रिसले के मुताबिक माल पहाड़िया द्रविड़ वंश के हैं। माल पहाड़िया शारीरिक रूप से प्रोटो ओस्ट्रोलायड समूह के हैं, लेकिन इनके गोत्री विवाह्जन्य संबंध काफी अस्पष्ट हैं सौरिया पहाड़ियां जहाँ माल पहाड़िया को अपना चचेरा भाई बताते हैं वहीँ माल पहाड़िया सौरिया पहाड़िया द्वारा गोमांस सेवन के आदत को लेकर उन्हें अपवित्र मानते हैं। इस संबंध में वी. बाल और डाल्टन जैसे विद्वानों का मानना है कि दोनों की जातियों का आपस में निकट का संबंध में वी. बाल और डाल्टन जैसे विद्वानों का मानना है कि दोनों जातियों की पहचान अलग – अलग अनुसूचित जनजातियों के रूप में स्थापित की गई है।
माल पहाड़ियों का प्राकृतिक आवास जंगलों से घिरी माल पहाड़िया होती है। ये अधिकतर संथाल परगना में पाए जाते हैं लेकिन इनकी कुछ आबादी भागलपुर सिंहभूम जिलों में भी है। 1941 की जनगणना के मुताबिक इनकी जनसंख्या 40,148 थी (इस आंकड़े में 1956 में प. बंगाल को कुल हिस्से हस्तांतरित करने के बाद संशोधन किया गया) लेकिन 1981 संपन्न जनगणना में इनकी जनसंख्या में क्रमिक बढ़ोतरी दर्ज की गई 1981 में इनकी आबादी 79,322 थी।
इनका भौतिक और अध्यात्मिक जीवन बहुत व्यापक तौर पर इनका परिवेश पर आश्रित है। इन्हें विश्वास है कि वन में निवास करने वाले अनके जाने – अनजाने देवी को शांत नहीं किया गया, उनकी उपासना नहीं की गई तो इनका अपना अस्तित्व कायम नहीं रह सकेगा। अत: ये लोग गई तो इनका अपना अस्तित्व कायम नहीं रह सकेगा। अत: ये लोग अनगिनत देवी – देवीताओं की पूजा अर्चना करते हैं।
माल पहाड़ियों अपने घर पहाड़ों पर बनाते हैं। इनके समकोणीय घर का निर्माण वृक्षों की टहनियों, बांस, खर और घास की मदद से होता है। लोग अपने लिए बर्तनों, सोने बैठने के सामग्रियों जैसे खाट करछी आदि का निर्माण स्वयं करते हैं। लकड़ी की बनी खाटों की बुनाई ये साबे की रस्सियों से करते हैं। शिकार करने के उपकरण और हथियार जैसे तीर – कमान, बांध – फंदा, जाल और गदाओं का निर्माण भी ये स्वयं करते हैं। हथियार के प्रयोग ये अपनी सुरक्षा और खाद्य सामग्री इकट्ठे करने के लिए करते हैं।
माल पहाड़िय के परिवार में स्त्री - पुरूष और उसके अविवाहित बच्चे होते हैं। इनमें कहीं – कहीं संयुक्त परिवार की प्रथा भी देखी जाती है जिसमें विवाहित बच्चे काम के लिए अपने अभिभावक के साथ रहते हैं लेकिन ये अभिभावक के आवास में ही अपनी अलग झोपड़ी बना कर रहते हैं। कभी – कभी ऐसे विवाहित बच्चों का घर अलग ही होता है तथा खाना – पकाना ये स्वतंत्र रूप से करते हैं। माल पहाड़िया परिवार पितृ प्रधान होता है। पिता समस्त संपत्ति का अकेला मालिक होता है यदि वह चाहे तो अपने बेटे को अपनी भूमि के कुछ हिस्से पर कृषि की अनुमति दे सकता है। पिता की मृत्यु के बाद बेटों में संपति का बंटवारा हो जाया करता है। सबसे बड़े बेटे को कुछ अधिक संपत्ति मिलती है लेकिन उस पर यह जिम्मेदारी भी होती है कि वह अपनी विधवा माँ और अवयस्क भाई बहनों की देखभाल भी करे। यदि मृत पहाड़िया को कोई पुत्र नहीं होता है तो उसकी संपत्ति गाँव की समझी जाती है।
माल पहाड़िया जाति में गोत्र की पद्धिति नहीं होती है लेकिन पेशे के नाम पर इनका पारिवारिक वर्गीकरण होता है। जैसे देहरी, गिरही, लायाब, मांझी, लाया और पुजार यह वर्गीकरण बहिगोत्र नहीं है। एक देहरी दुसरे देहरी से विवाह कर सकता है लेकिन इन्हें अपने वर्ग से बाहर की भी अनुमति है तथा इसे यह लोग प्राथमिकता भी देते हैं। इनमें गोत्र के निर्धारण वैवाहिक संबंध के आधार पर होता है। दोनों पक्षों की तीन पीढ़ियों तक का स्वकुटून्बिया को आपस में विवाह की अनुमति नहीं होती है।
माल पहाड़िया में विवाह के विभिन्न तरीकों का वर्गीकरण इस प्रकार से किया जा सकता है।
दुल्हन को दहेज़ या खरीद कर किया जाने वाला विवाह इनमें सर्वाधिक प्रचलित है। जब कोई युवक विवाह योग्य हो जाता है तो उसका पिता शादी तय कराने वाले एक व्यक्ति जिसे सिथू या सिथूदार कहते हैं उसे बुलाता है। यह सिथू ही कन्या के पिता के साथ विवाह की बातचीत करता है और यदि कन्या योग्य पायी जाती है तो उसे कुछ रूपये तथा घास की मनकेदार माला दी जाती है। यदि कन्या इन सभी वस्तुओं को स्वीकार कर लेती है तो शादी तय समझी जाती है। सिथू इसके बाद लड़के के पिता के पास दुल्हन की कीमत पोन – तथा टाका अन्य सामान बांडी के बारे में बताता हैं। लड़के के पिता द्वारा यह कीमत मंजूर आकर लेने पर सिथू कन्या के पिता को इसकी जनकारी देता है और विवाह की तारीख पक्की कर दी जाती है।
पोन - टाका दुल्हन की कीमत 9 से लेकर 30 रूपये तक हो सकता है। यह परिवार तथा अन्य परिस्थितियों पर निर्भर करता है। बांडी में आमतौर पर कन्या, उसकी माता और भाई के कपड़े की कीमत, चावल दाल, नमक, तम्बाकू, हल्दी खाना पकाने का तेल, सूअर आदि मांगा जाता यह सभी वस्तुओं परिस्थितियों के मुताबिक कम या अधिक हो सकती है। बांडी (लड़की के कपड़े छोड़कर) शादी से पूर्व कन्या के पिता के पास भेज दी जाती है। लेकिन पोन - टाका लड़की के कपड़े विवाह के समय लिए जाते है विवाहोत्सव के अवसर पर दूल्हे द्वारा विशेष रूप से एक चटाई कन्या पक्ष को उपहार में दी जाती है। विवाह की रस्म सिथू द्वारा संपन्न कराई जाती है। इस दौरान वर कन्या के बालों में तीन दफे सिन्दूर लगा कर उसे एक रूपया देता है। इसके साथ – साथ चावल से बनाई गई शराब माड़ या पोचोई का दौर भी चलता रहता है जब बारात लड़के के घर लौटती है तो एक देहरी वर – वधू के सफल वैवाहिक जीवन की कामना करते हुए उनके एक मुर्गी का बच्चा भेंट करता है वैवाहिक रस्म अदा करने वाले सिथू का पारिश्रमिक के रूप एक हांडी माड़, पैसा और कपड़ा दिया जाता है।
दूसरी तरह का विवाह है प्रेम विवाह या बलपूर्वक विवाह। किसी सभा समारोह में जब कोई लड़का किसी लड़की से मिलता है। उससे प्रेम करने लगता है तो यह उस लड़की को अपने साथ ले जाकर उसी अपनी पत्नी की तरह रखने लगता है। इस परिस्थिति में लड़की के अभिभावक वर पक्ष से दहेज़ मांग सकते है। यह अदा कर दिए जाने पर विवाह को औपचारिक मान्यता दे दी जाती है। अदला - बदली विवाह प्रथा में दोनों पक्ष के वर को दोनों पक्ष से कन्या दे दी जाती है ऐसी स्थिति में दहेज़ किसी को नहीं देना पड़ता है। सेवा के बदले विवाह वैसे गरीब लड़के करते हैं जिनके पास कन्या को दहेज़ देने लायक धन नहीं होता है। इस परिस्थिति में कोई गरीब लड़का अपना संपन्न स्वसुर के यहाँ मजदूरी करता है यह अवधि पर्याप्त से लेकर कुछ वर्षों तक भी हो सकता है। वह लड़की को अपनी मेहनत मजदूरी के बल पर और दहेज़ दिए बिना पत्नी के रूप में हासिल कर लेता है। गोद लेकर विवाह वैसे अभिभावक करते हैं जिन्हें पुत्र नहीं होता है ऐसे लोग किसी लड़के को गोद लेकर उसके शादी अपनी पुत्री से कर देते हैं। गोद लिए हुए लड़के को घर जमाई व घर दामाद कहा जाता है। ऐसे घर दामाद अपने रिश्तेदारों के साथ अपने स्वसुर की सेवा करता है। इस तरह के विवाह में लड़की को दहेज देने की जगह स्वसुर द्वारा स्वयं उसे (लड़के) ही दहेज़ दिया जाता है।
उपरोक्त वैवाहिक पद्धति के अलावा माल पहाड़िया जाती में विधवा विवाह भी प्रचलित है। कोई पहाड़िया अपने बड़े भाई की मौत के बाद उसका अंतिम संस्कार करने के बाद जिसे भावूज कहते है उसकी पत्नी से विवाह कर सकता है इसी तरह उनमे विवाह की और प्रथा है जिसमें कोई पहाड़िया अपनी पत्नी के मौत के बाद उसकी छोटी बहन से विवाह कर सकता है। लेकिन स पत्नी की बड़ी बहन से विवाह प्रतिबंधित है।
माल पहाड़िया जाति में तलाक तरीका अपेक्षाकृत सरल है। तलाक निम्नलिखित आधार पर लिया जा सकता है।
जैसा की मान्यता है गर्भवती मालपहाड़िया महिला गर्भकाल में अकेले कहीं जंगल या झरने में नहीं जा सकती है। उसकी मान्यता है की ऐसा करने पर इन स्थानों पर मौके की तलाश में सोई बुरी आत्माएं उन्हें हानि पंहुचा सकती है और उनका गर्भ नष्ट कर सकती है। माल पहाड़िया स्त्री बच्चा जनने के समय तक काम धंधा में लगी रहती है। बच्चे के जन्म के लिए एक विशेष झोपड़ी का निर्माण किया जाता है जिसमें जच्चा बच्चा और उसके पिता को तब तक रखा जाता है, जब तक उनके छुवाछूत की अवधि समाप्त नहीं हो जाती है। इस अवधि को चौठ कहते हैं। प्रसव के समय हालाँकि कोई वृद्ध महिला मौजूद रहती है लेकिन बच्चे का नाभि नाल माता ही बांस की छूरी से काटती है। चौठ की आवधि के दौरान झोपड़ी के बाहर लगातार आग जलती रहती है ताकि जानवरों या बुरी आत्माओं का वहां प्रवेश नहीं हो सके। इस अवधि में पति ही झोपड़ी के भीतर अपने और अपनी पत्नी के लिए भोजन बनाता है तथा उनका बाहरी लोगों के साथ कोई संपर्क नहीं रहता है।
चौठ की अवधि जो की पांच से दो सप्ताह तक का होता है खत्म होने पर बच्चे के माता – पिता अपने कपड़े राख के साथ उबालते हैं तथा स्नान करते हैं। नवजात शिशु और उसका पिता हजामत बनाता है। नहाने के रस्म के बाद माता बच्चे के साथ अपने घर में प्रवेश करती है। मिट्टी के नए बर्तन और कड़ाही आदि में भोजन बनाया जाता है जिसे खाने के लिए पूरे परिवार के लोग एकम जगह जमा होता है। इस अवसर पर घर को भी साफ सुथरा किया जाता है तथा उस पर गोबर से लिपाई - पोताई की जाती है। लेकिन परिवार का छूआछूत गाँव वालों के लिए तभी समाप्त होता है जब बच्चे के जन्म के एक दो माह उसके परिजन उसके पूरे गाँव को पोचाई (माड़) चावल से बनी शराब, चावल, बकरा तथा मुर्गे के दावत देते हैं। इस दावत के बाद बच्चे के पिता को पूजा पाठ समाज के अन्य रस्मों में हिस्सा लेने की अनुमति दी जाती है।
शुद्धिकरण के बाद लड़के का नामकरण उसके दादा (बेडगा) और लड़की का नामकरण उसकी दादी (बीद्दू) के नाम पर किया जाता है। पिता या माता का भाई बच्चे के कान में यह नाम फूसफूसा कर कहता है। बुरी आत्माओं से सुरक्षा और धोखे में डालने के लिए बच्चे का एक और नाम किया जाता है जिसे बाहना कहते हैं।
माल पहाड़िया का विश्वास है कि जो लोग मृत्यु को प्राप्त होते हैं वे परिवार के साथ ही रहते हैं अत: पहाड़िया उनकी भी पूजा करते हैं। मृतकों को चूल्हे की जगह (रसोई) में महत्वापूर्ण स्थान दिया जाता है। मृतक को इसके व्यक्तिगत इस्तेमाल की निजी वस्तुओं के साथ दफना दिया जाता है। कभी - कभी मृतक का सिर उत्तर दिशा में रखकर उसका दाह संस्कार भी किया जाता है। मृतक की आत्मा की शांति और प्रसन्नता के लिए उसे अंडा, मांस तथा चावल अर्पित किया जाता है। मृतक की आत्मा की शांति के लिए परिवार के लोग शव पर पेड़ों की छोटी टहनियां रखते है। श्राद्धकर्म मृत्यु के दस दिन बाद बाल दाढ़ी बनाने तथा मांस, चावल व अन्य वस्तुयें अर्पित करने के बाद संपन्न होता है। कुछ स्थानों पर घास की मानव आकृति बनाकर उसे मृतक के कब्र पर तीन बार जलाने की भी प्रथा है। इस रस्म के बाद शराब पीते है और नाचते गाते हैं। एक वर्ष बाद अंतिम संस्कार किया जाता है जिसे भाउज कहते हैं। इस अवसर पर पास और दूर के सभी रिश्तेदार जमा होते हैं चावल, बकरे, मुर्गे तथा सूअर का मांस बनाया जाता है, शराब के दौर चलते हैं तथा नाच गान के साथ उत्सव मनाया जाता है। इस उत्सव के दौरान कोई लड़का अपने लिए लड़की पसंद कर उससे विवाह कर सकता है। उत्सव के इस मौके पर भाउज के बाद किसी विधवा को भी विवाह की अनुमति होती है।
नृत्य और संगीत माल पहाड़िया के सामाजिक जीवन के महत्वपूर्ण पहलू है। उनका यह पहलू बहुत उन्नत है तथा शादी विवाह या उत्सव समारोह में इसकी बहार देखी जा सकती है। ये लोग बांस की सुन्दर बांसुरी, बंसी, झांझ, मंजीरा, करताल, वायलिन आदि वाद्य यंत्र का निर्माण करते हैं।
प्रेतात्माओं की कल्पना तथा उनके अस्तित्व का ख्याल माल पहाड़िया जाति के मन मस्तिष्क में पूरी तरह से समाया हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु तक ये लोग अच्छी बुरी आत्माओं को प्रसन्न करने में लगे रहते है। उन जंगलों में जहाँ ये निवास करते हैं वहां इन्हें अपनी कल्पना को आकार प्रकार देने की पूरी गूंजाइश भी मिलती है। ये लोग इन अलौकिक कल्पना की शक्ति और प्रभूता से जीवनपर्यन्त आक्रांत रहते हैं। इनकी मान्यता है कि मृत्यु सभी चीजों का अंत नहीं हैं। यह मानते है कि इनके मृत पूर्वजों की आत्माएं इनके आस – पास ही निवास करती है अत: पूर्वजों की पूजा अर्चना इनके धार्मिक क्रियाकलापों का एक प्रमुख अंग है। हालांकि ये लोग बुरी आत्माओं को भी प्रसन्न विभिन्न प्रकार के भोग चढ़ाते रहते है।
माल पहाड़िया सर्व प्रमुख देवता धरती गोरासी गोसाई या बसुमति गोसाई या बीरू गोसाई है, जिसका निवास स्थल किसी वृक्ष के नीचे एक पत्थर के प्रतिक के रूप में होता है। इनमें पूजा के विभिन्न तरीके प्रचलित हैं जैसे - 1. बिद्दी अरिय अंडे को अर्पित कर पूजा, 2. गंगी अरिय माड़/ताड़ी (चावल की शराब) के चढ़ाने, चावल सिन्दूर से पूजा, 3. सुअर, बकरा, चावल, ताड़ी आदि से घंघरा पूजा, 4. मुर्गी अंडा, चावल तथा अन्य चीजों दे टाट अरैया पूजा, 5. इनमे जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण पूजा होता है उसे माघी पूजा कहते हैं। काफी विस्तृत विधि विधान से बकरे की बलि देकर यह पूजा संपन्न की जाती है। इनका मुख्य पुजारी दहरी या नाडो कहलाता है। यह पद वंशानुगत होता है। यदि किसी दहरी या नाडो का चुनाव होता है। एक माल पहाड़िया का जीवन आरंभ से लेकर अंत तक बहुत हद तक त्याग, पूजा और विभिन्न रीति – रिवाजों के प्रति समर्पित होता है।
माल पहाड़िया के राजनीतिक संगठन की प्राथमिक इकाई ग्राम परिषद या पंचायत होती है जिससे उसका सामाजिक और राजनीतिक जीवन निर्देशित होता है। गाँव का प्रधान या तो मांझी या प्रधान या मुस्तगिरी कहलाता है जिसके मदद के लिए परमानिक और गोरइत होते हैं। समाज में ये पद वंशानुगत होते हैं। मांझी पंचायत का प्रमुख होता है। जबकि परमानिक उसके द्वारा सौंपे गए कार्यों को निष्पादित करने वाला तथा मांझी की अनुपस्थिति में उसका काम देखने वाला होता है। गोरइत संदेशवाहक के साथ – साथ वकील या अभियोजक का भी काम करता है। विभिन्न प्रकार के विवाद, वेश्यावृति तथा सहपलायन आदि मामले पंचायत के समक्ष निपटारे के लिए लाये जाते हैं। जो मामला पंचायत के क्षेत्र से बाहर का होता है या किसी मामले में अपील होती है तो ऐसे मामले मुकदमें सरदार के पास जाते हैं। सरकार कई गाँव के समूह का प्रधान होता है। हालाँकि इन राजनीतिक संगठन की गतिविधियों को कामोवेश अब ग्राम पंचायतों और सरपंचों ने नियंत्रित कर अपने अधिकारों में ले लिया है।
माल पहाड़िया जंगलों से घिरी पहाड़ियों में रहते हैं तथा शिकार, खाद्य पदार्थ संग्रह और कुरआ (एक प्रकार की झूम खेती) से अपनी आजीविका चलाते हैं ये लोग जंगली उत्पादों जैसे, जलवान की लकड़ी, फल आदि जमा करते हैं और इन्हें बेचते भी हैं।
पहाड़ों पर ये बारी (कीचन गार्डन की तरह) में हल बैलों की मदद से अरहर, ज्वार, बाजरा करतेआदि की फसल उपजाते हैं। हालाँकि इनका मुख्य पेशा कुरूआ है (झूम या स्थान बदल कर खेती करना) पूस माह (दिसम्बर – जनवरी) में जंगल के चुने हुए हिस्से में ये दौली या दाव से पेड़ काटने का काम करते हैं। चैत माह (फ़रवरी – मार्च) में जब पेड़ों के पत्ते और डालियाँ सुख जाती हैं ये खेतों में आग लगा देते हैं। टोगरी या कांटा की मदद से खतों में ज्वार, मकई, और घंघरा की फसल बोते हैं। एक दो वर्षों के बाद जब भूमि की उर्वरता समाप्त हो जाती है किसान इस पर कृषि करना छोड़ देते हैं ताकि कुछ वर्षों में वह पुनः अपनी उर्वरा शक्ति प्राप्त कर सके। किसान फिर नए जंगलों को काट कर कृषि योग्य भूमि तैयार करते हैं। दो – एक वर्ष बाद फिर वही प्रक्रिया अपनायी जाती है। कृषि की इस पद्धति से यह लोग अनजाने में ही जंगल काट कर पर्यावरण का भारी नुकसान करते हैं।
महाजनों तथा सूदखोरों द्वारा शोषण और विपरीत परिस्थितियों की वजह से माल पहाड़िया जाति की आर्थिक दशा बहुत दयनीय है। सूदखोरों के चंगुल में फसें इन लोगों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। तथा इनके लिए जीवनस्तर ऊपर उठाने की सभी कोशिशें विफल हो जाती है।
स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 9/18/2019