कन्या भ्रूण हत्या आमतौर पर मानवता और विशेष रूप से समूची स्त्री जाति के विरुद्ध सबसे जघन्य अपराध है। बेटे की इच्छा परिवार नियोजन के छोटे परिवार की संकल्पना के साथ जुडती है और दहेज़ की प्रथा ने ऐसी स्थिति को जन्म दिया है जहाँ बेटी का जन्म किसी भी कीमत पर रोका जाता है। इसलिए समाज के अगुआ लोग माँ के गर्भ में ही कन्या की हत्या करने का सबसे गंभीर अपराध करते हैं। इस तरह के अनाचार ने मानवाधिकार, वैज्ञानिक तकनीक के उपयोग और दुरुपयोग की नैतिकता और लैंगिक भेदभाव के मुद्दों को जन्म दिया है।
गर्भ से लिंग परीक्षण जाँच के बाद बालिका शिशु को हटाना कन्या भ्रूण हत्या है। केवल पहले लड़का पाने की परिवार में बुजुर्ग सदस्यों की इच्छाओं को पूरा करने के लिये जन्म से पहले बालिका शिशु को गर्भ में ही मार दिया जाता है। ये सभी प्रक्रिया पारिवारिक दबाव खासतौर से पति और ससुराल पक्ष के लोगों के द्वारा की जाती है। गर्भपात कराने के पीछे सामान्य कारण अनियोजित गर्भ है जबकि कन्या भ्रूण हत्या परिवार द्वारा की जाती है। भारतीय समाज में अनचाहे रुप से पैदा हुई लड़कियों को मारने की प्रथा सदियों से है।
लोगों का मानना है कि लड़के परिवार के वंश को जारी रखते हैं जबकि वो ये बेहद आसान सी बात नहीं समझते कि दुनिया में लड़कियाँ ही शिशु को जन्म दे सकती हैं, लड़के नहीं।
कुछ सांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक नीतियों के कारण पुराने समय से किया जा रहा कन्या भ्रूण हत्या एक अनैतिक कार्य है। भारतीय समाज में कन्या भ्रूण हत्या के निम्न कारण हैं-
कन्या भ्रूण हत्या की मुख्य वजह बालिका शिशु पर बालक शिशु की प्राथमिकता है क्योंकि पुत्र आय का मुख्य स्त्रोत होता है जबकि लड़कियां केवल उपभोक्ता के रुप में होती हैं। समाज में ये गलतफहमी है कि लड़के अपने अभिवावक की सेवा करते हैं जबकि लड़कियाँ पराया धन होती है।
दहेज़ व्यवस्था की पुरानी प्रथा भारत में अभिवावकों के सामने एक बड़ी चुनौती है जो लड़कियां पैदा होने से बचने का मुख्य कारण है।
कन्या भ्रूण हत्या का अर्थ और परिभाषा
कन्या भ्रूण हत्या का मतलब है माँ की कोख से मादा भ्रूण को निकल फेंकना। जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीक (दुरुपयोग के नियमन और बचाव) अधिनियम 2002 की धारा 4 (1) (b,c )के तहत के अनुसार भ्रूण को परिभाषित किया गया है- “निषेचन या निर्माण के सत्तानवे दिन से शुरू होकर अपने जन्म के विकास की अवधि के दौरान एक मानवीय जीव।”
कन्या भ्रूण हत्या ने बुराइयों की एक श्रृंखला को जन्म दिया है। पिछले तीन दशकों में बड़े पैमाने पर कन्या भ्रूण हत्या के कुप्रभाव गिरते लिंगानुपात और विवाह योग्य लड़कों के लिए वधुओं की कमी के रूप में सामने आये हैं। इसके अलावा जनसंख्या विज्ञानी आगाह करते हैं कि अगले बीस सालों में चूँकि विवाह योग्य महिलाओं की संख्या में कमी आएगी इसलिए पुरुष कम उम्र की महिलाओं से विवाह करेंगे जिससे जन्मदर में वृद्दि के कारण जनसंख्या वृद्धि के दर भी ऊँची हो जाएगी। लड़कियों को अगवा करना भी इसी से जुडी एक समस्या है। अविवाहित पुरुषों की अधिक तादाद वाले समाज के अपने खतरे हैं। यौनकर्मी के तौर पर अधिक महिलाओं का शोषण होने की सम्भावना है। यौन शोषण और बलात्कार इसके स्वाभाविक परिणाम हैं। पिछले कुछ सालों से यौन अपराधों का तेजी से बढता ग्राफ असमान लिंगानुपात के परिणामों से जुड़ा है।
भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत प्रावधान : भारतीय दंड संहिता की धारा 312 कहती है: ‘जो कोई भी जानबूझकर किसी महिला का गर्भपात करता है जब तक कि कोई इसे सदिच्छा से नहीं करता है और गर्भावस्था का जारी रहना महिला के जीवन के लिए खतरनाक न हो, उसे सात साल की कैद की सजा दी जाएगी’। इसके अतिरिक्त महिला की सहमति के बिना गर्भपात (धारा 313) और गर्भपात की कोशिश के कारण महिला की मृत्यु (धारा 314) इसे एक दंडनीय अपराध बनाता है। धारा 315 के अनुसार मां के जीवन की रक्षा के प्रयास को छोड़कर अगर कोई बच्चे के जन्म से पहले ऐसा काम करता है जिससे जीवित बच्चे के जन्म को रोका जा सके या पैदा होने का बाद उसकी मृत्यु हो जाए, उसे दस साल की कैद होगी धारा 312 से 318 गर्भपात के अपराध पर सरलता से विचार करती है जिसमें गर्भपात करना, बच्चे के जन्म को रोकना, अजन्मे बच्चे की हत्या करना (धारा 316), नवजात शिशु को त्याग देना (धारा 317), बच्चे के मृत शरीर को छुपाना या इसे चुपचाप नष्ट करना (धारा 318)। हालाँकि भ्रूण हत्या या शिशु हत्या शब्दों का विशेष तौर पर इस्तेमाल नहीं किया गया है , फिर भी ये धाराएं दोनों अपराधों को समाहित करती हैं।
इन धाराओं में जेंडर के तटस्थ शब्द का प्रयोग किया गया है ताकि किसी भी लिंग के भ्रूण के सन्दर्भ में लागू किया जा सके। हालाँकि भारत में बाल भ्रूण हत्या या शिशु हत्या के बारे में कम ही सुना गया है। भारतीय समाज में जहाँ बेटे की चाह संरचनात्मक और सांस्कृतिक रूप से जुड़ी हुई है, वहीँ महिलाओं को बेटे के जन्म के लिए अत्यधिक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दबाव झेलना पड़ता है। इन धाराओं ने कुछ और जरूरी मुद्दों पर विचार नहीं किया है जिनमें महिलाएं अत्यधिक सामाजिक दबावों की वजह से अनेक बार गर्भ धारण करती हैं और लगातार गर्भपातों को झेलती हैं।
1964 में स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक समिति का गठन किया । शांतिलाल शाह नाम से गठित इस समिति को महिलाओं द्वारा की जा रही गर्भपात की कानूनी वैधता की मांग के मद्देनजर महिला के प्रजनन अधिकार के मानवाधिकार के मुद्दों पर विचार करने का काम सौंपा गया। 1971 में संसद में गर्भ की चिकित्सकीय समाप्ति अधिनियम, 1971 (एमटीपी एक्ट) पारित हुआ जो 1 अप्रैल 1972 को लागू हुआ और इसे उक्त अधिनियम के दुरुपयोग की संभावनाओं को को ख़त्म करने के उद्देश्य से गर्भ की चिकित्सकीय समाप्ति संशोधन अधिनियम (2002 का न।64) के द्वारा 1975 और 2002 में संशोधित किया गया। गर्भ की चिकित्सकीय समाप्ति अधिनियम केवल आठ धाराओं वाला छोटा अधिनियम है। यह अधिनियम महिला की निजता के अधिकार, उसके सीमित प्रजनन के अधिकार , उसके स्वस्थ बच्चे को जन्म देने के अधिकार, उसका अपने शरीर के सम्बन्ध में निर्णय लेने के अधिकार की स्वतंत्रता की बात करता है लेकिन कुछ बेईमान लोग केवल कन्या भ्रूण को गिराकर इसका बेजा फायदा उठा रहे हैं।
एमटीपी एक्ट में गर्भ को समाप्त करने की दशाएं (धारा 3), और ऐसा करने के लिए व्यक्ति (धारा 2 d) और स्थान (धारा 4) को निर्धारित किया गया है। इस अधिनियम के अनुसार निम्न दशाओं में गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दी जाती है-
(1) जिसमें गर्भ को जारी रखने की सलाह नहीं दी गयी हो और गर्भ महिला के जीवन के लिए खतरा बन सकता है और यह बतौर गर्भवती उसे कुछ गंभीर रोगों से पीड़ित बना सकता है-
(2) जहाँ पर गर्भावस्था के जारी रहने पर नवजात शिशु के लिए काफी जोखिम हो सकता है और इससे गंभीर तौर पर मानसिक/ बौद्धिक विकलांगता उत्पन्न हो सकती है। जैसे-
(3) जहाँ पर बलात्कार के कारण गर्भ ठहरा हो (1 से धारा 3 में व्याख्यायित)
किसी भी गर्भपात से पहले स्त्री रोग विशेषज्ञ की पूर्व सलाह लेना आवश्यक है। और अगर 12 हफ़्तों से अधिक और 20 हफ़्तों से कम दिनों का है तो दो डॉक्टरों की सलाह लेना जरूरी है (धारा 2(क) और (ख))। गर्भ गिराने के लिए निश्चित प्रपत्र पर महिला की लिखित सहमति लेना आवश्यक है। महिला की सहमति स्वतंत्र होनी चाहिए और उक्त दशाओं पर ही आधारित होनी चाहिए। पति की सहमति की आवश्यकता नहीं है।18 साल से कम उम्र की लड़कियों, और मानसिक रूप से अस्थिर महिलाओं के सम्बन्ध में उनके अभिभावकों की सहमति लेना आवश्यक है (धारा 3)। इस सहमति में यह आश्वासन दिया जाता है कि चिकित्सक के द्वारा किये जाने वाले गर्भपात के लिए वह अपनी मर्जी से राजी है और उसे प्रक्रिया, उसमें निहित खतरे और उसके बाद बरती जाने वाली सावधानियों के बारे में जानकारी दे दी गयी है।
यह अधिनियम गर्भपात करने वाले चिकित्सकों की योग्यता का भी निर्धारण करता है और केवल सरकारी लाइसेंस प्राप्त केन्द्रों पर ही गर्भपात कराया जा सकता है। इन संस्थानों को सरकार द्वारा जारी प्रमाणपत्र को केंद्र में ऐसी जगह पर लगाना होगा जिससे कोई भी बाहरी व्यक्ति उसे देख सके।
इस अधिनियम के प्रावधानों का उद्देश्य अवैध गर्भपात के खतरों को कम करना है जो कि नीम-हकीमों के अप्रशिक्षित हाथों से गर्भपात करने पर किसी महिला के जीवन और सेहत के लिए खतरनाक बन सकता है। इसके साथ ही इस अधिनियम का मकसद महिलाओं को उनके शरीर पर अधिक नियंत्रण देने और समग्र भलाई के लिए गर्भपात को उदार बनाना है। लेकिन यह अधिनियम पुराना हो चुका है क्योंकि यह विवाद के उन मुद्दों को संबोधित करने में असमर्थ है जो कि विधिक अधिकारों की दृष्टि से अजन्मे बच्चे बनाम आपराधिक और संपत्ति अधिकार के रूप में सामने आते हैं। आज गर्भ में बीमारी से पीड़ित होने के बावजूद लापरवाही बरतने के कारण विकृति के साथ पैदा हुए एक बच्चे की वजह से लॉ ऑफ़ टोर्ट्स के तहत मुकदमा दायर किया जा सकता है। 18 दिसम्बर 1979 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभावों के उन्मूलन की वियना घोषणा (सीडॉ) को मंजूर किया । 19 जून 1993 को भारतीय सरकार ने इसी घोषणा को यथावत मंजूर कर लिया। सीडॉ की प्रस्तावना में कहा गया है - महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव समानता के सिद्धांत और मानवीय गरिमा के आदर का घोर उल्लंघन है। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह कानूनों में बदलाव या मौजूदा कानूनों, नियमों, परिपाटियों और प्रथाओं में से जेंडर आधारित भेदभाव को ख़त्म करने के लिए उचित कदम उठाए।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 “जीवन के अधिकार” की घोषणा करता है। अनुच्छेद 51A (e) महिलाओं के प्रति अपमानजनक प्रथाओं के त्याग की व्यवस्था भी करता है। उपरोक्त दोनों घोषणाओं के आलोक में भारतीय संसद ने लिंग तय करने वाली तकनीक के दुरुपयोग और इस्तेमाल से कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीक (दुरुपयोग का नियमन और बचाव ) अधिनियम, 1994 पारित किया। इस अधिनियम के प्रमुख लक्ष्य हैं-
गर्भाधान पूर्व लिंग चयन तकनीक को प्रतिबंधित करना
लिंग-चयन संबंधी गर्भपात के लिए जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीकों के दुरूपयोग को रोकना
जिस उद्देश्य से जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीकों को विकसित किया है, उसी दिशा में उनके समुचित वैज्ञानिक उपयोग को नियमित करना
सभी स्तरों पर अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना
इस अधिनियम को बड़े जोर-शोर से पारित किया गया लेकिन राज्य इसे समुचित तरीके से लागू करने के लिए माकूल व्यवस्था करने में नाकामयाब रहा। क्लीनिकों में अधूरे अभिलेखों अथवा अभिलेखों के देख-रेख के अभाव में यह पता करना मुश्किल हो जाता है कि कौन-से अल्ट्रा-साउंड का परीक्षण किया गया था। यहाँ तक कि पुलिस महकमा भी सामाजिक स्वीकृति के अभाव में इस अधिनियम के तहत कोई मामला दर्ज करने में असफल रहा है। डॉक्टरों द्वारा कानून का धड़ल्ले से उल्लंघन जारी है जो अपने फायदे के लिए लोगों का शोषण करते हैं। गर्भाधान के चरण के दौरान X और Y गुणसूत्रों को अलग करना, पीसीजी इत्यादि नयी तकनीकों के दुरुपयोगों ने इस अधिनियम को नयी स्थितियों में बेअसर बना दिया है।
इस अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए और मौजूदा कानून में खामियों पर जीत हासिल करने के लिए स्वास्थ्य एवम परिवार कल्याण मंत्रालय ने संशोधनों की एक श्रृखंला प्रस्तावित की थी जिसे संसद में मंजूर कर लिया गया था। इससे पीएनडीटी अधिनियम 2002 दिसम्बर में अस्तित्व में आया।बाद में इस अधिनियम को गर्भाधान पूर्व-प्रसव पूर्व परीक्षण तकनीक (लिंग चयन प्रतिबन्ध) अधिनियम कहा गया। इसके बाद स्वास्थ्य एवम परिवार कल्याण मंत्रालय ने प्रसव-पूर्व परीक्षण (दुरुपयोग का नियम एवम बचाव) अधिनियम 2003 ने 14 फरवरी को 1996 के नियम को विस्थापित कर दिया।
(क) लिंग चयन या लिंग का पूर्व-निर्धारण की सेवा देने वाले विज्ञापनों का प्रकाशन;
(ख) गर्भाधान-पूर्व या जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीकों वाले क्लीनिकों का पंजीकृत नहीं होना या क्लिनिक या संस्थान के भीतर सबको दिखाई देने वाले पंजीकरण प्रमाणपत्र को प्रदर्शित नहीं करना;
(ग) अजन्मे बच्चे के लिंग का निर्धारण करना;
(घ) गर्भवती को लिंग निर्धारण परीक्षण के लिए मजबूर करना;
(ङ) लिंग चयन की प्रक्रिया में सहयोग या सुविधा प्रदान करना;
(च) चिकित्सक द्वारा गर्भवती या अन्य व्यक्ति को अजन्मे बच्चे के लिंग के बारे में किसी भी तरह सूचित करना।
(छ) पीसी एंड पीएनडीटी एक्ट के अंतर्गत पंजीकृत क्लीनिकों द्वारा अभिलेखों को भली-भांति सहेज कर नहीं रखना।
इस अधिनियम के क्रियान्वयन का निरीक्षण और पुनरीक्षण करने के लिए राज्यस्तरीय निरीक्षण निकाय को बनाने की सिफारिश की गयी थी। यह निकाय गर्भाधान पूर्व और जन्म-पूर्व भ्रूण के लिंग का निर्धारण करने की कुप्रथा के प्रति जनता को जागरूक करेगा। यह राज्य में इस क्षेत्र में कार्यरत संस्थाओं के कामकाज की निगरानी करेगा और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में विफल रहने पर उनके खिलाफ कार्रवाई भी करेगा। इस अधिनियम और इसके नियमों के तहत चलायी जा रही विभिन्न गतिविधियों का भी यह संज्ञान लेगा और केन्द्रीय निगरानी आयोग और केंद्र सरकार को इस सम्बन्ध में ठोस रिपोर्ट भेजेगा।
कोई भी शिकायतकर्ता अपनी शिकायत को राज्य स्तरीय प्राधिकरण में नियुक्त प्राधिकृत अधिकारी के सामने दर्ज करा सकता है। इस अधिकारी का दर्जा स्वास्थ्य विभाग में संयुक्त निदेशक, स्वास्थ्य एवम परिवार कल्याण विभाग के पद से ऊपर होगा। जिला स्तर पर सिविल सर्जन या मुख्य चिकित्सा अधिकारी और नगर में मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी या वार्ड स्वास्थ्य अधिकारी या चिकित्सा अधीक्षक को प्राधिकृत किया जाएगा। शिकायत लिखित में दर्ज की जाएगी और उसके प्राधिकारी को भी पावती देनी होगी। अगर नियुक्त प्राधिकरण 15 दिन के अन्दर कार्रवाई करने में विफल रहता है तो शिकायतकर्ता उपयुक्त न्यायक्षेत्र वाली अदालत में पावती के साथ जा सकता है।
इस अधिनियम का उल्लंघन करने पर जिसमें बिना लाइसेंस के प्रयोगशालाओं को चलाना भी शामिल है, उपकरणों को सील कर दिया जाएगा। उपयुक्त प्राधिकरण उपकरणों को सील करने के साथ साथ उनके उपयोग को प्रतिबन्धित कर सकता है। लिंग चयन में लिप्त पाए गए दोषियों की जुर्माना राशी पचास हज़ार से बढ़ाकर एक लाख की गयी है जिसमें चिकित्सक का पंजीकरण रद्द करने, निलंबन का अतिरिक्त प्रावधान है।
केवल कानून बना देने से सामाजिक बुराई का अंत नहीं हो सकता। महिलाओं के प्रति भेदभाव आम बात है और ख़ास तौर पर कन्या के प्रति उपेक्षा हमारे समाज में गहरे जड़ों तक धंसी है। तमाम कानूनों के बावजूद समाज में पुरुषों की श्रेष्ठता की गलत अवधारणा समाज के लिए खतरनाक है। आम जनता को महिलाओं के सम्मान के विरुद्ध भेदभाव रखने वाली प्रथाओं के उन्मूलन के लिए संवेदनशील बनाने की तत्काल आवश्यकता है।
गिरते लिंग अनुपात को सँभालने की जरुरत है और इसमें राज्य, मीडिया, पत्रकारों, गैर-सरकारी संगठनों, चिकित्सकों, महिला संगठनों और जनता को साथ खड़े होने की आवश्यकता है ताकि इस बात को सुनिश्चित किया जा सके कि कन्या भ्रूण हत्या विरोधी कानून पूरे तरीके से और कारगर ढंग से लागू हो पाएं। निगरानी, शैक्षिक अभियान और प्रभावी कानूनी क्रियान्वन, इन सबके संयोजन से लोगों के मन में गहरी बैठी महिला और कन्या विरोधी मानसिकता और कुप्रथाओं को दूर किया जा सकता है। इस संबंध में धार्मिक नेताओं को भी आगे आना चाहिए। उन्हें धर्मग्रंथों के सम्बन्ध में भ्रांतियों के बारे में स्पष्ट करना चाहिए और वैज्ञानिक, तार्किक और मानवीय दृष्टिकोण को बढ़ावा देना चाहिए। पारंपरिक रूप से पुत्र के जन्म तक सीमित धार्मिक कर्मकांडों को बेटी के सन्दर्भ में भी विस्तृत करना चाहिए।
कई राज्यों ने कन्याओं के लिए योजनाएं जारी की हैं जैसे कि कन्या के जन्म पर माता-पिता को नकदी देना, स्नातक स्तर तक मुफ्त शिक्षा, कुछ पॉलिसी में किश्तों में भुगतान किया जाता है जो कन्या के विवाह के समय परिपक्व होती हैं, इत्यादि। जमीनी स्तर पर स्थानीय पंचायतों को भी कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए। स्थानीय नेताओं को अपने इलाके के शिक्षित लोगों को जागरूक करने, जनता को शिक्षित करने के लिए नियुक्त करना चाहिए ताकि लोगों का सबलीकरण हो और कन्या भ्रूण हत्या विरोधी अभियानों में महिलाओं को अभियानों में सबसे आगे खड़ा करना चाहिए। सूचना देने वालों को पुरस्कार देना चाहिए। इस कुप्रथा की भयावहता और गंभीरता के बारे में मीडिया में व्यापक प्रचार होना चाहिए। गैर-सरकारी संगठनों को जनता को इस सम्बन्ध में शिक्षित करने की भूमिका निभानी चाहिए। राष्ट्रीय महिला आयोग, गैर-सरकारी संगठन, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय को मौजदा कानूनों को समुचित ढंग से लागू करने के लिए बेहतर योजनायें बनानी चाहिए और अख़बारों, रेडियो, दूरदर्शन और इन्टरनेट पर व्यापक स्तर पर जन अभियान चलाने चाहिए।
चिकित्सा व्यवसाय और इसके संगठनों जैसे भारतीय चिकित्सा संगठन, रेडियोलाजिस्ट एसोसिएशन, प्रसूति विशेषज्ञ तथा स्त्री रोग विशेषज्ञों के संगठन इत्यादि के साथ चिकित्सा जगत को मानवता के व्यापक हित में अपने तुच्छ स्वार्थों को छोड़ना चाहिए। चिकित्सकों के लिए एक मजबूत आचार संहिता बनाने की आवश्यकता है। भारतीय चिकित्सा परिषद् अधिनियम , 1956, चिकित्सा परिषद् की नैतिक आचार संहिता, 1970 वर्तमान कानूनों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए संशोधित किया जाना चाहिए और सबसे बड़ी बात महिलाएं जो जननी हैं उन्हें बेटा पैदा करने की थोपी हुई जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त करना चाहिए। चाहे लड़का हो या लड़की, एक बच्चे को स्वास्थ्य रूप से जन्म लेने का अधिकार है और यह माता-पिता की जिम्मेदारी है कि वह शिशु को उसके विकास के लिए सुरक्षित, देखभाल से भरा वातावरण प्रदान करें। सभी महिलायें, चाहे वो माँ हों या सास, सभी को अपने स्तर पर इस दुर्व्यवहार को रोकना चाहिए। हमें अपनी बेटियों को बेटों की तरह पालना चाहिए और उन्हें समान रूप से सफ़ल बनाना चाहिए और इस पुरानी धारणा को खारिज करना चाहिए कि लड़कियों की शिक्षा केवल विवाह के लिए ही काम आती हैं दुनिया का सामना करने के लिए शिक्षा एक हथियार है। भारतीय समाज में कन्या भ्रूण हत्या की गंभीर चुनौती को रोकने के लिए हमें महिलाओं को सशक्त बनाना होगा। दहेज़ प्रथा जैसी कुरीतियों के खिलाफ अभियान चलाकर और मौजूदा कानूनों को सख्ती से लागू कर महिला अधिकारों को मजबूती देनी होगी।
सरकार ने देश में कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए बहुआयामी रणनीति अपनाई है। इसमें जागरुकता पैदा करने और विधायी उपाय करने के साथ-साथ महिलाओं को सामाजिक-आर्थिक रूप से अधिकार संपन्न बनाने के कार्यक्रम शामिल हैं। इनमें से कुछ उपाय नीचे दिए गए है-
भारत सरकार और अनेक राज्य सरकारों ने समाज में लड़कियों और महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए विशेष योजनाएं लागू की गई हैं। इसमें धनलक्ष्मी जैसी योजना शामिल है।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो से प्राप्त जानकारी के अनुसार 2011 के दौरान देश में कन्या भ्रूण हत्या के कुल 132 मामले दर्ज किए गए। इस सिलसिले में 70 लोगों को गिरफ्तार किया गया, 58 के खिलाफ आरोप-पत्र दायर किया गया और 11 को दोषी ठहराया गया।
स्रोत: महिला एवं बाल विकास विभाग, पत्र सूचना कार्यालय, वर्चुअल लर्निंग
अंतिम बार संशोधित : 4/15/2024
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