मसूर रबी में उगायी जाने वाली बिहार की बहुप्रचलित एवं लोकप्रिय दलहनी फसल है। इसकी खेती बिहार के सभी भूभागों में की जाती है। भूमि की उर्वराशक्ति बनाये रखने में यह सहायक होती है। मसूर की फसल असिंचिंत क्षेत्रों के लिए अन्य रबी दलहनी फसलों की अपेक्षा अधिक उपयुक्त है।इसकी खेती हल्की, उपरी भूमि से लेकर धनहर क्षेत्रों के खेतों में की जा सकती है । टाल क्षेत्रों हेतु यह एक प्रमुख फसल है।
अगात खरीफ फसल एवं धान की कटनी के बाद खेत की अविलम्ब तैयारी जरूरी है । पहली जुताई मिट्टी पलटने वाली हल से व दूसरी जुताई कल्टीवेटर से करके पाटा लगा देते है जिससे खेत समतल हो जायेगा।
छोटे दाने की प्रजाति के लिये 30-35 एवं बडे दाने के लिये 40-45 कि0ग्रा0/हे0 । पैरा फसल के रूप मे बुआई हेतु 50-60 कि0ग्रा0/हे0 ।
1. बुआई के 24 घंटे पूर्व 2.5 ग्राम फफूँदनाशी दवा (जैसे डाईफोल्टान अथवा थीरम अथवा कैप्टान) से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करें ।
2. कजरा पिल्लू से बचाव हेतु क्लोरपाइरीफॉस 20 र्इ्र.सी. कीटनाशी दवा का 8 मि.ली./कि0ग्रा0 बीज की दर से उपचार करना चाहिए।
3. फफूँदनाशक एवं कीटनाशक दवा से उपचारित बीज को बुआई के ठीक पहले अनुशंसित राइजोबियम कल्चर एवं पी.एस.बी. से उपचारित कर बुआई करें ।
पंक्ति से पंक्ति 25 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंमी. ।
उन्नत प्रभेद |
बुआई का समय |
परिपक्वता अवधि (दिन) |
औसत उपज (क्वि0/हे0) |
अभ्युक्ति |
बी. आर. 25 |
15 अक्टूबर-15 नवम्बर |
110-120 |
14-15 |
पूरे बिहार के लिये उपयुक्त |
पी.एल. 406 |
25 अक्टूबर-25 नवम्बर |
130-140 |
18-20 |
पूरे बिहार एवं पैरा फसल के लिये उपयुक्त |
मल्लिका (के. 75) |
15 अक्टूबर-15 नवम्बर |
130-135 |
20-22 |
पूरा बिहार, दाना मध्यम बड़ा |
अरूण (पी.एल. 77-12) |
15 अक्टूबर-15 नवम्बर |
110-120 |
22-25 |
दाना मध्यम बड़ा |
पी. एल. 639 |
25 अक्टूबर-15 नवम्बर |
120-125 |
18-20 |
पूरा बिहार |
एच. यू. एल. 57 |
25 अक्टूबर-15 नवम्बर |
120-125 |
20-25 |
उकटा सहिष्णु |
के. एल. एस. 218 |
25 अक्टूबर-15 नवम्बर |
120-125 |
20-25 |
हरदा (रस्ट) एवं उकटा सहिष्णु |
नरेन्द्र मसूर- 1 |
25 अक्टूबर-15 नवम्बर |
120-125 |
20-25 |
हरदा (रस्ट) एवं उकटा सहिष्णु |
20 कि0ग्रा0 नेत्रजन, 40-50 कि0ग्रा0 स्फूर (100 कि0ग्रा0 डी.ए.पी.)/हे0 । उर्वरकों की पूरी मात्रा बुआई के पूर्व अंतिम जुताई के समय एक समान रूप से खेत में मिला दें ।
दो बार निकाई गुड़ाई करना आवश्यक है। प्रथम निकाई गुड़ाई बुआई के 25-30 दिनों बाद एवं दूसरी 45-50 दिनों बाद करें । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिये फ्लूक्लोरोलिन
(वासालीन) 45 ई.सी. 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम तैयारी के समय प्रयोग करें ।
साधारणतयः दलहनी फसलों को कम जल की आवश्यकता होती है । नमी की कमी स्थिति में पहली सिंचाई बुआई के 45- दिनों के बाद तथा दूसरी सिंचाई फली बनने की अवस्था में करें ।
सरसों एवं तीसी के साथ मिश्रित खेती की जा सकती है ।
फसल तैयार होने पर फलियाँ पीली पड़ जाती है तथा पौधा सूख जाता है । पौधों को काटकर धूप में सूखा लें एवं दौनी कर दाना अलग कर लें । दानों को सूखाकर ही भंडारित करें।
कजरा कीट(एग्रोटीस)
कट वर्म (कजरा कीट) कभी-कभी मसूर उत्पादक क्षेत्रों में कटवर्म समूह (एग्रोटीस स्पी0) के कीटों का आक्रमण हो जाता है। इनके साथ या अलग स्पोडोप्टेरा कीट का भी आक्रमण पाया जाता है। मादा कीट मिट्टी या पौधे के निचली पत्तियों पर समूह में अण्डा देती है। अण्डे से निकलने के बाद पिल्लू अंकुरण कर रहे बीज को क्षतिग्रस्त करते हैं एवं नवांकुरित पौधों को जमीन की सतह से काट कर गिरा देते है। दिन में पिल्लू मिट्टी में छिपे रहते हैं और शाम होते ही बाहर निकल कर पौधों को काटते हैं।
प्रबंधन
थ्रिप्स कीट
यह सूक्षम आकृति वाला काला एवं भूरे रंग का बेलनाकार कीट होता है। रैस्पींग एण्ड सकिंग टाईप का मुख भाग होने के कारण यह पत्तियों को खुरचता है तथा उससे निकले द्रव्य को पीता है।
कीट का प्रबंधन
फली छेदक कीट (हेलीकोभरपा आर्मिजेरा)
इस कीट का व्यस्क पतंगा-पीले, भूरे रंग का होता है एवं सफेद पंख के किनारे काले रंग की पट्टी बनी होती है। मादा कीट पत्तियों पर एक-एक अण्डे देती है, 4-5 दिनों में अण्डे से कत्थई रंग का पिल्लू निकलता है जो बाद में हरे रंग का हो जाता है।
प्रबंधन
लूसर्न कैटरपीलर
इस कीट का पिल्लू पीले-हरे रंग का पतला लगभग 2 सेंटीमीटर लम्बा होता है, जो पौधे की फुनगी को जाल बनाकर बाँध देता है और पत्तियों को खाता है। किसी चीज से संपर्क होने पर कीट काफी सक्रियता दिखाते हैं। फसल की प्रारंभिक अवस्था में प्रकोप ज्यादा होता है।
प्रबंधन
लाही कीट(एफिड)
कभी कभी मसूर फसल पर लाही कीट का आक्रमण हो जाता है। यह पत्तियों, डंठलों एवं फलियों पर रहकर पौधे का रस चूसती है।
प्रबंधन
उकठा रोग
मिट्टी में प्रयाप्त नमी रहने के बावजूद भी पौधों का सूखना उकठा रोग कहलाता है। इस रोग के रोगाणु मिट्टी में ही पलते हैं। दोपहर में पौधो का मुरझाना एवं सुबह हरा हो जाना इसका लक्षण है।
प्रबंधन
जड़ एवं कालर सड़न रोग
पौधों में वानस्पतिक वृद्धि ज्यादा होने, मिट्टी में नमी बहुत बढ़ जाने और वायुमंडलीय तापमान बहुत गिर जाने पर इस रोग का आक्रमण होता है। पौधे के पत्तियों, तना टहनियों एवं फलियों पर गोलाकार प्यालीनुमा सफेद भूरे रंग के फफोले बनते हैं। बाद में तना पर के फफोले काले हो जाते हैं और पौधे सूख जाते हैं।
प्रबंधन
स्टेमफिलियम ब्लाईट
पत्तियों पर बहुत छोटे भूरे काले रंग के धब्बे बनते हैं। पहले पौधे के निचली भाग की पत्तियाँ आक्रान्त होकर झड़ती हैं और रोग उपरी भाग पर बढ़ते जाता हैं। खेत में यह रोग एक स्थान से शुरू होकर धीरे-धीरे चारो ओर फैलता है।
प्रबंधन
मृदरोमिल रोग(पावडरी मिल्ड्यू)
मसूर में यह रोग इरीसाइफी पोलिगोनाई नामक फफूंद से होता है। पहले पत्तियों पर छोटे सफेद फफोले बनते हैं जो बाद में तना एवं फलियों पर भी छा जाते है।
प्रबंधन
स्रोत व सामग्रीदाता: कृषि विभाग, बिहार सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
इस पृष्ठ में बिहार में लहसुन की खेती की जानकारी है...
इस भाग में धान की किस्मों से जुड़ी जानकारी झारखंड ...
इस भाग में बासमती सुगंधित धान के बारे में जानकारी ...
इस भाग में बाजरे को उगाने की उपयोगिता के बारे में ...