बागवानी फसलें खाद्य एवं पौष्टिकता सुरक्षा, ग्रामीण रोजगार पारिस्थितिकीय संतुलन तथा विधायन उद्योग को कच्चा माल प्रदान करने में अहम भूमिका निभाती है। वर्ष 2005-06 के आंकड़ों के अनुसार भारतवर्ष में लगभग 5,510,000 हेक्टेयर भूमि पर फलों की काश्त की गई जिससे 5,874,0000 टन का उत्पादन हुआ। चीन के बाद फल उत्पादन में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है तथा विश्व के कुल उत्पादन में भारत की लगभग 10 प्रतिशत भागीदारी है। हमारा देश आम, केला, चीकू तथा नीम्बू प्रजाति के फलों के उत्पादन में विश्व में प्रथम स्थान पर है।
विविध वातावरण एवं भूमि की बनावट हिमाचल प्रदेश को प्राकृतिक देन है। आज हमारा प्रदेश देश में सेब राज्य के नाम से जाना जाता है। प्रदेश में वर्ष 1950 में फलों के अंतर्गत 793 हेक्टेयर भूमि थी जो वर्ष 2005-06 में बढ़कर 182000 हेक्टेयर हो गई तथा फल उत्पादन 1200 मिट्रिक टन से बढ़कर 692000 मिट्रिक टन तक पहुंच गया। प्रदेश में लगभग 4.64 लाख किसान फल उत्पादन से जुड़े हैं तथा फल उद्योग से 900 लाख श्रम-दिवस रोजगार का सृजन होता है। फलों के अंतर्गत कुल भूमि तथा उत्पादन में अकेले सेब की क्रमश: 45 प्रतिशत तथा 85 प्रतिशत भागीदारी है।
विश्व के अन्य भागों की तरह प्रदेश में भी जलवायु तथा पर्यावरण में परिवर्तन आया है। इसका एक मुख्य कारण विकास की अंधाधुंध दौड़ में प्राकृतिक संसाधनों का अवैज्ञानिक दोहन भी माना जा रहा है। इस परिवर्तन के कारण बागवानों को कई प्राकृतिक विपदाओं का सामना करना पड़ा है। एक क्षेत्र में बार-बार एक ही फसल उगाने के दुष्परिणाम भी हमारे सामने आने लगे है तथा समय की पुकार है कि बागवानी के क्षेत्र में विविधता लाई जाये। भविष्य की बागवानी इसी पर निर्भर होगी।
इन समस्त समस्याओं के निवारण के लिए अति अनिवार्य है कि नवीनतम तकनीकी का विकास किया जाए तथा इस जानकारी का बागवानों के खेतों तक स्थानांतरण किया जाए। इस दिशा में विभिन्न प्रसार माध्यमों का प्रयोग कारगर ढंग से करना होगा ताकि बागवान नई तकनीकों को अपनाकर अपने चहुंमुखी विकास की ओर अग्रसर हो सकें और प्रदेश की आर्थिक समृद्धि में भागीदारी निभा सकें। इस दिशा में प्रस्तुत पुस्तिका ‘फल उत्पादन एवं संरक्षण’ में नवीनतम तकनीकी जानकारी उपलब्ध करवाई गई है जो बागवानों, प्रसार अधिकारियों तथा उद्यमियों के लिए मार्गदर्शिका का कार्य करेगी।
भारत का चीन के बाद फल उत्पादन में दूसरा स्थान है। हमारा देश फलों के अंतर्गत 5.55 मिलियन हेक्टेयर भूमि से लगभग 59.0 मिलियन टन फल पैदा करता है, जबकि चीन 10.50 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र से लगभग 89 मिलियन टन फलों का उत्पादन करता है। चीन और भारत की विश्व फल उत्पादन में क्रमश: 16.7 तथा 11 प्रतिशत की भागीदारी है। आज अकेला चीन विश्व का लगभग 40 प्रतिशत सेब उत्पन्न कर रहा है जबकि भारतवर्ष आम तथा केले के उत्पादन में अग्रणी है। अगर हम मुख्य फलों की उत्पादकता में सार्थक वृद्धि करें तो हम फलोत्पादन में प्रथम स्थान प्राप्त कर सकते हैं। यह तभी सम्भव होगा यदि हमारे बागवान उन्नत किस्मों व नवीनतम हाईटेक तकनीकी का उपयोग करें।
प्राकृतिक प्रकोपों, अनेक बीमारियों तथा कीटों की समस्याओं के कारण अत्याधिक फसलों में काफी क्षति उठानी पड़ती है। आर्थिक लाभ अर्जित करने व वैज्ञानिक ढंग से बागवानी करने हेतु उन्नत तकनीक अपनाना आवश्यक है। प्रचार माध्यम तथा संचार साधन अनुसंधान की उपलब्धियों को किसानों तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह निदेशालय उपयुक्त तकनीक जन-जन तक पहुँचाने का लगातार प्रयास कर रहा है तथा हमारा यह प्रत्यन्त रहा है कि हम विश्वविद्यालय द्वारा अनुमोदित बागवानी में नई प्राद्योगिकी को सरल और सहज भाषा के माध्यम से फल उत्पादकों तक पहुँचा सकें। इस प्रकाशन में अभी तक की फल उत्पादन एवं संरक्षण की सभी अनुमोदित अनुसंधान सिफारिशें सम्मिलित की गई है।
हमारे प्रदेश में उगाये जाने वाले लगभग सभी फलों, खुम्ब उत्पादन, मौन पालन तथा इनके संरक्षण की तकनीक का इस पुस्तिका में समावेश किया गया हैं। सभी वैज्ञानिकों, विस्तार शिक्षा विशेषज्ञों, बागवानी विभाग के अधिकारियों व उन्नत बागवानों के सामूहिक प्रयास किया गया है।
आम को 1200 मीटर की ऊँचाई तक उगाया जा सकता है परन्तु 600 मी. से अधिक ऊँचाई पर फलन और फलों की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। आम ठंड और अधिक पाले को सहन नहीं कर पाता है। सामान्य रूप में आम उन्ही शुष्क क्षेत्रों का सफल फल है जहां पर जून से सितम्बर तक गर्मियों में अच्छी वर्षा होती हो और बाकी समय कम सूखा पड़े।
वैसे तो विभिन्न प्रकार की मिट्टी में इसे उगाया जा सकता है, परन्तु इसके लिए सबसे उपयुक्त गहरी, दोमट, अच्छे जल निकास वाली और 5.5-7.5 पी.एच.मान की मिट्टी होती है।
दशहरी: फल छोटे से मध्यम आकार के और लम्बे, छिलका दरम्याना मोटा, समतल और पीले रंग का, फल मीठे तथा स्वादिष्ट, जुलाई-अगस्त में पककर तैयार, नियमित रूप से फलन, भंडारण क्षमता उत्तम।
बॉमबे ग्रीन (माल्दा): जल्दी पकने वाली किस्म, फल मध्यम आकार के, छिलका पतला, समतल और हरे रंग का, जुलाई में पककर तैयार, भंडारण क्षमता मध्यम।
फाजली: बड़े आकार वाले फल, छिलका मध्यम मोटा, हरे रंग का, सिंचित क्षेत्रों में बागवानी के लिए अनुमोदित किस्म, कोहरे को सहने वाली किस्म, अगस्त में पक कर तैयार।
वर्षा पर आधारित क्षेत्र जुलाई-अगस्त
जहां सिंचाई सुविधा हो फरवरी-मार्च
पौधों का फासला 8 x 10 मीटर
आम्रपाली किस्म में यह दूरी 3 x 3 मीटर (सघन खेती)
पौधे तैयार करना (प्रवर्धन)
व्यावसायिक स्तर पर आम के पौधे विनीयर ग्राफ्टिंग द्वारा तैयार किये जाते है। ग्राफ्टिंग मार्च या जून के दूसरे पखवाड़े से बीच गमलों में या सीधे गड्ढों में तैयार किये गए मूलवृन्तों पर की जाती है। बीजू पौधों के लिए जंगली फल की गुठली उपयुक्त समझी जाती है। पके हुए फल से गुठली लेने के एक सप्ताह के बीच ही इसे बो देना चाहिए। ‘इन सीटू’ (सीधे गड्ढों में बीज लगाना) पौध रोपण की स्थिति में एक गड्ढे में 3 बीज बोने चाहिए।
अप्रैल के पहले सप्ताह में जी.ए.एम. (30 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी) तथा उसके 15 दिनों बाद यूरिया 2 प्रतिशत का छिड़काव करने से नर्सरी पौधों की अधिक वृद्धि होगी तथा कलम करने योग्य आम के पौधों का अनुपात अधिक होगा। आम की नर्सरी को प्लास्टिक की थैलियों (15 x 30 सेमी.) में लगाने से मृत्यु दर कम हो जाती है।
गड्ढा भरने की विधि: आम के प्रतिरोपित पौधों में मृत्यु दर कम करने के लिए गड्ढे के तल पर गोबर की खाद की 10सेमी. मोटी तह बिछाएं और उसके ऊपर 10 सेमी. व्यास के दो बांस खड़े करके गड्ढे को मिट्टी से भर दें। फिर बांस निकाल कर छेदों को गोबर की खाद से भर दें।
छोटे पौधों को लू और पाले से बचा कर रखें। इसके लिए घास, सरकंडों या सूखी मक्की के डंठल का पौधों के ऊपर छप्पर बनाएं। ध्यान रखें कि दक्षिण-पूर्व दिशा को खुला रखें ताकि पौधों को धूप मिलती रहे। सामान्यत: आम की नर्सरी सर्दियों में कोहरे से बुरी तरह प्रभावित हो जाती है। इससे बचाव के लिए पौधशाला को नाईलोन की छायादार जाली (50 प्रतिशत छाया) से 15 अक्टूबर से 15 फरवरी तक ढक देना चाहिए।
पौधे की आयु (वर्ष) |
गोबर की खाद (किग्रा.) (ग्राम) |
नाइट्रोजन (ग्राम) |
फ़ॉस्फोरस (ग्राम) |
पोटाश (ग्राम) |
कैन (ग्राम) |
सुपर फ़ॉस्फेट (ग्राम) |
म्यूरेट ऑफ़ पोटाश |
1 |
10 |
25 |
16 |
60 |
100 |
100 |
100 |
2 |
20 |
50 |
32 |
120 |
200 |
200 |
200 |
3 |
30 |
75 |
48 |
180 |
300 |
300 |
300 |
4 |
40 |
100 |
64 |
240 |
400 |
400 |
400 |
5 |
50 |
125 |
80 |
300 |
500 |
500 |
500 |
6 |
60 |
150 |
96 |
360 |
600 |
600 |
600 |
7 |
70 |
175 |
112 |
420 |
700 |
700 |
700 |
8 |
80 |
200 |
128 |
480 |
800 |
800 |
800 |
9 |
90 |
225 |
144 |
540 |
900 |
900 |
900 |
10 वर्ष और उससे अधिक |
100 |
250 |
160 |
600 |
1000 |
1000 |
1000 |
अधिक फल उत्पादन वाले फलन वर्ष में नाईट्रोजन की मात्रा को दुगुना कर देना चाहिए। गोबर की खाद और सुपर फ़ॉस्फेट को दिसम्बर में तथा एक किलोग्राम कैन और म्यूरेट ऑफ़ पोटाश फरवरी में और एक किलो कैन फलन वर्ष में जून महीने में प्रति पौधा प्रयोग करें।
अधिकतर फल जब छोटे होते हैं, तभी से गिरने लगते हैं। कीट और रोगों के प्रकोप से गिरने वाले फलों को कीटनाशी या फफूंदनाशी छिड़काव से रोका जा सकता है। दूसरे कारणों से फलों को गिरने से बचाने हेतु 20 पी.पी. एम 2,4-डी (2 ग्राम/100 लीटर) पानी में घोलकर अप्रैल के आखिरी सप्ताह में या मई के प्रथम सप्ताह में लंगड़ा और दशहरी किस्मों में छिड़काव करना लाभप्रद है।
फल तभी तोड़ें जब उनका पूर्ण विकास हो जाए और अभी पके न हों। फलों को फल लगने के 15-16 सप्ताह बाद तोड़ें। तुड़ाई के पश्चात फल पकने की प्रक्रिया शीघ्रता से होती है। फलों को तोड़ने के पश्चात उन्हें एक दिन के लिए कमरे में रखना चाहिए, उसके बाद इन्हें तुड़ी, भूसे, घास, आदि के बीच रखें। ये फल सामान्य रूप से सात दिन में पक कर तैयार हो जाते हैं।
(दवाई की मात्रा 200 लीटर पानी में घोल बनाने के लिए)
लक्षण |
उपचार |
कीड़े |
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1. मैंगो हॉपर: यह एक छोटा भूरे सलेटी रंग का कीट है। बसंत ऋतु में बौर पर कीट के शिशुओं के झुण्ड नजर आने लगते हैं जो बौर का रस चूसकर नुकसान पहुँचाते हैं। ऐसे बौर मुरझाने लगते है और भूरे रंग के हो जाते है और असमय ही पेड़ से झड़ जाते है। व्यस्क कीड़े पत्तों का रस भी चूसते हैं जिससे पत्तियाँ चिपचिपी तथा फफूंद से काली हो जाती है, फल कम लगते हैं और छोटे फल गर्मी में हवा से गिरने लगते हैं। |
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2. मैंगो सिल्ला: यह बहुत ही छोटा नाशी जीव है जो टहनियों पर गांठे बनाता है। शिशु (निम्फ) फूले हुए बीमों में प्रवेश कर उन्हें भी सख्त शंकुनुमा गांठों में बदल देते हैं जिससे नई शाखाएं नहीं फूटती और न ही फूल आते हैं। |
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3. मिली बग: ये फरवरी मई तक बढ़ती शाखाओं तथा फूलों के गुच्छों से रस चूस कर उन्हें क्षति पहुंचाते हैं। प्रकोपित शाखाएँ मुरझा जाती हैं और फूलों से फल नही बन पाते या फिर असमय ही गिर जाते हैं। यह कीड़ा बाकि के समय अण्डों के रूप में तौलिये में तने के आस पास 5-12 सेंमी. गहरी मिट्टी में बिताता है। इन अण्डों में से जनवरी-फरवरी में छोटे भूरे कीट पौधे पर ऊपर की ओर चढ़ने लगते है। |
शिशुओं का ऊपर को रेंगना रोकने के लिए दिसम्बर महीने में जमीन से करीब आधा मीटर ऊपर तने पर फिसलने वाला बंध (स्लीपरी/स्टीकी बैंड) लगाएं। स्टीकी बैंड: (1) तने के खरदरे भाग को खरोंच कर औसटिको या एसो फ्रूट ट्री ग्रीस की 5 सेंमी. चौड़ी पट्टी तने पर लगायें। स्लीपरी बैंड लगाने कल लिए 15-20 सेंमी. चौड़ी एलकाथीन की पट्टी तने पर लपेटें। इसे ऊपर और नीचे किनारों से अच्छी तरह बांधे। एलकाथीन पट्टी के नीचे खरदरे तने को चिकनी मिट्टी के लेप से समतल बनाया जाता है जिससे शिशु (निम्फ) स्लीपरी बैंड के नीचे न घुसने पाएं। सावधानी: पेड़ के पत्ते जमीन को नही छूने चाहिए। (2) मैंगों हॉपर से बचाव हेतु सुझाई गई कीट नाशी दवाएं मिली बग को भी नियंत्रित करती है। |
4. स्टैम बोरर/तना छेदक कीट: तने और शाखाओं में छेद करके यह कीट सुरंगे बनाता है। बाहर से इस कीट के प्रकोप का आसानी से पता नहीं चलता, यद्यपि कई जगह छेदों से रस और बुरादा सा निकलने लगता है। |
बुरादे को हटा कर रूई के फाये को पेट्रोल या मिट्टी के तेल या मिथाइल पैराथियान 0.2 प्रतिशत (4 मिली. मैटासिड 50 ई.सी. 1 ली. पानी) से भिगोकर छिद्र में डाल कर गीली चिकनी मिट्टी से बंद कर दें। सुझाव: व्यस्क कीट रोशनी की ओर आकर्षित होते हैं, उन्हें एकत्र करके मार डालना चाहिए। |
5. शूट बोरर (टहनी छेदक): यह सिरे की नई टहनियों को नुकसान पहुंचाता है जिससे वे सूखने लगती हैं। |
(1) नई निकलने वाली टहनियों पर एंडोसल्फान 0.05 प्रतिशत (300 मिली. थायोडान/एंडोसिल/हिलडान/ एंडोमास 35 ई.सी.) या मोनोक्रोटोफ़ॉस 0.036 प्रतिशत (200 मिली. मासक्रांन/मैक्रोफ़ॉस/ न्युवाक्रांन/ मोनोसिल 36 डब्ल्यू.एस.सी.) या डाइमैथोएट 0.03 प्रतिशत (200 मिली. रोगर 30 ई.सी.) या साइपरमैथरिन 0.01 प्रतिशत (200 मिली. रिपकार्ड 10 ई.सी.) का छिड़काव करें। छिड़काव अगस्त माह में करें तथा यदि आवश्यकता हो तो 20 दिन बाद पुन: छिड़काव करें। सावधानी: मुरझाई हुई टहनियों को निकाल कर नष्ट कर दें। |
6. बार्क ईटिंग कैटरपिलर (छाल भक्षी सुंडियां): रिबन के भीतर ये सुंडियां तने और तने की छाल को नुकसान पहुंचाती हैं। |
सुंडियों के रिबन को साफ़ करें और शाखाओं तथा तने को 0.1 प्रतिशत मिथाइल पैराथियान से (2 मिली. मैटासिड 50 ई.सी. प्रति लीटर पानी) फरवरी-मार्च और फिर सितम्बर-अक्टूबर में उपचारित करें। |
7. फूट फ्लाई (फल मक्खी) |
गुठलीदार फलों पर लगने वाली फल मक्खी के लिए दिए गए उपायों का प्रयोग करें। |
8. जाला बनाने वाला कीट: इस कीट की सुंडियां पत्तों पर आक्रमण करती हैं। ये पत्तों को आपस में जोड़ कर जाला बना देती हैं तथा इन्हें खाती हैं। परिणामस्वरूप पत्ते सूख जाते हैं तथा वृक्ष कमजोर पड़ जाते हैं। आक्रमण जून माह में आरम्भ हो जाता है परन्तु मानसून के बाद इसका अधिक आक्रमण नजर आता है। |
एक लम्बे डंडे पर बोरी का टुकड़ा बाँध कर जालों को नष्ट कर दें। सितम्बर माह के प्रथम सप्ताह में कार्बेरिल 0.1 प्रतिशत (400 ग्राम सेविन 50 डब्ल्यू पी.) या साइपरमैथरिन 0.01 प्रतिशत (200 मिली. रिपकार्ड 10 ई.सी.) या मिथाईल पैराथियाँन 0.05 प्रतिशत (200 मिली. मैटासिड 50 ई.सी.) का छिड़काव करें। नोट: नया बागीचा लगाते समय पौधों के बीच उचित दूरी रखें। |
बीमारियाँ
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नर्सरी क्षेत्र को गोबर की खाद मिलाने व सिंचाई करने के पश्चात मई से जुलाई के दौरान 45 दिनों के लिए पारदर्शी पोलीथीन से ढक दें (25 माइक्रांन या 100 गेज मोटा) जिसे पौध लगाने से पहले हटा दें। |
2. एंथ्रेक्नोज (कोलैटोट्राइकम गलोइओसपोरियोडस): पौधे के सभी भागों में जैसे कि पत्तियों, टहनियों और फलों पर इस रोग के लक्षण दिखाई पड़ते है, गहरे भूरे रंग के अंदर क तरफ दबे हुए धब्बे पड़ जाते हैं। नई टहनियां ऊपरी भाग से मुरझाने लगती हैं। बौर भी मुरझाने लगते हैं और फल टूट कर गिरने लगते हैं। 3. चूर्णी फफूंद (ओडियम मेंजीफेरी): आम के फूलों या बौर, कलियों और फल डंडियों पर सफेद से राख के रंग के चूर्णिल धब्बे पड़ते हैं। यह फफूंद नई पत्तियों पर मार्च-अप्रैल के महीनों में फैलता है। |
2. बचाव के लिए फरवरी-अप्रैल और सितम्बर में बोर्डो मिक्सचर (1600 ग्राम कॉपर सल्फेट + 1600 ग्राम चूना या कैप्टान (600 ग्राम) का घोल बनाकर दो से तीन छिड़काव 15-20 दिनों के अंतराल पर करें। घुलनशील सल्फर (1000 ग्राम) या कैराथेन (100 मिली.) या कार्बेन्डाजिम (100 मिली.) या ट्राईडिमोरफ (200 मिली.) या बीटरटानोल (100 ग्राम) या हैग जाकोनाजोल (100मिली.) या माइक्लोबयूटानिल (100 ग्राम) पानी में घोल बनाकर फूल खिलने से पहले तथा दूसरी बार फल स्थापित होने तथा फल मटर के दाने का हो जाने पर तीन छिड़काव करें। |
4. आम के फूल व पत्तों का गुच्छा रोग (फ्यूजोरियम मोनिलेफोरमी): प्रभावित पौधों में फूल या कुर मोटा हो जाता है, उसका गुच्छा बन जाता है जो बहुत समय तक पेड़ पर ऐसे ही लटके रहते हैं और उनमें फल नहीं लगते। इसी तरह नर्सरी के पौधों में व बड़े पौधों में एक ही स्थान से कई छोटे-छोटे लम्बे पत्ते निकलते हैं जो गुच्छे का रूप ले लेते हैं व पौधों की बढौतरी को प्रभावित करते हैं। |
2. पेड़ पर पोटाशियम मैटाबाईसल्फाईट (के एम.एस. 120 ग्राम/200 ली. पानी) अक्टूबर में छिड़काव करें। जनवरी में इस छिड़काव को दोहरायें या नैपथालिन एसिटिक एसिड (40 ग्राम/200 लीटर पानी) सितम्बर या अक्टूबर में छिडकें। |
5. आम का डाईबैंक (वाटरियोडिपलोडिया थियोब्रोमे): यह रोग नये तथा पुराने दोनों ही तरह के पौधों को नुकसान पहुंचाता है। प्रारम्भ में टहनियों के पत्ते चमक खो देते हैं। प्रभावित टहनियों से पत्ते गिर जाते हैं, टहनियां ऊपर से सूख कर पूरी सूख जाती हैं कलम किया हुआ ऊपर का भाग मुर्झा जाता है या फिर सूख जाता है। टहनियों में जगह-जगह गोंद भी निकलता है। |
2. बोर्डो मिश्रण या कॉपर ऑक्सी-क्लोराईड (600 ग्राम) का छिड़काव सर्दी के आरम्भ में करें ताकि तने व टहनियों की छाल फफूंदनाशी के घोल से अच्छी तरह भींग जाये। मार्च तथा सितम्बर महीनों में दो छिड़काव पुन: करें। |
6. पत्तों का चितकबरा होना: (जिंक की कमी के कारण) – अधिक प्रभावित पौधे पर पत्ते कम चौड़े और नोकदार बन जाते हैं। फल भी छोटे, सख्त तथा सूखे रह जाते हैं। कली का विकास भी देरी से होता है। |
पौधों पर जिंक सल्फेट (100 ग्राम/200 लीटर पानी) का छिड़काव करें। |
स्त्रोत: कृषि विभाग, भारत सरकार
अंतिम बार संशोधित : 3/3/2020
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