चना रबी की मुख्य दलहनी फसल है । इस फसल को खेती बिहार में सभी सिंचिंत तथा असिंचिंत क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है । सभी दलहनी पौधों की तरह चना अपनी जड़ों में बनने वाली गांठों में रहने वाले बैक्टीरिया के द्वारा नेत्रजन का स्थिरीकरण कर भूमि की उर्वराशक्ति बढ़ा़ता है। इसलिए फसल चक्र में इसे सम्मिलित किया जाता है, ताकि भूमि की उत्पादकता बनी रहे । धनहर क्षेत्रों की भारी मिट्टी वाली भूमि भी इस फसल के लिये उपयुक्त है।
अगात खरीफ फसल एवं धान की कटनी के बाद खेत की अविलम्ब तैयारी जरूरी है । पहली जुताई मिट्टी पलटने वाली हल से व दूसरी जुताई कल्टीवेटर से करके पाटा लगा देते है जिससे खेत समतल हो जायेगा।
उन्नत प्रभेद |
बुआई का समय |
परिपक्वता अवधि (दिन) |
औसत उपज (क्वि0/हे0) |
अभ्युक्ति |
राजेन्द्र चना |
15 अक्टूबर-10 नवम्बर |
140-145 |
15-18 |
मध्यम दाना |
उदय (के.पी.जी. 59) |
1 नवम्बर -10 दिसम्बर |
130-135 |
20-22 |
रोग सहिष्णु, बडा दाना |
पूसा 256 |
1 नवम्बर -10 दिसम्बर |
150-155 |
25-30 |
बडा दाना |
आर.ए.यू. 52 |
15 अक्टूबर-30 नवम्बर |
140-145 |
22-25 |
रोग सहिष्णु, |
के. डब्लू. आर. 108 |
25 नवम्बर-10 दिसम्बर |
130-135 |
20-22 |
मध्यम दाना |
पूसा 372 |
15 नवम्बर-15 दिसम्बर |
130-135 |
15-20 |
छोटा दाना |
एस. जी. 2 |
15 अक्टूबर-30 नवम्बर |
140-145 |
21-22 |
छोटा दाना |
बी. आर. 78 |
15 अक्टूबर-30 अक्टूबर |
140-145 |
14-15 |
हरा दाना(सब्जी हेतु) |
काबुली चना |
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पूसा 1003 |
15 अक्टूबर-30 अक्टूबर |
150-160 |
12-15 |
बडा दाना |
एच. के. 94-134 |
15 अक्टूबर-30 अक्टूबर |
150-160 |
12-15 |
बडा दाना |
75 -80 कि0ग्रा0/हे0 । बडे दाने एवं काबुली चने के लिये बीज दर 100 कि0ग्रा0/हे0
1. बुआई के 24 घंटे पूर्व 2.5 ग्राम फफूंदनाशी दवा (जैसे डाईफोल्टान अथवा थीरम अथवा कैप्टान) से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करें ।
2. कजरा पिल्लू से बचाव हेतु क्लोरपाइरीफॉस 20 र्इ्र.सी. कीटनाशी दवा का 8 मि.ली./कि0ग्रा0 बीज की दर से उपचार करना चाहिए।
3. फफूदनाशक एवं कीटनाशक दवा से उपचारित बीज को बुआई के ठीक पहले अनुशंसित राइजोबियम कल्चर एवं पी.एस.बी. से उपचारित कर बुआई करें ।
पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंमी. ।
20 कि0ग्रा0 नेत्रजन , 40-50 कि0ग्रा0 स्फूर (100 कि0ग्रा0 डी.ए.पी.)/हे0। उर्वरकों की पूरी मात्रा बुआई के पूर्व अंतिम जुताई के समय एक समान रूप से खेत में मिला दें ।
दो बार निकाई गुडाई करना आवश्यक है । प्रथम निकाई गुडाई बुआई के 25-30 दिनों बाद एवं दूसरी 45 - 50 दिनों बाद करें । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिये फ्लूक्लौरालिन(वासालीन) 45 ई.सी. 2 लीटर प्रति हेक्टयर की दर से खेत की अंतिम तैयारी के समय प्रयोग करें ।
साधारणतयः दलहनी फसलों को कम जल की आवश्यकता होती है । नमी की कमी स्थिति में पहली सिंचाई बुआई के 45 दिनों के बाद तथा दूसरी सिंचाई फली बनने की अवस्था में करें ।
धनियाँ, राई सरसों, तीसी एवं गेहूँ के साथ मिश्रित खेती की जा सकती है । चने के साथ धनियॉ की अन्तर्वर्ती खेती करने से चने में फलीछेदक का प्रकोप नियंत्रित होता है ।
फसल तैयार होने पर फलियाँ पीली पड़ जाती है तथा पौधा सूख जाता है। पौधों को काटकर धूप में सूखा लें एवं दौनी कर दाना अलग कर लें। दानों को सूखाकर ही भंडारित करें।
प्रमुख कीट |
रोग तथा प्रबंधन |
फली छेदक कीट (हेलीकोभरपा आर्मिजेरा)
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इस कीट का व्यस्क पीले-भूरे रंग का होता है एवं सफेद पंख के किनारे काले रंग की पट्टी बनी होती है। मादा कीट पत्तियों पर एक-एक अण्डे देती है, 4-5 दिनों में अण्डे से कत्थई रंग का पिल्लू निकलता है, जो आगे चलकर हरे रंग का हो जाता है। पिल्लू प्रारंभ में पत्तियों तथा फुलों को खाकर क्षति पहुँचाता है। बाद में कीट फली को भी छेद कर दानों को खाता है, जिसके कारण फली बर्बाद हो जाता है। प्रबंधन 1. दस फेरोमौन फंदा जिसमें हेलिकोभरपा आर्मीजेरा का ल्योर लगा हो प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगावें। 2. प्रकाश फंदा का उपयोग करें। 3. 15-20 T आकार का पंछी बैठका (बर्ड पर्चर) प्रति हेक्टेयर लगावें। 4. खड़ी फसल में इनमें से किसी एक का छिड़काव करें। जैविक दवा एन0पी0भी0 250 एल0ई0 या क्यूनालफॉस 25 ई0सी0 का 1 मिलीलीटर या नोवाल्युरॉन 10 ई0सी0 का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। |
कजरा कीट (अग्रोटिस यप्सिलोंन)
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इस कीट के व्यस्क काले-भूरे रंग के होते हैं, तथा पिल्लू 3-4 से0मी0 लम्बा काले-भूरे रंग का चिकना एवं मुलायम होता है। ये अंकुरण कर रहे बीज को क्षतिग्रस्त करते हैं एवं नवांकुरित पौधों को जमीन की सतह से काट कर गिरा देते हैं। दिन में पिल्लू मिट्टी में छिपे रहते हैं और शाम होते ही बाहर निकल कर पौधों को काटते हैं। प्रबंधन
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चने का सेमीलूपर
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इस कीट का पिल्लू हरे रंग का होता है, जो कोमल पत्तियों को खाकर क्षति पहुँचाता है तथा फलियों को भी नुकसान पहुँचाता है। प्रबंधन
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उखड़ा रोग (विल्ट)
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खड़ी फसल आक्रान्त होती है। यह मिट्टी जनित रोग है। फसल मुरझाकर सूखने लगती है। प्रबंधन
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स्टेमफिलियम ब्लाइट |
यह रोग स्टेमफिलियम जनित फफूँद से होता है। पत्तियों पर बहुत छोटे भूरे-काले रंग के धब्बे बनते हैं। इस रोग में पहले पौधे के निचली भाग की पत्तियाँ आक्रान्त होकर झड़ती हैं और रोग ऊपरी भाग पर बढ़ते जाता है। फसल में यह रोग एक स्थान से शुरू होकर धीरे-धीरे चारों ओर फैलता है। प्रबंधन
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हरदा रोग(रस्ट)
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यह रोग यूरोमाईसीज फफूंद से होता है। इस रोग में पौधे के पत्तियों, तना, टहनियों एवं फलियों पर गोलाकार प्यालीनुमा सफेद भूरे रंग के फफोले बनते हैं। बाद में तना पर के फफोले काले हो जाते हैं और पौधे सूख जाते हैं। प्रबंधन
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मूल गांठ सूत्र कृमि रोग(नेमातोड)
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यह रोग मिलाईडोगाइनी स्पीसिज नामक सुत्रकृमि से होता है। पौधे की जड़ों में जहाँ-तहाँ छोटे-बड़े गाँठ बन जाते हैं। पौधों में असमान वृद्धि दिखाई देती है। प्रभावित पौधों में बौनापन, पीलापन दिखता है तथा उपज भी कम मिलता है। प्रबंधन
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स्रोत व सामग्रीदाता: कृषि विभाग, बिहार सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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