भारत में सबसे कम जानी जाने वाली अनुसूचित जनजातियों में से एक कोरवा भी है। यह भारत के तीन राज्यों मध्यप्रदेश, बिहार और उत्तरप्रदेश में पाई जाती है। इनकी जनसंख्या मुख्य रूप से मध्यप्रदेश के सूरगूजा, बिहार के पलामू और उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर जिले में है अपने आरंभिक काल में इन्हें शिकारी, खाद्य पदार्थ इकट्ठा करने वाले तथा कुछ क्षेत्रों में आदिम तकनीक से कृषि करने वाले के रूप में जाना जाता है। मानव विज्ञान शास्त्रियों के मुताबिक यह आदिम जनजाति नैतिक रूप से अवसादग्रस्त एवं हीनभावना से ग्रस्त हैं।
1872 में बिहार में कोरवा जनजाति की आबादी 5,214 थी। इनकी जनसंख्या में 1911 (13,920) से 1931 (13,021) के बीच हल्की गिरावट नजर जाती है। यही बात पुन: 1961 (21,162) से 1971 (18,717) के बीच देखने में आती है। लेकिन 1981 में इनकी आबादी (21,940) में फिर चढ़ाव नजर आया।
कोरवा जनजाति की आबादी पलामू जिले के रंका, धुरकी, भंडरिया, चैनपुर और महुआटांड आदि प्रखंडों में मुख्य रूप से है। कई पीढ़ियों से पलामू की पहाड़ियों और इसके आस – पास निवास करने वाले इस जनजाति के अपने परिवेश से बड़ा भावनात्मक जुड़ाव है।
इनके निवास स्थल मुख्य रूप से पलामू की पहाड़ियों के इर्द – गिर्द है। कोरवा लोगों का मानना है कि इस क्षेत्र की आगम्यता, सालों भर जगंली कंदमूल तथा जड़ी बूटियों की उपलब्धता, उपजाऊ भूमि तथा पानी की समुचित व्यवस्था के कारण ही उनके पूर्वजों ने निवास के लिए यह स्थान पसंद किया।
समकोणीय आकर के इनके घरों में एक कमरा होता है। कोरवा एकल परिवार वाले होते हैं अत: इनके घर में एक कमरा इनके लिए पर्याप्त आरामदायक होता है। कमरे की दीवारों लकड़ी के बनी होती हैं जिसे पर मिट्टी का लेप चढ़ाया जाता है। कमरे में एक दरवाजा और साथ में एक बरामदा होता है जिसके एक किनारे पर लकड़ी से बनाया गया सूअरों का एक बाड़ा होता है। घरेलू उपयोग के सामान बगैर किसी खर्च के ये जंगल से उपलब्ध कर लेते हैं।
कोरवा जनजाति की भौतिक संपत्ति उनके रहन – सहन के स्तर का परिचायक है। कुछ गिने चुने कोरवा के पास सोने के लिए खाट होती है। जिसे वे अतिथियों के बैठने सोने के लिए भी प्रस्तुत करते हैं। अधिकतर कोरवा के पास एक या दो चटाईयां होती हैं जिनका उपयोग ये लोग सोने के लिए करते हैं। इनमें से अधिकतर के पास खाना बनाने और पानी रखने के लिए मिट्टी के बर्तन होते हैं। कुछ संपन्न कोरवा के पास धातु के बर्तन देखे जाते हैं।
कोरवा अभी भी बहुत निर्धन हैं तथा ये लोग गरीबी रेखा के नीचे निवास कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर के पास मात्र एक जोड़ी वस्त्र है।
इस क्षेत्र में अन्य जातियों तथा जनजातियों के साथ रहने वाले कोरवाओं की स्त्रियों का भी जेवर – गहनों के प्रति बहुत चाह है। लेकिन निर्धनता के कारण ये चांदी के गहने पाने में असमर्थ हैं। इनके स्त्रियों के शरीर पर अधिकतर गिलट तथा तांबे के गहने होते हैं जो इन्हें आस – पास के साप्ताहिक बाजारों से उपलब्ध हो जाते हैं।
अपना शारीरिक सौन्दर्य बढ़ाने के ख्याल से अधिकांश कोरवा स्त्रियों गोदना गुदवाती है। गोदना सामान्यत: हाथ, सीने तथा घुटने से लेकर एड़ी तक गोदा जाता है। गोदने में अधिकतर हाथी, फूल तथा तारों के चित्र बनाये जाते हैं।
इली या हँड़िया (चावल की शराब) इनका पारम्परिक पेय है। इसमें नशे की हल्की मात्रा होती है। जन्म, विवाह तथा अन्य खुशी के मौके पर ये लोग अपने अतिथियों के आगे हंडिया स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं होता है।
इन दिनों ये लोग देशी शराब जो आस – पास के बाजारों में सहज ही उपलब्ध है पीना अधिक पसंद करते हैं। देशी शराब के सेवन से इनमें अनेक बुराईयां भी घर कर गई है। शराब के नशे में इनमें आपस में तथा पड़ोसियों से लड़ने – झगड़ने की आम प्रवृति हो गई है। शराब से इनका स्वास्थय और इनकी आर्थिक स्थिति दोनों प्रभावित हुए हैं। इनके द्वारा मेहनत मजदूरी कर कमाया गया पैसा अधिकतर शराब की भेंट चढ़ जाता है।
इस क्षेत्र की अन्य जनजातियाँ जैसे – उराँव, खरवार आदि की तरह कोरवा प्रतिदिन नाच – गान नहीं करते हैं। ये लोग शादी – विवाह, जन्म तथा अन्य उत्सवों पर ही नाच गान करते हैं। इनके वाद्ययंत्रों में मांदर दरखर, पैजन आदि शामिल है।
कोरवा जनजाति के सभी गतिविधियां (भोजन) खाद्य जुटाने के इर्द- गिर्द घूमती हैं। भोजन जुटाने के लिए इन्हें जबरदस्त संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ता है।
इनकी आजीविका के मुख्य साधन ये हैं –
कोरवा के पूर्वज स्थान बदल कर खेती किया करते थे जिसे बियोडा खेती कहा जाता है। ओ मेले ने बताया कि 1926 में बताया कि कोरवा जनजाति बियोडा खेती करती है। मेले के मुताबिक खेती की इस आदिम तकनीकी से उनका गुजर – बसर बहुत कठिन है।
बियोडा कृषि से जंगलों को होने वाले नुकसान के कारण सरकार द्वारा इसे रोकने के लिए कदम उठाये गये ताकि वनों की रक्षा हो सके। बियोडा किस्म की खेती पलामू में अब इतिहास की बात हो चुकी है।
कोरवा जनजाति ने भी बियोडा कृषि से जंगलों को होने वाले नुकसान को समझ लिया है अत: अब ये जोत खेती की और मुड़ गये हैं। कोरवाओं की जमीन उपजाऊ नहीं है तथा ये सरकार से इन बातों की अपेक्षा रखते हैं।
एक सौ पचास कोरवा परिवारों से पूछताछ के बाद उपलब्ध आंकड़े निम्नलिखित तथ्य दर्शाते हैं।
भूमि (एकड़ में) |
प्रतिशत |
6 से कम |
40 |
5 से 15 |
30 |
15 से 20 |
10 |
भूमिहीन |
20 |
कुल योग |
100 प्रतिशत |
उपरोक्त आंकड़ा यह स्पष्ट करता है कि इनके पास खेती के लिए पर्याप्त भूमि नहीं हैं तथा जो भूमि इन्हें उपलब्ध है, समय पर बीज, खाद, पानी तथा हल बैल की अनुपलब्धता के कारण परती ही पड़ी रह जाती है। कोरवा अपनी भूमि किसी गैर जनजातीय को नहीं बेच सकता है। भूमि पर इनका पैतृक अधिकार होता है। भू – संपति में लड़कियों की कोई हिस्सेदारी नहीं होती है। इनके द्वारा उपजाए जाने वाले फसल हैं मक्का, धान, मडूवा, तिल, बोदी आदि। लेकिन इनकी भूमि की उत्पादन क्षमता बहुत कम है।
इनकी उपज शायद ही महीने दो महीने के लिए कभी पर्याप्त नहीं हो पाती है। इन परिस्थितियों में ये क्षेत्र की अन्य जातियों और जनजातियों के यहाँ कृषि मजदूर के रूप में रोजगार तलाशते हैं। न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत इन्हें मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी भी इन्हें नहीं दी जाती है। यह सरकारी कानून प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जा सका है।
यह इनकी आजिविका का मुख्य स्रोत है। जंगलों में खाने योग्य फल – फूल, कंद – मूल प्रचुर मात्रा में हैं। इनसे वर्ष में कम से कम आठ महिने इनका पेट चलता है।
एक समय में शिकार भी इनकी आजीविका का मुख्य स्रोत था लेकिन वन कानूनों ने इनकी शिकारी जीवन को बहुत प्रभावित किया। शिकार पर लगी रोक की वजह से अब ये धीरे – धीरे अपना यह पेशा छोड़ रहे हैं।
70 प्रतिशत कोरवाओं का कहना है कि वे अब लाह की खेती नहीं करते हैं क्योंकि इसमें उन्हें लाभ नहीं मिलता है।
किसी संस्था के उचित मार्ग निर्देश और आर्थिक मदद के अभाव में कोरवा मधु संग्रहण का अपना पारम्परिक धंधा छोड़ चुके हैं। इनके बीच मधु मक्खी पालन धंधे को लोकप्रिय बनाने की बहुत संभावनाएं विद्यमान हैं।
आर्थिक बदहाली की वजह से कोरवा गाय बकरी, सूअर, मुर्गियों आदि खरीद पाने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन वे चाहते हैं कि सरकार उन्हें जानवर तथा मुर्गियां उपलब्ध कराए ताकि उसके पालने से इनकी आर्थिक दशा में सुधार हो सके।
पलामू में सूदखोरी का धंधा करने वाले व्यापारी इन दिनों काफी चतुर हो गये हैं। इस क्षेत्र की जनजातियां आज भी ऐसे सूद का धंधा करने वालों की सख्त जरूरत महसूस करती हैं क्योंकि ये लोग सालों भर उन्हें ऋण उपलब्ध करने को तत्पर रहते हैं। ऐसे महाजन काफी लंबे समय से कोरवाओं के साथ रह रहे हैं। इनके साथ कोरवा बहुत खुले हुए हैं अत: जब कभी इन्हें पैसों की जरूरत पड़ती हैं ये उधार लेने के लिए महाजनों के पास पहुँच जाते हैं। कोरवा जानते हैं कि सरकार ने सूदखोरी का धंधा बंद कराने के लिए कठोर कदम उठाए है अत: इन परिस्थितियों में ये लोग किसी भी अनजान व्यक्ति को सूदखोरी करने वाले महाजनों का नाम पता नहीं बताते हैं। कोरवा बस यही कहते हैं कि उन्होंने किसी भी महाजन या व्यक्ति से कोई ऋण नहीं लिया है। महाजनों के चंगुल से बंधुआ कोरवा मजदूरों को मुक्त कराने के सरकारी प्रयासों के बावजूद बंधुआ मजदूरों की समस्या न तो अभी पूरी तरह खत्म हुई है और न ही इसका पूर्ण समाधान निकल पाया है। बंधुआ मजदूरी प्रथा के अंतर्गत जब तक ऋण नहीं चुका दिया जाता ऋणग्रस्तता कोरवा को महाजन के यहाँ मेहनत मजदूरी करनी पड़ती हा। दयनीय आर्थिक हालत के कारण ये लोग आजीवन महाजन का ऋण नहीं चुका पाते हैं।
कोरवा समाज पितृसत्तात्मक होता है। इनमें सामान्यत: एकल परिवार की व्यवस्था होती है। जैसे ही एक कोरवा युवक विवाह बंधन में बंधता है अपने माँ- बाप से अलग होकर अपनी गृहस्थी बसाता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं होता है कि वह अपने अभिभावक का सम्मान नहीं करता है। वे अपने अभिभावक से अलग इसलिए हो रहे हैं क्योंकि कोरवा परिवार का घर सिर्फ एक कमरे का होता है।
कोरवा स्त्रियों का समाज में अच्छा स्थान होता है। वह सभी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। सभी सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में इनकी सलाह भी ली जाती है। यह देखा गया है कि उस कोरवा परिवार की तमाम आर्थिक गतिविधियों ठप्प पड़ जाती हैं जिसमें पत्नी का निधन हो जता है।
रिश्तेदार सामाजिक संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। कोरवा को विवाह और विवाह संबधों की पूर्ण जानकारी है। इनके सामजिक नियम – कानून के मुताबिक जिनके साथ आपसी खून का रिश्ता है उनमें विवाह की अनुमति नहीं होती है। मृत पति के छोटे भाई तथा इसी तरह मृत पत्नी की छोटी बहन से विवाह की इनमें प्रथा है। इनमें विधवा विवाह का भी प्रचलन है।
जन्म – सामाजिक कानून के मुताबिक सिर्फ विवाहित जोड़े को ही सन्तान पैदा करने की अनुमति होती है। इन्हें जानकारी है कि नौ माह के गर्भ के बाद बच्चा पैदा होता है। जब किसी गर्भवती स्त्री को प्रसव पीड़ा होती है तो उसे एक कमरे जिसे सौरी घर कहते हैं, में बंद कर लिटा दिया जात है। प्रसव के लिए चमार जाति की महिला जिसे डगरिन कहते हैं बुलाया जाता है। बच्चे के जन्म के तुरंत बाद उसका नाभि नाल डगरिन चाकू के काट देती हैं तथा उसे सौरीधर के ही एक कोने में गाड़ दिया जाता है। जन्म के बाद छह दिनों तक अपवित्रता मानी जाती है। छठे दिन छट्ठी नामक रस्म अदा कर भोज दिया जाता है।
विवाह – ये सजातीय विवाह करने वाले होते हैं। युवावस्था प्रारंभ होते ही सामान्यत: विवाह तय कर दिया जाता है। विवाह की बातचीत सामान्यत: अगना (विवाह तय कराने वाला) के माध्यम से शुरू होती है जो प्राय: लड़के के पिता के मित्र या रिश्तेदार होता है। इसमें कन्या दहेज़ की प्रथा बहुत आरंभिक कल से चली आ रही है। दहेज़ की रकम 10 से 20 रूपये के बीच होती है। इसके अलावा लड़की की माता के लिए साड़ी तथा लड़की के भाई के लिए धोती और तीन टोकरा मिठाई भी दहेज़ के रूप में दी जाती है।
अधिकतर विवाह अभिभावकों द्वारा तय किये जाते हैं लेकिन सहपलायन कर भी विवाह की प्रथा अब चल पड़ी है।
विवाह के रीति – रिवाज हिन्दूओं के सदृश्य ही होते हैं। लड़का कन्या की ललाट पर पांच बार सिन्दूर लगाता है। यह रस्म विवाह बंधन की प्रतीक होती है।
मृत्यु- कोरवाओं का विश्वास है उन्हें एक निश्चित समय के लिए पृथ्वी पर भेजा गया है और जब वह समय पूरा हो जाता है तो भगवान उन्हें अपने पास बुला लेता है। भगवान द्वारा बुलाये जाने की यह घटना मृत्यु कहलाती है। इनमें अधिकतर शवों को दफनाने की प्रथा है लेकिन कुछ दाह संस्कार भी करते हैं। मृत्यु के दस दिनों तक अपवित्रता मानी जाती है। मौत से दसवें या ग्यारहवें दिन नाते रिश्तेदारों के लिए सहभोज का आयोजन किया जाता है इसके बाद जिस परिवार में मौत हुई है वह पवित्र हो जाता है।
कोरवा पंचायत में सामाजिक रीति रिवाजों और कानून तोड़ने मामलों की सुनवाई होती है। पंचायत का प्रमुख प्रधान कहलाता है। किसी मामले में सुनवाई में गाँव के बड़े बुजुर्ग उसकी मदद करते हैं। जब पंचायत में कोई मामला आता है तो उसकी सुनवाई के लिए स्थान और तारीख तय कर दी जाती है। निश्चित तारीख और स्थान पर शिकायतकर्ता तथा अभियुक्त गवाहों के साथ उपस्थित होते हैं। गवाहों की परीक्षा शपथ के आधार पर होती है। प्रधान जो फैसला सुना देता है वह सभी को मान्य होता है। सरकारी पंचायत अब आगे आ रहें है और देखा जा रहा है कि कोरवा इसमें सुनवाई को अधिक प्राथमिकता दे रहे हैं।
कोरवा विश्वास करते हैं कि उनके आवासों के आस – पास की पहाड़ियों और वृक्षों पर देवता और आत्माएं निवास करती हैं। यदि समय पर उन्हें उचित तरीके से प्रसन्न नहीं किया गया तो पूरे गाँव या परिवार पर प्राकृतिक आपदा और दैवी प्रकोप होगा। ये लोग विभिन्न धार्मिक क्रियाकलापों के माध्यम से अलौकिक शक्तियों के संपर्क में रहते हैं। सभी कोरवा अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं। सिंगबोंगा (सूरज) इनका सर्वप्रथम देवता है। अन्य देवता जिनकी ये पूजा करते हैं उनमें चाँद, धरती, दिहव, गोनहल, रखसाल, सावी, सतबह्नी, करमा और सरहुल आदि शामिल है।
विद्वान एच. मोहन के मुताबिक इनमें शोषण करने वालो के प्रति विपरीत मानसिकता ने जन्म ले लिया है। इनकी इस मानसिकता के वजह से शोषकों का प्रभाव समाप्त करने की दिशा में जो प्रयास किये जाते हैं या किये गये हैं उनका उचित असर नहीं हो सका है। तनाव और अनिश्चय के वातावरण में कोई भी विकास योजना अपना वंछित उद्देश्य हासिल नहीं कर सकती है।
स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 9/18/2019
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