बच्चों को संस्था में रखने के जो भी अच्छे कारण हों, बच्चा आजादी के खोने को अपने आप में एक सजा मानता है। किशोर, जिनमें से ज्यादातर स्वनिर्भर होते हैं और काफी छोटी उम्र से अपने फैसले खुद ही लेते हैं, किशोर न्याय व्यवस्था द्वारा दी जाने वाली सुरक्षा का स्वागत नहीं करती है और इसे हस्तक्षेप की तरह मानते हैं।
किशोरों को संस्था में डालने के परम्परागत कारण उनका पुनर्वास है, यह माना जाता है की शैक्षणिक व व्यवसायिक प्रशिक्षण का परिणाम यह होगा की रिहाई पर वे कम अपराधी होंगे। बीजिंग नियम भी संस्थागत व्यवहार से निपटते हुए इसे दर्शन को प्रतिविम्बित करते हैं
“प्रशिक्षण व संस्थाओं में दिए जाने वाली देख-रेख, सुरक्षा व व्यवसायिक प्रशिक्षण ही इसका ध्येय है, जिनका नजरिया उनको सामाजिक रूप से निर्माणातक व उपयोगी भूमिका निभाने लायक बनाता हो।”
बीजिंग नियम इसके आगे बताते हैं, संस्थाओं में किशोरों देख रेख, सुरक्षा व सभी जरूरी मदद मिलनी चाहिए समाजिक, शैक्षिणक, व्यवसायिक, मनोवैज्ञानिक चिकित्सकीय व शारीरक जो उनके सर्वांगीण विकास के लिए जरूरी हों।”
लुंडमैन कहते हैं कि किशोरों को संस्था में रखे जाने के कारों में बदलाव आए हैं। अब ध्येय है बदला और अपराध और गलती की रह में चले जाने में उन्हें अक्षम कर देना। संस्था में रखे कहने की इस लिस वकालत नहीं की जाती कि किशोरों का सुधार व पुनर्वास हो, बल्कि, किशोर सुधार सुविधाओं के समय बिताना दर्दनाक होता है और संस्थाओं के व्यवहार, ईलाज के बजाय दर्द ही देते हैं जो कि न भूलने वाला प्रभाव डालती है। संस्था में डालने से राज्य यह संदेश समाज को देता है की वह बच्चों के साथ सख्ती से पेश आना चाहता है, और खासकर उनसे जिन्होंने हत्या या बलात्कार करने का गंभीर अपराध किये हो। कैद एक जरिया है, डरी हुई जनता को यह बताने का कि किशोर अपराधियों को विरूद्ध कड़े कदम उठाए जा रहे हैं, और साथ में यह भी तर्क देना की संस्था के अदंर किया जाने वाला व्यवहार संस्था में रखे गए किशोर के अच्छे भविष्य के लिए है।
2000 के कानून का प्राक्कथन में इस कानून के अंतर्गत स्थापित किए गए “संस्थाओं के माध्यम से सम्पूर्ण पुनर्वास” के बारे में कहा गया है। इस प्राक्कथन को 2006 संसोधन के माध्यम से बदला गया है जिसमें पुनर्वास” के बारे में कहा गया है। इस प्राक्कथन को 2006 के संशोधन के माध्यम से बदला गया है जिसमें पुनर्वास किशोर के लिए अंतिम ध्येय है, पर इसे हासिल करने का एकमात्र तरीका संस्थाओं के माध्यम से ही नहीं बल्कि विभिन्न तरीकों से किया गया है।
यह दर्ज किया गया है कि संस्थाए पुनर्वास के लिए लाभप्रद माहौल कम ही मुहैया करवाती है। कायदे को बनाए रखना संस्थागत व्यवस्था में रची बसी हैं, और परिणाम धर्म की और बल प्रयोग प्रयोग हो सकता है; ऐसा माहौल बच्चे के पुनर्वास में सहायक नहीं हो सकता, इस लिए यह सुनिश्चित करने के लिए की बच्चा लम्बे समय तक संस्था में न रहे, ज्यादातर मामलों में जितनी जल्दी संभव हो जमानत देनी चाहिए और फैसलों की काफी विस्तृत सूची है जिन्हें बोर्ड मामले में अंतिम निर्णय के वक्त दे सकता है, संस्था में न रहे, ज्यादातर मामलों में जितनी जल्दी संभव हो जमानत देनी चाहिए और फैसलों की काफी विस्तृत सूची है जिन्हें बोर्ड मामले में अंतिम निर्णय के वक्त दे सकता है, संस्था में पालने के बजाय, इसके अलावा, किशोर संस्था में रखे जाने को सजा मानते हैं और इसलिए किशोरों के निगरानी गृह, विशेष गृह और उपयुक्त व्यक्ति के देख रेख से भागने की घटनाएँ हुए है। ऐसे मामलों में 2000 के कानून की धारा 22 के अनुसार किशोर को निगरानी गृह, विशेष गृह या उस व्यक्ति की देख रेख में वापस भेजने का प्रावधान है। किशोर को भागने के लिए कोई प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ेगा।
बाल मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि 10 से 18 वर्ष की आयु तैयार होने का चरण होती है। इन वर्षों के भीतर दिए गए अनुभव व संदेश बच्चे के व्यक्तित्व के विकास को तय करते हैं। इस लिए यह जरूरी है कि संस्था के द्वारा उपयोग से लाए जाने वाले तकनीक व माध्यमों के जाँच की जाए। इन कार्यक्रमों की जाँच यह होगी कि ये हस्तक्षेप बच्चे को अपराध की जिन्दगी से धकेलने वाली ताकतों से लड़ने में मदद करते है या नहीं और अपराध की प्रकृति को रोकते है या नहीं।
खास भूमिकाओं वाली संस्थाओं को किशोरों से व्यवहार करने के लिए स्थापित करना है जो किशोर न्याय व्यवस्था की यात्रा में उन्हें मदद दे।
किसी भी परिस्थिति में कोई भी किशोर पुलिस लॉक अप या जेल में नहीं रखा जाएगा। बाल कानूनों के लागू होने के बाद से किशोर विधानों की यही इच्छा रही हैं। बीसीए 1945 के अंतर्गत जवान अपराधियों को रखे जाने के लिए अलग व्यस्थाएं स्थापित की गई थी; जाँच के चलते वक्त उन्हें मान्यता प्राप्त केन्द्रों में रखा जाना था और अपराध साबित होने पर उन्हें वर्गीकृत केन्द्रों में रखा जाता था। किशोर न्याय अधिनियम 1986 और किशोर न्याय अधिनियम 2000 के लिए अलग अलग संस्थाएँ थी।
सुधार व पुनर्वास किशोर विधानों के मूल तत्व है। बजाय इसके कि बच्चे की सजा दी जाए, ऐसे अंत की और यह आवश्यक है कि किशोर को विशेष व्यवस्था में रखा जाए जहाँ उसका विकास सर्वाधिक मत्वपूर्ण हो। अगर वास्क अपराधी और किशोर एक साथ रखे और उत्पीड़ित किए जाने का खतरा है। पुलिस लॉकअप और जेल में रखे जाने वाले साथ पुलिस का कठोर व्यवहार किशोर की आयु के हिसाब से सही नहीं है और उससे उसे खतरा हो सकता है।
निगरानी गृह वह संस्था है जिसे किशोर न्याय बोर्ड से जाँच के दौरान कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों के अस्थायी रख रखाव के लिए स्थापित किया गया है।
कानून यह प्रावधान देता है कि राज्य सरकार या राज्य सरकार के साथ अनुबंध में किसी स्वयंसेवी संस्था द्वारा हर जिले में या जिलों के समूह में एक निगरानी गृह स्थापित किया जाए। स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा निगरानी गृहों की स्थापना की वकालत नहीं की जानी चाहिए। साथ ही स्वयंसेवी संस्थाओं को बंद रखे गए किशोरों के लिए लाभदायक सेवाओं को प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह बेहतर होगा की बोर्ड अपनी बैठकों निगरानी गृह में करें। इससे किशोरों के मामलों में फैसलों सुनाने में होनेवालों देरी को रोका जा सकता है क्योंकी जमानत पर नहीं छोड़ गए किशोरों की मौजूदगी सुनिश्चित होती है। वह बोर्ड के सामने पेशी के लिए पुलिस की दया पर निर्भर नहीं होता।
किशोर को निगरानी गृहों में उनकी आयु के हिसाब से अलग-अलग रखा जाना चाहिए; 7 से 12 वर्ष, 12 से 16 वर्ष और 16 से 18 वर्ष। यह अलगाव बड़े किशोरों को हाथों छोटे प्रताड़ित होने से बचाते और उनके प्रभाव से दूर रखने के लिए जरूरी है, जिन्होंने हिंसक अपराध किए हो सकते है यह अलगाव निगरानी गृह की स्वागत इकाई में किया जा सकता है जब किशोर को शुरूआत में आयु और शारीरिक व मानसिक स्तर के हिसाब से अलग अलग करने के लिए रखा जाता है। लड़कों और लड़कियों के लिए अगल अलग निगरानी गृह रखे जाने चाहिए।
“ निगरानी गृहों में बच्चों को लम्बे समय तक नहीं रखा जाना चाहिए और जब तक वे वहाँ है उन्हें व्यस्त रखना चाहिए और वह व्यस्तता निर्माणकारी होनी चाहिए जो जीवन के साथ उनका अनुकूलन करवाने और आत्मविश्वास और मानव गुणों के निखारने के ध्येय के साथ हो।”
यह उम्मीद की जाती है कि निगरानी गृह में जाँच के दौरान बहुत कम किशोर रखे जाएंगे क्योंकी ज्यादातर को जमानत पर रिहा कर दिया जाएगा। यह भी उम्मीद की जाती है। कि निगरानी गृह में रहने की अवधि कम से कम होगी क्योंकि जाँच को जल्द से जल्द खत्म करना है। दुर्भाग्य वश यथार्थ बहुत अलग है। निगरानी गृह बिल्कुल भरे हैं क्योंकी बहुत सारे किशोर जमानत के प्रावधानों का फायदा नहीं उठा सकते, मुख्यता: इस कारण से कि वे प्रवासी होते है जिनका कोई परिवार या आर्थिक सहयोग नहीं होता है इसलिए वे वकील नहीं ले सकते है या बोर्ड की संतुष्टि के लिए मुचलका नहीं भर सकते। इसके अलावा बोर्ड कभी - कभी ही कानून में दिए गए समय के भीतर मामले निपटा पाती है, और इसलिए किशोर लम्बे समय तक निगरानी गृह में पड़े रहते है। इसलिए यह अनिवार्य है कि किशोरों को निगरानी गृह में शैक्षणिक और व्यवसायिक प्रशिक्षण दिया जाए ताकि उनका वहाँ रहना पूरी तरह से व्यर्थ न जाए। राज्य सरकारों ने किशोर कानून के अंतर्गत अपने अपने नियमों में निगरानी गृह में रखे जाने वाले मानकों के बारे में प्रावधान दिए है और यह भी बताया है कि किशोर के पुनर्वास और सामाजिक रूकावट के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए। ज्यादातर गृहों में किशोर सिर्फ अपनी जाँच के खत्म होने का इंतजार करते है और उन्हें कोई भी जीवन शैली या व्यवसायिक या शैक्षिणक प्रशिक्षण से संबंधित क्षमता निर्माण के सहयोग नहीं दिए जाते। तो हमेशा जवाव यही होता है कि निगरानी गृहों में ऐसे कार्यक्रमों की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि कानून के अंतर्गत वहाँ किशोर के रहने की अवधि बहुत सीमित होती है।
यह आवश्यक है कि बीजिंग नियमों में दी गई स्वीकृतियों को याद रखा जाए:
13.1 पेशी के दौरान कैद को सिर्फ आखिरी विकल्प की तरह कम से कम अवधि के लिए रखा जाना चाहिए।
13.2 जब भी संभव हो पेशी के दौरान कैद को वैकल्पिक व्यवस्थाओं द्वारा बदला जाना चाहिए, जैसे कड़ी निगरानी, गंभीर देख रेख या पारिवारिक या शैक्षिणक व्यवस्था में रखा जाना।
“13.3 के अंतर्गत यह दिया गया है कि हिरासत के दौरान किशोर को देखरेख सुरक्षा और सभी व्यक्तिगत सहोयग सामाजिक, शैक्षणिक, व्यवसायिक, मनोवैज्ञानिक, चिकित्सकीय और शरीरिक दी जानी चाहिए जो उनकी आयु लिंग और व्यक्तित्व के नजरिए से उनके लिए आवश्यक हो।”
विशेष गृह की स्थापना “किशोर के स्वागत और पुनर्वास के लिए इस कानून के अंतर्गत कि जानी चाहिए।” जाँच पूरी होने पर यदि बोर्ड यह मानता है कि किशोर को संस्था में रखा जाना चाहिए तो उसे अपने सुधार के लिए विशेष गृह में रखा जाता है
राज्य सरकार को खुद या स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ अनुबंध में हर जिले या जिलों के समूह में विशेष गृह स्थापित करते हैं। 1986 के कानून के अनुसार सिर्फ राज्य सरकार ही विशेष गृह और निगरानी गृह स्थापित कर सकते थे। स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा इन केंद्र की संस्थाओं कि स्थापना व प्रबंधन का खुलकर विरोध हुआ क्योंकि बंद संस्थाओं में उत्पीड़न की संभावना काफी ज्यादा होती है और निजी संस्थाओं की जवाबदेही काफी कम होती है।
किशोर को कानों के अंतर्गत विशेष गृह में रखे जाने की अवधि तीन साल तक सीमित है। विशेष गृह में रहने के दौरान किशोर को शैक्षणिक और व्यवसायिक प्रशिक्षण उसकी क्षमता के हिसाब से मुहैया कर्यवा जाता है, साथ ही खेलकूद और सह शैक्षणिक गतिविधियों जैसे संगीत, चित्रकारी, पढ़ना, नाटक, योगा इत्यादि सुविधाएँ भी मुहैया करानी है। हर कैद किशोर को विशेष गृह में रहने के दौरान लाभ होना चाहिए क्योंकि अन्यथा उसकी कैद सजा में तबदील हो जाएगी और किशोर कानूनों का पूरा नहीं होगा।
इसके अलावा विशेष गृहों में या निगरानी गृहों में रहने के दौरान बच्चे को यह महसूस होना चाहिए कि उसने जो किया वह गलत था। सिर्फ शिक्षा या व्यवसायिक प्रशिक्षण से यह बदलाव नहीं आ सकता। संस्था में रहने के दौरान उसे निगरानी अधिकारी के निर्देश में होने चाहिए और कुछ मामलों में गहरे काउंसलिंग और साथ ही जीवन शैली के प्रशिक्षण मर रखा जाना चाहिए ताकि उसे बड़ी और बुरी दुनिया में आने वाली चुनौतियों का सामना करने में मदद मिले।
परवर्ती देख रेख संस्था उन कानों का उल्लंघन करने वाले किशोरों और देखरेख व सुरक्षा के जरूरतमन्द बच्चों की देख रेख, निगरानी व सुरक्षा के लिए हैं. जिन्होंने विशेष गृहों में और बाल गृहों में रहने की अवधि पार कर ली है। परवर्ती देखरेख माध्यम है पुनर्वास ध्येय।
“इन संस्थाओं का ध्येय होगा ऐसे बच्चों का समाज से अनुकूल और इनमें रहने का दौरान बच्चों को संस्था आधारित जीवन से हटकर आप जीवन के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।”
निगरानी अधिकारी किसर को परवर्ती देखरेख गृह में भेजेगा और ऐसी सुविधा में उसकी प्रगति को जंचेगा। चूंकि परवर्ती गृहों में किशोर का रहना आजादी की वकालत करता है और उसे संस्थागत सहयोग दुनिया का समान करने के लिए तैयार करता है, इसलिए कानून कहता है की इसकी अवधि 3 वर्षो से आधिक नहीं होनी चाहिए। किसी किशोर को उसके मर्जी के बगैर देखरेख कार्यक्रम में दाखिल नहीं करवाया जा सकता।
निगरानी गृह और विशेष गृह बंद संस्थाएँ होती है, इसलिए यह जरूरी है की उनके कार्य में स्पष्टता और जवाबदेही के लिए मानदंड बनाये जाएँ ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उनका प्रबंधन बुरा न हो और वहाँ किशोरों के साथ बुरा बर्तमान हो। 1986 के कानों में राज्य सरकार द्वारा तीन और अधिकारिक लोगों के दौरे के लिए इस कानून के अंतर्गत स्थापित संस्थाओं में भेजने का प्रावधान है; ये लोग समय समय पर गृहों का दौरा करेंगी और अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को देंगे। 1986 के कानून में चार प्रकार की संस्थाओं की स्थापना की जानी थी। किशोर गृह, विशेष गृहों में सिर्फ अपराधी किशोर रखे जाते थे, जबकि किशोर गृहों में अवहेलित बच्चे अपनी जाँच पूरी होने पर रखे जाते थे। निगरानी गृह और परवर्ती देख रेख गृह दोनों प्रकार के बच्चों को रखते थे। दोनों प्रकार के गृहों के लिए जांचकर्ता नियुक्त किये जाते थे ताकि दोनों प्रकार के बच्चों के लिए बनी सुविधाओं की जाँच हो सके। 2000 के कानून में जाँच कर्ताओं की जगह जाँच समिति ने ले ली जिन्हें राज्य, जिले व शहर के स्तर पर बनाया जाना चाहिए और केंद्र और राज्य सरकार द्वारा नियुक्त पक्षों को सामाजिक जाँच करनी चाहिए पर ये जाँच समिति व समाजिक जा जाँच सिर्फ बाल गृह के स्तर पर होना चाहिए न कि निगरानी गृहों और विशेष गृहों में 2000 के कानून के अंतर्गत, देखरेख व सुरक्षा के जरूरतमंद बच्चे बाल गृहों में रखे जाते है। अपनी जाँच के दौरान और इसके बाद अपनी देख रेख, शिक्षा, प्रशिक्षण, विकास व पुनर्वास के लिए आश्चर्यजनक ढंग से किशोर न्याय अधिनियम 2000 के अंतर्गत कानों का उल्लंघन करने वाले किशोरों के लिए बनी संस्थाओं के लिए ऐसी कोई भी जाँच या सामाजिक जाँच की जरूरी नहीं समझा गया है। यह एक चौकाऊँ बात है क्या हमारे कानूनविद यह मानते है कि किशोर अपराधियों को जो मिलता है वे उसके हक़दार हैं, यहाँ तक कि अगर यह भयानक उत्पीड़न हो तब भी। यह जरूरी है कि कानून में संशोधन किया जाए फॉर निगरानी गृहों, विशेष गृहों और परवर्ती देख रेख संस्थाओं को जाँच व सामाजिक जाँच के दायरे में लाया जाए।
किशोर नया अधिनियम 2000 में एक अध्याय जोड़ा गया है जो पुनर्वास व सामाजिक पुनर्जूड़ाव से निपटाता है, खासतौर पर वह बताने के लिए कि किशोर कानून सिर्फ संस्था में रखने को ही पुनर्वास का माध्यम नहीं बताता, अध्याय 4 में (1) गोद लेना, (2) फास्टर देख रेख, (3) प्रायोजकता और (4) किशोर को परवर्ती देखरेख संस्था में भेजने को पुनर्वास के विकल्पों की तरह देखा है है। पहले तीन विकल्प बच्चे को पारिवारिक माहौल में उसके सर्वांगीन वृद्धि के लिए रखने की बात करते हैं। पहले दो विकल्प कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों के लिए उचित नहीं हो सकते, पर तीसरे विकल्प को उन मामलों अपनाया जा सकता है जहाँ बच्चे को उसके परिवार में सुधार जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रयोजकता अपराध में जाने को रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
दाबिर व निगूद्कर, अपने अध्ययन, कानून का उल्लंघन करने वाले किशोर व किशोर न्याय (बच्चों की देख रेख व सुरक्षा) अधिनियम 2000 में बताते हैं कि प्रायोजकता एक पूरक सेवा है जो जरूरत मंद परिवारों को मुहैया करवाई जाती है। प्रायोजकता का ध्येय है विभीन्न प्रकार की सहायता जैसे बच्चों की शिक्षा व स्कूल के खर्चों के लिए आर्थिक मदद, चिकित्सकीय मदद, कांउसलिंग व परिवार के सदस्यों को कर्ज लेने व छोटे व्यवसाय खोलने में मदद के जरूरी परिवारों तक पहूँचाना। इसलिए प्रायोजकता किसी बच्चे को अपने परिवार के साथ रहने देती है, और गोद लेते व फास्टर देखरेख के साथ एक और महत्वपूर्ण तरीका है संस्था में बच्चों को मुश्किल स्थितियों में रखने से रोकने का।
किसी संस्था को चलाने के प्रबंधकीय खर्चे बहुत बड़े होते है। प्रायोजकता इन खर्चों की रोकती है इसलिए इसे एक आकर्षक विकल्प माना जाना चाहिए। भारत में इसे नहीं अपनाया गया है क्योंकी राज्य का नजरिया संदेहास्पद है। राज्य सरकार मानती है कि यदि परिवारों से आर्थिक सहायता दी गई तो वे इसका गलत फायदा उठाएंगे और इससे बच्चे को कोई मदद नहीं मिलेगी। इस नजरिए को उन लोगों द्वारा गलत बताया गया है जो यह मानते है की माता पिता बच्चों को जरूरतों को पूरा करने के लिए खर्च किए जाएंगे अपने संदेह की दूरी के लिए राज्य सरकार ऐसी व्यवस्था कर सकते है जिससे इस प्रकार के विलिय सहयोग, जो की परिवारों को प्रायोजकता द्वारा दी गई है, की जांच हो सके।
देख रेख व सुरक्षा के जरूरतमंद बच्चों के लिए कुछ प्रायोजकता की योजनाएँ बनाई गई है। प्रायोजकता की योजनाओं को कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों तक पहूँचाना चाहिए क्योंकि ये उनके पुनर्वास में मदद करेगी, विशेष तौर पर तब जब भी आंकड़े यह बताते है कि ज्यादातर किशोर अपराधी निम्न आय समूहों से होते है। भारत में अपराध 2001, 33626 गिरफ्त किए गए किशोरों के पारिवारिक साथ के बारे में बताते है। 33520 किशोर अपराधी ऐसे परिवारों से है जिनको वार्षिक आय 20,000 से कम थी। 5325 ऐसे परिवारों से जिनकी आय 25,000 रूपए से 50,000 के बीच थी 4082 ऐसे परिवारों से जिनकी वार्षिक आय 50,000 से 1,00000 के बीच थी। 569 ऐसे परिवारों से जिनकी वार्षिक आय, 1,00000 से 2,00000 के बीच थी। 150 ऐसे परिवारों से जिनकी वार्षिक आय 2,00000 से 3,00000 के बीच थे। और 82 ऐसे परिवारों से जिनकी वार्षिक आय 3,00000 से अधिक थी। इसके अतिरिक्त 78 98 निरक्षर थे, और सिर्फ 15943 ने प्राथमिक स्कूल में पढ़ाई की थी।
प्रायोजकता का ध्येय है बच्चों को उनके स्वाभाविक परिवेश से हराकर संस्थाओं में रखे जाने के रोकना और साथ ही यह सुनिश्चित करना की उनकी बुनियादी जरूरतें पूरी हो। यदि माता पिता या अभिभावक आर्थिक सीमाओं के वजह से बच्चों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में अक्षम हों तो यह जरूरी है कि राज्य हस्तक्षेप करे ताकि बच्चे के विकास में उसे अपने पारिवारिक प्रेम और सुविधाओं और सुरक्षा से हटाए बिना, कोई बाधा न पैदा हो।
किशोर न्याय अधिनियम 2000 के लेखकों ने बना समझे इस विचार को मोड़कर प्रायोजकता को वित्तीय सहयोग देने वाली संस्थाओं की कार्यक्रम में तबदील कर दिया है।
“43 प्रायोजकता (1) प्रायोजकता कार्यक्रम परिवारों, बालगृहों और विशेष गृह को चिकित्सकीय, स्वास्थकारी, शैक्षणिक एवं बच्चे को अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए पूरक सहायता दे सकता है जिसका नजरिया उनके जीवन के स्तर को सुधारना हो।
अक्सर सरकारी व्यवस्थाए यह कहते हुए पाई जाती हैं की प्रायोजकता निजी पक्षों द्वारा हर बच्चे को संता में वित्तीय सहयोग देना है, अर्थात संस्था में रहने वाले बच्चे की बेहतरी के लिए निजी वित्त दान। हर महीने 500 रू. दें और एक बच्चे को गोद लें। संस्था यह सुनिश्चित करती है की वह साल में एक बार आपको बच्चे की मूस्कूराती तस्वीर उसी के द्वारा बनाए गए कार्ड के साथ भेजे। यह प्रायोजकता व उसके महत्व का पूरी तरह से गलत चित्रण है। ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि यह सहयोग परिवरों को मिले ताकि बच्चों को सुधार व पुनर्वास को धोखे में अपने माता-पिता से अलग न किया जाए। मानक नियमों के अंतर्गत, राज्य सरकारों को खतरे में जो रहे बच्चों व परिवारों की पहचान करनी है वे बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ, पोषण व अन्य विकास की जरूरतों के लिए जरूरी सहयोग प्रायोजकता के रूप में मुहैया कराना है।”
मेने वारिंगटन स्टैफोट शायर, इंगलैंड में किशोर दंड गृह में 2004 की गर्मियों में दौरा किया। यह बहुत अच्छा अनुभव था मैंने कीली वारिंगटन के लिए बस ली। चालक बहुत आश्चर्यचकित था जब मैंने उसे दंड गृह से सबसे पास के बस स्टॉप पे मुझे उतारने को कहा। वारिंगटन पहुँचने तक जब खाली हो चुकी थी। अब उसमें सिर्फ मई और एक उम्रदराज महिला बैठी थी। 2 बजे दोपहर में एक शांत गाँव में उस महिला के पीछे वारिंगटन के बस स्टॉप उतरने लगी बस चालक ने मुझे यह नखते हुए रोका की मेरी मंजिल अभी तक नहीं आई है। मैंने घरों और खेतों को पार होते हुए देखा। मुझे बस चालक द्वारा बताया गया की वारिंगटन में बहुत कम जनसंख्या रहती है और जिस संस्था में मैं जा रही हूँ वह गाँव के अंतिम छोर पर है। बस रुकी और मुझे बताया गया कि मेरी मंजिल आ गई है और मुझे सड़क की बाई ओर आगे बढ़ जाना चाहिए और मुझे रास्ते की बाई और हरे घास वाले मैदान के अलावा और कुछ नहीं दिख रहा था मैं उतरी और मैंने बस को वापस जाते हुए देखा। अब सिर्फ मैं और घास का जंगल और हवा ही थे मैं घास के मैदान पार करते हुए आगे बढ़ी और मुझे अचानक एक ऊँची भुरी दिवार दिखी जिस पर कांटे की तारें लगी थी। इससे मुझे कड़ी सुरक्षा वाले अमेरिकी जेलों की याद आ गई जिन्हें मैंने हालीवुड की फिल्म में देखा था। कुछ देर रूक कर मैं आगे बढ़ी यह देखने के लिए इन ऊँची दीवारों के भीतर क्या है 10 मिनट बाद मैं गेट तक पहुंची जो की लोहे का बड़ा दरवाजा था। कोई भी व्यक्ति लोहे के दरवाजे के बाहर नहीं खड़ा था दरअसल बस छोड़ने के बाद से मुझे कोई भी व्यक्ति नहीं मिला था। मैं अपने भेंट के समय से पहले पहुँच गई थी यह बैंच ठंडी थी जिससे मैं भी ठंडी हो गई थी। 3 बजे तक हवा तेज हो गई थी 3 बजे मैं बेंच से उठी और लोहे के दरवाजे तक वापस गई। इस बार मैंने घंटी दबाई और इंजर किया 1 मिनट ....... 2 मिनट........ 3 मिनट.......... 4 मिनट.......और फिर दरवाजे के ऊपरी हिस्से से एक छोटा सा झरोखा खुला। मैं उस चेहरे का सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा देख पा रही थी जिसने मुझसे पुछा कि ये किससे मिलने आई हूँ मैंने खुद को बुलाने वाले का नाम लिया। खुला हिस्सा फिरसे से बांध हो गया और मैं अकेले हो गई। 1 मिनट........ 2 मिनट....... 3 मिनट........ 4 मिनट......... 5 मिनट ....... 6 मिनट ........ क्या मैं वापस चली जाऊं। ऊपरी हिस्सा फिर से खुला फिरसे उसी या किसी दूसरे चेहरे ने मुझसे पुछा मैंने बताया उसने फिर से पुछा मैंने फिर बताया मैं कितनी उम्मीद कर रही थी कि मेरा नाम ऐन या जेन होता तो शायद मुझे जल्दी अंदर जाने को मिलता। खुला हिस्सा फिर से बंद हो गया।
एक मिनट बाद घड़घड़ाती आवाज के साथ दरवाजा खुला वह व्यक्ति लंबा, तगड़ा और वर्दीधारी या चौकीदार उसके कुछ फिर की दूरी पर एक और लोहे का दरवाजा था और इसकी बाई ओर एक शीशे का कमरा था जिसमें कई वर्दीधारी पुरूष व महिला चौकिदार बैठे थे मुझे इंतजार करें को कहा गया और वह चौकीदार दूसरों के पास चला गया। 1 मिनट ........... 2 मिनट...........3 मिनट......... 4 मिनट....... कब यह खत्म हो और मैं वापस मानव संपता से पहुँचू फिर दूसरा फिर लोगे का दरवाजा खूया और मुझे आमंत्रित करने वाले का एक मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखा। उसने मुझे अपने पीछे चलने को कहा एक बड़े से चाबी के गुछे के साथ हम दरवाजा- दर दरवाजा पार करते गए तीसरा लोहे का दरवाजा - चौथा लोहे का दरवाजा असंख्या लोग्हे के दरवाजों को पार करते हुए जब उसने बाएँ मुड़कर एक और लोहे के दरवाजा खोला तो हम उसके दफ्तर में पहुंचे। मैं उसके सामने की कुर्सी में धस गई मुझे समझ में नहीं आर रहा था कि मैं क्यों कहूं। वो शायद इस बार पर शक कर रहा था कि मैनें झिझकते हुए उससे लड़कों के बारे में पुछा उसके कहा कि वो मुझे वापस उन्हीं दरवाजों से ले जाएगा पर बाई और मैंने एक और लोहे का दरवाजा देखा जिसका ऊपरी हिस्से में जंगले लगे थे जिसमें चार वर्दीधारी बच्चे जिनको उम्र 16 से 18 के बीच होगी, कुर्सियों में बैठकर किताबें या मैगजीन अपनी गोद में रखे दीवारों को धूर रहे थे जबकि उनसे ज्यादा संख्या में वर्दीधारी पुरूष गार्ड उन्हें घूर रहे थे। फिर कुछ लोहे के दरवाजों के पार करते हुए हम अचानक एक खुले आंगन में पहुंचे। आँगन के दोनों और हरी से अलग किए गए छोटे छोटे कुवेर थे काफी सफ़ेद रंग में पेंट थे और उनकी खिड़कियाँ जंगलों सहित प्यारे पर्दों से ढकी थी यह आवासीय क्वाटर थे। मुझे बताया गया कि हर किशोर का का अपना कमरा है। दिन का एक हिस्सा शैक्षणिक, गतिविधियों में जाता है। बाकी का दिन या तो जिम में या पढ़ाई के कमरे में बिताया जाता है और फिर सब अपने अपने कमरे में लौट जाते है। हर कमरे में एक बिस्तर, एक अलमारी और एक डेस्क, और एक कुर्सी थी। खाने के व्द्क्त खाना एक ट्रे से उनके कमरों के बाहर रख दिया जाता है। उनकी जिन्दगी बंदिश में थी। आंगन के एक किनारे से एक पतला रास्ता निकलता था यह रास्ता यह सुनिश्चित करने के लिए बना की कोई भी लड़का दूसरे के साथ न चले सके। जब लड़के अपने कमरे से क्लास रूम या वर्कशॉप की तरफ जाते थे तो उनके साथ होने वाले जोर से रास्ते पर चिल्लाते थे और सारे लड़के एक सीधी लाइन में उस पतले रास्ते से चले जाते थी। क्लास रूम के भीतर और बाहर बात करना मना था वारिंगटन में कोई लाड दुलार वाला व्यवहार नहीं होता तथा उनका मानना था की दरेड ही सही सबक सिखाता है। या फिर यह राज्य का तरीका तथा समाज के बदले को निकालने का। यह दिखाकर कि बच्चे जो गंभीर अपराध करते है उनके साथ लड़ाई से पेश आया जाता है। आज सुधार व पुनर्वास पिछली सीट पर रखर कर बदले व तकलीफ को सिर्फ वयस्कों ही नहीं बच्चों को भी सुधारने का तरीका माना जाता है।
सभी किशोर न्याय व्यवस्थाएं किशोर कल्याण के सिधांत पर आधारित होती है, पर इस कल्याण को कैसे लाया जाए इसमें फर्क है। क्या कोई आत्मविश्वास से ये कह सकता है कि विश्व के विभिन्न हिस्सों में बच्चों के लिए किशोर न्याय व्यवस्थाओं के अंतर्गत जो व्यवहार तय किएगे है वे सभी बच्चों को सर्वोपरी हित में है। या फिर क्या यह समाज के सर्वोपरी हित में है कि जिस बच्चे ने कोई गंभीर अपराध किया जो उसे संस्था में डाल दिया जाए ताकि उससे समाज को खतरा ना हो। क्या वारिंगटन में दिया जाने वाले व्यवहार बच्चों को अपनी रिहाई के बाद समाज में घुलने मिले देता है या वह हमेशा सीमा पर ही रहता है और सामाजिक व्यवस्था में सामाजिक और आर्थिक सुविधाओं के हासिल करने में अयोग्य रज जाता है।
मुझे आमंत्रित करने वाले को हिन्दुस्तान में कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों की समस्याओं का कोई जवाब नहीं सुना। उम्र की जाँच इतनी मुश्किल क्यों? कोई भी जाँच 4 महीने से अधिक वक्त क्यूं लेती है एक ही कमरे में 50 लड़के क्यूं सोते है? हालाँकि उन्होंने यह स्वीकार किया की उनकी व्यवस्था किशोर को पूरी तरह से गैर सामाजिक बना देती है। मैं डोंगरी मुम्बई के अपने निगरानी गृह में पहुंच कर आराम से हूँ। मैं उस लकड़ी के दरवाजे से अंदर झांकती हूँ, जिसके बाहर हरी पेंट व लाल चेकदार शर्ट में अटेंडेंट खड़ा है, अंदर आंगन में कुछ लड़के नीले कपड़ों में दौड़ रह है जबकि कुछ और आपस में बात कर रहे थे। कुछ और बच्चे क्लास रूम के भीतर रूम के भीतर शिक्षक की बात सुनने के बजाए आपस में बात करे रहे थे सभी बाल सुलभ चीजें कर कर रहे थे। किशोर न्याय व्यवस्था से संपर्क उनको ईमानदार, मेहनती और उपयोगी जीवन जीने में मदद करती है या नहीं यह देश के संस्थागत देखरेख पर निर्भर करता है। मैं कह नहीं सकता हाँ पर मैं इतना जरूर कह सकती हूँ कि ये दोनों दो अलग अलग दर्शाना है के ही मंजिल को पाने के, दिए गए सामाहिक ढांचों में, बच्चे को सुधारने और बनाने के।
स्रोत : चाइल्ड लाइन इंडिया, फाउन्डेशन
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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