रजनीगन्धा को अंग्रेजी एवं जर्मन में ट्यूबरोज, उर्दू में गुल-ए-शब्बो, फ्रेंच में ट्यूबरेयुज, स्पैनिस एवं इटालियन में ट्यूबेंरोजा कहते है। भारत में कहीं-कहीं पर इसे रुन्जूनी एवं सुगंधाराज के नाम से भी जाना जाता है। इसकी उत्पत्ति का स्थान मध्य अमेरिका है जहाँ से यह विभिन्न देशों में पहुंचा।
यह बहुउपयोगी पुष्प है, जिस कारण व्यावसायिक दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण है। फूल सफेद एवं सुंगधित होते हैं जो कि सभी के मन को मुग्ध कर लेते हैं। रजनीगन्धा के डंठलयुक्त पुष्प/कटे फूल गुलदस्ता बनाने तथा मेज एवं भीतरी पुष्प सज्जा के लिए मुख्य रूप से प्रयोग किये जाते अहिं इसके अलावा बिना डंठल का पुष्प को माला, गजरा, लरी एवं वेनी बनाने तथा सुगंधित तेल तैयार करने के लिए उपयोग किया जाता है। इसके फूल तथा फूल से बने सुगंधित तेल की खाड़ी देशों में बहुत अधिक मांग है। अतः यदि इसकी खेती वैज्ञानिक ढंग से करके फूल एवं तेल का निर्यात किया जाय तो विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है।
पत्तियाँ पतली, लम्बी तथा भूमि की तरफ झुकी हुई धनुषाकार आकृति की होती है। स्पाइक 90-100 सेमी. लम्बी होती है। प्रत्येक स्पाइक में 12-20 जोड़े तक फूल रहते हैं। फूल का आकार कुप्पी की तरह होता है।
प्रवर्धन:
यह कन्द से तैयार किया जाने वाला पौधा है।
फूल के आकार-प्रकार तथा संरचना एवं पत्ती के रंग के अनुसार रजनीगन्धा की किस्में को चार वर्गों में विभाजित किया गया है।
1. एकहरा: फूल सफेद रंग के होते हैं तथा पंखुड़ियाँ केवल एक ही पंक्ति में होती है। किस्म-श्रृंगार, प्रज्ज्वल, लोकल।
२. डबल: इसके फूल भी सफेद रंग के ही होते है परन्तु पंखुड़ियाँ का ऊपरी शिरा हल्का गुलाबी रंगयुक्त होता है। पंखुड़ियाँ कई पंक्ति में सजी होती है जिससे फूल का केंद्र बिंदु दिखाई नहीं देता है।
किस्म: सुवासिनी, वैभव, लोकल।
3. अर्थ डबल: इस वर्ग के फूल में पंखुड़ियाँ एक से अधिक पंक्ति में होती है परन्तु फूल का केंद्र केंद्र बिंदु दिखाई नहीं देता है। लोकल किस्में।
4. धारीदार: इस किस्म के पुष्प सिंगल या डबल होते हैं परन्तु पत्तियों का किनारा सुनहरा या सफेद होता है। पत्तियों के आर्कषक रंगों एवं विभिन्नता के आधार पर स्वर्ण रेखा एवं रजत रेखा नामक दो किस्में विकसित की गयी है।
रजनीगन्धा की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए भूमि का चुनाव करते समय दो बातों पर सबसे पहले ध्यान देना चाहिए। पहला खेत छायादार जगह में न हो अर्थात सूर्य का पूर्ण प्रकाश मिलता हो, दूसरा जल निकास का उचित प्रंबध हो। यद्यपि इसे लगभग हर तरह की मिट्टी में उगाया जा सकता है परन्तु बलुआर दोमट, दोमट या मटियार दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है।
खेत का चुनाव करने के बाद समतल करे लें फिर एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2-3 बार देशी हल से जुताई करके पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लें। चूँकि यह कन्द वाली फसल है इसलिए कन्द के समुचित विकास हेतु खेत की तैयारी ठीक ढंग से होनी चाहिए। खेल को खरपतवार रहित रखें तथा निकाई करते समय सावधानी बरतें क्योंकि इसमें कन्द बहुत अधिक संख्या में निकलते हैं।
कन्द रोपाई का उपयुक्त समय मार्च-अप्रैल होता है। 2 सेमी. व्यास या इससे बड़े आकार वाले कन्द का चुनाव रोपने के लिए करना चाहिए। किस्म तथा फसल की अवधि (एक, दो या तीन वर्ष) के अनुसार 1-२ कन्द को प्रत्येक स्थान पर लगाना चाहिए। सिंगल किस्मों के कंदों को 15-20 सेमी. पौधे से पौधा तथा 20-30 सेमी. लाइन से लाइन की दूरी पर जबकि डबल किस्म को 20-25 सेमी, की दूरी पर तथा 5 सेमी. की गहराई पर रोपना चाहिए।
एक वर्गमीटर की क्यारी में 3-3.5 किग्रा. सड़ा हुआ कम्पोस्ट, 20-30 ग्राम नाइट्रोजन, 15-20 ग्राम फास्फोरस तथा 10-20 ग्राम पोटाश देना लाभदायक होता है। नाइट्रोजन तीन बार में बराबर-बराबर मात्रा में देना चाहिए। एक तो रोपने के पहले, दूसरा 60 दिन के बाद (3-4 पत्ती होने पर) तथा तीसरी मात्रा फूल निकलने पर देनी चाहिए। कम्पोस्ट, फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा को केंद्र रोपने के पहले ही व्यवहार करना चाहिए।
गर्मी में एक-एक सप्ताह के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। बरसात में वर्षा नहीं होने पर तथा अन्य मौसम में नमी को देखते हुए आवश्कतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। सही मात्रा में एवं सही समय पर सिंचाई करने से फूल की उपज में संतोषजनक वृद्धि होती है।
खाद एवं उर्वरक का उपयोग रजनीगन्धा के पौधे सही ढंग से कर सकें, इसके लिए आवश्यक है कि खेत में खरपतवार दिखाई देते ही निकाई करें। निकाई करने से मिट्टी भी ढीली हो जाती है जिससे वायु संचार ठीक होता है तथा कन्द एवं जड़ों का विकास भी सही रूप में होता है। प्रत्येक कन्द से 1-3 स्पाइक तक प्राप्त होतिया है। तीन वर्ष के बाद प्रत्येक पौधे से 25-30 कन्द छोटे-बड़े आकार के प्राप्त होते हैं। स्पाइक को यदि काटा ना जाए तो 18-22 दिन तक खेत में पुष्प खिलते रहते हैं। ऐसा देखा गया है कि सिंगल किस्म के फूल लगभग सभी मौसम में पुर्णतः खिल जाते हैं। फलस्वरूप सुगंध भी मिलती रहती है जबकि डबल किस्म के फूल के पुर्णतः न खिलने के कारण सुगंध बहुत कम या नहीं के बराबर रहती है। व्यावसायिक दृष्टि से उत्पादन करने हेतु सिंगल किस्म ही अधिक उपयुक्त पायी गयी है।
फूल को यदि माला, गजरा, वेनी आदि बनाने के लिए तोड़ना है तो सुबह या सायंकाल का समय उपयुक्त रहता है। कटे फूल के रूप में 50 या 100 स्पाइक के बंडल बनाकर बाजार में आपूर्ति किया जाता है। यदि दूर भेजना है तो स्पाइक का सबसे नीचे फूल खिलने के पहले ही काट लें परन्तु नजदीक की बाजार हेतु 2-3 फूल खिलने पर काटें। स्पाइक लंबी होने पर मूल्य अधिक मिलता है इसलिए यथासंभव भूमि के नजदीक से तेज चाकू द्वारा डंठल काटकर प्लास्टिक के बकेट जिसमें 3’-4’ पानी हो, में रखना चाहिए।
ताजा फूल प्रति हेक्टेयर लगभग 80-100 किवंटल/वर्ष प्राप्त होता है जबकि सुगंधित द्रव्य के रूप में कंक्रीट 26.5 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तकप्राप्त किया जा सकता है जिससे 5.500 किलोग्राम ऐबसोल्यूट (शुद्ध) सुगंधित द्रव्य प्राप्त होता है।
इस फूल में बीमारी का प्रकोप तो नहीं पाया जाता है परन्तु पानी लगने वाले स्थान पर फफूंद की बीमारी लगती है जो कि पत्ती व फूल को प्रभावित करती है। इससे बचाव के लिए ब्रैसिकाल का छिड़काव (2 ग्राम प्रति लीटर में पानी में घोलकर) करें।
कीड़ों में मुख्य रूप से थ्रिप्स (बहुत छोटा कीड़ा) तथा माईट का आक्रमण होता है जो कि पत्ती तथा फूल दोनों को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। थ्रिप्स से फसल की रक्षा हेतु नुवान 0.05% या सेविन 0.3% की छिडकाव 10-15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए। माईट के लिए केलथेन (डाईकोफल) नामक दवा का 0.२% की दर से छिडकाव लाभकारी होता है। कभी-कभी कैटरपिलर पत्तियों एंव फूल को खाकर नुकसान पहुंचाते हैं। अतः इनके आक्रमण होने पर नुवान या रोगर का छिड़काव करें।
स्त्रोत: राज्य बागवानी मिशन , बिहार सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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