लेंटाना एक बहुवर्षीय झाड़ीनुमा पौधा है। इसके पौधे की ऊँचाई प्रजातियों के अनुसार 2-8 फीट तक होती है। यह निचली जमीन से लेकर 1600 मीटर की ऊँचाई वाली पहाड़ियों में पाया जाता है। यह सूखा सहन करने की अत्यधिक क्षमता रखता है। यह एक स्थान से दूसरे स्थान पर बीजों व टहनियों के माध्यम से फैलता है। पशुओं द्वारा इसकी पत्तियाँ खा लेने पर, उनको कई बीमारियाँ घेर लेती हैं। इसका फसलों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।
हमारे देश में लेंटाना खरपतवार 1809-1810 में आस्ट्रेलिया से सजावटी पौधे के रूप में लाया गया। परन्तु धीरे-धीरे इसका भीषण प्रकोप पूरे देश में खरपतवार के रूप में हो गया। हमारे देश में इस खरपतवार की 7-8 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, यह खरपतवार जम्मूकश्मीर, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, असम एवं दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में फैला हुआ मिलता है।
लेंटाना को विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। जैसे पंचफूली बूटी (हिन्दी), फुलनू (पहाड़ी), पुलीखुम्पा (तेलगू), उन्नीचाड़ी (तमिल), एरिप्पू (मलयालम), घनेरी (मराठी) तथा नाटाहुजिड़ा/हेसिका (कन्नड़) आदि। यह वरबानेसी कुल का पौधा है। इसका मूल स्थान मध्य एवं दक्षिण अमेरिका तथा वेस्टइंडीज माना जाता है। यूँ तो संसार में इसकी कई प्रजातियाँ हैं जिसमें लेंटाना केमेरा प्रमुख हैं। विश्व में यह खरपतवार अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जाम्बिया, भारत, दक्षिण आफ्रीका एवं अनके यूरोपी देशों के विभिन्न भागों में फैला है।
यह बहुवर्षीय झाड़ीनुमा पौधा है, जिसकी लंबाई विभिन्न प्रजातियों के अनुसार 2 से 8 फीट तक होती है। जिसका तना काष्ठीय, रोयेंदार होता है तथा कुछ प्रजातियों में तने पर कांटे भी पाए जाते हैं। पत्तियाँ रोयेंदार, हरी 3 से 5 इंच लंबी होती हैं। पत्तियों के रगड़ने पर उनमें से एक विशेष प्रकार की गंध आती है। इसके फुल छोटे-छोटे गुच्छों में निकलते हैं जिनका रंग सामान्यत: पीला, सफेद, गुलाबी अथवा क्रीमी होता है। फलों का रंग प्रारंभ में चमकदार हरा था बाद में परिपक्व होने पर बैंगनी काला हो जाता है। पौधे की जड़े लंबी एवं पार्श्व शाखायुक्त होती हैं, जिससे इस पौधे को उखाड़ना कठिन होता है। पौधे की सक्रिय बढ़वार मार्च से जून तक होती है तथा जून से अक्टूबर तक फूल एवं फल बनते रहते हैं। नवम्बर से फरवरी तक यह पौधा शुषुप्ता अवस्था में रहता है।
यह खरपतवार विभिन्न प्रकार की भूमियों एवं जलवायु में उगने की क्षमता रखता है। यह बेकार पथरीली भूमि से लेकर अच्छी एवं उपजाऊ भूमियों में, निचली जमीनों से लेकर 1600 मीटर ऊँची पहाड़ियों में भी पाया जाता है। यह कम वर्षा वाले क्षेत्रों (100 मिमी.) से लेकर अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों (500 मिमी.) में भी भली भांति फूलता है। इसमें सूखा सहन करने की अत्यधिक क्षमता होती है। प्रमुख रूप से लेंटाना के पौधे, खाली स्थानों, अनुपयोगी भूमियों, औद्योगिक क्षेत्रों, सड़क तथा रेलवे लाइन के किनारों आदि पर देखे जाते हैं।
लेंटाना का एक स्थान से दूसरे स्थान पर फैलाव बीजों एवं टहनियों के माध्यम से होता है। पक्षियों एवं जानवरों द्वारा इसके फल को खाने के बाद में दूसरे स्थान पर मल त्यागने से इसके बीज जमीन से अंकुरित हो जाते है। मनुष्यों के माध्यम से इसकी टहनियों को एक स्थान से तोड़कर दूसरे स्थान पर फेंक देने से भी इसका फैलाव होता रहता है।
लेंटाना एक बहुत ही खतरनाक एवं विषाक्त पौधा है। पौधे के रासयनिक विश्लेषण से पता चलता है कि इसकी पत्तियों एवं फलों में ‘लेंटाडेन’ एवं ‘लेनकैमेंरेन’ नामक विषाक्त पदार्थ पाया जाता है। जिसके कारण पशुओं (मुख्यत: गाय) द्वारा इसकी पत्तियाँ खाने पर उनमें अनेक प्रकार की बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं, जैसे पीलिया, पशुओं को भूख न लगना, मुंह से अधिक मात्रा में लार निकलना, यत एवं गुर्दा खराब होना, आदि तथा पशुओं की कभी-कभी मृत्यु भी हो जाती है। इसके अतिरिक्त यह कीटों एवं रोगों के विषाणुओं को भी आश्रय देता है जिसके कारण जंगलों में उपयोगी वृक्षों पर रोग एवं कीटों का प्रकोप बढ़ जाता है।
लेंटाना की रोकथाम मुख्यत: निम्न विधियों द्वारा की जा सकती हैं:
इस विधि में लेंटाना के पौधों को जमीन की ऊपरी सतह से काटकर जला दिया जाता है तथा बाद में जो नए पौधे निकलते हैं, उनको वर्षा ऋतु में हाथ से उखाड़कर फेंक दिया जाता है। ऐसा बार-बार करने से इस पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। इसके अलावा पहली बार इसकी कटाई करने के बाद वहां पर जल्दी बढ़ने वाले पौधे जैसे – अरण्डी, रबड़, मैक्सिकन सूरजमुखी तथा कुछ घासें जैसे सिटेरिया, नेपियर घास, गुयेना घास, बहुवर्षीय अरहर तथा चारे के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले वृक्ष आदि लगा देने से लेंटाना की बढ़वार काफी हद तक रुक जाती है। लेकिन यांत्रिक विधि के उपरोक्त तरीकों में अत्यधिक श्रम एवं धन की आवश्यकता होती है। इसकी जड़े काफी गहराई तक जाती हैं तथा बहुत मजबूत होती हैं। इसलिए इन्हें हाथ से भी उखाड़ने में काफी परिश्रम करना पड़ता है तथा इसका पूरी तरह उन्मूलन असंभव हो जाता है।
देश के विभिन्न भागों में किए गए परीक्षणों से पता चलता है कि शाकनाशियों के प्रयोग से इस खरपतवार पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है। इन शाकनाशी रसायनों में 2,4 डी, ग्लायफोसेट (राउंडअप, ग्लायसेल) एवं पैराक्वाट (ग्रेमेक्सोन) प्रमुख हैं। लेंटाना के पौधों को जमीन की ऊपरी सतह से काटकर कटे हुए भाग पर 2, 4 डी का 10 प्रतिशत घोल छिडकने पर अच्छे परिणाम मिले हैं। इसके अतिरिक्त ग्लायफोसेट रसायन की 2.25 से 4.50 किग्रा./हें. मात्रा को 600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से लेंटाना की रोकथाम की जा सकती है। हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर में किये गये परीक्षणों से पता चलता है कि लेंटाना के प्रभावी नियंत्रण के लिए अगस्त-सितम्बर के महीने में इसके पौधों को जमीन की सतह से 2 या 3 इंच ऊपर से काट देना चाहिए। इसके एक महीने बाद काटे हुए भाग से बहुत सी नई पत्तियाँ निकलती हैं, जिनके ऊपर ग्लायफोसेट के 1 प्रतिशत घोल का अच्छी तरह छिड़काव करने से पौधे में पुन: वृद्धि नहीं होती है तथा इसकी जड़े पूरी तरह से सूख जाती हैं।
इस विधि से खरपतवारों का नियंत्रण इनके प्राकृतिक शत्रुओं मुख्यत: कीटों, रोग के जीवाणुओं एवं वनस्पतियों द्वारा किया जाता है। चूँकि यांत्रिक विधि से लेंटाना का नियंत्रण अस्थाई एवं खर्चीला होता है तथा शाकनाशी रसायनों का अधिक प्रयोग पर्यावरण एवं स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल है। इसलिए जैविक विधि द्वारा इस खरपतवार के नियंत्रण के लिए कुछ प्रयास किये गए है। अनुसंधान के परिणामों से पता चलता है कि पत्ती खाने वाले कीड़ों की कुछ प्रजातियाँ इस खरपतवार को भी हानि पहुंचाती हैं। हमारे देश में 1916 में भारत सरकार ने टेलियोनेमिया स्कुपुलोसा (टिंजिड बग) नामक कीड़े द्वारा इस खरपतवार को नष्ट करने की संभावनाओं का पता लगाया तथा आस्ट्रेलिया से 1941 में इस कीड़े का आयात किया गया लेकिन इस कीड़े द्वारा लेंटाना का सफल नियंत्रण नहीं हो पाया तथा साथ ही साथ इस कीड़े का प्रकोप सागौन के पौधों पर भी पाया गया। इसके लगभग 10 वर्ष पश्चात नैनीताल जिले के प्राइमरी स्कूल के अध्यापक श्री चन्द्रशेखर लोहमी ने इस कीड़े को देहरादून के आसपास लेंटाना के पौधे पर देखा तथा थोड़े से क्षेत्र में इस कीड़े द्वारा लेंटाना का सफल नियंत्रण बताया। यह कीड़ा लेंटाना की पत्तियों पर पाया जाता है तथा उससे रस चूसता है जिसके फलस्वरूप शुरू में पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं तथा बाद में सूखकर गिर जाती है तथा धीरे-धीरे पौधा नीचे की तरफ सूख जाता है।
लेंटाना की सूखी टहनियों को गरीब परिवारों द्वारा ईधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके पौधे को बायोगैस उत्पादन में प्रयोग किया जा सकता है। लेंटाना के जैव पदार्थ को मृदा नमी संरक्षण, पलवार एवं कम्पोस्ट की खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है तथा जमीन की उर्वरा शक्ति को स्थिर रखा जा सकता है। पहाड़ियों एवं ढलानों पर इसके द्वारा मृदा क्षरण को रोका जा सकता है। लेंटाना की हरी टहनियों एवं पत्तियों को पडलिंग (मचाई) किये गये धान के खेत में रोपाई के पहले उपयोग करने से लगभग 40 किग्रा. नाइट्रोजन/हेक्टेयर की बचत होती है तथा साथ ही साथ यह मोथा जैसे खरपतवार को भी कम करने में मदद करता है।
वर्तमान हिमाचल सहित कई क्षेत्रों में लेंटाना का प्रयोग फर्नीचर टोकरी बाड़ हेतु चटाई नुमा टाटी बनाने हेतु सफलतापूर्वक प्रयोग हो रहा है जो कि मजबूत होने के साथ-साथ सस्ती है।
स्त्रोत: कृषि विभाग, भारत सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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