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सौरिया पहाड़िया

परिचय

सौरिया पहाड़िया जाति की दो प्रमुख शाखाओं में से एक है। दोनों पहाड़िया शाखाओं की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक प्रथाएँ मान्यताएं एक दुसरे से भिन्न हैं। इन दोनों के बीच बैवाहिक संबंध भी नहीं होते हैं। सौरिया पहाड़िया को मलेर भी कहा जाता है। ये लोग अपने आप को असल पहाड़िया भी कहलाना पसंद करते हैं। ये लोग गोमांस का भक्षण करते हैं। जबकि माल पहाड़िया गोमांस को निषिद्ध मानते हैं। माल पहाड़िया सौरिया द्वारा गोमांस खाने की वजह से उन्हें अपवित्र करार देते हैं। माल पहाड़िया सौरिया के यहाँ बना भोजन नहीं करते हैं।

एतिहासिक पृष्ठभूमि

1938 में विद्वान ओ – मेले के मंतव्य के मुताबिक मलेर या सौरिया पहाड़िया का वास्तविक निवास स्थान कर्नाटक था। उराँव जाति की परंपरा के आधार पर यह दर्ज किया गया है कि मलेर या सौरिया पहाड़िया कर्नाटक से देशांतरण (प्रवास) का बिहार से सोन नदी के किनारे आ बसे जहाँ से उन्हें मुसलमानों ने खदेड़ दिया। इसी समय ये लोग दो भागों में बंट गए। इनमें से एक भाग छोटानागपुर के पठार में आ बसा जहाँ ये उराँव के नाम से जाने लगे। इनकी दूसरी शाखा संताल परगना के राजमहल क्षेत्र में बंट गई वहीँ अपना निवास बनाया, ये लोग ही मलेर या सौरिया पहाड़िया के पूर्वज माने जाते हैं।

मुगल शासन काल में सौरिया पहाड़िया को मंसबदारों के नियंत्रण में रखा गया। ये उस समय विद्रोह कर उठे जब इसके प्रमुख मारे गए।  विद्रोह के बाद इन्हें ऊपरी किनारे से भागना पड़ा। 1770 के भीषण अकाल के परिणाम स्वरुप पहाड़ियों पर रहने वाले इन लोगों ने आस – पास के मैदानी इलाके के गांवों में उत्पात मचाना शुरू किया। इनकी गतिविधियों से बाध्य होकर ब्रिटिश शासकों ने इस ओर ध्यान दिया तथा सौरिया पहाड़ियों के मामले में दखलंदाजी शुरू की गई। लार्ड वारेन के निर्देश पर पहले कैप्टन ब्रूक फिर बाद में 1778 में अगस्त क्लेवलैंड, 1818 में सूथरलैंड और अंतत: 1824 ने जे. पी. वार्ड के प्रयासों से मलेर या सौरिया पहाड़िया को ब्रिटिश शासन के अधीन कानून का पालन करने का पालन करने वालों की तरह लाया सका। पहाड़िया सरदारों और नायबों की 1300 की एक सेना तैयार की गई जो तीन धनुषों से लैस थे। इन्हें एक पहाड़िया सेनानायक के अधीन रखा गया जो एक समय कुख्यात डाकू था।

निवास स्थान

सौरिया पहाड़ियों की अधिकांश जनसंख्या अब संताल परगना के गोड्डा जिले तथा साहेबगंज जिले के राजमहल और पाकुड़ सब डिविजनों पाई जाती है। इनकी कुछ आबादी सिंहभूम जिले में तथा कुछ उत्तर बिहार के पूर्णिया जिले में पाई जाती है। 1941 की जनगणना के मुताबिक बिहार सौरिया पहाड़िया की जनसंख्या 58,654 थी। (लेकिन 1955 में पश्चिम बंगाल को कुछ क्षेत्र हस्तांरित किए जाने के बाद उपरोक्त आंकड़ें संशोधित किया गया।) जब कि 1981 की जनगणना में इनकी संख्या 39,269 दर्ज की गई। यह संख्या 40 वर्षों में इनकी आबादी में 33 प्रतिशत गिरावट दर्शाती है। लेकिन इस आंकड़े की सत्यता संदिग्ध लगती क्योंकि 1961 और 1971 की जनगणना में भी 1981 की तुलना में इनकी जनसंख्या अधिक दर्ज की गई थी।

सौरिया पहाड़िया आज भी जंगलों में पहाड़ियों पर निवास करते हैं। इनके एक गाँव में 40 से 80  तक झोपड़ियों होती हैं। ये अपनी झोपड़ियाँ पहाड़ी ढलानों पर बनाते हैं। इनके आवास एक कतार में एक दुसरे के समानांतर होते हैं। उत्तर – दक्षिण दिशा की ओर रूख करते बने हुए इनके घर त्रिकोणीय होते हैं जिसमें एक कमरा बहुउद्देशीय होता है। इनके आवासों को अड्डा कहा जाता है। इनके घरों में आमतौर पर एक से अधिक दरवाजे होते हैं लेकिन खिड़कियाँ एक भी नहीं होती हैं। अपने घर निर्माण में ये, बांस, सिमल, घास, साबे की रस्सी, मिट्टी तथा अन्य सामग्रियों का प्रयोग करते हैं।

सामाजिक व्यवस्था

सौरिया समाज में परिवार का बहुत व्यापक सामाजिक महत्व है। इनमें एकल और संयूक्त दोनों तरह के परिवारों का प्रचलन है। एक सौरिया का पुत्र सामान्यत: विवाह के बाद अपना अलग घर बसा लेता है। सौरिया अधिकतर एक ही पत्नी रखने वाले होते हैं लेकिन इनमें बहु पत्नी प्रथा भी कहीं – कहीं देखने में आती है। बिहार की अन्य आदिम जातियों की तरह सौरिया भी पितृसत्तात्मक होते हैं। इन्हें सम्पति का अधिकार पिता की ओर से प्राप्त होता है। सौरिया में गोत्र प्रथा नहीं होती है। तीन पीढ़ियों तक की रिश्तेदारी में व्याह वर्जित है। ये लोग स्वसुर, छोटे भाई की पत्नी, पत्नी की माता, पत्नी के बड़े भाई की पत्नी की बड़ी बहन से शारीरिक संबंध या मजाक के रिश्ते से परहेज रखते हैं। हालाँकि पत्नी की छोटी बहन, बड़े भाई की पत्नी, पत्नी के छोटे भाई से ये मजाक का रिश्ता रखते हैं हैं। ये लोग पत्नी की छोटी बहन या बड़े भाई की विधवा से विवाह कर सकते हैं।

सौरिया पहाड़िया में उत्तराधिकार की प्रथा पैतृक है। पिता के जीवनकाल से विवाहित पुत्र का सिर्फ अपने जीवन यापन के लिए ही जमीन में हिस्सा है तो उसमें बड़े बेटे को कुछ अधिक हिस्सा मिलता है तथा पुत्रियों को विवाह को उसकी दोबारा शादी या उसकी मृत्यु तक जीवन यापन के लिए सम्पत्ति प्राप्त होती है। यदि परिसर में कोई पुरूष सदस्य नहीं होता है तो सम्पत्ति की मालिक पुत्री होती है लेकिन उसे अपने पति के साथ पिता के घर पर ही रहना होता है। वैसी स्थिति में जब किसी सौरिया की कोई संतान नहीं होती है उसकी संपति गाँव की ही जाती है। गाँव का प्रधान ऐसी सम्पति को समुदाय के ही किसी जरूरतमंद व्यक्ति को हस्तांतरित करने का अधिकारी होता है।

किसी का जन्म परिवार में बहुत महत्वपूर्ण अवसर माना जाता है। गर्भवती महिला के खाने – पिने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं रहता है लेकिन वह जंगल में जाकर खाद्य पदार्थ जड़ी – बूटियों आदि एकत्र नहीं कर सकती है। उसे झरने या नदी नाले पर पानी भरने के लिए जाने की भी मनाही होती है समझा जाता है कि ऐ सा करने पर गर्भवती को कोई बुरी आत्मा पकड़ ले सकती है। विद्वान बेन ब्रिज के मुताबिक हालाँकि गर्भवती महिला को पाटकी ताड़ी (देशी शराब) पीने के बारे में कोई निषेध का आदेश नहीं हैं आज भी इनमें गर्भकाल के आखिरी महीनों में स्त्रियों द्वारा देशी शराब का सेवन का प्रचलन नजर में आता है। प्रसव किसी बड़ी बुजुर्ग महिला द्वारा कराया जाता है तथा नाभि नाल काट कर घर के बाहर गाड़ देने की प्रथा है। ये लोग प्रसव के बाद चार पांच दिनों की छूत मानते हैं। इस दौरान दैनिक क्रिया कर्म को छोड़ कर बच्चे का पिता भी घर से बाहर नहीं निकलता है। इस अवधि के दौरान  उसे दाढ़ी बाल बनाने की मनाही होती है। छूत की अवधि समाप्त होने पर बच्चे का पिता दाढ़ी बाल बनता है तथा झरने में स्नान करता है। इसी तरह बच्चे की माता भी झरने में स्नान करती है। इस अवसर पर भोज का आयोजन किया जाता है।

बच्चे के जन्म के पांच दिन बाद उसका नामकरण किया जाता है। इनमें लकड़े के लिए दादा  (पिता का पिता) तथा लड़कियों के लिए नानी का नाम लेने की प्रथा आम है। बुरी आत्माओं को धोखे में रखने के लिए इनमें बच्चे को दो नाम देने की प्रथा है।

1907 में बेन ब्रिज ने सौरिया पहाड़ियों में एक प्रथा देखी। ब्रिज के मुताबिक इनमें लड़के – लड़कियों को प्रशिक्षण देने ले लिए इनके यहाँ एक आवासशाला की व्यवस्था होती है। हालाँकि बाद में यह व्यवस्था समाप्त हो गई तथा लड़के लड़कियों को प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी उनके परिवार को लोगों में डाल दी गई जो आज भी प्रचलित है।

जब एक सौरिया बालिका को पहली दफे मासिक धर्म होता है तो इस मौके पर उनके देवता कान्डो गोसाई को एक मुर्गी की बलि देकर धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न किया जाता है। पांच दिनों की इस अवधि में कन्या को अपवित्र समझा जाता है। इस दौरान उसे खाना पकाने या किसी दुसरे व्यक्ति की वस्तुओं को छुने से रोक होती है। पांचवे दिन मिट्टी से अपने सिर के बाल धोने तथा झरने में स्नान करने के बाद ही उसे स्वच्छ माना जाता है।

सौरिया पहाड़ियों में गोत्र की प्रथा नहीं होती तथा ये सजातीय विवाह करने वाले होते हैं। अभिभावकों की ओर से तीन पीढ़ी तक की रिश्तेदारी में इनका विवाह वर्जित होता है। ये लोग एक पत्नीवाद होते हैं लेकिन बहु विवाह को भी सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है। एक सौरिया पहाड़िया अपनी पुत्री को किसी खास जगह विवाह करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। लड़की को अपना पति चुनने की व्यापक स्वतंत्रता होती है। विवाह एक बिचौलिया जिसे सथू कहते हैं के माध्यम से तय किया जाता है। एक लड़के का पिता को सिथू को साड़ी, कुछ पैसे और घास की मनकेदार माला का उपहार देकर लड़की के पिता के घर भेजता है। यदि लड़की सिथू से यह उपहार ग्रहण नहीं करती है तो समझा जाता है कि वह उक्त लड़के से विवाह करने को राजी नहीं है। ऐसी स्थिति में वहां शादी की बात तोड़ दी जाती है। यदि लड़की सिथू से उपहार ग्रहण कर लेती है। तो उसका पिता कन्या के लिए दहेज़ के रकम की मांग सिथू से करता है तथा सिथू उसकी यह मांग लेकर लड़के के पिता के पास लौटता है। यदि लड़के के पिता दहेज़ की मांगी गई रकम मंजूर कर लेता है तो सिथू लड़की वालों के यहाँ जाकर शादी की तारीख पक्की कर देता है।

बेन ब्रिज के मुताबिक इनमें पूस के महीने तथा कृष्णा पक्ष में विवाह संपन्न नहीं कराये जाते हैं।

कन्या दहेज़ दो प्रकार का होता है एक नकद जिसे पोन कहते हैं दूसरा बांडी जिसके अंतर्गत सूअर, कपड़ा, तंबाकू तथा खाने पीने की अन्य वस्तुयें आती है। सौरिया पहाड़िया में दहेज़ की मांग काफी अधिक होती है जिसकी वजह से वर पक्ष को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस परेशानी से बचने के लिए इनमें विवाह की और भी प्रथाएँ प्रचलित हैं जैसे अदला – बदली विवाह, सेवा के बदले विवाह तथा गोद लेकर विवाह।

अदला - बदली विवाह में दो लड़के अपनी – अपनी बहनों का विवाह के लिए अदला - बदली करते हैं। सेवा के बदले विवाह में एक लड़का लड़की के अभिभावक के पास निश्चित समय तक मेहनत मजदूरी करता है और इसके बाद अपने घर लौट कर सिथू के माध्यम से विवाह की बात चलाता है। अंतिम प्रथा में लड़की का पिता किसी लड़के को गोद लेकर उसे अपना घर जंवाई बना लेता है। इस प्रथा में लड़के को दहेज़ देने की बजाय उसे ही लड़की पक्ष से दहेज़ मिलता है लेकिन बदले में उसे अपने ससुराल वालों की सेवा करनी पड़ती है।

विवाह लड़की के गांव में सिथू द्वारा संपन्न कराया जाता है। विवाह में वर अपनी छोटी ऊँगली से कन्या की ललाट पर पांच बार सिन्दूर लगाता है। यह उनके दाम्पत्य जीवन का प्रतीक होता है। इस रस्म के पूरा होने पर वे पति पत्नी मने जाते हैं। सौरिया पहाड़िया में विधवा विवाह की अनुमति होती है लेकिन इसमें कन्या दहेज़ नाममात्र को होता है।

सौरिया शव के सिर को उत्तर की दिशा में रख कर दफनाते हैं। मृतक के साथ ही उसकी निजी वस्तुयें दफना दी जाती हैं। सौरिया महिलाऐं कब्रगाह नहीं जाती हैं। इनमें चेचक, कोढ़ या हैजे से मरने वालों के शवों को जंगल में फेंक दिया जाता है। मृत्यु के पांच दिनों तक छूत माना जाता है, इसके बाद सगे संबंधी दाढ़ी बाल बनाते हैं तथा झरने में स्नान करते हैं। गाय की बलि दी जाती है तथा गाँव वालों के लिए भोज का आयोजन किया जाता है। जिसमें अपने गांव के अलावा आस – पास के गांवों से लोगों को बुलाया जाता है। इस रस्म की समाप्ति के बाद ही परिवार की विधवा को विवाह की अनुमति होती है।

धार्मिक क्रिया कलाप

सौरिया पहाड़िया के जीवन में धार्मिक क्रिया कलापों की महत्वपूर्ण भूमिक होती हैं। ये लोग अनेक देवताओं और आत्माओं की पूजा करते हैं। लेफ्टि, शॉ, कर्नल इ. टी. डाल्टन द्वारा एकत्र रिकार्ड के मुताबिक सौरिया निम्नलिखित प्रकार के विभिन्न देवी की उपासना करते हैं।

राजेयी गोसाई

इसे एक विशाल वृक्ष के नीचे काले पत्थर के रूप में स्थापित कर इसके चारों ओर झाड़ियों की बाड़ लगा देते हैं। जब गाँव पर किसी नरभक्षी बाघ का आंतक होता है या कोई महामारी फूट पड़ती है तो उस देवता की पूजा की जाती है।

छल या छ्लंद

काले पत्थर का यह देवता गाँव की प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा करता है।

पो गोसाई

यह रास्तों का देवता होता है जिसे मुर्गे की बलि देकर प्रसन्न किया जाता है।

दुआरा गोसाई

इस देवता को मौलसम के पेड़ या उसकी टहनी को घर के बाहर गाद कर प्रतिष्ठित किया जाता है तथा किसी घर पर आपदा होती है तो इसकी पूजा जाती है।

काल गोसाई

यह कृषि का देवता है और बुआई या रोपा का मौसम आरंभ होने पर इसे बकरे या सूअर की बलि दी जाती है।

ओंटगा

इसे शिकार का देवता माना जाता है। किसी समय शिकारी अभियान के लिए इसकी पूजा की जाती है। सौरिया पहाड़िया के कुछ अन्य देवताओं जैसे री गूमू और चमड़ा गोसाई की बात डाल्टन द्वारा तथा बेन ब्रिज या बीरू गोसाई, बिलप गोसाई, लाइडू गोसाई, दरमरे गोसाई और जरमरतर गोसाई की पूजा की प्रथा की बार दर्ज की गई है। सौरिया पहाड़िया समाज की पूजा की प्रथा की बात दर्ज की गई है। सौरिया पहाड़िया समाज में धार्मिक रीति रिवाजों को कांडों, मांझी, कोटवार और चलवा संपन्न कराते हैं। समझा जाता है कि इन्हें कोई अलौकिक शक्ति प्राप्त होती है।

इनके धार्मिक क्रिया कलाप इनके संस्कृतिक जीवन के अभिन्न अंग हैं। कुरवा (स्थान बदल कर या झूम खेती) के लिए जंगल काटने के पूर्व आस – पास के जंगलों में निवास करने वाली बुरी आत्माओं को क्रोध को शांत करने के लिए बलि चढ़ाई जाती है। समझा जाता है कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो बुरी आत्माएं क्रोधित हो कर चारो ओर मंडराने लगेंगी और विभिन्न बीमारियों का प्रकोप फैला देगी। खेतों में बुआई हो जाती है और पौधे बढ़ने लगते हैं। तो फिर सूअर की बलि देकर देवता से अच्छे फसल की कामना की जाती है। बाद में कटनी के समय बकरे तथा अन्य पशुओं की बलि देकर देवता को प्रसन्न किया जाता है। इनके अलावा सौरिया अपने पूर्वजों के लिए घंघरा और सालिओनी पूजा भी संपन्न करते हैं।

राजनीतिक व्यवस्था

1907 में बेन ब्रिज ने ग्राम स्तर के इनके संगठन में चार अधिकारीयों के नाम दर्ज किए। ये हैं सिनयारी – गांव का प्रधान, सानदारी/गोरकूत – संदेशवाहक कोटवार – पंचायत की व्यवस्था का प्रभारी तथा गिरी जो बाद चलकर सबसे प्रभावशाली रैयत बने। मांझी ग्राम पंचायत का प्रमुख हुआ करता है जिसकी मदद गोराइत किया करते हैं। इससे ऊपर सरदार हुआ करता है जो काई गांवों की पंचायत का प्रमुख होता है। ग्राम पंचायत परंपरागत कानूनों और रिवाजों के सहारे विभिन्न विवादों को सुलझाने का काम करती है। वेश्यावृत्ति, चोरी, भूमि विवाद, तलाक तथा जादू टोने आदि के मामले ग्राम पंचायत के सामने लाये जाते हैं। ग्राम पंचायत आलस्य नपूंशकता, बाँझपन तथा क्रूर व्यवहार आदि मामले पर तलाक की अपील मंजूर कर सकती है। यह किसी जादू टोना जानने वाले को गाँव से बहिष्कृत कर सकती है। सरदार, मांझी और गोराईत के पद वंशानुगत होती हैं तथा इस पर सबसे बड़े पुत्र का अधिकार होता है। एक समय में सरकार द्वारा इन्हें राजस्व वसूलने का हकदार भी बनाया गया तथा सरदार को 10 रूपये तथा मांझी को 2 या 3 रूपये इनाम के रूप में दिए जाते थे लेकिन गोराईत को कभी ऐसी इनाम की राशि नहीं दी गई। लेकिन सरकार द्वारा ग्राम पंचायत और पंचों की प्रथा लागू करने पर सौरिया पहाड़िया की परम्परागत राजनीतिक व्यवस्था धीरे – धीरे लुप्त हो गई।

पेशा

सौरिया पहाड़िया की आजीविका के मुख्य स्रोत हैं, कृषि, जंगल के उत्पाद, जानवर तथा श्रम के बदले मजदूरी। पारम्परिक रूप से ये शिकारी हैं। शिकार के लिए इनके मुख्य हथियार बांस के बने तीर – कमान हैं। तीर के लिए लोहे का अग्रभाग सामान्यत: बाजार से खरीदते हैं। ये लोग बाघ फंदा भी तैयार करते हैं जिसे इनकी भाषा में बाघधनु कहते हैं, इसके सहारे से बाघों को फंसा कर मार डालते हैं। ये लोग भालू, जंगली मुर्गी, बकरे तथा अन्य जानवरों का भी शिकार करते हैं। वन्य पशु संरक्षण कानून तथा वनों के भारी कटाव के कारण इनकी शिकारी प्रवृति पर काफी प्रतिकूल असर पड़ा। ओ – मेले के मुताबिक 1872 के संताल परगना रेग्यूलेशन 3 के तहत सौरिया पहाड़ियों की भूमि की एक व्यवस्था की गई। सौरिया मुख्य रूप से तीन तरह के कृषि कार्य करते हैं स्थान बदल कर, हल चला कर और साबे खेती। कुरुवा या स्थान बदल कर कृषि में ये पेड़ों को काटकर जंगल साफ करते हैं और कृषि योग्य भूमि तैयार करते हैं। वृक्षों के तने ये बाजार में बेच देते हैं तथा टहनियों और पत्तों को सूखने के लिए छोड़ देते हैं जिन्हें मार्च या अप्रैल के माह में जलाया जाता है। जली हुई राख को खेतों में छिड़काव कर वहां ज्वार, मकई, रहड़, आदि के बीच सीधे बोये जाते हैं। ये फसलों की बुआई कभी – कभी जून में करते हैं और इसकी कटनी नवंबर से जनवरी के बीच होती है। किसान सितंबर के महीने से अपने खेतों में रहने लगते हैं और फसल काटने के बाद ही गांवों में लौटते हैं। दो या तीन फसल के बाद किसान उस भूमि को छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाते हैं। इस भूमि पर करीब छ: वर्षों तक कृषि नहीं की जाती है ताकि वह पुन: अपनी उपजाऊ क्षमता हासिल कर सके।

हल बैल से या जोत कर खेती करने के लिए इनके यहाँ दो तरह की जमीन होती है इनमें से एक का जोत बारी और दुसरे को धान खेत कहते हैं। खेतों में हल चलाने के बाद मई महीने में बुआई की जाती है। जोत बारी भूमि में हल चलाने के समय ही मक्का और बीन की बुआई की जाती है इसकी फसल भादो (अक्टूबर) में तैयार होती है जबकि सरसों, सूरगूजा और ज्वर की बुआई अक्टूबर में होती है तथा इसे फ़रवरी में काटा जाता है। सौरिया अपने धान की खेतों से खेती संथाल जाति को दे देते है तथा खेत के बदले उनसे उपज का आधा भाग ले लेते है।

साबे घास जिससे कागज बनता है। इस घास का घरेलू उपयोग भी है। इसकी खेती इनके जीवन यापन का महत्वपूर्ण स्रोत हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश बदलती परिस्थितियों और कृषि पर अत्यधिक लागत के कारण साबे घास की खेती में गिरावट आती गई। इसके साथ इनके आय का एक मुख्य स्रोत भी सूखता गया। जंगल के लघु उत्पाद जिन पर आदिवासी का निश्चित अधिकार बना हुआ है इनकी आजीविका महत्वपूर्ण साधन बने हुए हैं। हालांकि इस क्षेत्र में भी सूदखोर और महाजन गरीब जनजातियों का शोषण करने से बाज नहीं आ रहे हैं। ये लोग जनजातियों के हिस्से आने वाले मुनाफे का बड़ा भाग साफ कर जाते हैं। महुआ इनके आय का महत्वपूर्ण साधन है। इसके उपयोग ये अधिकतर देशी शराब बनाने में करते हैं। इससे तैयार शराब की बिक्री ये पास – पड़ोस की दूसरी जनजातियों में करती हैं। सौरिया पहाड़िया बकरी, मुर्गी तथा सूअर पालन भी करते हैं। ये लोग महाजनों के गाय भैंस भी पालते हैं।

जहाँ तक दैनिक मजदूरी पर नौकरी का प्रश्न है ये लोग न केवल गैर जनजातियों द्वारा बल्कि संथालों द्वारा भी शोषण के शिकार हैं। चूंकि इनके पास जमीन कम है तथा बढ़ते प्रतिबंधों की वजह से जंगल उत्पाद भी इनके लिए दुर्लभ होते जा रहे हैं। दैनिक मजदूरी की बढ़ती दर इनके जीवन यापन का स्रोत बनता जा रहा है।

निष्कर्ष

विद्वान हरिमोहन के मुताबिक गैर जनजातीय और दूसरी जनजातियों के संपर्क में आने से सौरिया पहाड़िया की भौतिक जिन्दगी बहुत गहराई से प्रभावित हुई है।

इन लोगों ने बहुत सी आधुनिक वस्तुयें जैसे साबुन, हाफ पैंट, लुंगी, पेटीकोट, ब्रेसियर आदि अपना लिए हैं जिनका प्रयोग इनके पास पड़ोस की जातियां कर रही है। इसके अलावा इसाईयत के प्रचार प्रसार ने इनके बौद्धिक स्तर में बदलाव लाया है, इसे प्रगति दी है। इसाई सौरिया गैर इसाई सौरिया की तुलना में अधिक संपन्न, समझदार, पढ़े लिखे और बेहतर पहनावा ओढ़ावा वाले हैं।

स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार

अंतिम बार संशोधित : 9/19/2019



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