाई - यह सच है कि हम अपने बच्चों से प्यार करते हैं, परन्तु स्पष्ट रूप से यहाँ हम कुछ सच्चाई को भूल रहे हैं। दुनियाभर में बाल-मजदूरों की सबसे बड़ी संख्या भारत में ही है। साथ ही, भारत में सबसे ज्यादा बच्चे यौन शोषण का शिकार होते हैं। इसके अतिरिक्त, 0-6 वर्ष आयु समूह में पुरुष-महिला अनुपात भारत में सबसे कम है जो यह दिखाता है कि देश में महिला बाल-शिशु की स्थिति काफी चिंताजनक है। इस प्रकार के शोषण व अन्याय से छोटे बच्चे भी अछूते नहीं हैं जिन्हें या तो दूसरों के हाथों बेच दिया जाता या फिर सीधे उनकी हत्या कर दी जाती है।
2.
मिथक - घर सबसे सुरक्षित जगह है।
सच्चाई - अपने घरों में बच्चों द्वारा सहे जा रहे अत्याचार व शोषण इस विश्वास को गलत साबित कर देता है। बच्चों को हमेशा उनके माता-पिता की निजी संपत्ति के रूप में देखा जाता, जिनका वे किसी भी रूप में उपयोग (या फिर शोषण) कर सकते हैं।
हम कई ऐसी घटनाओं के गवाह हैं जहाँ पिता अपनी बेटियों को हर दूसरे दिन किसी मित्र या अजनबी को पैसा की खातिर बेच रहे हैं। मीडिया द्वारा मामले को उजागर करने के बाद भी ऐसी घटनाएँ हो रही हैं। पिता द्वारा अपनी पुत्री का बलात्कार, महिला भ्रूण हत्या अर्थात् नवजात बालिका शिशु की हत्या-एमिनियोसेन्टिसिसका, चोरी छिपे उपयोग, अंधविश्वास के चलते बच्चों की बलि देना तथा भारत के कुछ भागों में जोगिनी या आदिवासी जैसी प्रथाओं के नाम पर देवी या देवताओं को बालको को समर्पित करना आदि, कुछ गृह आधारित हिंसा के विकट रूप हैं। कम उम्र के बच्चों की शादी करना, बच्चों के प्रति स्नेह नहीं बल्कि देखभाल और पोषण की जिम्मेदारी से दूर हटना है। इससे बच्चों को बीमारी या सदमा भी हो सकता है। इसके अलावा कुछ गंभीर मामले भी हैं, जैसे प्रत्येक घर में बच्चों की पिटाई देश में एक आम बात है। साथ ही, अमीर और गरीब परिवारों में बच्चों के प्रति उपेक्षा की भावना आम बात है जिससे बच्चों में मानसिक तनाव या अवसाद जैसी कई व्यहारात्मक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
3. मिथक - लड़कों के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, न हीं लड़कों को सुरक्षा की जरूरत है।
सच्चाई -
लड़कियों के समान लड़कों का भी शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता है। यद्यपि लड़कियों की स्थितियाँ और अधिक संवेदनशील हैं क्योंकि समाज में उन्हें निचले दर्जे पर देखा जाता है। लड़के स्कूल और घर दोनों जगह शारीरिक दंड के शिकार होते हैं। इनमें से कई लड़कों को बाल-श्रम के लिए बेच दिया जाता या फिर उनका यौन शोषण किया जाता है।
4.
मिथक - ऐसा हमारे स्कूलों या गाँवों में नहीं होता।
सच्चाई -
हममें से प्रत्येक यह मानता है कि बच्चों का शोषण केवल घर, स्कूल, गाँव या समुदाय में ही नहीं होता बल्कि कई और जगहों पर भी होता है। यह दूसरे बच्चों को प्रभावित करता है हमें नहीं। यह केवल गरीब परिवार, काम करने वाले वर्ग, बेरोजगारों और अशिक्षित परिवारों में ही घटित होता है। यह मात्र मध्यम वर्ग की समस्याएँ नहीं है। इस तरह की घटनाएँ मुख्य रूप से शहरों में घटित होती न कि गाँवों में, जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है और शोषण के शिकार बच्चें को इन सभी क्षेत्रों में सभी जगह पर हमारी मदद की जरूरत है।
5.
मिथक - शोषणकर्त्ता मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति होते हैं।
सच्चाई -
प्रचलित धारणा के विपरीत शोषणकर्त्ता मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति नहीं होता। बल्कि शोषणकर्त्ता को सामान्य एवं विविध चरित्र वाले व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। बाल-यौन शोषणकर्त्ता अपने कुकर्मों को विभिन्न तरीकों से सही साबित करने की कोशिश करता है। बच्चों को भगाने वाला या व्यापार करने वाला व्यक्ति उसके परिवार का करीबी या परिवार को जानने वाला होता है, जिनके माता-पिता उस पर विश्वास करते हैं। वह उनके विश्वास का गलत लाभ उठाकर बच्चों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करता या उसे भगा ले जाता है।

बाल सुरक्षा का मुद्दा और प्रत्येक शिक्षक को क्या बातें जाननी चाहिए ?

बाल दुर्व्यवहार मुख्यतः सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, जातीय समूहों में घटित होता है। अनुसंधान, प्रलेखन एवं सरकारी हस्तक्षेप और पूर्व वर्षों में नागरिक समूहों द्वारा जुटाई गई तथ्यों के आधार पर निम्नलिखित श्रेणी के बच्चों तथा मुद्दों पर उन्हें सुरक्षा उपलब्ध कराने की बात कही है -

  • लैंगिक भेदभाव
  • जातीय भेदभाव
  • अपंगता
  • महिला भ्रूण हत्या
  • शिशु हत्या
  • घरेलू हिंसा
  • बाल यौन दुर्व्यवहार
  • बाल-विवाह
  • बाल-श्रम
  • बाल-वेश्यावृत्ति
  • बाल-व्यापार
  • बाल-बलि
  • स्कूलों में शारीरिक दंड
  • परीक्षा-दबाव एवं छात्रों द्वारा आत्महत्या
  • प्राकृतिक आपदा
  • युद्ध एवं संघर्ष
  • एचआईवी/एड्स

मिथक एवं सच्चाई: लैंगिक भेदभाव

1. मिथक - बेटा तो चाहिए लेकिन हम उसके लिए चार - पाँच बेटियाँ क्यों पैदा करें। बेटी को बड़ा करना पड़ोसी के बगीचा में पानी देने के समान है। आप उन्हें बड़ा करते हैं, हर तरह से उनकी सुरक्षा करते हैं, उनके विवाह की योजना भी बनाते, दहेज की व्यवस्था करते और इसके बाद वह पराये घर को चली जाती है। इस दृष्टि से देखें तो बेटे वंश परंपरा को आगे बढ़ाते, बुढ़ापे में माता-पिता की देखभाल भी करते और मृत्यु के बाद धार्मिक कर्म-कांड करते हैं। बेटियों को पढ़ाना और शादी की उम्र तक उनके अपने पसंद के कार्य करने के लिए स्वतंत्रता देने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। यह सब मात्र परिवार पर बोझ बढ़ाता है।

सच्चाई - लड़कियों के बारे में इस प्रकार की धारणा पितृ प्रधान समाज में विशेष रूप से पायी जाती है, जिसे चुनौती दिए जाने की जरूरत है। लोग बेटी की अपेक्षा अपने बेटे की शादी पर अधिक खर्च करते हैं। हम सभी बहुत ही चालाक हैं, बेटी की शादी के मौके पर थोड़ा सा दहेज देकर उससे यह कह देते हैं कि उसका अब माता - पिता की संपत्ति पर उसका कोई अधिकार नहीं है। हमेशा यह बात याद रखनी चाहिए कि दहेज देना और लेना कानूनन अपराध है। साथ ही, माता-पिता की संपत्ति से बेटियों को बेदखल करना भी गैर-कानूनी है।

कुछ भी हो हमें जीवन की सच्चाइयों को स्वीकार करना ही होगा। जब हम वृद्धाश्रमों में जाते हैं और वहाँ लाचार बैठे वृद्धों को देखते हैं तो पता चल जाता है कि उनके बेटों ने कितनी अच्छी तरह से माता-पिता की देखभाल की है। जबकि सच तो यह है कि ऐसी कई घटनाएँ सामने आई हैं जहाँ बेटी आगे आकर अपने बूढ़े माँ- बाप की मदद की है।
अतः बालिकाओं को जीने, विकास करने, सुरक्षा और हिस्सेदारी प्राप्त करने का उतना ही हक है जितना कि लड़कों को है। इनमें से किसी भी अधिकार से महिलाओं को वंचित करना लैंगिक भेदभाव एवं गरीबी को स्थायी बनाये रखने के समान है।

शताब्दियों से लड़कियों को जीवन के हर क्षेत्र में भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। हम हमेशा यह भूल जाते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था - 'यदि आप एक पुरुष को शिक्षित करते हैं तो इसका मतलब है कि आप एक व्यक्ति को शिक्षा देते हैं , लेकिन यदि आप एक महिला को शिक्षित करते हैं तो इसका मतलब है कि आप पूरी सभ्यता को शिक्षित करते हैं।'

एक बार जब हम अपनी बेटियों का विकास इस तरह से कर दें कि वे भले-बुरे का अंतर समझ सकें और स्वयं के बलबूते तार्किक निर्णय ले सकें, तो उनके संबंध में हमारे मन में व्याप्त अधिकाँश शंकाएँ दूर हो जाएँगी। यह मात्र एक धारणा है कि बालिका को भी वही समान अधिकार है जो किसी अन्य मानव को प्राप्त है। यदि लड़कियों का बचाव और सुरक्षा राष्ट्रीय मुद्दा है तो हमें यह याद रखनी चाहिए कि जिनके पास बेटियाँ हैं और वे उनके सशक्तीकरण की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो इसका मतलब है कि इससे उनमें भीरूता ही बढ़ेगी।

मानव विकास रिपोर्ट 2005 के अनुसार - हर वर्ष 1.2 करोड़ लड़कियाँ जन्म लेती हैं जिनमें से तीस लाख लड़कियाँ अपना 15 वाँ जन्म दिन नहीं मना पाती। इनमें से एक -तिहाई की मृत्यु जन्म के पहले साल में ही हो जाती है और यह अनुमान लगाया गया है कि प्रत्येक छठी महिला की मृत्यु महिला भेदभाव के कारण होती है।

वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार देश में प्रत्येक 1 हजार पुरुषों की तुलना में सिर्फ 933 महिलाएँ हैं। बच्चों के मामले में यह और कम है तथा वर्ष 1991 की जनगणना से यह प्रवृत्ति घटती ही जा रही है। वर्ष 1991 में प्रत्येक 1 हजार लड़कों पर 945 लड़कियाँ थीं जो वर्ष 2001 में घटकर 927 हो गई। कुछ राज्यों में स्थिति काफी चिंताजनक है, जैसे पंजाब में (798), हरियाणा (819), हिमाचल प्रदेश (896) आदि। राजधानी शहर दिल्ली में 1 हजार लड़कों की तुलना में 900 लड़कियाँ हैं। इन राज्यों से लड़के अब अन्य राज्यों से लड़कियाँ खरीद कर शादी कर रहे हैं।

मिथक व सच्चाई: बाल विवाह

मिथक - बाल विवाह हमारी संस्कृति का अंग है। अविवाहित लड़कियाँ बलात्कार और यौन शोषण के दायरे में अधिक हैं इसलिए उनकी कम उम्र में ही शादी कर दी जाती है। अच्छे वर की तलाश और दहेज का मामला बड़े उम्र की लड़कियों के लिए एक बड़ी समस्या है।

सच्चाई - किसी भी कुरीति के लिए संस्कृति को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। यदि बाल विवाह हमारी संस्कृति में शामिल है तो यह गुलामी, जातिवाद, दहेज और सती प्रथा जैसी समस्या है। परन्तु ऐसी कुरीतियों को रोकने के लिए देश में कानून बनाए गए हैं। साथ ही, समाज द्वारा जब कभी इसकी माँग की गई है, तब विधायिका ने इन समस्याओं से निज़ात पाने के लिए उचित कानून बनाए हैं। स्पष्टतौर पर संस्कृति का विकास अवरुद्ध नहीं है।

यद्यपि, अलग - अलग लोगों के लिए अलग-अलग संस्कृति है, जबकि वे एक ही भौगोलिक परिवेश में रहते हैं। भारत में विभिन्न जाति, भाषा एवं धार्मिक समूह है जो अपनी - अपनी संस्कृति अपनाते हैं। भारत विभिन्न संस्कृतियों वाला देश है और गत वर्षों के दौरान इसमें कई बदलाव देखने को मिले हैं।

यदि हम सभी इस बात से सहमत हैं कि बच्चों को सुरक्षा देने की जरूरत है, तो इसे हमारी संस्कृति के माध्यम से दर्शाया जाना चाहिए। वास्तव में सांस्कृतिक रूप से हमें एक समाज के रूप में पहचान बनानी चाहिए जो न केवल अपने बच्चों को प्यार करता है, अपितु हर समय उनकी सुरक्षा भी सुनिश्चित करता है।

बाल- विवाह, बच्चों के अधिकारों के हनन की लम्बी यात्रा की शुरुआत है। लड़कों का बाल-विवाह उतना ही उनके अधिकारों का उल्लंघन है जितना लड़कियों के लिए। यह उनके चयन के अधिकार को छीन लेता और उनकी आयु और क्षमता के परे उन पर पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ डाल देता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस मामले में लड़कियों की स्थिति काफी खराब है।

बाल-वधू के मामले में अक्सर यह देखा जाता है कि वे युवावस्था में हीं विधवा हो जाती व उनके कई बच्चे होते हैं जिनकी देखभाल की जिम्मेदारी उन पर होती है।

क्या आप जानते हैं -

  • जनगणना प्रतिवेदन 2001 के अनुसार लगभग 3 लाख लड़कियाँ जो 15 वर्ष से कम आयु की थीं, एक बच्चे की माँ थीं।
  • 20 से 24 वर्ष की आयु वाली महिलाओं की तुलना में, 10 से 14 वर्ष की उम्र की लड़कियों की मृत्यु बच्चा देते समय अधिक होती है।
  • शीघ्र गर्भवती होने पर भ्रूण हत्या की दर भी बढ़ जाती है।
  • छोटी उम्र की माँ से जन्म लेने वाले बच्चों का वज़न भी काफी कम होता है।
  • युवा माताओं के शिशु की मृत्यु उनके जन्म के पहले साल में होने की संभावना अधिक होती है।

बाल विवाह और मानव व्यापार

  • भारत व मध्य पूर्व के देशों में अधिक उम्र के पुरुष की, कम उम्र की लड़कियों के साथ शादी से उनका शोषण तो होता ही है साथ ही उन्हें वेश्यावृत्ति की ओर भी धकेल दिया जाता है।
  • बाल- विवाह के माध्यम से लड़कियों की मजदूरी और वेश्यावृत्ति के लिए व्यापार किये जाने की भी प्रवृत्ति बढ़ी है।

यह कहना कि शीघ्र विवाह लड़कियों को शोषण से सुरक्षा प्रदान करता है, पूर्णतया गलत है। सच तो यह है कि लोगों से और लड़कियों पर समाज के अन्य लोगों और परिवार के भीतर किये जाने वाले सभी प्रकार के दुर्व्यवहार को शामिल करना है। उन्हें हमेशा विश्वास और आज्ञा-पालन का पाठ पढ़ाया जाता है। बाल-विवाह का तात्पर्य है बालिका का बलात्कार, क्योंकि बच्चों से यह नहीं कहा जाता है कि वह बड़ी हो गई है या छोटी ही है। किसी भी मामले में दूसरे व्यक्ति के माध्यम से सुरक्षा की गारंटी कदापि नहीं दी जा सकती, चाहे वह विवाहित महिला ही क्यों न हो। सभी महिलाएँ चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, युवा हों या वृद्ध औरत, परदे में हों या बाहर हों, बलात्कार या यौन दुर्व्यवहार का लक्ष्य बन सकती हैं। महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते अपराध और अत्याचार इस बात के प्रमाण हैं।

जब हमारे गाँव में अशिक्षित व विवाहित महिलाओं पर बलात्कार होता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे अशिक्षित हैं बल्कि वे कुछ खास जाति या कुछ समूह के प्रति दुर्भावना का शिकार होती हैं। अंततः, शीघ्र विवाह दहेज का समाधान हो सकता है, तो यह गलत धारणा है। पितृ-प्रधान समाज में वर पक्ष, वधू के परिवार वाले पर हमेशा हावी होता है और उनसे आशा की जाती है कि लड़की के परिवार वाले उनकी हर माँग पूरी करें। विवाह के समय दहेज नहीं मिलने पर विवाह के बाद लड़कियों को कई तरह से प्रताड़ित किया जाता है।

मिथक एवं सच्चाई - बाल-मजदूरी

मिथक - बाल मजदूरी की समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता। गरीब माँ - बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजने की बजाय चाहते हैं कि उनका बच्चा काम कर परिवार के लिए कुछ आय अर्जित करे। ऐसे बच्चों के पास काम के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। क्योंकि काम नहीं करने से उनके परिवार के सदस्य भूखे मर जाएँगे। इसी प्रकार, यदि वे कार्य करेंगे तो उनमें कुशलता और प्रवीणता भी बढ़ेगी।

सच्चाई - जब हम यह सुनते हैं तो हमें अपने आप से यह पूछना चाहिए कि क्यों कुछ गरीब सभी कठिनाइयों के बावजूद अपने बच्चों को स्कूल भेज रहे हैं जबकि कुछ नहीं भेजते। सच्चाई यह है कि गरीबी सिर्फ एक बहाना है, जिसके माध्यम से वे अपना हित साधते हैं। बाल-मजदूरी की प्रक्रिया के लिए सामाजिक परिस्थिति भी जिम्मेदार है। सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था के भी शिकार बनते हैं। हम सभी जानते हैं कि बच्चों के काम करने के बावजूद परिवार में भुखमरी की स्थिति बनी रहती है और इसका कारण है सामाजिक और आर्थिक मामलों में भेदभाव।

सभी माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा देना चाहते हैं और नहीं तो कम से कम बुनियादी शिक्षा तो अवश्य ही देना चाहते हैं। वैसे अशिक्षित अभिभावक के लिए बच्चों का स्कूल में नामांकन कराना काफी मुश्किल कार्य होता है। नामांकन के लिए जन्म प्रमाणपत्र व जाति प्रमाणपत्र आदि ऐसी अड़चने हैं जिसके कारण वे स्कूलों में बच्चों का नामांकन नहीं करवाते। साथ ही, बच्चों के लिए स्कूल का पाठ्यक्रम भी अत्यंत कठिन होता; क्योंकि एक तो वे स्कूल जाने वाले पहली पीढ़ी के लोग होते और दूसरे उनके माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं होते, इस वजह से स्कूल में मिले गृह कार्य में उनके अभिभावक कोई मदद नहीं कर पाते। साथ ही रूचिकर पढ़ाई, खेलकूद, शारीरिक दंड, जातीय भेदभाव, शौचालय व पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी कुछ ऐसे कारक हैं जो बच्चों को स्कूल से दूर रखते हैं। लड़कियों को पढ़ाने की बजाय उसे छोटे भाई - बहनों की देखभाल के काम में लगा दिया जाता है। चूँकि ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बाल सुविधाओं का अभाव है और लोगों के मन में लड़का-लड़की के प्रति भेदभाव व्याप्त है।

वे बच्चे जो काम करते हैं और स्कूल नहीं जाते, वे निरक्षर ही रह जाते हैं और हमेशा अकुशल बने रहते हैं। कारण है कि बच्चे हमेशा अकुशल श्रमिक के भाग बन जाते हैं। ये बच्चे जहाँ कार्य करते हैं वहाँ से निकले रासायनिक व अन्य हानिकारक पदार्थ का उनके स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता और उनका विकास भी अवरुद्ध हो जाता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21(ए) में 6-14 वर्ष की आयु वाले प्रत्येक बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा के अधिकार के प्रावधान के बावजूद समाज में पाये जाने वाले बाल- श्रमिक के कारण, कानूनी स्थिति व वस्तुस्थिति के बीच विरोधाभास उत्पन्न करता है।

यह ध्यान देने वाली बात है कि यदि बच्चों को बाल-मजदूरी से हटा दिया जाए तो उनके स्थान पर वयस्क व्यक्ति को नौकरी मिल सकती है। भारत में बेरोजगार युवाओं की बहुत बड़ी संख्या है जो इन बच्चों की जगह ले सकते हैं और बच्चों को अपनी बाल्यावस्था का आनंद उठाने के लिए मुक्त किया जा सकता है।

विश्व में बाल-मजदूरों की सबसे बड़ी संख्या भारत में ही पाई जाती है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में 5-14 वर्ष की आयु वालों की संख्या 1.25 करोड़ है जो विभिन्न व्यवसायों में काम कर रहे हैं। यद्यपि गैर सरकारी संस्थाएँ मानते हैं कि यह संख्या इससे काफी अधिक है क्योंकि बड़ी संख्या में बच्चे असंगठित क्षेत्र तथा छोटे व घरेलू उद्योगों में कार्य कर हैं जिनकी गिनती बाल मजदूरों के रूप में नहीं हो पाती।

मजदूरी के लिए बच्चों का प्रत्येक दिन अवैध व्यापार किया जा रहा है। बिचौलिए और दलाल गाँव आ रहे हैं और उनके माता - पिता के समक्ष शुभचिंतक के रूप में अपनी छवि दिखाकर देश के विभिन्न भागों में काम करने हेतु बच्चों को ले जा रहे हैं। कर्नाटक, दिल्ली और मुम्बई के विभिन्न औद्योगिक ईकाइयों में कार्य करने के लिए बच्चों को बिहार, बंगाल आदि राज्यों से लाया जा रहा है। तमिलनाडु से बच्चों को उत्तर प्रदेश में मिठाइयाँ बनाने की ईकाइयों तथा हीरा व रत्नों की पॉलिश करने हेतु सूरत लाया जाता है। अतएव मध्यवर्गीय परिवार के घरों में घरेलू मजदूर के रूप में हजारों बच्चे कार्यरत हैं।

बाल-यौन दुर्व्यवहार

मिथक - बाल यौन दुर्व्यवहार हमारे देश में बहुत ही कम है। यह मीडिया की देन है कि वह अच्छाई की जगह बुराई अधिक दिखा रही है। बच्चे या किशोरी कल्पना की दुनिया में विचरण करना, कहानियाँ बनाना और यौन दुर्व्यवहार के बारे में झूठ बोलना सीख गए हैं। गंदे चरित्र वाले लड़कियों के साथ ही अक्सर इस तरह की घटनाएँ होती है।

सच्चाई- बच्चे, चाहे वह कुछ महीने के हों या कुछ दिनों के, वे भी यौन दुर्व्यवहार के शिकार हो सकते हैं। प्रचलित मान्यता के अनुसार कि इससे लड़के भी शिकार होते, जबकि सच तो यह है कि लड़कियाँ इससे गंभीर रूप से पीड़ित होती हैं।

अपनी बाल्यावस्था के कारण मानसिक और शारीरिक रूप से विकलाँग बच्चे इस दुर्व्यवहार के शिकार हो सकते हैं। बाल यौन दुर्व्यवहार लिंग, वर्ग, जाति, समुदाय तथा शहरी और ग्रामीण क्षेत्र, सभी बंधनों को तोड़ देता है।

बच्चों के साथ यौन-दुर्व्यवहार जान -पहचान के आदमी या अजनबी दोनों द्वारा किया जाता यौन दुर्व्यवहार के 90 प्रतिशत मामलों में शोषणकर्त्ता वह व्यक्ति होता जिसे बच्चे जानते और उस पर विश्वास करते हैं। शोषणकर्त्ता उसके/उसकी शक्ति का लाभ उठाता है। अधिकाँश मामलों में दुर्व्यवहार बच्चे के बहुत करीब पड़ोसी होते हैं। कई मामलों में दुराचारी बच्चों के बहुत करीबी, जैसे - उसके पिता, बड़े भाई, चचेरा भाई, चाचा या पड़ोसी होते हैं। यदि दुराचारी परिवार का सदस्य हो तो यह कौटुम्बिक व्यभिचार होगा।

समाज में यौन दुर्व्यवहार एक पृथक् समाज के रूप में विद्यमान है। वेश्यावृत्ति, धार्मिक या सांस्कृतिक क्रियाकलापों के लिए लड़कियों का व्यापार जैसे - देवदासी प्रथा या जोगिनी प्रथा, इसके उदाहरण हैं। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों के दौरान लोगों में काफी जागरूकता आई है और इसे मीडिया ने भी काफी उछाला है। वयस्क महिलाओं पर किये गए अध्ययन से पता चलता है कि इनमें से 75 प्रतिशत महिलाएँ बाल्यावस्था में यौन शोषण का शिकार हुई हैं। अधिकाँश महिलाओं के साथ पारिवारिक सदस्यों या जान-पहचान के लोगों द्वारा दुर्व्यवहार किया जाता है।

बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार करने वाले विवाहित पुरुष भी होते हैं जिनकी अपनी पत्नी के साथ पहले से ही शारीरिक संबंध होता। मान्यता के विपरीत ऐसे व्यक्ति मानसिक रूप से बीमार नहीं होते बल्कि उन्हें सामान्यता व विविधता में वर्गीकृत किया जा सकता है। बाल-यौन दुर्व्यवहार करने वाले विभिन्न तरीकों से अपनी बात रखने और अपनी बचाव करने की कोशिश करते हैं।

कुछ पुरुष इतने लापरवाह होते हैं कि वे ऐसी घटनाओं के लिए न्यायालय में गवाही तक नहीं देना चाहते हैं। बच्चें इतने डरे हुए होते हैं कि वे यौन दुर्व्यवहार के बारे में कुछ कहने या यौन कार्य को देखने से घबराते हैं। पीड़ित कितने साल का है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि दुराचारी हमेशा बलवान होता है। दुराचारी के साथ पीड़ित का तालमेल नहीं होता और वह उस होने वाली प्रक्रिया या दुर्व्यवहार को रोकने में अक्षम होता है। यदि शोषणकर्त्ता परिवार का सदस्य हो तो पीड़िता किसी से कह भी नहीं सकती। प्रायः माताएँ जो दुर्व्यवहार के बारे में जानती है उसे रोकने की स्थिति में नहीं होती क्योंकि वह भी शक्तिहीनता के कारण मूक बनी रह जाती है। परिवार बिखरने या अन्य सदस्यों द्वारा उनकी बात पर विश्वास नहीं करने के कारण वे चुप हो जाती हैं। बच्चों के यौन दुर्व्यवहार की बात को उनके माता-पिता, परिवार के सदस्य या समाज भी अनदेखी कर देता है।

दुर्व्यवहार के बारे में बच्चों द्वारा प्रकट किए गए अधिकाँश मामले सही होते हैं। समाज द्वारा बच्चों के साथ हुए व्यभिचार/यौन दुर्व्यवहार के मामले को काल्पनिक कहानी मानकर पीड़ित बच्चे को ही दोष देना, समस्या का समाधान नहीं है, इसी वजह से आज हमारा चेहरा शर्म से झुका हुआ है।

बच्चे भोले-भाले और संवेदनशील होते हैं। यौन संबंध के बारे में उन्हें बहुत ही कम जानकारी होती है। अतः उन्हें वयस्कों की प्रतिक्रियाओं के लिए कदापि जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। यहाँ तक कि यौन संबंध के बारे में जानकारी होने के बावजूद इस प्रकार के दुर्व्यवहार के लिए बच्चों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। कानूनन एक वेश्या के साथ भी बलात्कार हो सकता है और न्यायालय से वह भी न्याय पा सकती है। यौन -दुर्व्यवहार के लिए पीड़ित को दोषी ठहराना सिर्फ अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार न कर इसके लिए बच्चों पर दोष मढ़ने के समान है। कानून के अनुसार 16 वर्ष से कम आयु की महिला या पुरुष के साथ हुए शारीरिक संबंध को बलात्कार माना जाएगा।

जब बच्चे इस दुर्व्यवहार के बारे में बताते हैं तो हमेशा उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाए जाते हैं। तब उसके विश्वास या आस्था का फिर से दुर्व्यवहार होता है। बच्चों की चूक को इस भावना से लिया जाता है कि जैसे उसने अपने व्यवहार से शोषणकर्त्ता को उकसाया हो।
बच्चों पर यौन-दुर्व्यवहार का प्रभाव
दुर्व्यवहार का प्रभाव अल्पकालिक या दीर्घकालिक दोनों हो सकता है -

  • खरोंच, कटना या प्रजनन अँगों से रक्त स्राव या किसी अन्य प्रकार का शारीरिक जख्म।
  • बच्चों में भय, हीनता, तनाव, उत्तेजना एवं यौन निष्क्रियता जैसे भाव का आना और परिवार के सदस्यों से कटे-कटे रहना।
  • बचपन में यौन उत्पीड़न के शिकार युवावस्था में इस प्रकार के संबंधों में असुविधा महसूस कर सकते हैं या उनमें यौन संबंधों के बारे में अतिशय उत्तेजना पैदा हो सकती है।
  • सबसे बड़ी बात यह कि यौन शोषण के अनुभव के परिणामस्वरूप बच्चों का किसी के प्रति व्याप्त विश्वास या आस्था का भी शोषण होता है। इस वजह से वे बहुत दिनों तक परेशान रहते हैं। कभी-कभी घटना के बाद के शेष जीवन पर उसका प्रभाव पड़ता है।

शिक्षण संस्थानों में कानून का उल्लंघन

(क) शारीरिकदंड
मिथक - कभी-कभी बच्चों में अनुशासन का पाठ पढ़ाने हेतु उन्हें दंड देना आवश्यक होता है। माता-पिता और अध्यापकों को यह अधिकार है कि वे अपने बच्चों को अनुशासन सिखाएँ।

सच्चाई - 'छड़ी को छोड़ो और बच्चों को बिगाड़ो,' ऐसा अधिकाँश अभिभावकों की मान्यता है। वे युवा जो अपने माता-पिता और शिक्षक से पिटाई खाते हैं वे हमेशा यह समझते हैं कि ऐसा करना उनका अधिकार है। वे प्रायः उस सदमें को भूल जाते हैं जिससे वे गुजर चुके हैं अर्थात् जब वे छोटे थे तब उन्होंने कितने प्रकार के दंड भुगते  हैं।

बच्चों में अनुशासन लाने के लिए शारीरिक दंड को ही सही मानदंड माना जाता है। बच्चे अपने माता-पिता, शिक्षकों और गैर अध्यापन स्कूल प्राधिकारियों से मार खाते ही रहते हैं। लगभग सभी स्कूलों में छात्रों को शारीरिक दंड दिया जाता है जिसके कई कारण होते हैं। इसके अलावे, अधिकाँश माता-पिता भी अपने बच्चों की पिटाई करते हैं।

अनुशासन के नाम पर बच्चों की हड्डियाँ या दाँत टूट चुके हैं, उनके बाल खींचे गए हैं और उन्हें अपमानित कार्यों की ओर प्रवृत किया गया है।

शारीरिक दंड का उद्देश्य शक्ति के प्रयोग द्वारा बच्चों में सुधार लाना है न कि उन्हें घायल करना।

शारीरिक दंड के प्रकार
शारीरिक दंड -

  1. दीवाल कुर्सी के रूप में बच्चों को खड़ा रखना।
  2. स्कूल बैग को सिर पर रखना
  3. दिनभर धूप में खड़ा रखना
  4. बच्चों को घुटने पर खड़ा रखकर काम करवाना
  5. बच्चों को बेंच पर खड़ा रखना
  6. हाथों को ऊपर उठाकर खड़ा रखना
  7. पेंसिल को मुँह से पकड़वाना और खड़ा रखना
  8. पैरों के नीचे से हाथों द्वारा कान पकड़वाना
  9. बच्चों के हाथ बाँधना
  10. उठक - बैठक करवाना
  11. कान पकड़कर खड़ा करना
  12. कान मरोड़ना


भावनात्मक दंड

  1. लड़का व लड़की को एक - दूसरे से थप्पड़ मरवाना।
  2. गाली - गलौज करना, भला- बुरा कहना और अपमानित करना।
  3. उसका/उसकी गलती के आधार पर स्कूले के चारों ओर चक्कर लगवाना।
  4. उन्हें कक्षा के पीछे खड़ा करके गृहकार्य पूर्ण करने को कहना।
  5. कुछ दिनों के लिए स्कूल आने से रोक देना
  6. उनके पीठ पर पेपर चिपका कर उसपर लिख देना कि- मैं मूर्ख हूँ, मै गधा हूँ, इत्यादि।
  7. उसे प्रत्येक कक्षा में ले जाकर अपमानित करना
  8. लड़कों की कमीज उतारना।


नकारात्मक सजा

  1. खाली समय और मध्याह्न भोजन के समय बाहर जाने से रोकना।
  2. अँधेरे कमरे में बंद करना।
  3. 3बच्चों के माता-पिता को स्कूल बुलाना या उनके माता-पिता से स्पष्टीकरण पत्र मँगवाना।
  4. बच्चों को घर वापस भेजना या फिर उन्हें स्कूल गेट के बाहर खड़ा रखना।
  5. बच्चों को क्लास रूम में फर्श पर बैठाना।
  6. बच्चों से परिसर की साफ - सफाई करवाना।
  7. बच्चों को खेल मैदान या बिल्डिंग के चारों ओर चक्कर लगवाना।
  8. बच्चों को प्राचार्य के पास भेजना।
  9. वर्ग में शिक्षक के आने तक उन्हें खड़ा रखना।
  10. बच्चों को मौखिक रूप से चेतावनी देना या डायरी व कैलेण्डर में शिकायत पत्र देना।
  11. बच्चों को स्कूल से निकालने की धमकी देना।
  12. बच्चों को खेल या अन्य क्रियाकलापों से वंचित रखना।
  13. उसके परीक्षा में प्राप्तांक को कम करना
  14. तीन दिन स्कूल देर से आने पर उपस्थिति रजिस्टर में एक दिन की अनुपस्थित मानना।
  15. अत्यधिक पाबंदी लगाना।
  16. बच्चों से जुर्माना लेना।
  17. बच्चों को वर्ग में आने से रोकना।
  18. एक घंटी,एक दिन,एक सप्ताह या महीनेभर उसे क्लास में फर्श पर बैठाना।
  19. उसके अनुशासनिक चार्टों पर काले चिह्न अँकित करना

किस तरह शारीरिक दण्ड बच्चे को नुकसान पहुँचाता हैं ?

इस तरह का शारीरीक दण्ड बच्चों के कोमल मन में नकारात्मक मनोविकार पैदा करता है जो बच्चों को चिड़चिड़ा बना देता है। साथ ही उसके मन में आक्रोश और डर की भावना घर कर जाती है।

इस तरह के दण्ड बच्चों के मन में क्रोध, निराशा और अपने आप को नीचा देखने की भावनाओं को उत्पन्न करता है। इसके अलावा, बच्चे अपने आपको बेसहारा और अपमानित समझने लगता हैं। इस कारण वह अपनी क्षमता और स्वाभिमानता को खोने लगता है। इस वजह से वह अपने आप को अलग-थलग रखता व उद्दण्ड व्यवहार करता है। इस वजह से बच्चे अपने उलझनों का समाधान हिंसा और बदला लेना ही समझते हैं।

बच्चे अक्सर बड़ों की नकल करते हैं। बड़ों के हिंसात्मक व्यवहार को देखकर बच्चे भी अपने उलझनों के समाधान के लिए हिंसात्मक व्यवहार को अपनाते हैं और गलती को महसूस नहीं करते। कभी-कभी बच्चे अपने माता - पिता पर ही आक्रामक हो जाते हैं या अध्यापक से भी बदला लेना चाहते हैं। जो बच्चे बचपन में शारीरीक दण्ड के शिकार होते हैं वे ही बच्चे ज्यादातर बड़े होकर अपने सहकर्मी या दोस्तों के साथ मार पीट करते हैं।

शारीरिक दण्ड बच्चे को अनुशासन में लाने का बहुत ही प्रभावहीन तरीका है, जो शायद ही बच्चे को प्रोत्साहित करता है। यह बच्चे के विकास में अच्छे असर डालने की बजाय बुरे असर ही डालता है। यह अत्यंत खतरनाक भी है।

सच में, यह बच्चों पर बहुत हीं उल्टा असर पैदा करता है। बहुत से रास्ते में भटकने वाले और मजदूरी करने वाले बच्चों से, उनके स्कूल से भाग निकलने का या अपने परिवार से अलग हो जाने का या घर से भाग जाने का कारण पूछने पर, इस तरह के शारीरिक दण्ड को ही मुख्य कारण बताते हैं।

बच्चों को अनुशासित करने का हक हमारा है। परन्तु हम उनके सामाजिक विकास और साझेदारी के हक पर अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। असल में, हर सामाजिक गतिविधियों में शामिल होने का हक ही उन्हें अनुशासित बनाता है। कोई भी धर्म या कानून शारीरिक दण्ड की अनुमति नहीं देता है।

किसी भी परिस्थिति में बच्चों को काबू में लाने का कोई मार्ग नहीं मिले, तो उन्हें शारीरीक दण्ड के माध्यम काबू में लाने का हक किसी को नैतिक या कानूनी तौर पर नहीं है।

  • अनुशासन सिखाया नहीं जाता, बल्कि सीखी जाती है।
  • अनुशासन एक भावना है।
  • अनुशासन एक जिम्मेदारी है।
  • अनुशासन एक आन्तरिक अनुभूति है, उसे थोपने का प्रयत्न करना एक बाहरी प्रयास है।

परीक्षा का बोझ और विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या

मिथकः भारतीय शिक्षा प्रणाली ने सारी दुनिया को इस मामले में जिज्ञासु बना दिया है कि हम किस तरह के योग्य व्यक्ति पैदा कर रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि बहुत से भारतीय पण्डित वैज्ञानिक, इंजीनियर और अन्य क्षेत्र के पेशेवर पाश्चात्य देशों में बस गये है और अपनी मेहनत व लगन की बदौलत अपनी योग्यता सिद्ध कर रहे हैं। प्रतियोगी शिक्षा प्रणाली के साथ कड़ा अनुशासन ही सफलता का मूल कारण है। सभी माँ-बाप अपने बच्चों को उन विद्यालयों में भेजना चाहते हैं जहाँ अच्छा नतीजा निकलता है।

सच्चाईः इसमें कोई शक नहीं कि भारत दुनियाभर में कुशाग्र बुद्धि वाले उम्मीदवार पैदा करता है। परन्तु क्या इसका श्रेय आजकल के विद्यालयों को जाता है या शिक्षा प्रणाली को या उन कुछ गिने चुने बच्चों को जो अपने पारिवारिक, सामाजिक दबाव की परवाह न करते हुए, अपने आप को मानसिक तौर से बहुत मजबूत बना लेते हैं। कठोर प्रतियोगी परीक्षा का दबाव, अपने बच्चों एंव विद्यार्थियों से बढ़ती आशाएँ, बच्चों से अच्छे परिणाम प्राप्त करना सभी विद्यालय एवं अध्यापकों की ख्याति का एक मात्र माध्यम बन गया है। बच्चों में इन बढ़ते दबाव का सामना करने में असमर्थता की वजह से ही, उनमें अवसाद की भावना उत्पन्न हो रही है और उसके फलस्वरुप वे आत्महत्याएँ जैसे कदम उठा रहे हैं। इस कारण योग्य युवाओं का धीरे-धीरे अंत हो रहा है और यदि हम लोग समय रहते इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया तो आने वाले समय में बहुत से योग्य युवकों को गवाँ बैठेंगे।

केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) परिणाम के बाद खराब परिणाम वाले कुछ बच्चे जीवित नहीं रहते। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) की 10वीं व 12वीं कक्षा के परिणाम निकलने के पाँच दिनों के भीतर ही राजधानी दिल्ली में आधे दर्जन विद्यार्थियों ने आत्महत्या कर ली। बाद में कई और विद्यार्थियों  ने आत्महत्या की और इसके लिए प्रयास किये; और इन सब का एक ही कारण था कि वे परीक्षा में असफल हो गये थे।

डॉ. आर.सी. जीलोहा (प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष, मनोचिकित्सा विभाग, जी. बी पन्त व मौलाना आजाद चिकित्सा महाविद्यालय) के अनुसार बच्चों में बढ़ती हुई आत्महत्या के कुछ और गहरे कारण हैं। पहले लोग इस उदासीनता को बच्चों के मामले के साथ नहीं जोड़ा करते थे। अब लोगों को समझ में आ रहा है कि जवान लोग भी उदासीनता का शिकार होते हैं। कम उम्र में यह समस्या और बढ़ जाती क्योंकि इस छोटी आयु में उनमें असफलता को सहन करने की न तो समझ होती और न ही अनुभव ही।

टेली सलाहकार श्रीमती शर्मा कहती हैं माता-पिता एवं शिक्षकों के लिए जरूरी है कि वे विशेषज्ञ सलाह के महत्व को समझें। वे कहती हैं परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने का मतलब यह नहीं कि दुनिया का अन्त हो गया, बल्कि परीक्षा के बाद भी जीवन है, भले ही वे परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन न कर पाये हों। इसी को माता-पिता और शिक्षकों को समझना चाहिए।
स्रोतः स्मृति काक द ट्रिब्यून (चंडीगढ़, शुक्रवार 31 मई, 2002)

इसमे कोई सन्देह नहीं कि हर माता-पिता अपने बच्चे को अच्छे विद्यालयों में पढ़ाना चाहते हैं, जहाँ बच्चों के नतीजे बेहतर हों। लेकिन किसी ने पढ़ने वाले उन बच्चों से पूछा कि क्या, वे उस माहौल में खुश हैं या नहीं। कोई भी माता-पिता अपने बच्चों को खोना नहीं चाहता है। इससे यह स्पष्ट है कि इस विषय में बच्चों के माता-पिता को भी सलाह की जरूरत है। यदि स्कूलों में इस तरह का दबाव जारी रहा, सभी माँ-बाप सिर्फ यह जानते रहे कि उनके बच्चे कक्षा में कितना अच्छा या बुरा कर रहे हैं; यदि अध्यापक बच्चों के भावनात्मक या मानसिक संवेदनाओं का कदर किये बिना एक बच्चे से दूसरे बच्चे की तुलना करते रहे तो, इस तरह की स्थिति को बदलने में कुछ भी नहीं किया जा सकता है। इसके लिए पहले विद्यालयों में कदम उठाये जाने की जरूरत है और शायद बच्चों के साथ उनके माता-पिता को भी सलाह दी जानी चाहिए।

मिथक एवं सच्चाईः गली एवं फुटपाथ के बच्चे


मिथकः केवल गरीब परिवार के बच्चे ही घर से भागकर रास्तों में भटकने वाले या फुटपाथी बच्चे बन जाते हैं। फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे बुरे होते हैं।

सच्चाईः किसी भी बच्चे पर ध्यान न दिया जाए तो वह घर से भाग सकता है। प्रत्येक बच्चे को शान से रहने का अधिकार है। उसे बंधन या दबाव पसंद नहीं और कोई माता-पिता/परिवार/विद्यालय/ गाँव उस बच्चे को इससे वंचित करता है तो वह उस बच्चे को गवाँ सकता है।

फुटपाथ पर रहने वाले ज्यादातर बच्चे घर से भागे हुए होते हैं। वे अपने घरों से जीवन में अच्छे अवसर प्राप्त करने के लिए या शहरी ठाट-बाट के लिए या पढ़ाई करने के लिए अपने अभिभावकों द्वारा मिल रहे दबाव, पारिवारिक लड़ाई झगड़ों की वजह से घर से शहर भाग जाते हैं और जहाँ वे बहुत ही दयनीय स्थिति में जीवन व्यतीत करते हैं।

फुटपाथ के बच्चे कभी भी खराब नहीं होते। वह जिन परिस्थितियों में रहते हैं वे परिस्थितियाँ ही खराब होती हैं। इन्हें दो वक्त का खाना नहीं मिलता और बुरे व्यवहार के शिकार होते हैं । एक बार वे रास्ते में आ जाते हैं तो वे दुर्व्यवहार और उससे सम्बन्धित समस्याओ में फँस जाते हैं। यह छोटे बच्चे अपने से बड़े बच्चों के सम्पर्क में आकर कचरा चुनने या दूसरे काम जो बिना किसी कष्ट से मिल जाता है या गैर कानूनी काम जैसे जेब काटना, भीख माँगना, नशीले सामानों को बेचने जैसे कामों में लग जाते हैं।

बच्चे निम्न कारणों से घर से भागते हैं -

  • बेहतर जीवन अवसर के लिए
  • शहरी चकाचौंध
  • बड़ों का दबाव
  • खराब पारिवारिक सम्बन्ध
  • अपने माता-पिता द्वारा परित्यक्त किये जाने पर
  • माता-पिता तथा अध्यापकों द्वारा मारे जाने के डर से
  • यौन सम्बन्धी दुर्व्यवहार
  • जातीय भेदभाव
  • लिंग संबंधी भेदभाव
  • अपंगता
  • एचआईवी/ एड्स की वजह से भेदभाव

फुटपाथी बच्चों का यौन शोषण, प्रेक्षण गृह में लाया गया (एक अध्ययन, वर्ष 2003-04) (रिपोर्टः दिप्ती पगारे, जी. एस. मीणा, आर. सी. जीलोहा व एम. एम. सिंह, भारतीय बाल चिकित्सा, सामुदायिक औषधि एवं मनोचिकित्सा विभाग, मौलाना आज़ाद महाविद्यालय। इस अध्ययन के दौरान दिल्ली के एक प्रेक्षण केन्द्र में रहने वाले बालकों के बीच किये गये सर्वेक्षण के दौरान यह बात सामने आई कि उसमें रहने वाले अधिकतर बच्चे फुटपाथ पर रहने वाले थे और उनमें से 38.1 प्रतिशत बच्चे यौन सम्बन्धी दुर्व्यवहार के शिकार थे। उन लोगों का जब अस्पतालों में जाँच कराया गया तो उनमे से 61.1 प्रतिशत बच्चों के शरीर पर जख्म के निशान थे जबकि 40.2 प्रतिशत बच्चों ने उनके साथ हुए यौन दुर्व्यवहार निशान दिखाए। 44 प्रतिशत बच्चों के साथ जबरन यौन दुर्व्यवहार किये और उनमें से 25 प्रतिशत बच्चों में यौन सम्बन्धी रोगों के निशान पाये गये थे। इन बच्चों के यौन शोषण जैसी घटनाएँ अधिकतर अपरिचित व्यक्ति द्वारा ही किया गया था।

मिथक और सच्चाईः एचआईवी / एड्स

मिथकः एचआईवी / एड्स वयस्क लोगों का मामला है। बच्चों को इसमें करने के लिए कुछ नहीं है इसलिए उन्हें इस बारे में जानने की कोई जरूरत नही हैं। उन्हें एचआईवी / एड्स, प्रजनन स्वास्थ्य, शारीरिक संबंध और इससे सम्बन्धित अन्य विषयों के बारे में जानकारी देने से उनका दिमाग दूषित होता है। जब बच्चे इस तरह के परिवारों से आते हैं, जहाँ एचआईवी / एड्स का प्रकोप हो या उसके परिवार के किसी सदस्य पहले कभी एड्स से पीड़ित रहे हैं तो उन बच्चों को अलग रखना चाहिए ताकि एचआईवी / एड्स न फैलें।

सच्चाईः एचआईवी / एड्स के होने का सम्बन्ध उम्र, चमड़ा, रंग, जाति, वर्ग, धर्म, किसी भौगोलिक स्थान, नैतिक विचलन एवं अच्छी व बुरी आदतों से नहीं है। कोई भी व्यक्ति एचआईवी का शिकार हो सकता है। एचआईवी के कारण ही एड्स फैलता है। एचआईवी से पीड़ित व्यक्ति के शरीर से निकले द्रव्य, जैसे वीर्य, संसर्ग द्वार से निकले द्रव्य, खून या माँ के दूध के संपर्क में आने से फैल सकता है। इसके अलावा, एचआईवी पीड़ित व्यक्ति के खून के संपर्क में सुई के साथ नशे के लिए प्रयुक्त की सुई, गोदने व शरीर में भोकने में प्रयुक्त सुई से भी एचआईवी फैलता है।

करोडों बच्चे आज या तो एचआईवी / एड्स के शिकार हैं या उससे प्रभावित हैं। माता - पिता के असमय देहान्त के कारण अनेक बच्चे अनाथ हो जाते है। माता से बच्चे को एचआईवी / एड्स का फैलना साधारण बात है। लेकिन बच्चों के साथ होने वाले यौन दुर्व्यवहार के कारण भी बहुत सारे बच्चे इस रोग के शिकार हो जाते हैं। बच्चों एवं युवाओं में नशीले पदार्थों की वजह से भी इस रोग के होने का खतरा रहता है। इन परिस्थितियों में बच्चों को एचआईवी/एड्स के बारे में जानकारी नहीं देना ठीक नहीं है। इसके अतिरिक्त उन्हें अपने आपको इस रोग से किस तरह सुरक्षित रखना चाहिये, इस बारे में भी जानकारी प्राप्त करने के अधिकार से वंचित नहीं करना चाहिए।

एशिया में चीन के बाद भारत में एचआईवी/एड्स पीड़ित लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। संयुक्त राष्ट्र एड्स संस्था के अनुसार भारत में 0 से 14 वर्ष उम्र के लगभग 0.16 करोड़ बच्चे एचआईवी के शिकार हैं।

एक समाचार रिपोर्ट के अनुसार केरल के पराप्पाननगडी के एक सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालय में 6 वर्षीय बबीता राज को स्कूल प्रबंधन ने इसलिए उसके स्कूल आने पर रोक लगा दी क्योंकि उसके पिता की मृत्यु एड्स के कारण हो गई थी। सामाजिक कार्यकर्ताओं की मध्यस्थता के बाद भी उस बच्चे की एचआईवी जाँच कराई गई जिसमें पाया गया कि उसे एचआईवी नहीं है, इसके बावजूद स्कूल प्रबंधन ने उसे स्कूल में दाखिला नहीं दिया। साथ ही, स्थानीय सरकारी विद्यालय में भी उस बच्ची को दाखिला नहीं दिया गया।

स्रोतः फ्यूचर फॉरसेकेन, ह्यूमेन राईट्स वाच, पृष्ठ संख्या 73, 2004

हमें यह समझने की आवश्यकता है कि एचआईवी पीड़ित बच्चे के छूने से या उसके पास बैठने से, उसे आलिंगन करने से, या उसके साथ खेलने से यह रोग नहीं फैलता है। यह सही है कि बच्चों के जानने के अधिकार व सहभागिता मुख्य रूप से इस बात आधारित है कि उसकी रुचि किस काम में है। इस तरह बच्चों को यौन सम्बन्ध, प्रजनन स्वास्थ्य या एचआईवी/ एड्स के बारे में जानकारी देने उम्र सीमा को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। जबकि इस संबंध में सच यह है कि हम बच्चों के इस तरह के प्रश्नों का सामना करने के लिए स्वयं ही मानसिक रूप से तैयार नही हैं।

पहले लोगों को एचआईवी / एड्स के बारे में बतलाने के बजाय उन बच्चों को, जिनके परिवार में एचआईवी/ एड्स के रोगी होते थे, उन्हें स्कूलों से बाहर निकाल दिया जाता था। साथ ही, उन्हें एचआईवी/ एड्स रोग की वजह से मूलभूत सेवाएँ व मौलिक अधिकार के उपभोग से वंचित कर दिया जाता था। भारतीय संविधान के अनुसार सभी व्यक्ति को समानता एवं भेदभाव मुक्त रहने का अधिकार है और जो कोई भी असमानता एवं भेदभाव को बढ़ावा देता है वह दंड का भागी हो सकता है।

अगर हमें यह बात मालूम होती है कि किसी व्यक्ति को एचआईवी पॉजिटिव है तो हमें उस व्यक्ति को उचित इलाज की सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए ताकि स्वस्थ हो सके और इस रोग का प्रसार अन्य लोगों तक न हो सके। अगर उन बच्चों को जिन्हें यह बीमारी होने की संभावना है, विद्यालय से निकाल दिया गया तो हम उनके स्वास्थ्य के बारे में खबर नहीं रख सकते और उनकी मदद भी नहीं कर सकते। इससे खतरा और बढ़ जाता है। भेदभाव के द्वारा दिनोदिन बढ़ते इस रोग को समाप्त नहीं किया जा सकता है।

मिथक तथा सच्चाई - जातीय भेदभाव

मिथकः अस्पृश्यता तथा जातीय भेदभाव अब बीते युग की बातें बन गई हैं । किसी भी हालत में दलित या अनुसूचित जाति / जनजाति के विद्यार्थियों को कभी और कहीं भी जातीय भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता है। क्योंकि संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण की सुविधा ने उनके जीवन को सुरक्षित व उत्तम बना दिया है।

सच्चाईः यह बात वास्तव में सही नहीं है। व्यक्ति कम उम्र में भी जातीय भेदभाव का शिकार बन सकता है। वह अपने विद्यालय में, खेल के मैदान में, अस्पताल तथा कई अन्य स्थानों पर जातीय भेदभाव का शिकार हो सकता है। हम लोग समाज के गरीब एवं वंचित वर्ग विशेषकर अनुसूचित जाति एवं जनजाति समुदाय के लोगों की मदद निम्न तरीके से कर उनकी समस्या का समाधान कर सकते हैं-
1) उनके आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों को सुरक्षित कर,
2) उन्हें शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सुविधा के साथ सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर,
3) बाल-मजदूरी तथा भंगी व्यवस्था को दूर कर।

मिथक एवं सच्चाई – अपंगता

मिथकः विकलांगता एक शाप हैं । एक अपंग बच्चे की कोई कीमत नहीं है। ऐसे बच्चे परिवार के लिए भार हैं । वे लोग आर्थिक दृष्टि से अनुत्पादक होते तथा शिक्षा उनके लिए किसी काम की नहीं है। वास्तव में अधिकांश विकलांगता का कोई इलाज भी नहीं है।

सच्चाईः विकलांगता का पूर्वजन्म के क्रियाकलापों से कोई संबंध नहीं है। यह एक प्रकार का रोग है जो गर्भ के दौरान आवश्यक देखभाल की कमी के कारण या फिर वंशानुगत कारणों से वे इस बीमारी से पीड़ित हो जाते हैं। इसके अलावा, यह रोग निम्न कारणों से भी हो सकती हैः
1) आवश्यकता पड़ने पर उचित चिकित्सा के अभाव में,
2) उचित प्रतिरक्षण टीका नहीं लगाने के कारण,
3) दुर्घटना के कारण,
4) घाव व अन्य कारणों से।

साधारणतया मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति सहानुभूति का पात्र होता है। हम यह भूल जाते हैं कि विकलांग को व्यक्तिगत रूप से सहानुभूति के अतिरिक्त भी कुछ जरूरी हक प्राप्त हैं।

अक्सर हम दुर्बलता को कलंक से जोडते हैं। मानसिक रूप से दुर्बल व्यक्ति के परिवार को बहिष्कृत किया जाता है तथा जनसमुदाय उसे तुच्छ दृष्टि से देखता है। शिक्षा प्रत्येक बालक व बालिका के लिए आवश्यक है, चाहे वह साधारण हो या शारीरिक या मानसिक रूप से दुर्बल। क्योंकि शिक्षा शिशु के समग्र विकास में सहायक होता है।

विकलांग बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताएँ होती हैं और हमारी जिम्मेदारी है कि हम उनकी आवश्यकताओं को पूरी करें। यदि उनको भी अवसर उपलब्ध कराई जाए तो वे भी जीविकोपार्जनजनित कुशलता प्राप्त कर सकते हैं। दुर्बलता दुखांत तभी बनती है जब कि हम उस व्यक्ति को अपने जीवन गुजारने के लिए मूलभूत साधन उपलब्ध कराने में असफल होते हैं।
1) वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार 0-19 वर्ष की आयु की कुल जनसंख्या का 1.67 प्रतिशत बच्चे विकलांग थे
2) योजना आयोग के 10 वीं पंचवर्षीय योजना रिपोर्ट में कहा गया है कि 0.5 से 1.0 प्रतिशत तक सभी बच्चों में मानसिक दुर्बलता पाई जाती है

शिक्षा व्यवस्था में मंदबुद्धि बच्चे द्वारा सामना किये जा रहे बाधाः
1) शारीरिक तथा मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए विशेष विद्यालयों की कमी।
2) दुर्बल बच्चे साधारणतया मंदबुद्धि होते हैं। विद्यालयों में इस तरह के विशेष अध्यापक नहीं होते जो ऐसे विद्यार्थियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएँ।
3) सहपाठियों का असंवेदनशील व्यवहार। साधारणतया शारीरिक तथा मानसिक रूप से विकलांग बच्चे अपने सहपाठियों के उपहास के पात्र होते है क्योंकि वे या तो धीरे-धीरे सीखने वाले होते या फिर शारीरिक रूप से विकलांग होते हैं।
4) विद्यालयों में विकलांग बच्चों के लिए शौचालय एवं बैठने की कुर्सी सहित आधारभूत सुविधाओं की कमी।

समुचित प्रशिक्षण के द्वारा विकलाँग व असामान्य बच्चों में भी ऐसी कुशलता विकसित की जा सकती है जिसके सहारे वह सम्मानीय जिन्दगी जी सकता है। इतना हीं नहीं, यदि कम उम्र में ही बीमारी को पहचानकर इलाज कराया जाए तो अधिकांश दुर्बलताओं एवं अपंगता को ठीक या उससे बचाव किया जा सकता है। इसमें मानसिक रूप से विकलाँगता की स्थिति भी शामिल है जिसका सही समय पर इलाज कर बीमारी को ठीक किया जा सकता व उससे बचाव किया जा सकता है।

संघर्ष व मानव निर्मित आपदा
प्रत्येक विद्यालय एवं शिक्षक को संघर्ष, राजनीतिक लड़ाई, युद्ध या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में बच्चों की देखभाल का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इस तरह की स्थितियों में जी रहे बच्चों के लिए विशेष देखभाल एवं सुरक्षा की जरूरत होती है और यह तभी संभव है जब मानव समुदाय इसकी आवश्यकता महसूस करे।

सुरक्षा एवं कानून

प्रत्येक बच्चें को ऊपर वर्णित किये गये सभी प्रकार के शोषण एवं कष्टकारी स्थिति से सुरक्षा पाने का अधिकार है। एक शिक्षक के रूप में आपको इन मुद्दों के समाधान के तरीके सीखने चाहिए। लेकिन यह तभी संभव है जब आप इससे संबंधित वास्तविक समस्या एवं बच्चों द्वारा झेली जा रही चुनौती के प्रति जागरुक रहें। साथ ही, आपको बच्चों को इस तरह के शोषण से बचाव के लिए देश में बने कानून एवं नीति के बारे में भी जानकारी हो।

ऐसी स्थितियों में रहनेवाले बच्चों को कानूनी सहायता एवं सुरक्षा की जरूरत होती है। एक साधारण गलती अक्सर हमलोग यह करते हैं कि बच्चे को अत्यंत आवश्यकता पड़ने पर भी हम कानूनी कदम नहीं उठाते अर्थात् न्यायालय में कार्यवाही नहीं करते।

अपने - आपसे पूछिये - क्या सामाजिक न्याय की तुलना में परिवार/ समुदाय /समाज / शक्तिशाली समूह द्वारा बहिष्कार का भय अधिक महत्वपूर्ण होनी चाहिए ?

सन् 2003 में कर्नाल जिले के एक गाँव की पाँच लड़कियाँ, विवाह के लिए बेची जा रही दो नाबालिग लड़कियों को बचाने में सफल हुई। ज्योंही उन्होंने बाल विवाह तथा लड़कियों की अवैध बिक्री को रोकने का संकल्प किया, उनके स्कूल के अध्यापकों ने दोषी व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कारवाई करने के लिए आवश्यक कदम उठाने में उनकी सहायता की। इस कार्रवाई पर उन पाँचों लड़कियों को वर एवं वधू पक्ष के परिवारों के लोगों, गाँव के बुजुर्ग के साथ ग्रामीण समुदाय की ओर से तीव्र विरोध शुरू हो गया। साथ ही, उन पाँचों लड़कियों को भी धमकियाँ दी जाने लगी और उनके परिवारवाले भी चाहते थे कि वे इस तरह की कार्रवाई को रोक दें। शुरू में पुलिस भी उस गैर कानूनी कार्रवाई को रोकने के लिए सामने नहीं आई। जब सारे प्रयत्न विफल हो गए तो विद्यालय के अध्यापकों ने स्थानीय समाचार माध्यम की सहायता ली। जब ये बातें चारों तरफ फैल गई तब जाकर पुलिस उस विवाह को रोकने के लिए आगे आकर दोषी व्यक्ति पर मुकदमा दर्ज किया। इन पाँचों लड़कियों को उनके साहसिक प्रयास के लिए 'राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। अपने असीम धैर्य व साहस तथा सभी प्रकार की बाधाओं के बावजूद विद्यालय के अध्यापकों ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की क्योंकि उनकी सहायता के बिना दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध कठिन कार्रवाई संभव नहीं थी। वास्तव में अध्यापकों ने इस कार्य में अपनी नौकरी को ही नहीं बल्कि अपनी जान की भी बाजी लगाई। लेकिन न्याय पाने की तीव्र इच्छा तथा बाल-सुरक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने इस स्थिति में उनका मार्गदर्शन किया।

इस तरह की कार्रवाइयों को रोकने के लिए आप निम्नलिखित कदम उठाकर दोषी व्यक्तियों के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया शुरू करने में मदद कर सकते हैं

  • पुलिस या 'चाइल्ड लाइन' को सूचित कर,
  • यह सुनिश्चित कर कि 'चाइल्ड लाइन' बच्चों को उचित सलाह तथा कानूनी सेवाएँ उपलब्ध कराती है,
  • इसके लिए जनसमुदाय का समर्थन प्राप्त करना,
  • अंतिम उपाय के रूप में प्रेस या मीडिया को सूचित करना,
  • अपने कानून के बारे में जानकारी प्राप्त कर

सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आधारभूत कानून एवं उस अधिकार के बारे में जानकारी प्राप्त करें जिनकी रक्षा की जानी है। यदि आप बाल अधिकार तथा उसकी संरक्षा के लिए बने कानून से परिचित हैं तभी आप बच्चे या उसके माँ-बाप/ संरक्षक / जनसमुदाय को कानूनी कारवाई के लिए तैयार कर सकते हैं। कभी-कभार पुलिस या प्रशासन भी इस तरह के मामलों में बाधा उत्पन्न करते हैं। कानून के बारे में उचित जानकारी मामले को अच्छी तरह से हल में आपको सशक्त बनाता है।

लिंगः चयनित गर्भपात, कन्या शिशु हत्या तथा बाल हत्या

चयनित गर्भपात प्रक्रिया में शामिल लोगों पर अर्थात् पैदा होने से पूर्व ही कन्या शिशु की गर्भपात के माध्यम से हत्या करानेवालों पर अभियोग चलाने से संबंधित मुख्य कानूनी प्रावधान जन्म पूर्व जाँच तकनीक विनियमन एवं दुरुपयोग निरोध कानून, 1994 (Pre-Natal Diagnostic Techniques (Diagnostic & Prevention of Misuse Act, 1994)) में वर्णित है।

  • यह गर्भ में पल रहे भ्रूण के लिंग निर्धारण के लिए जन्म पूर्व जाँच तकनीक (Pre-Natal Diagnostic Techniques) के विज्ञापन एवं दुरुपयोग को निषेध करता है जिसके परिणामस्वरूप कन्या भ्रूण की हत्या की जाती है।
  • यह कानून विशिष्ट रूप से आऩुवंशिक असामान्यता की स्थिति से बचाव के लिए जन्म पूर्व जाँच तकनीक (Pre-Natal Diagnostic Techniques ) के प्रयोग की अनुमति देता है। लेकिन इसका उपयोग कुछ निश्चित मानदंडों का पालन करते हुए निबंधित संस्थाओं द्वारा ही प्रयोग में लाया जा सकता है।
  • इसमें कानून में दिये गये मानदंडों के उल्लंघन की स्थिति में सजा का भी प्रावधान है।
  • इसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति संबंधित अधिकारी को कम से कम तीस दिन के अंदर कदम उठाने के लिए अनुरोध कर सकता हैं तथा उसे अदालत में भी अभियोग दाखिल कर बताना पड़ेगा।

इस कानून के अलावा, भारतीय दंड संहिता, 1860 के निम्न भाग भी महत्वपूर्ण हैं -

  • यदि किसी व्यक्ति के द्बारा हत्या हुई हो (भाग 299 तथा 300)
  • यदि शिशु के जन्म से पहले, स्वैच्छिक रूप से गर्भवती स्त्री को गर्भपात कराने के लिए प्रेरित करें (भाग 312)
  • गर्भस्थ शिशु को जीवित जन्म लेने से रोकना या पैदा होते ही उसे मार देना (भाग 315)
  • गर्भस्थ शिशु की हत्या (भाग 316)
  • 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों को घर से बाहर करना और परित्यक्त करना (भाग 317)
  • किसी बच्चे / बच्ची के शव को फेंककर उसके जन्म को गुप्त रखना (भाग 318)

उपरोक्त अपराधों के दोषियों को दो वर्ष से लेकर आजीवन कारावास या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है।

बाल-विवाह

बाल विवाह निषेध कानून, 1929 परिभाषित करता है कि 21 वर्ष से कम आयु के पुरुष एवं 18 वर्ष से कम आयु की महिला को बच्चा समझा जाएगा (भाग 2 (ए)) इसके अंतर्गत बाल विवाह की अनुमति देनेवाले, विवाह संपन्न करानेवाले या इससे संबंध रखनेवाले कई व्यक्तियों को दंडित किया जा सकता हैं । वे इस प्रकार हैं -

  • बाल-विवाह करने वाला वह पुरुष जिसकी आयु 18 साल से अधिक तथा 21 साल से कम है तो उसे 15 दिन की साधारण सजा या 1000 रुपये तक का जुर्माना या दोनों द्वारा दंडित किया जा सकता है (भाग 3)
  • बाल-विवाह करनेवाला पुरुष व्यक्ति की आयु 21 वर्ष से अधिक हो तो उसे जुर्माना के साथ तीन महीने तक की सजा भी हो सकती है। (भाग 4)
  • बाल-विवाह करनेवाला व्यक्ति यदि यह साबित नहीं कर पाता कि उसकी दृष्टि में यह बाल-विवाह नही हैं तो उसे जुर्माने के साथ तीन माह तक की सजा हो सकती है। (भाग 5)
  • वैसे माँ- बाप या संरक्षक या अभिभावक जो बाल-विवाह की अनुमति देते या लापरवाही से इसे रोकने में असफल होते हैं या ऐसे बाल-विवाहों को प्रोत्साहित करने का कोई काम करते हैं तो उन्हें भी दंडित किया जा सकता है (भाग 6)

क्या बाल-विवाह रोका जा सकता है ?

बाल-विवाह निषेध कानून, 1929 के अनुसार बाल-विवाह रोका जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति पुलिस को शिकायत करे कि वैसे विवाह की तैयारियाँ हुई हैं या विवाह होनेवाला है। तब पुलिस ऐसे मामले की जाँच करेगी और मामले को मजिस्ट्रेट के पास ले जाएगी। मजिस्ट्रेट बाल-विवाह को रोकने का आदेश दे सकता है। यदि कोई व्यक्ति बाल-विवाह को रोकने के आदेश का उल्लंघन करता है तो उसे तीन महीने तक की कैद या 1 हजार रुपये जुर्माना या दोनों हो सकता है। बाल-विवाह को उसके संपन्न होने के पहले ही रोकना चाहिए क्योंकि कानून में उल्लिखित आयु संबंधी नियमों का उल्लंघन करके संपन्न होनेवाला विवाह अपने आप अवैध नहीं हो जाता।

बाल-श्रम

बाल (बँधुआ मजदूरी) कानून 1933 यह घोषणा करता हैं कि माँ- बाप या संरक्षक या अभिभावक तर्कयुक्त मजदूरी से परे हटकर किसी भुगतान या लाभ के लिए 15 साल से कम उम्र के अपने बच्चे को मजदूरी कराने का समझौता करता है तो वह अवैध एवं अमान्य होगा। इस कानून के तहत इस कार्य में शामिल माँ- बाप या संरक्षक तथा नियोक्ता को भी दंडित किया जा सकता है।

बँधुआ मजदूरी व्यवस्था (समाप्ति) अधिनियम, 1976 ऋण चुकाने के लिए किसी व्यक्ति को बँधुआ मजदूरी के लिए बाध्य करने की व्यवस्था को निषिद्ध करता है। यह अधिनियम सभी ऋण शर्तों या समझौतों तथा प्रतिबद्धताओं को भी अमान्य करता है। यह कानून नये सिरे से बँधुआ मजदूरी बनाने की व्यवस्था को भी निषिद्ध करता हैं और सभी बँधुआ मजदूरों के ऋण समझौता को रद्द कर उनको दासता से मुक्त कराता है। एक व्यक्ति को बँधुआ मजदूरी के लिए बाध्य करना कानूनन दंडनीय है। साथ ही, वैसे अभिभावक या माँ - बाप जो अपने बच्चे या परिवार के अन्य सदस्यों को बँधुआ मजदूरी के लिए बाध्य करते हैं या इस तरह का समझौता किसी व्यक्ति से करते हैं तो वे भी (अभिभावक या माँ - बाप) दंडित किये जाएँगे।

बाल श्रम (निरोध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 14 वर्ष के कम उम्र के बच्चों को जोखिम भरे कामों में लगाने को निषिद्ध करता है तथा कम जोखिम भरे कामों में लगाने को नियंत्रित करता है।

बाल न्याय (बालकों की देखभाल व सुरक्षा) अधिनियम 2000 इस अधिनियम का भाग 20 जोखिम भरे कार्य में बच्चों को नौकरी देने वाले, उसके लिए उसे प्राप्त करने वाले, उसे बँधुआ मजदूर के रूप में रखने वाले तथा उसकी आमदनी को अपने फायदे के लिए अपने पास रखने वाले व्यक्ति के लिए दंड का प्रावधान करता है।

कुछ अन्य श्रम कानून जो बाल-श्रम को निषिद्ध करता या बाल-श्रमिकों के लिए कार्य दशा का विनियमन करता और इस तरह के कार्यों में शामिल व्यक्ति को इस कानून के तहत गिरफ्तार या सजा दी जा सकती हैः

  • कारखाना अधिनियम 1948
  • कृषक श्रमिक अधिनियम 1951
  • खान अधिनियम 1952
  • व्यापारिक जहाजरानी अधिनियम 1958
  • प्रशिक्षु अधिनियम 1961
  • मोटर परिवहन कामगार अधिनियम 1961
  • बीड़ी व सिगरेट कामगार (शर्त्तें व रोजगार) अधिनियम 1966
  • पश्चिम बंगाल दूकान एवं स्थापना अधिनियम 1963

बलात्कार के लिए अधिकतम 7 वर्ष के दंड का प्रावधान है लेकिन यदि पीड़ित बालिका की उम्र 12 वर्ष से कम हो तथा बलात्कारी अस्पताल, बाल सुधार गृह व पुलिस थाने से जुड़ा व्यक्ति है तो उस मामले में दंड इससे अधिक होगी।

यद्यपि किसी बालक के साथ जबरदस्ती किया गया संभोग भी बलात्कार जैसी कार्रवाई है लेकिन भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत वर्णित बलात्कार कानून इस मामले में लागू नहीं होता है। बालकों के साथ होनेवाले संभोग संबंधी छेड़छाड़ तथा अन्य दूषित व्यवहार को कवर करने के लिए कोई विशेष कानून नहीं हैं, लेकिन भारतीय दंड संहिता का भाग 377 अप्राकृतिक व्यवहार पर उचित नियमन की व्यवस्था करता है।

बाल-व्यापार

देश में बाल-व्यापार के खिलाफ दर्ज मामले की सुनवाई के लिए उपलब्ध कानूनी ढाँचा निम्न हैं -

भारतीय दंड संहिता कोड


भारतीय दंड संहिता में अमानवीय उद्देश्य के लिए बच्चों के साथ धोखाधड़ी, छल-कपट, अपहरण, छिपाकर रखना, आपराधिक धमकी, बच्चों को प्राप्त करना व बच्चों की खरीद-बिक्री करने वालों के लिए दंड का विधान किया गया है।

बाल-न्याय ( बालकों की संरक्षा तथा सुरक्षा) अधिनियम 2000

यह कानून बाल व्यापार के शिकार बच्चों की संरक्षा तथा सुरक्षा की गारंटी तथा ऐसे बालकों को पुनः उसके माता-पिता व परिवार से मिलाने की भी व्यवस्था करता है।

उपरोक्त प्रकार के उस उद्देश्य के लिए किये गये बाल व्यापार में शामिल लोगों को दंडित करने के लिए निम्न विशेष तथा स्थानीय कानूनों का उपयोग किया जा सकता है -

  • आंध्र प्रदेश देवदासी (प्रवेश को निषिद्ध) अधिनियम 1988 या कर्नाटक देवदासी (प्रवेश को निषिद्ध) अधिनियम 1982
  • बम्बई भिक्षाटन निरोध अधिनियम 1959
  • बँधुआ मजदूरी व्यवस्था (निर्मूलन) अधिनियम 1976
  • बाल-श्रम निषेध तथा विनियमन अधिनियम 1986
  • बाल-विवाह रोक अधिनियम 1929
  • संरक्षक तथा आश्रित अधिनियम 1890
  • हिन्दू ग्रहण (गोद) एवं निर्वाह अधिनियम 1956
  • अनैतिक व्यापार (निरोध) अधिनियम 1986
  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000
  • नशीली दवाओं एवं पदार्थ अवैध व्यापार निरोध अधिनियम 1988
  • अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों का निषेध ) अधिनियम 1989
  • मानव अंगों का प्रत्योरोपण अधिनियम 1994

एचआईवी/एड्स

एचआईवी पॉजिटिव लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक विशेष कानून निर्माण की प्रक्रिया में है। बावजूद इसके भारत के संविधान ने सभी नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार प्रदान किये हैं जिससे किसी भी व्यक्ति यहाँ तक कि एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति को वंचित नहीं किया जा सकता

  • सूचित सम्मति का अधिकार
  • गोपनीयता का अधिकार
  • भेदभाव के विरूद्ध अधिकार

सूचित सम्मति का अधिकार
सम्मति स्वतंत्र हों। लेकिन यह बल प्रयोग, गलत रीति, धोखाधड़ी, छल-कपट, गलत प्रभाव, गलत प्रतिरूपण के माध्यम से प्राप्त नहीं की जानी चाहिए। सम्मति की भी सूचना जरूरी है। यह मुख्य रूप से डॉक्टर व रोगी के संबंध में महत्वपूर्ण है। डॉक्टर, रोगी के बारे में बहुत कुछ जानता और रोगी उस पर विश्वास भी करता है। किसी भी चिकित्सकीय प्रक्रिया से पहले डॉक्टर को चाहिए कि वह उस बारे में तथा उससे संबंधित उपलब्ध विकल्प के बारे में रोगी को बताये ताकि वह उस आधार पर निर्णय ले सके कि उसे यह चिकित्सकीय प्रक्रिया जारी रखना है या नहीं।

अन्य बीमारीयों की तुलना में एचआईवी का प्रभाव अलग है। इसलिए एचआईवी संबंधी परीक्षण के लिए संबंधित व्यक्ति को सूचित कर उसकी सम्मति प्राप्त करना जरूरी है। अन्य बीमारीयों के संबंध में बताने के बाद प्राप्त की गई सम्मति एचआईवी के लिए लागू नहीं होती। यदि संबंधित व्यक्ति से सूचित सम्मति नहीं ली गई हो तो, इसे उसके अधिकारों का उल्लंघन माना जाएगा और इसके उपचार के लिए वह न्यायालय से अनुरोध कर सकता है।

गोपनीयता का अधिकार
यदि कोई व्यक्ति किसी पर विश्वास कर कोई बात कहता है तो इसका मतलब है कि वह बात गोपनीय बनी रहे। यदि वह व्यक्ति उस गोपनीय बात को किसी तीसरे व्यक्ति को बताता है तो उसे गोपनीयता का उल्लंघन माना जाएगा।

डॉक्टर का प्राथमिक दायित्व रोगी के प्रति है और उसकी यह जिम्मेदारी है कि उसे रोगी द्वारा दी गई सूचना की गोपनीयता बनाये रखे। यदि किसी व्यक्ति की गोपनीयता भंग होती है या होनेवाली है, तो संबंधित व्यक्ति का हक है कि वह अदालत जाकर गोपनीयता के भंग होने की वजह से हुई हानि की क्षतिपूर्ति के लिए न्यायालय से अनुरोध करे।

एचआईवी पीड़ित व्यक्ति अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अदालत जाने से हिचकते हैं क्योंकि इससे उनके बीमारी की जानकारी सार्वजनिक होने का भय रहता है। फिर भी, वह पहचान की गोपनीयता (Suppression of Identity) के माध्यम का प्रयोग कर न्यायालय में छद्म नाम से मुकदमा दायर कर सकता है। इस लाभकारी रणनीति से एड्स पीड़ित व्यक्ति सामाजिक बहिष्कार के भय के बिना न्यायालय से न्याय पा सकता है।

भेदभाव के विरुद्ध अधिकार
समान इलाज पाना मौलिक अधिकार है। भारत के संविधान में यह व्यवस्था है किसी व्यक्ति के साथ लिंग, धर्म, जाति, वंश या जन्म स्थान आदि के आधार पर सामाजिक या पेशेवर रूप से किसी भी सरकार संचालित या सरकारी सहायता प्राप्त संस्था द्वारा भेदभाव नहीं किया जाएगा। साथ ही, लोक स्वास्थ्य का अधिकार भी मौलिक अधिकार है जिसे राज्य सरकार सभी नागरिकों को उपलब्ध कराती है। यदि एचआईवी पॉजिटिव कोई व्यक्ति चिकित्सा सुविधा प्राप्त करना चाहता या किसी अस्पताल में भर्ती होना चाहता है, तो उससे उसे वंचित नहीं किया जा सकता। यदि इस परिस्थिति में संबंधित व्यक्ति को जरूरी सुविधा से वंचित किया जाता है तो वंचित व्यक्ति को अधिकार होगा कि वह उस मामले में कानूनी सहायता प्राप्त करे। एड्स पीड़ित रोगी यदि कार्य करने में सक्षम है और दूसरे कर्मियों को उससे कोई खतरा नहीं है तो उसे नौकरी से नहीं हटाया जा सकता है। यह व्यवस्था मई 1997 में बम्बई उच्च न्यायालय ने दी है।

1992 में भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने सभी राज्य सरकारों को प्रशासनिक आदेश भेजकर निर्देश दिया कि केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा संचालित अस्पतालों या स्वास्थ्य संस्थानों में ऐसी व्यवस्था की जाए कि एचआईवी/एड्स के पीड़ित व्यक्ति (Person Living With HIV & AIDS- PLWHA) के साथ कोई भेदभाव न हो।
स्रोत :एचआईवी/एड्स में कानूनी मुद्दे

शारीरिक दंड

भारत के स्कूलों में शारीरिक दंड को निषेध करने के लिए कोई केन्द्रीय कानून नहीं है। तब भी विभिन्न राज्यों ने अलग से इसे निषिद्ध करने के लिए कानून बनाए हैं। केन्द्र सरकार अभी बाल-शोषण पर कार्य कर रही है जिसके अनुसार बालकों को दिए गये शारीरिक दंड को अपराध माना गया है। इस कानून के अमल में आने तक अन्य उपलब्ध कानून उपयोग में लाए जाएँगे-

भारत के वे राज्य जहाँ शारीरिक दंड को निषिद्ध या बनाये रखे हुए हैं-
राज्य शारीरिक दंड (निषिद्ध या जारी) कानून या नीति
तमिलनाडु निषिद्ध जून 2003 में तमिलनाडु शिक्षा नीति संशोधन अधिनियम 51के माध्यम से राज्य में विद्यार्थियों को सुधारने के उद्देश्य से दी जाने वाली मानसिक व शारीरिक दंड को प्रतिबंधित कर दिया गया।
गोआ निषिद्ध The गोआ बाल अधिनियम 2003 राज्य में शारीरिक दंड को निषिद्ध करता है।
पश्चिम बंगाल निषिद्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय ने फरवरी 2004 में दिये एक निर्णय में कहा कि राज्य के स्कूलों में बच्चों को बेंत से मारना गैरकानूनी है। इस संबंध में तापस भाँजा ने कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका की है।
आँध्र प्रदेश निषिद्ध आँध्र प्रदेश के शिक्षा सचिव आई. वी सुब्बा राव ने शारीरिक दंड से संबंधित 1966 के सरकारी आदेश संख्या 1188 के स्थान पर 18 फरवरी 2002 को सरकारी आदेश संख्या 16जारी किया। 2002 के नये कानून में राज्य के सभी शैक्षिक संस्थानों में शारीरीक दंड को प्रतिबंधित कर दिया गया है। इसके अंतर्गत शिक्षा नियम (1966) के नियम 122 में संशोधन भी किया गया। इसके उल्लंघन पर भारतीय दंड संहिता के अधीन सजा दी जाएगी।
दिल्ली Banned सार्थक शिक्षा के लिए अभिभावकों द्वारा याचिका दायर किया गया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली स्कूल शिक्षा अधिनियम 1973 के उस प्रावधान को रद्द कर दिया जिसमें स्कूलों में शारीरिक दंड की व्यवस्था थी। दिसंबर 2000 में दिये अपने एक फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली स्कूल शिक्षा अधिनियम 1973 में उल्लिखित शारीरिक दंड का विधान अमानवीय तथा बालकों की प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने वाला है।
चंडीगढ़ निषिद्ध 1990 में चंडीगढ़ में शारीरिक दंड को निषिद्ध कर दिया गया।
हिमाचल प्रदेश निषेध करने का निर्णय इस प्रतिवेदन के बाद कि शारीरिक दंड के कारण बच्चे अपंग हो रहे हैं तो राज्य सरकार ने स्कूलों में शारीरीक दंड पर रोक लगाने का निर्णय किया है।

घरेलू हिंसा

देश में घरेलू हिंसा को रोकने के लिए कोई कानून नहीं है। फिर भी, वर्ष 2000 में बाल न्याय (बालकों की संरक्षा व सुरक्षा) अधिनियम, में माना गया कि जिन लोगों पर बच्चों की जिम्मेदारी थी या किसी खास चीज पर नियंत्रण का कार्य जिनके जिम्मे था उन लोगों द्वारा, बच्चों के साथ क्रूर व्यवहार किया जाता है। इस अधिनियम का भाग 23 बालक के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार के लिए दंड का प्रावधान करता है। इसके अंतर्गत पिटाई या प्रहार करने की घटना, परित्याग, बहिष्कार, जानबूझकर उसके प्रति बरती जा रही लापरवाही की घटना भी शामिल है जिसकी वजह से बच्चों को शारीरिक या मानसिक पीड़ा सहनी पड़ती है।

जातीय भेदभाव

भारत का संविधान निम्न बातों की गारंटी देता है -

  • सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान और सभी को कानूनों का समान संरक्षण प्राप्त है (अनुच्छेद 14)
  • जाति, वर्ण, लिंग, जन्म स्थान या निवास स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध (अनुच्छेद 15)
  • नौकरी देने में जाति, वर्ण, लिंग, जन्म या निवास स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध (अनुच्छेद 16) · अस्पृश्यता की समाप्ति और किसी भी तरह की अस्पृश्यता दंडनीय अपराध होगा (अनुच्छेद 17)

किसी भी रूप तथा किसी भी कार्य के लिए अस्पृश्यता के प्रचार तथा आचरण को दंडनीय अपराध घोषित करने वाला भारत का पहला कानून नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम 1955 था। यहाँ तक कि अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति को उसकी जाति के नाम से पुकारना, जैसे चमार जाति के व्यक्ति को चमार कहकर बुलाना भी दंडनीय अपराध माना गया है। भारत सरकार ने गैर अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग के लोगों द्वारा अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग के लोगों पर किये जाने वाले विभिन्न प्रकार के भेदभाव एवं हिंसात्मक गतिविधियों के तहत सजा देने के लिए 1989 में अनुसूचित जाति व जनजाति (अत्याचार से सुरक्षा) अधिनियम लागू किया। इसके तहत, इस तरह के अपराध के लिए जिला स्तर पर विशेष अदालत की स्थापना तथा न्यायालय में मुकदमें की जाँच के लिए लोक अभियोजक की नियुक्ति की जाएगी। इससे संबंधित सारे खर्च राज्य सरकार द्वारा वहन किये जाएँगे।

सड़कों एवं फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे

बाल-न्याय (संरक्षण एवं सुरक्षा) अधिनियम 2000 बाल-न्याय (संरक्षण एवं सुरक्षा) अधिनियम 2000 तरुण या बालक (जो 18 वर्ष से कम आयु के हों) के निम्न जरूरतों से संबंधित हैः

  • संरक्षण एवं सुरक्षा की जरूरत
  • कानूनी कार्रवाई का सामना
  • इन बच्चों को संरक्षण एवं सुरक्षा की जरूरत
  • इन बच्चों को संरक्षण एवं सुरक्षा की जरूरत

2 (डी) के अनुसार जिन बच्चों को संरक्षण एवं सुरक्षा की जरूरत है, उससे मतलब है -

  • जो बिना घर के या जीविका के साधन के बिना पाया जाता है।
  • जिसके माँ-बाप या संरक्षक देखभाल करने में सक्षम न हों।
  • जो अनाथ या जिसके माँ-बाप ने परित्यक्त कर दिया हो या जो खो गया हो या घर से भागा हुआ बच्चा या फिर काफी जाँच पड़ताल के बाद भी जिसके माँ-बाप का पता नहीं लगाया जा सकता।
  • जो संभोग या अनैतिक कार्य से शोषित, सताया हुआ या पीड़ित हो या जो इस तरह के शोषण के प्रति संवेदनशील हों।
  • जो नशा या बाल-व्यापार से पीड़ित हों
  • जो किसी सशस्त्र संघर्ष, नागरिक प्रतिरोध या प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हों।

बाल-कल्याण समिति: इस कानून के अनुसार प्रत्येक राज्य सरकार को, राज्य के प्रत्येक जिले या जिला-समूह में बालकों की देखभाल, सुरक्षा, इलाज, विकास एवं पुनर्वास के लिए एक या एक से अधिक बाल- संरक्षण एवं सुरक्षा समिति का गठन करना है। यह समिति जरूरतमंद बच्चों के मूलभूत जरूरत की व्यवस्था करेगी और उसके मौलिक अधिकारों की रक्षा करेगी।

समिति के समक्ष प्रस्तुत
कोई भी बालक जिसे संरक्षण एवं सुरक्षा की जरूरत है उसे समिति के समक्ष - विशेष बाल पुलिस ईकाई, निर्दिष्ट पुलिस अधिकारी, लोक सेवक, चाइल्ड लाइन, राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त एवं पंजीकृत स्वयं सेवी संस्था, सामाजिक कार्यकर्ता या राज्य सरकार द्वारा अधिकृत कोई अन्य व्यक्ति या संस्थाएँ या स्वयं बालक / बालिका उपस्थित होकर अपनी बात कह सकता है।

घटना का सुनने जानने के बाद बाल कल्याण समिति उस बच्चे को बाल सुधार गृह भेजने का निर्देश दे सकती है और उस मामले की त्वरित गति से जाँच के लिए किसी सामाजिक कार्यकर्ता या बाल कल्याण अधिकारी को अधिकृत कर सकती है।

जाँच के बाद यदि यह पाया जाता है कि संबंधित बालक का न तो परिवार और न ही कोई प्रत्यक्ष आधार है तो उसे बाल सुधार गृह या आश्रय गृह में तब तक रखने के लिए कहा जा सकता है जब तक कि या तो उसके पुनर्वास के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो जाती या फिर वह 18 वर्ष के अधिक का नहीं हो जाता।

कानूनी कार्रवाइयों का सामना कर रहे बच्चे
कानून से संघर्षरत बच्चे का मतलब है ऐसे बच्चे जिसपर किसी गैर कानूनी कार्य को करने का अपराध है।

बाल-न्याय बोर्ड
प्रत्येक राज्य सरकार राज्य के प्रत्येक जिले या जिला-समूह में बालकों की देखभाल, सुरक्षा, इलाज, विकास एवं पुनर्वास के लिए एक या एक से अधिक बाल संरक्षण एवं सुरक्षा समिति का गठन करे ताकि कानून से संघर्षरत बच्चे को जमानत दी जा सके और उस बच्चे के हित में उस मामले का निपटारा किया जा सके।

मादक द्रव्य तथा पदार्थों का दुरुपयोग
मादक द्रव्य तथा विषैले पदार्थ अधिनियम 1985
यह कानून मादक द्रव्य तथा विषैले पदार्थों के उत्पादन, अपने पास रखने, उसे कहीं लाने-ले जाने, खरीद-बिक्री को अवैध घोषित करता है, तथा इस कार्य में संलग्न व्यक्ति आदि या इसके अवैध व्यापारी के लिए दंड का प्रावधान करता है।

अपराधी के द्वारा हथियार या हिंसा का उपयोग करना या उपयोग की धमकी देना, नाबालिगों का इस अपराध के लिए उपयोग करना, किसी शिक्षण संस्थान या समाज सेवा केन्द्र में अपराध करने वाले के लिए अधिक दंड का प्रावधान है।

मादक द्रव्य तथा नशीले पदार्थों के अवैध व्यापार निवारण अधिनियम 1988
इस कानून के अनुसार वैसे व्यक्ति जो बालकों को मादक द्रव्यों का अवैध व्यापार के लिए उपयोग करते हैं उन्हें सहयोगी व षडयंत्रकारी के रूप में गिरफ्तार कर उसपर मुकदमा चलाया जा सकता है।

बाल-न्याय (बच्चों की संरक्षा एवं सुरक्षा) अधिनियम 2000
इस अधिनियम का भाग 2 (डी) मादक द्रव्यों के सेवन या व्यापार में लगे असहाय बच्चे को संरक्षण एवं सुरक्षा के लिए जरूरतमंद बच्चे के रूप में परिभाषित किया गया है।

बाल-भिक्षा
जब किसी बच्चे को भिक्षाटन के लिए विवश किया जाता या उसके लिए उपयोग किया जाता, तो वैसे व्यक्ति को निम्न कानून के तहत सजा दी जा सकती है -
बाल-न्याय अधिनियम 2000
किसी किशोर या बच्चे को रोजगार देकर या भिक्षा माँगने के लिए उपयोग किया जाता है तो उसे विशिष्ट अपराध मानकर दोषी के लिए सजा की व्यवस्था है (भाग 24)

बाल-न्याय वास्तव में भिक्षा माँगने जैसे अनैतिक कार्यों के माध्यम से बच्चों का किये जा रहे शोषण, प्रताड़ना, दुरुपयोग को संरक्षा एवं सुरक्षा के लिए जरूरतमंद बच्चे के रूप में स्वीकार करता है।

भारतीय दंड संहिता
भिक्षाटन कराने के लिए नाबालिग बच्चों का अपहरण या अपाहिज बनाना भारतीय दंड संहिता के भाग 363 ए के तहत दंडनीय अपराध है।

बाल-अपराध या कानून से संघर्षरत बच्चे
ऐसे बच्चे जो अपराध करते हैं उन्हें वयस्क व्यक्ति की तुलना में कठोर दंड से रक्षा की जाए और उसे संरक्षा एवं सुरक्षा के लिए जरूरतमंद बच्चे के रूप में स्वीकार किया जाए न कि बाल न्याय (बच्चों की संरक्षा एवं सुरक्षा) अधिनियम 2000 के तहत अपराधी माना जाए।

इस कानून के तहत वैसे प्रत्येक बच्चे जिसपर किसी अपराध के लिए मुकदमा चल रहा है उसे यह अधिकार है कि उसे अनिवार्य रूप से जमानत दी जाए बशर्ते कि उससे किसी के जीवन को या उस बच्चे को कोई खतरा न हो।

किसी तरह के अपराध में शामिल बच्चे को जेल भेजने की बजाय कानून उसके प्रति सुधारवादी रूख अपनाता है और उसे सलाह या चेतावनी देकर निश्चित अवधि को छोड़ देता या फिर उसे बाल-सुधार गृह में भेज दिया जाता है।

4.बच्चों की सुरक्षा के लिए अध्यापक क्या करें

वेब साइट- http://www.wcd.nic.in/

आपने जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की प्रसिद्ध उक्ति सुनी होगी - 'मेरी दृष्टि में मानव मुक्ति शिक्षा से ही संभव है।' प्राचीन काल से भारतीय समाज में शिक्षकों का स्थान सबसे ऊँचा रहा है अर्थात् ईश्वर के बाद दूसरा स्थान गुरु का ही आता है ऐसे तो गुरु को परमबह्म कहा गया है। एक शिक्षक अपनी निजी जिन्दगी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अच्छे शिक्षक अपने छात्र-छात्राओं के दिल में महत्वपूर्ण और पवित्र स्थान रखता है। माता-पिता के बाद शिक्षक ही बच्चों को सबसे अधिक प्रभावित करता है तथा उसके व्यक्तित्व को सही रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। आप सब जानते हैं कि प्रत्येक समाज में बच्चों को दुर्व्यवहार, हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता है। यदि आप अपने आस-पड़ोस में झाँककर देखें, तो पाएँगे कि छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जाने के बजाय मजदूरी के काम में लगे हुए हैं। अधिकाँश बँधुआ माता-पिता अपने बच्चों की पिटाई करते हैं। कक्षा में शिक्षक भी उनकी पिटाई करते या फिर जाति व धर्म के आधार पर उनके साथ भेदभाव किया जाता है। महिला बाल शिशु को जन्म लेने से रोका जाता है। इसके लिए उनकी गर्भ में या फिर जन्म के बाद हत्या कर दी जाती है अथवा फिर उन्हें परिवार या समाज में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। जन्म के बाद बालिकाओं को बाल-विवाह, बलत्कार या फिर तिरस्कार की मार अलग से झेलनी पड़ती है। हाँ, कई बच्चों की जीवन की यही सच्चाई है। इनमें से कुछ बच्चें आपकी कक्षा या स्कूल में भी होंगे। एक शिक्षक के रूप में जब आप देखते या सुनते हैं कि एक बच्चा अपमानित हो रहा है या शोषित हो रहा है, तो उस बारे में आप क्या करेंगे ? क्या आप ... · भाग्य को दोष देंगे ? · क्या आप यह तर्क देंगे कि सभी प्रौढ़, बाल अवस्था से गुजरते हुए उस अवस्था तक पहुँचे हैं, तो इसके साथ गलत क्या है ? · तर्क देंगे कि यह तो रीति-रिवाज व प्रचलन है इसलिए इस बारे में कुछ नहीं किया जा सकता। · गरीबी पर दोष मढ़ेगे । · भ्रष्टाचार पर आरोप लगाएँगे। · परिवार वालों को दोषी ठहराएँगे कि वे इसके लिए कुछ नहीं करते। यदि बालक आपका छात्र नहीं हो, तो आप चिंता क्यों करें ? · यह पता लगाने की कोशिश करें कि बच्चे को सचमुच सुरक्षा की जरूरत है। · तब तक इंतजार करें जब तक कोई साक्ष्य नहीं मिल जाता। या फिर आप ... · यह सुनिश्चित करेंगे कि बच्चा सुरक्षित जगह पर है। · बच्चे से बात करेंगे। · उसके परिवार वालों से बात करेंगे और उन्हें यह बताएँगे कि प्रत्येक बच्चे के लिए सुरक्षित बाल्यावस्था, उसका अधिकार है और माता-पिता की यह पहली जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों की देखभाल करें। · आवश्यक होने पर बच्चे और उसके परिवार की मदद करेंगे। · यह पता लगाएँगे कि उस बच्चे की सुरक्षा के लिए क्या खतरा है ? · बच्चों के विरुद्ध क्रूर व्यवहार करने वाले या जिनसे बच्चों को सुरक्षा की जरूरत है वैसे व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे। · कानूनी सुरक्षा और उपचार की आवश्यकता होने की स्थिति में मामले को पुलिस थाने में दर्ज करवाएँगे। इस बारे में आपकी प्रतिक्रिया, इस पर निर्भर करेगी कि आप स्वयं को किस नजरिए से देखते हैं। क्या आप स्वयं को मात्र एक शिक्षक या सर्वोच्च प्रदर्शक या प्रेरक या मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं ? क्योंकि शिक्षक या सर्वोच्च प्रदर्शक या प्रेरक या मार्गदर्शक को एक संरक्षक, बचावकर्त्ता एवं सामाजिक बदलाव लाने वाले अभिकर्त्ता की भूमिका भी अवश्य निभानी चाहिए। शिक्षक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ... वे बाल समुदाय और परिवार के प्रमुख अंग हैं। इस तरह, आप उनके अधिकारों को बढ़ावा देने एवं उन्हें सुरक्षा देने के प्रति जिम्मेदार हैं। · आप बच्चों के रोल मॉडल या आदर्श हैं और इसके लिए आप कुछ मानक निश्चित करें। · आप शिक्षक के रूप में युवा छात्र-छात्राओं की उन्नति, विकास, भलाई और सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार हैं। · आपके पद के कारण यह जिम्मेदारी एवं प्राधिकार आपमें व्याप्त है। · आप एक शिक्षक से अधिक उच्च हो सकते हैं जो स्कूलों में केवल पाठ्यक्रम पूरा करते व बेहतर परिणाम लाते हैं। आप सामाजिक बदलाव लाने वाले अभिकर्त्ता भी हो सकते हैं। यह पुस्तिका विशेष रूप से आपके लिए बनाई गई है। क्योंकि आप बच्चों की मदद कर सकते, उन्हें अपमानित व शोषण का शिकार होने से बचा सकते हैं। यद्यपि हमने संक्षिप्त में कानून की चर्चा की है अतः इस मामले में किसी वकील से कानूनी सलाह लेना उपयोगी होगा। बाल अधिकारों को समझना जरुरी है।

हमेशा यह याद रखें कि स्कूल परिसर के बाहर आपका बच्चों के प्रति कर्तव्य खत्म नहीं हो जाता। आपकी सकारात्मक मध्यस्थता से स्कूल में नामांकन लेने से वंचित रहने वाले बच्चे की जिन्दगी बदल सकती है। इसके लिए आप अपने आपको तैयार करें, उनकी समस्या को समझें और सोचे कि आप उनके लिए क्या कर सकते हैं।

एक बार यदि आप इस समस्या के समाधान के लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाते हैं और उनकी समस्या के समाधान के लिए अपने आपको सुसज्जित कर लेते हैं तो आप ऐसे बहुत सारे कार्य कर सकेंगे जो आपने कभी सोचा भी नहीं होगा।

क्या आप बच्चों के लिए प्रिय अध्यापक हैं ? यह आप इस तरह बन सकेंगे.

  • बच्चों के अधिकारों को मानव अधिकार के रूप में समझें और इस तरह का जागरुकता-अभियान समाज में अच्छी तरह चलाएँ।
  • बच्चों में यह मससूस कराएँ कि उनका अपनी कक्षा में प्रतिदिन जाना जरूरी है।
  • सीखने के लिए हमेशा तैयार रहें।
  • बच्चों के दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक बनें
  • बच्चों की कक्षा को रुचिकर एवं सूचनापरक बनाएँ। एकल संचार पद्धति से दूर रहें तथा बच्चों को अपने संदेह और अपनी बात या प्रश्न कहने का पूरा अवसर दीजिए।
  • दुर्व्यवहार, उपेक्षा, सीखने की अव्यवस्थित पद्धति और अन्य नहीं दिखने वाली अयोग्यता को पहचानें और स्वीकार करना सीखें।
  • ऐसे स्थानों पर जहाँ बच्चे अपने विचार, मनोव्यथा, पीड़ा, डर आदि प्रकट करतें हों वहाँ उनके साथ आत्मीय संबंध स्थापित करें। बच्चों के साथ अनौपचारिक बातचीत के माध्यम से व्यस्त रहने की कोशिश कीजिए।
  • अच्छे श्रोता बनें। पाठशाला या घर में बच्चों द्वारा सामना किये जा रहे विभिन्न मुद्दे या समस्याओं को सुनें और उसके साथ बातचीत करें।
  • बच्चों को ऐसी बातों को कहने के लिए प्रोत्साहित करें जो उनके जीवन को प्रभावित करती हैं।
  • प्रभावी सहभागिता के माध्यम से बच्चों की क्षमता को बढ़ाएँ।
  • स्कूल अधिकारियों के साथ बच्चों की बैठकें आयोजित करें।
  • अभिभावक-शिक्षक संघ के बैठक में माता-पिता के साथ बच्चों के अधिकार मुद्दे पर चर्चा करें।
  • शारीरिक दंड को नहीं (ना) कहें अर्थात् रोकें। बच्चों में अनुशासन लाने के लिए वार्तालाप और सलाह जैसे सकारात्मक सहायक तकनीक का इस्तेमाल कीजिए।
  • भेदभाव को रोकिये या उसे नहीं (ना) कहें। अल्पसंख्यक एवं अछूत समूह के बच्चों तक पहुँचने के लिए असरदार कदम उठाएँ।
  • काम करने वाले, यौन-शोषण के शिकार, फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे, घरेलू हिंसा या मादक द्रव्यों के शिकार बच्चें, किसी अपराध के लिए मुकदमा का सामना कर रहे बच्चे या बहला कर लाये गये बच्चों के प्रति आपके मन में पहले से बैठी धारणा एवं भेदभाव जनित व्यवहारों को रोकें।
  • अपने घर और कार्यस्थल पर बाल-श्रम को रोकें।
  • लोकतांत्रिक बनें लेकिन बनावटी या असंरचित नहीं।
  • ऐसी व्यवस्था करें कि बच्चे स्कूल के साथ समाज में भी सुरक्षित रहें। जरूरत पड़े तो पुलिस को बुलाएँ और कानूनी कारवाई करें।
  • बच्चों को अपने विचार बड़ों और समाज के समक्ष प्रकट करने के लिए प्रोत्साहित करें।
  • किसी कार्यक्रम के आयोजन में बच्चों को शामिल करें। उन्हें कुछ जिम्मेदारी दें और उसी समय उनका मार्गदर्शन भी करें।
  • बच्चों को नजदीकी पर्यटन-स्थल और मेले की यात्रा पर ले जाएँ।
  • बच्चों को विचार-विमर्श/वाद-विवाद/ ज्ञान परीक्षण और अन्य मनोरंजक गतिविधियों में व्यस्त रखें।
  • कक्षा में सृजनात्मक गतिविधियों के माध्यम से लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई और सहभागिता को बढ़ावा दें।
  • स्कूल छोड़ने वाले या अनियमित रूप से स्कूल आने वाले लडकियों पर ध्यान रखें ताकि वे इसे दोबारा न दोहराएँ।
  • सभी शिक्षक बच्चों के लिए सुरक्षात्मक वातावरण बनाने और सुदृढ़ करने में मदद कर सकते हैं।
  • आपके अनुभव या जाँच महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वह अकेला आपकी कक्षा में बच्चों की वृद्धि एवं विकास के मूल्याँकन में मदद करेगा। यदि कोई समस्या देखते हैं तो आपको यह पता लगाना चाहिए कि इसका असली कारण क्या हो सकता है।
  • आपको अपने आप से अगला प्रश्न यह पूछना चाहिए कि क्या बच्चे अपने परिवार, रिश्तेदार या दोस्त के दबाव में तो नहीं है?
  • बिना कुछ थोपे, तिरस्कार और परेशानी उत्पन्न किये हुए बच्चों के साथ कुछ समय बिताएँ।
  • बच्चों को रेखा चित्र या पेंटिंग बनाकर, कहानी लिखकर, आपको या स्कूल के मार्गदर्शक/सामाजिक कार्यकर्ता या अपने दोस्त को अपनी समस्या कहने में उसकी मदद करें।.

एक शिक्षक के रूप में आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि एचआईवी पीड़ित या प्रभावित बच्चों के अधिकारों का हनन न हों ?

  • बच्चों को उसकी उम्र और वयस्कता स्तर के आधार पर यौन शिक्षा प्रदान करें।
  • बच्चों को एचआईवी/एड्स के बारे में जानकारी दें। उन्हें बताएँ कि यह बीमारी कैसे फैलता और कैसे एक व्यक्ति को प्रभावित करता है और हम इसे फैलने से कैसे रोक सकते हैं।
  • स्कूल में कक्षाओं में ऐसा माहौल तैयार करें कि एचआईवी/एड्स पीड़ित और प्रभावित बच्चे प्रताड़ित न हों।

बच्चों के लिए सुरक्षात्मक वातावरण के निर्माण और उसे सशक्त करने के लिए बहुत सारे स्तर पर सहभागिता की जरूरत होती है। इसके लिए पारस्परिक विश्लेषण के आधार पर बातचीत, सहभागिता और समन्वय की जरूरत होती है। इसके बहुत सारे तत्व-मूलभूत सेवाओं में सुधार, निरीक्षण परिणाम और व्यक्ति को उसके क्षेत्र के कलाकार या नेता के रूप में पहचान करने जैसे पारंपरिक विकास गतिविधियों से संबंधित होते हैं।

बच्चों के लिए चलायी जा रही सरकारी योजनाओं और उन्हें क्या देना है, इस बारे में शिक्षकों को जागरूक होना चाहिए। ऐसे बच्चों और परिवारों की खोज की जाए जिन्हें सरकारी सहायता की जरुरत हो, और उन्हें किसी उपलब्ध सरकारी योजना के माध्यम से सहायता की जाए। ऐसे बच्चों और परिवारों की सूची आप प्रखंड/तालुका/मंडल पंचायत सदस्य आदि को सीधे दे सकते हैं।

यदि आप बच्चों की रक्षा करना चाहते हैं तो निम्न व्यक्तियों से संपर्क कर सकते हैं -

  • पुलिस
  • अपनी पंचायत/नगर निगम प्रमुख/सदस्य
  • आँगनवाड़ी सेविका
  • नर्स (एएऩएम)
  • प्रखंड/तालुका/मंडल और जिला पंचायत सदस्य
  • प्रखंड विकास पदाधिकारी या प्रखंड विकास एवं पंचायत अधिकारी
  • सामुदायिक विकास पदाधिकारी या सामुदायिक विकास एवं पंचायत अधिकारी
  • जिलाधीश या जिला कलेक्टर
  • नजदीकी बाल कल्याण समिति
  • आपके क्षेत्र का चाईल्ड लाईन संगठन

बच्चों के साथ होने वाले यौन शोषण से संबंधित घटनाओं की पहचान

बाल-यौन शोषण की घटना की पहचान
बच्चों तथा युवाओं के साथ होने वाले यौन शोषण के चिह्न
6-11 वर्ष 12-17 वर्ष
लड़की स्पष्ट रूप से अन्य बच्चों के साथ यौन व्यवहार में शामिल होना युवा बच्चों के साथ यौन शोषणयुक्त बातचीत करना
मौखिक रूप से यौन शोषण के अनुभव की व्याख्या करना यौन शोषण से संबंधित अनैतिक व्यवहार या पूर्णरूप से यौन संबंध से दूर रहना
गुप्तांगों के बारे में विशेष रुचि रखना खान-पान में अनियमितता
बड़ों के साथ यौन संबंध अपराध, शर्म और अपमान की वजह से औरों से दूर रहने की कोशिश
किसी पुरुष, महिला या विशिष्ट स्थान के बारे में अचानक डर या अविश्वास पैदा होना घर से भाग जाना
वयस्क यौन व्यवहार के बारे में अपर्याप्त जानकारी सोने में बाधा, डरावना व रात्रि आतंक
लड़का स्पष्ट रूप से अन्य बच्चों के साथ यौन व्यवहार में शामिल होना युवा बच्चों के साथ यौन शोषणयुक्त या आक्रामक व्यवहार करना
किसी पुरुष, महिला या विशिष्ट स्थान के बारे में अचानक डर या अविश्वास पैदा होना आक्रामक व्यवहार
सोने में बाधा, डरावना व रात्रि आतंक बहाना करना और खतरनाक व्यवहार करना
अचानक आक्रामक व्यवहार करना या प्रदर्शन करना अपराध, शर्म और अपमान की वजह से औरों से दूर रहने की कोशिश
पहले की रुचि का धीरे-धीरे कम होना आक्रामक व्यवहार

सावधानी- उपर्युक्त लक्षण या संकेत सिर्फ मोटे तौर पर अभिभावकों के मार्गदर्शन के लिए दिये गये हैं कि इस तरह का व्यवहार करने वाला बच्चा खतरे में हैं और संभव है, उसका कारण यौन शोषण हो सकता है। यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि किसी एक लक्षण के आधार पर यह निर्णय नहीं ले लें कि बच्चे/बच्ची के साथ यौन शोषण जैसी घटनाएँ हुई हैं। हालाँकि, आप इसके लिए बहुत सारे लक्षण पर ध्यान दें और अपने विवेक का इस्तेमाल करें।
स्रोत- यूनीसेफ (www.unicef.org )

अक्सर बच्चों को बड़ों की आज्ञा-पालन की बात सिखायी जाती है। लेकिन इस प्रक्रिया में वे यह बताना भूल जाते हैं कि यदि वे बड़ों के किसी व्यवहार को पसंद नहीं करते हैं तो उसे इनकार कर दें। बच्चों को ऐसी स्थितियों में न कहना सिखाएँ।

विकलांग बच्चों के बारे में दस संदेश

  1. विकलांग बच्चों के बारे में पूर्वाग्रहयुक्त नकारात्मक धारणा को रोकें। इसके अंतर्गत विकलांग बच्चों के लिए दुर्बल, अपंग, अपाहिज शब्द के बदले शारीरिक रूप से विकलांग या चलने-फिरने में अक्षम बच्चे, ह्वील चेयर प्रयोग करने वाला बच्चा और बहरे या गूँगे बच्चों के लिए ऐसे बच्चे जो बोलने या सुनने में अक्षम हों और मानसिक रूप से अक्षम बच्चे के लिए 'रिटार्डेड' शब्द प्रयोग किया जा सकता है।
  2. सामान्य बच्चों के समान ही विकलांग बच्चों के प्रति भी समान व्यवहार करें। उदाहरण के तौर पर एक विकलांग विद्यार्थी बिना किसी परेशानी के किशोर लड़के को पढ़ा सकता है। विकलांग बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ अधिक से अधिक बातचीत एवं मेल-जोल रखना चाहिए।
  3. विकलांग बच्चों को खुद के बारे में तथा अपनी सोच और अपने अनुभव को व्यक्त करने की अनुमति दें। विकलांग और सामान्य बच्चों को किसी एक परियोजना पर लगाएँ उन दोनों के बीच पारस्परिक सहभागिता को प्रोत्साहित करें।
  4. बच्चों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करें और उनकी विकलांगता को पहचानें। प्रारंभ में विकलांगता की रोकथाम पूर्व बाल शिक्षा का अंग बनाएँ। यदि शुरुआत में बच्चों में विकलांगता की रोकथाम की जाए तो इसका असर कम रह जाता है।
  5. जिन बच्चों में विकलांगता की पहचान हो गई हो उन्हें आवश्यक और विकासकारी जाँच व प्रारंभिक स्तर पर बचाव के लिए भेजें।
  6. विकलांग बच्चों की जरूरतों के अनुकूल कक्षा, पाठ्य सामग्री तथा पाठ तैयार करें। इस हेतु पीड़ित बच्चों के लिए बड़े अक्षरों का प्रयोग करें, इन्हें कक्षा में सबसे आगे बैठाएँ और कक्षा में इस तरह की व्यवस्था करें कि इस तरह के बच्चे आसानी से आ-जा और अपना कार्य कर सकें।
  7. विकलांग बच्चों की खास जरूरतों के प्रति अभिभावकों, परिवारजनों और संरक्षकों में जागरुकता लाएँ। अभिभावकों को बैठक में तथा एक-एक कर इस बारे में बताएँ।
  8. विकलांग बच्चे के माता-पिता को आसान तरीकों से इस समस्या का हल खोजने एवं बच्चों की जरूरतों को पूरा करने की प्रक्रिया के बारे में बताएँ। साथ ही, उन्हें विकलांग बच्चों के होने वाले शोषण को रोकने के लिए धैर्य रखने में मदद करें।
  9. विकलांग बच्चों के माता-पिता की कुंठा कम करने में सहोदर भाई / बहन और परिवार के अन्य लोगों का मार्गदर्शन करें।
  10. विकलांग बच्चों के अभिभावकों को स्कूल तथा स्कूल के बाहर की गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल करें।
सोर्स - यूनीसेफ (www.unicef.org)

बच्चों की मानवीय प्रतिष्ठा के सम्मान के लिए रचनात्मक और अनुशासनात्मक गतिविधियों को अपनाएँ और बढ़ावा दें

  • बच्चों की प्रतिष्ठा का सम्मान करें।
  • समाजोन्मुख व्यवहार, स्व-अनुशासन और चरित्र का विकास करें।
  • बच्चों की सक्रिय सहभागिता को बढ़ाएँ।
  • बच्चों के विकास की जरूरतों और गुणवत्तापूर्ण जीवन का सम्मान करें।
  • बच्चों के प्रेरणात्मक चरित्र और जीवन के बारे में विचारों का सम्मान कीजिए।
  • उन्हें स्वच्छ एवं परिवर्तनकारी न्याय का विश्वास दिलाएँ।
  • एकता को बढ़ावा दें।

स्कूली वातावरण में बदलाव लाना वास्तव में आपके लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी

क्या आपका स्कूल बाल प्रिय है ? यह इस तरह से हो सकता है-

  • छड़ी फेकें और बचपन बचाओ एक नारा और बच्चों, अभिभावकों और समाज के लिए एक संदेश होना चाहिए।
  • सभी स्कूलों में भावनात्मक समस्या एवं मानसिक विकार के लक्षण दिखाने वाले बच्चों की सहायता के लिए एक प्रशिक्षित सलाहकार या मार्गदर्शक अवश्य हों और वह सलाहकार प्रभावित बच्चे एवं उसके अभिभावकों का उचित मार्गशन करें।
  • प्रत्येक स्कूल में सहपाठियों, परिवारों एवं समुदाय के सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए एक सामाजिक कार्यकर्ता अवश्य होना चाहिए।
  • नियमित व पाक्षिक रूप से अभिभावक-शिक्षक संघ की बैठक एक अनिवार्य विशेषता हों। अभिभावक-शिक्षक संघ, अभिभावक व शिक्षकों के बीच वार्त्ता के लिए एक प्लेटफॉर्म होना चाहिए जहाँ सिर्फ बच्चों के अपने वर्ग के प्रदर्शन पर हीं नहीं अपितु उसके समग्र विकास पर भी चर्चा होनी चाहिए।
  • शिक्षकों के साथ बच्चों के अधिकारों पर नियमित रूप से प्रशिक्षण एवं जागरुकता कार्यक्रम आयोजित होने चाहिए, जैसा कि बहुत सारे स्कूलों द्वारा नियमित रूप से शिक्षकों को अकादमिक प्रशिक्षण के लिए भेजा जाता है।
  • स्कूल के भीतर विकलांग बच्चों को प्रभावित करने वाले मुद्दे पर सहभागिता के लिए एक मंच का निर्माण होना चाहिए।
  • स्कूलों में जीवन कुशल शिक्षा के साथ यौन-शिक्षा को अनिवार्य अंग बनाकर उसके बारे में जानकारी दी जानी चाहिए।
  • बच्चों के लिए स्कूल परिसर के भीतर पीने के पानी एवं शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था होनी चाहिए। लड़कों एवं लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालयों की व्यवस्था हों।
  • टेन्ट या छोटे घरों में चलाये जाने वाले स्कूलों में बच्चों को शौचालय एवं पानी पीने जाने के लिए पर्याप्त रूप से समय की व्यवस्था होनी चाहिए।
  • स्कूल में विकलांग प्रिय आधारभूत संरचना एवं शिक्षण व अध्ययन सामग्री की व्यवस्था, यह प्रदर्शित करता है कि स्कूल विकलांग बच्चों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील है। ये सभी सुविधाएँ या वे सुविधाएँ जो आपके लिए संभव हों, की उपलब्धता सुनिश्चित करें। इस आवश्यकता को पूरी करने के लिए स्थानीय संसाधनों का इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • स्कूल परिसर के भीतर व बाहर कोई दुकानें या विक्रेता नहीं होना चाहिए।
  • स्कूल प्रबंधन अपने अध्यापकों को बच्चों को घरेलू कार्य पर रखने के प्रति हतोत्साहित करें ताकि समाज के अन्य लोग भी उनका नकल करें या उसी तरह का व्यवहार बच्चों के प्रति करें।
  • स्कूल परिसर में मादक द्रव्यों के प्रयोग या किसी भी अन्य प्रकार के दुरुपयोग की देखरेख के लिए जाँच समूह विकसित करें। यह एक अच्छी पहल है जिसे सभी स्कूलों को अपनाना चाहिए।
  • एक नीति-निर्देश तैयार करें और अनुशासनात्मक जाँच के लिए उसका पालन हों। विद्यालय के उन शिक्षकों या कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करें जो स्कूल परिसर में या उसके बाहर बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार में शामिल हों।
  • स्कूल परिसर के भीतर लिंग, विकलाँगता, जाति, धर्म या एचआईवी/एड्स के आधार पर होने वाले भेदभाव को रोकने के लिए नीति-निर्देश, नियम व परिनियम बनाएँ।
  • बच्चे, उसके अभिभावक और पंचायत/नगरपालिका परिषद् को मिलाकर स्कूल को एक बाल-सुरक्षा निगरानी ईकाई या सेल का गठन करना चाहिए। इस सेल या ईकाई की यह जिम्मेदारी होगी कि वह उन बच्चों की सूची रखें जिसे देखभाल एवं सुरक्षा की जरूरत है और बाल-शोषण की रिपोर्ट पुलिस या अन्य संबंधित प्राधिकार तक पहुँचाएं।

विषय आधारित मनोरंजक कार्यक्रम जिसमें बच्चे भाग ले सकें

  • विचार-विमर्श/वाद-विवाद/प्रश्न प्रतियोगिता
  • कहानी सुनाना
  • चित्रकला, स्थानीय कला (क्षेत्र विशेष पर आधारित)
  • व्यंग्य रचना/नाटक/रंगशाला
  • बर्तन बनाना और अन्य कारीगरी
  • गुड़िया निर्माण
  • चेहरे की रंगाई (फेस पेंटिंग)
  • छाया चित्रकारी (फोटोग्राफी)
  • पिकनिक और पर्यटन
  • खेल-कूद (बाहरी और भीतरी )
  • प्रदर्शनी

"अच्छे शिक्षक महँगे होते हैं, लेकिन बुरे शिक्षक की बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ती है":बॉब टेलबर्ट

स्त्रोत: पोर्टल विषय सामग्री टीम

अंतिम बार संशोधित : 11/14/2021



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