जैविक खेती प्रबन्धन के ऐसा समन्वित मार्ग है जहाँ खेती के समस्त अवयवों की प्रणाली परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध होती है तथा एक –दूसरे के लिए कार्य करती है। जैविक रूप से स्वस्थ एवं सक्रिय भूमि फसल पोषण का स्रोत है तथा खेत की जैव विविधता द्वारा नाशीजीव नियंत्रण होता है। फसल चक्र तथा बहु फसलीय कृषि प्रणाली मृदा स्वास्थ्य के स्रोतों को बनाये रखते है। पशुधन समन्वय, उत्पादकता तथा स्थायित्व सुनिश्चित करता है। जैविक प्रबन्धन स्थानीय स्रोतों के अधिकतम उपयोग तथा उत्पादकता पर बल देता है।
कैसे प्राप्त करें?
मृदा समृद्धशीलता- रासायनिक आदानों के प्रयोग को नकारते हुए आधिकारिक फसल अवशेष का उपयोग, जैविक तथा जैव खाद का प्रयोग, फसल चक्र तथा बहुफसलीय प्रणाली का अपनाया जाना, अधिक व गहरी जुताई का त्याग तथा मृदा को सदा जैविक पदार्थों या पौध अवशेषों से ढक कर रखना (मल्चिंग)।
तापक्रम प्रबन्धन – मृदा को ढक कर रखना तथा खेत की मेढ़ों पर वृक्ष तथा झाड़ियाँ लगाना।
मृदा, जल को सुरक्षित रखना- जल संधारण गड्ढे खोदना, मेढ़ की सीमा-रेखा का रख-रखाव करना, ढलवां भूमि पर कन्टूर खेती करना, खेत में तालाब बनाना तथा मेढ़ों पर कम ऊंचाई वाले वृक्षारोपण करना।
सूर्य उर्जा उपयोग- विभिन्न फसलों के संयोजन तथा पौध रोपण कार्यक्रम के माध्यम से पुरे वर्ष हरियाली बनाए रखें।
आदानों में आत्मनिर्भरता- अपने बीज का स्वयं विकास करें। कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, वर्मीवाश, तरल खाद तथा पौधों के सत/अर्क का फार्म पर उत्पादन करें।
प्राकृतिक चक्र तथा जीव स्वरूपों की रक्षा- पक्षी व पौधों के जीवन यापन हेतु प्राकृतिक स्थान का विकास।
पशुधन समन्वय- जैविक प्रबन्धन में पशु एक महत्वपूर्ण अंग है जो पशु उत्पादन ही उपलब्ध नहीं कराते बल्कि मृदा को समृद्ध करने हेतु पर्याप्त गोबर तथा मूत्र भी उपलब्ध कराते हैं।
प्राकृतिक ऊर्जा उपयोग- सूर्य उर्जा, बायो गैस, बैल चालित पंप, जेनरेटर तथा अन्य यंत्र।
जैविक प्रबन्धन एक समन्वित प्रक्रिया है। एक या कुछ बिंदु अपनाकर पर्याप्त परिणाम प्राप्त नहीं किए जा सकते हैं। उपयुक्त उत्पादन हेतु सभी आवश्यक बिन्दुओं के क्रमबद्ध विकास की आवश्यकता है। ये अंग है -
1. जंतु/पक्षी व पौधों के प्राकृतिक आवास का विकास व निर्माण
2. आदानों के उत्पादन हेतु फार्म पर सुविधाएं।
3. फसल क्रम तथा फसल परिवर्तन योजना
4. 3-4 वर्षीय फसल चक्र नियोजन
5. जलवायु, मृदा व क्षेत्र की उपयुक्तता पर आधारित फसलों का चयन।
3-5% स्थान पशुधन के लिए, वर्मी कम्पोस्ट शैय्या, कम्पोस्ट टैंक, वर्मीवाश/कम्पोस्ट चाय इकाई आदि हेतु सुरक्षित करें। छाया हेतु इस स्थान पर 3-4 वृक्ष लगाने चाहिए। पानी के बहाव तथा भूमि के ढलान पर निर्भर करते हुए कुछ जल शोषण टैंक (7x 3 x3 मी.) वर्षा जल के संधारण हेतु (एक टैंक प्रति हेक्टेयर की दर से) उचित स्थानों पर बनाएं। यदि संभव हो तो 20x 10 मी. माप का एक तालाब फार्म पर बनाए। तरल खाद हेतु 200 ली. क्षमता के कुछ टैंक तथा कुछ पात्र वानस्पतिक सत हेतु तैयार करें। 5 एकड़ के फार्म हेतु 1-2 वर्मी कम्पोस्ट शैय्या, एक नादेप टैंक, 2-3 कम्पोस्ट छाया/वर्मीवाश इकाइयां, सिंचाई कुआं, पम्पिंग सैट आदि का ढाँचा इस क्षेत्र में हो सकता है।
आवास विकास - ग्ल्रिरीसिडिया , बारहमासी सैसवैनिया, सुबबूल, केसिया आदि मेढ़ों पर लगाएं।ये पौधों जैविक नत्रजन स्थिरीकृत का नत्रजन की लगातार उपलब्धता सुनिश्चित करते हिं। 5 एकड़ क्षेत्र के लिए कम से कम 800 से 1000 मी. लम्बी तथा 1.5 मीटर चौड़ी ग्ल्रिरीसिडिया की पट्टी आवश्यक हैं इसके अलावा उचित स्थान पर 3-4 नीम के वृक्ष, एक इमली, एक गुलर, 8-10 बेर की झाड़ियाँ, 1-2 आंवला, 2-3 सैंजना तथा 2-3 शरीफा फल के वृक्ष लगाएं। ग्ल्रिरीसिडिया पंक्ति के बीच में कीटनाशक मूल्य के पौधे जैसे एडेथोडा, निर्गुन्डी, आक, धतुरा तथा बेशरम इत्यादि पर्याप्त अंतराल से लगाएं तथा समय-समय पर कटाई छंटाई करते रहें। फार्म के चारों तरफ मुख्य बाउंड्री पर कम फासले से ग्ल्रिरीसिडिया के पौधे लगाने चाहिए। यह मात्र जैविक घेराबंदी का कार्य ही नहीं करेगें बल्कि जैविक रूप से मृदा में नत्रजन स्थिरीकरण का कार्य भी करेंगे।
तीसरे वर्ष से ग्ल्रिरीसिडिया कि 400 मीटर लंबी पट्टी 22.5. कि.ग्रा. नत्रजन/प्रति हैं तथा सातवें वर्ष से 77 कि.ग्रा. नत्रजन/है. प्रतिवर्ष उपलब्ध करा सकती है। यह मात्रा सिंचित दशाओं में 75 से 100% अधिक हो सकती है। सिंचित दशा में 3-4 बार तथा असिंचित दशा में 2 बार कटाई छंटाई की जा सकती है। छाया का कुप्रभाव रोकने हेतु उन पौधों को 51/2 फुट से अधिक कभी न बढ़ने दें। हर तीसरे/चौथे महीने में छंटाई करते रहें और अवशेष को हरी खाद के रूप में प्रयोग करें। पत्तियों आदि को कटाई के बाद इन्हें मिट्टी में मिला दें अथवा मल्च के रूप में प्रयोग करें।
मृदा परिवर्तन/रूपांतरण - न्यून/कम आदान विकल्प - प्रथम वर्ष में विभिन्न अवस्थाओं वाली तीन भिन्न-भिन्न प्रकार की दलहनी फसलों की बुवाई करें जैसे मुंग (60 दिन ) चौला या सोयाबीन *120 दिन) तथा अरहर (150 दिन से अधिक) तथा केवल दानें या हरी फलियाँ निकालें तथा समस्त फसल अवशेष को, उथली जड़ वाले खरपतवारों सहित मल्च रूप में प्रयोग करें या मिट्टी में मिला दें। दूसरी ऋतु में 2.5 टन हेक्टेयर कम्पोस्ट का प्रयोग करें तथा धान्य फसल, दलहनी फसल के साथ अतः फसल का अनुपयुक्त भाग मल्च के रूप में प्रयोग करें। यदि सिंचाई उपलब्ध हो तो गर्मियों में दलहनी फसल के साथ, हरी सब्जियों की फसल लें। समस्त फसल अवशेषों का मल्च रूप में पुनर्चक्रण करें। प्रत्येक फसल के दौरान 3-4 बार तरल खाद का मृदा में प्रयोग करें।
2.5 कम्पोस्ट /वर्मी कम्पोस्ट, 500 कि.ग्रा. खली चूर्ण खाद, 500 कि.ग्रा. राक फास्फेट, 100 कि.ग्रा. नीम खली तथा 5. कि.ग्रा. जैव उर्वरक मृदा में प्रयोग करें। 3-4 प्रकार की विभिन्न फसलों की पंक्तियों में बुबाई करें। 40% फसल दलहनी होनी चाहिए। फसल कटाई बाद समस्त अवशेष व ठूंठ आदि को मृदा में दबा दें या अन्य फसल बोने के बाद मल्च के रूप में प्रयोग करें। दूसरी फसल हेतु भी खाद की उतनी ही मात्रा का प्रयोग करें।
लगभग 12-18 माह बाद किसी भी प्रकार के संयोजन के साथ मृदा जैविक खेती के लिए उपयुक्त हो जाएगी। अगले 2-3 वर्षो तक किसी भी फसल के साथ अतः या सहयोगी फसल के रूप में दलहनी फसलों को अवश्य लें। सदैव यह सुनिश्चित करें कि फसल अवशिष्ट में कम से कम 30% भाग दलहनी फसल का हो। मृदा में दबाने अथवा मल्च रूप में प्रयोग करने से पूर्व फसल अवशेष का तरल खाद से उपचार करने पर अधिक लाभ होता है।
जैविक खेती में एकल फसल का कोई स्थान नहीं है। फार्म में सदैव 8-10 प्रकार की फसल रखनी चाहिए। प्रत्येक खेत में 2-4 फसलें रहनी चाहिए जिसमें एक फसल दलहनी होनी चाहिए। 3-4 वर्षीय फसल चक्र अपनाएं। उच्च पोषण वाली फसलों की बुआई से पूर्व तथा पश्चात दलहनी फसलों की बुआई करें। जैव विधिता, नाशी जीव प्रबन्धन का प्रमुख अंग है। इसके लिए घर में प्रयोग हेतु 50-150 सब्जियों के पौधे तथा 100 पौधे गेंदा के प्रत्येक फसल खेत में फैलाकर लगाएं। अधिकतम उत्पादकता हेतु गन्ना जैसे अधिक पोषण की मांग करने वाली फसल भी उपयुक्त दलहनी फसलों था सब्जी फसलों के साथ उगाई जा सकती है।
एक उर्वरा तथा जीवंत मृदा में जीवाश्म (जैव कार्बन) का स्तर 0.8 से 1.5% के बीच रहना चाहिए। समस्त अवधि में सूक्ष्म वनस्पति व जीवों के प्रयोग हेतु पर्याप्त सुखा, अर्द्ध-अपघटित तथा पूर्ण अपघटित जैविक द्रव्य रहना चाहिए। कुल सूक्ष्म जीवाणु (बैक्टीरिया, फुफुन्द तथा एक्टोनोमाइरिस) की मात्रा 1x 10 ग्राम से अधिक होनी चाहिए। कम से सम 3-4 केंचुए प्रति घन फिट हों। पर्याप्त मात्रा में छोटी जीवन अवधि वाले कीट तथा चींटी आदि भी होने चाहिए।
मेढ़ों पर लगे ग्ल्रिसिडिया तथा अन्य पौधों के अवशेष, कम्पोस्ट, वर्मी =कम्पोस्ट, पशुगोबर-मूत्र तथा फसल अवशेष पोषण के मुख्य स्रोत होएं चाहिए। जैव उर्वरक तथा सान्द्र खाद, जैसे खली चूर्ण खाद, मुर्गी खाद सब्जी बाजार कचरा कम्पोस्ट, जैव शक्तिमान खाद प्रभावी सूक्षम जीवाणु खाद आदि प्रयोग उचित मात्रा में किया जा सकता है। अधिक मात्र आमीन खाद के प्रयोग से बचना चाहिए। फसल चक्र परिवर्तन तथा बहु-फसल से संसाधनों का बेहतर उपयोग सुनिश्चित होता है। फसल के प्रकार तथा विभिन्न फसलों हेतु पोषकों की आवश्यकता के आधार पर खाद की मात्रा निश्चित की जाती है। सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रियाशीलता बनाये रखने हेतु तरल खाद का उपयोग आवश्यक है। समस्त प्रकार की फसलों हेतु 3-4 बार तरल खाद का प्रयोग आवश्यक है। वर्मी वाश/कम्पोस्ट टी तथा गौ-मूत्र इत्यादि बहुत ही अच्छे वृद्धि उत्प्रेरक हैं। तथा इनका पत्तियों पर छिड़काव रूप में प्रयोग किया जाता है। (बुआई के 30-35 दिन बाद 3-4 बार इनके उपयोग से अच्छा उत्पादन सुनिश्चित होता है।) चूँकि जैविक प्रबन्धन एक समन्वित प्रक्रिया है अतः समस्त अंग परस्पर एक-दूसरे के साथ सम्बद्ध किए जाते हैं तथा एक समय में कोई भी एकल फसल नहीं उगाई जाती है। जैविक प्रबन्धन के अंतर्गत किसी भी एकल फसल का पैकेज तैयार करना बहुत कठिन है। पोषण प्रबन्धन का एक उदारहण नीचे दिया जा रहा है।
खरीफ में ज्वार बाजरा, मक्का, कपास इत्यादि फसलें दलहनी फसलों के साथ उगाई जा सकती है। मुख्या धान्य फसल 60% स्थान ग्रहण करती है। जबकि दो या तीन दलहनी फसल शेष 40% स्थान पर पंक्तियों में उगाई जाती है। 1.5-2 टन कम्पोस्ट, 500 कि.ग्रा. वर्मी कम्पोस्ट तथा 100 कि.ग्रा. राक फास्फेट आधार खुराक के रूप में प्रयुक्त की जाती है। जैव उर्वरक बीज तथा मृदा उपचार हेतु प्रयोग किया जाता है। पिछली फसल के अवशेषों को बुआई के तुरंत बाद मृदा की सतह पर फैलाकर तरल खाद से उपचारित किया जाता है। खरपतवारों का नियंत्रण मानव श्रम से किया जाता है तथा उखाड़ी गई खरपतवारों को मल्च रूप में प्रयोग किया जाता है। 200 लीटर तरल खाद/एकड़ को 3-4 बार सिंचार जल के साथ या वर्षा काल के दौरान प्रयोग करना चाहिए। जैव शक्तिमान खाद, सींग खाद या प्रभावी जीवाणु खाद को कम्पोस्ट के स्थान पर प्रयोग किया जा सकता है। वर्मीवाश अथवा गौ-मूत्र को अलग-अलग या मिलाकर (1:1) 2-3 बार स्प्रे करने से अच्छा उत्पादन सुनिश्चित होता है। रबी में हरी पत्ती वाली सब्जी जैसे मेथी या पालक की अगैती फसल लेते हैं। तत्पश्चात गेंहूँ की फसल ली जा सकती है। इसी प्रकार सब्जी के साथ दलहनी फसल उगाई जा सकती है। यदि गेहूँ उगाया जाता है तो उपरोक्त मात्रा में खाद के साथ प्रयोग करें। जैव प्रबन्धन प्रारंभ करने के 3-4 वर्षों के बाद कम्पोस्ट की मात्रा कम की जा सकती है।
जैविक प्रबन्धन में केवल समस्याग्रस्त क्षेत्रों/अवस्था में बचाव के उपाय किए जाते हैं। रोग रहित बीज तथा प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग सबसे अच्छा विकल्प हैं। यद्यपि अभी कोई भी मानक सूत्र उपचार विधि उपलब्ध नहीं है परन्तु कृषक विभिन्न विधियों का प्रयोग करते हैं। कुछ अग्रणी किसानों के बीज उपचार सूत्र निम्न प्रकार हैं-
तरल खाद निर्माण
विभिन्न राज्यों के किसानों द्वारा अनेक प्रकार के तरल खाद प्रयोग किए जा रहे हैं। कुछ महत्वपूर्ण वृहत रूप से प्रयोग किये जाने वाले सूत्रों का विवरण नीचे दिया जा रहा है:-
संजीवक – 100 कि. ग्रा. गाय का गोबर+100 ली.गौ-मूत्र तथा 500 ग्राम गुड़ को (500 ली. क्षमता वाले मुहँ बंद ड्रम में) 300 ली. जल में मिलाकर 10 दिन हेतु सड़ने/गर्म होने दें। 20 गुना पानी मिलाकर एक एकड़ क्षेत्र मृदा पर स्प्रे करें अथवा सिंचाई जल के साथ प्रयोग करें।
जीवामृत - 10 कि.ग्रा. गाय का गोबर+10 ली. गौ-मूत्र + 2 कि.ग्रा. गुड़ + कि.ग्रा. किसी दाल का आटा + 1 कि.ग्रा. जीवंत मृदा को 200 ली. जल में मिलाकर 5-7 दिनों हेतु सड़ने दें। नियमित रूप से दिन में बार मिश्रण को हिलाते रहें। एक एकड़ क्षेत्र में सिंचाई जल के साथ प्रयोग करें।
पंचगव्य - गाय गोबर घोल 4 कि.ग्रा.+ गाय गोबर 1 कि.ग्रा.+गौ-मूत्र 3 ली.+ गाय दूध 3 ली.+ छाछ 2 ली.+गाय घी 1 कि.ग्रा.+गाय में घोलकर मृदा पर छिड़काव् करें। 20 ली.पंचगव्य सिंचाई जल के साथ एक एकड़ मृदा हेतु उपयुक्त है।
समृद्ध पंचगव्य - 1 कि.ग्रा. ताजा गाय का गोबर +3 ली. गौ-मूत्र +2 ली. गाय का दूध+2 ली. छाछ + 1 ली.गाय का घी+ 3 ली. गन्ना रस +3 ली. नारियल पानी+12 पके केलों की लुगदी मिलाकर 7 दिन तक सड़ने दें। प्रयोग विधि पंचगव्य की भांति है।
जैविक खेती प्रबन्धन में रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग वर्जित है अतः नाशी जीव प्रबन्धन प्रथमतया निम्न विधियों द्वारा किया जाता है –
वानस्पतिक कीटनाशक- बहुत से वृक्ष कीटनाशी गुणों के कारण जाने जाते हैं। ऐसे वृक्षों के पत्तियों/बीजों का सत/अर्क नाशीजीवों के प्रबन्धन में प्रयोग किया जा सकता है। अनेक प्रकार के वृक्ष व पौधे इस उद्देश्य से चिहिन्त किये गये हैं जिनमें नीम सर्वाधिक प्रभावशाली पाया गया है।
नीम 200 नाशी जीव कीटों तथा सूत्रकृमियों के प्रबन्धन में प्रभावी पाया गया है। ग्रास हौपर, लीफ हौपर, प्लांट हौपर, एफिड, जैसिड तथा मौथ, इल्ली के लिए नीम अर्क व् तेल बहुत प्रभावी है। नीम अर्क बीटल लार्वा, बटर फ्लाई, मौथ व कैटर पिलर जैसे कौकिस्सन बीन बीटल, कोलोरेडो पुटेटो बीटल ततः ड्राईमंड बैक मोथ के लिए भी बहुत प्रभावी है। निम्म ग्रास हौपर, लीफ माइनर, तथा लीफ हौपर जैसे वैरीएगिटिड, ग्रास हौपर, धान की हरी पत्ती का हौप्र तथा कपास का जैसिड नियंत्रण में नभी बहुत प्रभावी है। बीटल, एफिड्स सफेद मक्खी, मिली बग, स्केल, कीट वयस्क बग गैमोट तथा स्पाइडर का प्रंबधन भी नीम अर्क द्वारा किया जा सकता है।
बहुत से जैविक किसान तथा गैर सरकारी संगठनों ने बड़ी संख्या में अग्रणी विकसति किये हैं जो विभिन्न नाशी जीवों के प्रबन्धन हेतु प्रयोग किये जाते हैं। यद्यपि इन सूत्रों की वैज्ञानिक रूप में वैधता नहीं है,फिर भी उनका किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाना उनकी उपयोगिता का घोतक है। किसान इन सूत्रों को प्रयोग करने का प्रयास कर सकते हैं क्योंकि ये बिना क्रय के उनके खेत पर ही तैयार किए जा सकते हैं। कुछ लोकप्रिय सूत्र निम्न प्रकार सूचीबद्ध किये गये हैं:
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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