उराँव जनजातियों की आर्थिक व्यवस्था को समझने के लिए उनकी संस्कृति परिवेश को समझना आवश्यक है, प्रत्येक जनजातियों के समुदाय अपने सदस्यों को अस्तित्व कायम रखने के लिए उनकी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति अपने – अपने तरीके से करता है। उराँव जनजाति भी उन्हीं में से एक है, जो अपने समुदाय के लोगों को अपने अनुसार अपनी आर्थिक आवश्यकताओं को पूर्ण करती है।
जैसा की हमलोग जानते हैं प्रकृति, जो उनकी प्रथा, परंपरा एवं अन्य आवश्यक दिन - प्रतिदिन की कार्यशैली के गठन पर निर्भर करती है। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होती है। साधारणतया यह कहा जाता है कि लगभग प्रत्येक परिस्थिति में जनजातियों के बीच मिश्रित अर्थव्यवस्था है। भारत की जनजातियों को किसी भी परिस्थिति में एक विशेष वर्ग की अर्थव्यवस्था के अंदर नहीं रखा जा सकता है। एक जनजाति के लोग अपने जीवन – यापन के लिए एवं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उनके साधनों का उपयोग करते हैं। वे जंगलों में पैदा होने वाली अनेक प्रकार की वस्तुओं के समूह को कृषि या स्थानांतर कृषि के साथ सममिश्रित करते हैं और इसी प्रकार से वे अपने दैनिक जीवन को चलाते हैं।
उराँव जनजाति की आर्थिक स्थिति भी भारत के अन्य जनजातियों की तरह ही है। पर इन लोगों ने समतल भूमि पर अपना निवास (गाँव) बसा लिया है और कृषि को अपना मुख्य पेशा मान लिया है। फिर भी उनकी खेती – बारी का साधन उतना उन्नत नहीं होने के कारण वे फलों, कंद मूलों तथा औद्योगिक श्रमिक वर्ग आदि में काम करते हुए कुशल एवं सफ़ेद – पाश नौकरी आदि से मुद्रा प्राप्त कर अपनी आर्थिक स्थिति को अन्य जनजातियों से उन्नत बनाने के काम में अग्रसर हैं।
उराँव गाँवों में रहते है और कृषि करते है मगर जब कृषि का कार्य समाप्त होता है तो वे अन्यत्र काम ढूँढने के लिए आसाम, कलकता के आस – पास औद्योगिक शहरों में चले जाते हैं। दुबारा कृषि प्रारंभ होने के बाद ये अपने गाँव वापस आते हैं। कृषि कार्य में निपुण और विकसित होने के नाते ये अपने खेतों पर अथक परिश्रम करते हैं। उनके यहाँ कृषि लायक जमीन दो प्रकार की होती है। एक तो अपेक्षाकृत निचली और अधिक उपजाऊ जिसको क्रमश: दोन के नाम से जानते हैं और दूसरी ऊँची तथा कम उपजाऊ जिसकों टांड के नाम से जानते हैं। उराँव अन्य जनजातियों की तुलना में अधिक उन्नत होने के नाते निरंतर परिश्रम एवं अनुभव तथा शेष बाहरी व्यक्तियों के सम्पर्क एवं अनुकरण के कारण खेती में बहुत सफल हैं। ये लोग खेती में खाद के प्रयोग से भी भली – भांति परिचित हैं। इस क्षेत्र में इसाई समुदाय का बहुत बड़ा हाथ रहा है। क्योंकि ईसाईयों द्वारा सूदूर जंगली पठारी इलाकों में भी शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार के लिए स्कूल खोल – खोल कर उन अनपढ़ जनजातियों को शिक्षित बनाया गया। शिक्षा एवं संपर्क से इन लोगों ने विकास के साधनों को अपेक्षाकृत जल्दी और लाभ पूर्ण ढंग से अपनाया। उराँव कृषिक अपने खेतों में सिंचाई का उचित प्रबंध करते हैं। ढालू जमीनों में बड़ी सीढ़ी के आकार में खेत बना कर सामने (आड़) लगाकर उपर से नीचे की ओर धीरे – धीरे पानी आने देते हैं। इस प्रकार सिंचाई भी होती है तथा उपर की मिट्टी भी बहकर नीचे आने नहीं पाती है। उराँव जनजाति के कृषि उपकरणों में लोहे के फाल वाले हल, ढेला फोड़ने के लिए फावड़ा, खुरपी, कुदाली, हंसिया आदि प्रमुख हैं। इनकी मुख्य उपज धान, बाजरा, कुरथी, सुरगुजा, उरद आदि है।
उराँव अपनी उपज स्थानीय बाजारों में बेचते हैं बदले में अन्य आवश्यक वस्तुयें कपड़ा, नमक, शक्कर, गुड, मिट्टी का तेल, खेती के लिए फाल एवं अपने शरीर को संवारने के लिए आभूषण आदि खरीदते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि उन्नत खेती करने के कारण इनका सामान्य जीवन बिहार की अन्य जनजातियों के जीवन स्तर पर अपेक्षाकृत उन्नत हैं ये परिश्रम से नहीं डरतें जिसके चलते कृषि के समाप्त होते ही ये अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में अस्थायी नौकरी करने चले जाते हैं। चावल की बनी शराब जो हड़िया के नाम से जानी जाती है। इनका अत्यंत प्रिय पदार्थ है।
जनजातीय क्षेत्रों के समस्या देश के अन्य जातियों की समस्या से बिलकूल भिन्न है, परन्तु उच्च पदाधिकारी जो योजना आयोग के सलाहकार होते हैं इन तथ्यों को समझ नहीं सके और सभी के इए समानांतर योजनाएं बनायी गयी जिस कारण धन का उपयोग समस्या के अनुरूप नहीं हो सका। बाद में मानव शास्त्री, समाज – शास्त्री आदि क्षेत्रीय विशेषज्ञों ने आदिवासी क्षेत्र के अनुरूप, उनके आर्थिक स्तर के अनुरूप योजना बनाने का सुझाव सरकार को दिया। इन लोगों ने सरकार को सुझाया जैसे बिहार में जो कल्याण योजना मुंडा, उराँव के लिए हो सकता है। वही बिरहोर के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता है। अत: जनजातीय क्षेत्र में कल्याण कार्य के लिए योजना बनाने एवं उसे लागू करने के लिए तीन स्तरीय परियोजना लागू करने का सुझाव दिया गया जैसे वृहत स्तर, मध्य स्तर तथा निम्न स्तर।
आज संसार के अनेकों देशों में रहने वाले जनजातियों के बारे में उनके राष्ट्रों ने इनके लिए कल्याण के बहुत सारे चेष्टाएँ की और साथ ही साथ इन जनजातियों की आर्थिक एवं शैक्षणिक उन्नति के बहुत सारी नयी – नयी योजनाओं का निरूपण हो रहा है। भारत एक बड़ा देश है एवं यहाँ की जनसंख्या अस्सी करोड़ से भी ऊपर है। यहाँ भी इन जनजातियों के बहुमुखी विकास हेतु केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार उनको अन्य उन्नत समाज के समकक्ष लाने की अथक प्रयास कर रहीं है। जिसके तहत विभिन्न प्रकार के कल्याणकारी योजनाएं इनके बीच कार्यरत हैं। जैसे सामुदायिक विकास योजना, जनजातीय सहयोग समिति, ग्रेन गोला, गाय पालने हेतु बैंक से कर रहित ऋण, सूअर पालने वास्ते, छोटे – मोटे उद्योग धंधा हेतु, अपने खेतों पर सिंचाई की व्यवस्था हेतु बैंकों से पानी मशीन, इनके खेतों में अच्छी फसल के लिए प्रखंड कार्यालय द्वारा मुफ्त में खाद – बीज आदि। परंतु योजना बनाते समय कुछ खास पहलुओं पर इसलिए भी ध्यान देना चाहिए कारण कि जनजातियों की केवल एक ही समस्या नहीं है उनकी अलग - अलग समस्याएँ हैं। जैसे कुछ जनजातियाँ ऐसी हैं जिन्हें सबसे पीला आर्थिक सहायता की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए बिहार में बसने वाली बिरहोर जनजाति। यह जनजाति आजादी के चालीस वर्ष बाद भी कबिले की जीवन व्यतीत करती हैं। इस समुदाय के लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जंगलों पर ही आश्रित हैं। ये जब तक जंगल से मधुमक्खी, शिकार कर जंगली जानवरों को नहीं पकड़ते, जंगल से रस्सी नहीं बनाते, ओर आस – पास के गाँव में आकर नहीं बेचते, इन्हें कुछ भी खाने को नहीं मिलता। अत: इस जनजाति के लिए बहुत ही जरूरी है कि इनको आर्थिक सहायता पहले प्राप्त हो।
कुछ जनजातियाँ ऐसे जगहों पर वास करती है जहाँ शिक्षा का प्रभाव अभी तक नहीं पहुँचा है। अत: ऐसे क्षेत्रों में सबसे पहले स्कूल की व्यवस्था करना। कूच ऐसे भी जनजाति (काबिले) समूह हैं जिनके लिए आर्थिक और शिक्षा दोनों आवश्यक हैं। योजना तैयार करने के पहले उपर्युक्त बातों राज्य के सरकारों को भी विशेष ध्यान देना होगा कि यहाँ बसने वाली जनजातियों में कौन – कौन सी प्रमुख समस्याएँ हैं उन्हें वे किस से दूर करने में सफल हो हैं। साथ ही कौन सी समस्या सर्वाधिक है और कौन सी थोड़ा कम।
बड़े खेद के लिखना पड़ रहा है कि इस छोटानागपुर के पठार में बसने वाली कुछ प्रसिद्ध जनजातियाँ उराँव, मुंडा, संथाल, हो और विरहोर पहाड़ी खड़िया दो ऐसे जनजाति हैं जिनके जीवन का अधिकांश समय भोजन की खोज में व्यतीत होता है इनका न तो स्थायी घर है और न ही कोई स्थायी पेशा। ये लोग साधारणत: पहाड़ियां की खंडहर में या जंगलों में रहा करते हैं। तब तक उस जगह पर रहते हैं जब तक उनकी खाद्य सामग्रियां समाप्त प्राय होती है तो वे दूसरे क्षेत्र में चले जाते हैं। इस प्रकार यह बात स्पष्ट होती है कि उन्हें उन्नत और शिक्षित बनाने के लिए सबसे पहले समतल जगह पर स्थायी घर बना कर और एक ऐसा धंधा देना होगा जिससे कि उनका अपना मन भी लगे और सरकार द्वारा बनाये गए घरों पर रहे। वर्तमान बिहार सरकार ने इस ओर काफी ध्यान दिया है। जिसके चलते प्रत्येक जिले के कई एक प्रखंड में इन जातियों के लिए कॉलोनी का निर्माण हुआ है और उन्हें अन्य उन्नत जनजातियों की तरह ही उन्नत बनाने का प्रयास जारी है।
ठीक इनके विपरीत उराँव जनजाति है जो भौतिक एवं संस्कृति दृष्टि से अधिक उन्नत है। ये स्थाई कृषि करते हैं, इनके पास अपना घर – द्वार है, कृषि और घर के अन्य छोटे धंधों पर ये निर्भर करते हैं। उराँव जनजाति के पास मुंडा और संथाल की भाषा से भिन्न भाषा है। तथापि संस्कृतिक उन्नति के दृष्टिकोण से सबसे सभ्य हैं। फिर भी हमें इनके कल्याण एवं उन्नति के साधन सोचने से पूर्व इनके आर्थिक स्थिति की ओर ध्यान देना जरूरी है। यह सभी जानते हैं कि ये जनजातियाँ सैंकड़ों वर्षों से दरिद्रता की गोद में पलते आये हैं। दरिद्रता और अशिक्षा ने इनको पूरी तरह से जकड़ रखा है। याज सभ्य समाज के आँखों के आगे दर्पण जैसा दिखाई पड़ता है की जनजातियों का जमीन छीन ली गयी है। जिनकी जनसंख्या तो बढ़ती चली जा रही है। दरिद्रता एवं भूख इन्हें इस कद्र विवश कर देती है कि ये अपनी जमीन – जायदाद छोड़ शहरों के औद्योगिक नगरों में चले गये हैं। मुझे सौभाग्य प्राप्त है अंडमान और निकोवार द्वीप जाने का। वहां भी ये उराँव जनजातियाँ काम के खोज एवं इस जटिल दुनिया से अलग रहने के लिए काफी संख्या में बसे हुए हैं। आज अंडमान और निकोवार में उराँव परिश्रम के क्षेत्र में एक अलग छाप बनाये हुए हैं। इनका एक अलग द्वीप है। वे वहां किसी तरह से जी रहे हैं कारण इनकी आर्थिक दशा बहुत ही बिगड़ी हुई है। इनको उन्नत बनाने के लिए यह बहुत जरूरी है कि हम उनको खेती लायक भूमि प्रदान करें। उन्हें खेती – बारी के तरीके बताएं क्योंकि उराँव कृषि काम में काफी दक्षता प्राप्त किए हुए हैं। अत: इन्हें कृषि के नये – नये तरीकों से अवगत कराया जाए। तो निश्चित रूप से ये अच्छी तरह से फसल उगायेंगे और अपनी आर्थिक स्थिति सुधार सकते हैं।
उराँव की आर्थिक स्थिति को सुधारने के साथ ही साथ उनकी सांस्कृतिक उन्नति की भी चेष्टा की जानी चाहिए। हमें इस बात की चेष्टा करनी चाहिए कि उनके साहित्य और संस्कृति को उन्नत बनाएं। इसको बढ़ावा तभी दे सकते हैं। जब हम उनके भाषा में, उनके लिपि कहानियां छपवाएँ। इस ओर राज्य सरकार का कदम बढ़ रहा है। इस संबंध में भारत सरकार एवं भारत सरकार अपने में रहने वाली जनजातियों के लिए एक - एक संस्कृतिक बोर्ड की स्थापना करके एक बहुत बड़ा कार्य किया। इस योजना (बोर्ड) के द्वारा अधिकांश पुस्तकों को विभिन्न भाषाओँ में छपवाया गया है। सरकार इस कार्य के लिए काफी धन खर्च कर रही है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए की भूतल में सदैव परिवर्तन होता रहता है। वर्तमान समय में विज्ञान के अविष्कारों में दस परिवर्तन की गति को और अधिक तेज कर दिया। छोटानागपुर के जनजातियों में यह परिवर्तन देखने को मिलती है। आज से 50 वर्ष पूर्व इनकी स्थिति और आज की स्थिति में काफी अंतर आया है। उनके जीवन रहन - सहन और पालन – पोषण के तरीकों में काफी परिवर्तन आये हैं। धीरे – धीरे जनजातियाँ भी भारत की अन्य जातियों की तरह भारत के एक अंग बन जायेंगे।
परिवर्तन के रूप सही मायने में पंचवर्षीय योजनाओं के प्रभाव रूप में जनजातियों के जीवन पर पड़ा है। विशेष कर सामुदायिक योजनाओं का असर दूसरे गाँव के समान जनजातीय गांवों पर भी पड़ा है। आज प्रत्येक गाँव में दूसरे गाँव जाने के लिए रास्ता है, प्रत्येक गाँव में शिक्षा के प्रचार हेतु स्कूल की व्यवस्था है, प्रत्येक गाँव में एक न एक पानी पीने का पक्का कुआँ है, प्रत्येक गाँव में पंचायत कार्यलय का एक सदस्य होना जरूरी है। अभी यदि आप गाँव – गाँव का सर्वेक्षण करेंगे तो प्रत्येक गाँव में पढ़े – लिखे लड़के मिलेंगे। सबसे बड़ी उपलब्धी तो यह है कि वर्तमान समय में प्रत्येक गाँव में बिजली का खंभा अवश्य पहुँच गया, मगर दु:ख की बात भी है की रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई है।
स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/25/2020
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