धान की कटाई के कुछ दिन पहले या बाद में गीली भूमि की ऊपरी सतह पर भिंगोए हुए या सूखे गेंहूँ के बीज को बिखरने को सतही बीजाई कहा जाता है।
ऐसी भूमि जहाँ पर धान की कटाई के बाद खेत कई दिनों तक गीले रहते हैं तथा जुताई कार्य संभव नहीं हो पाते और गेंहूँ की बीजाई नहीं की जा सकती है। ऐसी दशा में इस तकनीक से गेहूँ उगाने से जुताई लागत बचाते हुए एक साल में दो फसलों ली जा सकती है। इस तकनीक से गेंहूँ क क्षेत्रफल बढ़ाने में सहायता मिलती है।
इस तकनीक में मृदा के गोलेपन को ध्यान में रखकर सुखा या 6-10 घंटे तक भिंगोकर रखा गेहूँ का बीज प्रयोग में लाया जा सकता है। भिंगोया हुआ बीज हल्दी व् सामान रूप से अंकुरित होता है। यदि सुखा बीज प्रयोग करना है तो दोपहर के बाद बिखेरना चाहिए ताकि रात के ठंडे मौसम में बीज नमी को ग्रहण कर सके। यह बहुत ही आवश्यक है कि जब तक गेहूँ के पौधे जड़ न पकड़ ले भूमि में गीलापन बना रहे। बीज के अंकुरण के लिए या भी आवश्यक है कि खेत में पानी एकत्रित न होने पाये।
इस तकनीक का प्रयोग धान-गेहूँ फसल चक्र वाले खेत में किया जा सकता है जहाँ पर मृदा का गीलापन दूसरी फसल लेने में बाधा डालता है तथा जुताई कार्य संभव नहीं हो पाता। इस तरह की मृदा में चिकनी मिट्टी होती है तथा पानी के ठहराव के कारण लम्बे समय तक चिपचिपापन बना रहता है जिससे जुताई कार्य संभव नहीं होते। ऐसी दशा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार व् पशिचम बंगाल के कई भागों में पाई जाती है। उत्तर-पश्चिम भारत में भी जो गरीब किसान ट्रैक्टर आदि किराये पर नहीं ले सकते, धान की खड़ी फसल में इस तकनीक से बीजाई करके कम से कम लागत में अच्छी फसल ले सकते हैं।
इस तकनीक में उचित किस्म का चयन महत्वपूर्ण है। लम्बी गेहूँ की किस्में सी. 306 जो बारानी खेती के लिए उपयुक्त है, अधिक गीलेपन में भी अच्छी पायी गयी हैं। उत्त्तर-पूर्वी क्षेत्र के लिए बौनी किस्मों में एच.डी. 2402, एच डी. 2285, एच.यु. डब्लू 234 व एच.पी. 1633 तीन टन प्रति हैक्टेयर से ज्यादा पैदावार देती हैं। भारत के उत्तर-पशिचमी क्षेत्र वाली किस्मों में पी.बी. डब्लू 343, यू.पी. 2338 तथा डब्लू एच. 542 चार से पांच टन प्रति हैक्टेयर उत्पादन देने की क्षमता रखती है।
सतही बीजाई के लिए उचित पौधों की संख्या बनाये रखने के लिए तथा अधिक से अधिक पैदावार के लिए 150 किलो ग्राम प्रति हैक्टेयर बीज उचित पाया गया।
पक्षियों से बीज का बचाव करने हेतु वीटावैक्स (2.5 ग्राम पति किलो बीज) के अतिरिक्त गोबर के गाढ़े घोल से बीज का उपचार करना चाहिए।
इस तकनीक से अधिक पैदावार करने के लिए बौनी किस्मों में 120 कि.ग्रा.. नत्रजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस व 40 कि.ग्रा. पोटाश की जरूरत होती है। उर्वरक डालने की विधि पारम्परिक तरीके से बिलकुल भिन्न है। एक तिहाई नत्रजन तथा पूरा फास्फोरस व पोटाश बीजाई के दस दिन बाद डालना चाहिए। बची हुई नत्रजन की मात्रा को दो बराबर हिस्सों में, शीर्ष जड़ निकलते समय (बीजाई के 20 से 25 दिन बाद) और गाँठ बनने पर (बीजाई के 35 से 40 दिन बाद) देना चाहिए।
इस तकनीक में पानी की मात्रा व समय पारम्परिक गेहूँ की खेती से बिलकुल भिन्न है। सर्वप्रथम इस तकनीक में नर्म मृदा की आवश्यकता होती है जिससे कि जड़ों का आरम्भिक विकास हो सके। इसलिए या जरूरी है कि मृदा में तब तक नयीं या गीलापन बना रहे जब तक पौधों की जड़ें भूमि में अच्छी तरह पकड़ न होने पाए। साथ ही यह भी जरुरी है कि पानी भूमि पर एकत्रित न होने पाए। बोने के 10 दिन तक मृदा को गीला रखना आवश्यक है इसलिए प्रथम सिंचाई ज्यादा कल्लों के फुटाव पर दें। इस प्रकार की भूमि में पानी की निकासी धीरे-धीरे होती हैं और ज्यादा सिंचाई लगाने से पानी एकत्रित हो जाता है। इसलिए सिंचाई में हल्का पानी लगाना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण की विधि लगभग पारम्परिक विधि जैसी है। संकरी पत्ती वाले खरपतवार नियंत्रण के लिए टॉपिक 400 ग्राम प्रति हैक्टेयर के हिसाब से 35-40 दिन बीजाई 250-300 लीटर पानी में डालना चाहिए। चौड़ी व संकरी पत्ती वाले खरपतवार के नियंत्रण के लिए लीडर 33.३ ग्राम प्रति हेक्टेयर बोने के 35 से 40 दिन बाद 250-300 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव् करना चाहिए। धान की कटाई के बाद यदि बहुत सारे खरपतवार हो तो आवश्यक है की बीजाई से एक दिन पहले 1 लीटर ग्लाईफोसेट को 300 लीटर पानी में घोलर एक हैक्टेयर में छिड़काव् करें समान्य बातें-
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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